नौला पेयजल की उपलब्धता हेतु पत्थरों से निर्मित एक ऐसी संरचना है, जिसमें सबसे नीचे एक वर्ग फुट चौकोर सीढ़ीनुमा क्रमबद्ध पत्थरों की पंक्ति जिसे स्थानीय भाषा में ‘पाटा’ कहा जाता है, से प्रारम्भ होकर ऊपर की ओर आकार में बढ़ते हुए लगभग 8-10 पाटे होते हैं, सबसे ऊपर का पाटा लगभग एक डेढ़ मीटर चौड़ाई-लम्बाई व कहीं-कहीं पर ये बड़े भी होते हैं, नौला के बाह्य भाग में प्रायः तीन ओर दीवाल होती है। कहीं-कहीं पर दो ओर ही दीवालें होती हैं। ऊपर गुम्बदनुमा छत होती है।
अधिकांश नौलों की छतें चौड़े किस्म के पत्थरों जिन्हें ‘पटाल’ कहा जाता है, से ढँकी रहती है। नौला के भीतर की दीवालों पर किसी-न-किसी देवता की मूर्ति विराजमान रहती है। अधिकांश नौलों में प्रायः बड़े-बड़े पत्थरों को बिछाकर आँगन बना हुआ दिखता है। बाहरी गन्दगी को रोकने एवं पर्दे के रूप में नौलों में पत्थरों की चाहरदीवारी भी अधिकांशतया बनी हुई पाई जाती है।
नौला हमारी प्राचीन धरोहर के साथ-साथ हमारे पूर्वजों की पर्यावरण के प्रति जागरुकता को भी दर्शाते हैं। प्रत्येक नौले के पास किसी-न-किसी प्रजाति का वृक्ष अवश्य होता है, गरम घाटियों के आस-पास के नौलों में पीपल, बड़ आदि का पेड़ तो ऊँचाई वाले क्षेत्रों में बांज, देवदार आदि के पेड़ नजर आते हैं।
पूर्व से ही कई दानशील प्रवृत्ति के लोगों, राजाओं आदि के द्वारा देवालयों के समीप, नगरों के मध्य तथा पैदल मार्गों के आस-पास तथा ग्रामीण क्षेत्रों में नौलों का निर्माण किया जाता रहा है। प्राचीन समय के बने कई ऐतिहासिक महत्त्व के नौले आज भी कुमाऊँ क्षेत्र में उपलब्ध हैं। यद्यपि ये नौले कहीं-कहीं साधारण तो कहीं-कहीं पर वास्तु शिल्प के अनुसार एवं स्थापत्य, संस्कृति, धार्मिक रीति के अनुसार हमारे समाज के लिये आईना हैं।
चम्पावत का बालेश्वर मन्दिर स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। सन 1420 में राजा उघानचन्द द्वारा निर्मित कराया गया था। इस मन्दिर के पास बालेश्वर का नौला सन 1272 में राजा थोरचन्द द्वारा बनाया गया था। जहाँ अन्य नौलों में विष्णु आदि देवताओं की मूर्तियाँ होती हैं, इस नौले में भगवान बुद्ध की मूर्ति है।
चम्पावत नगर के उत्तर दिशा में ढ़कना गाँव के आगे घने देवदार जंगलों के आगे लगने वाले बांज के जंगल में एक हथिया नौला आज भी स्थापत्य कला प्रेमियों के लिये आकर्षण का केन्द्र है। जनश्रुति के अनुसार एक शिल्पी के माध्यम से किसी राजा ने कहीं कोई बेजोड़ रचना बनवाई थी, उस रचना को पुनः कहीं और न बनाया जाये इस कारण शिल्पी के दाएँ हाथ को कटवा दिया गया। शिल्पी द्वारा एक हाथ से ही पुनः उससे अच्छी रचना के रूप में इस नौले का निर्माण किया गया था, यद्यपि यह नौला भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है, लेकिन वीरान जगह होने के कारण इस नौले की दुर्दशा को देखकर दुख होता है।
जनपद चम्पावत में ही लोहाघाट के समीप पाटन पाटनी ग्राम में कालसन मन्दिर के समीप बना हुआ पाटन का नौला भी स्थापत्य कला का अनूठा उदाहरण है। यह नौला भी 14वीं सदी के आस-पास निर्मित बताया जाता है। पाटन नौला में सामने की ओर विष्णु की मूर्ति, दाईं ओर गणेश एवं बाईं ओर सम्भवतः वरुण की मूर्ति काले पत्थर पर आकर्षक रूप से बनाई गई है।
लोहाघाट-चम्पावत के मध्य मानेश्वर नामक जगह पर भगवान शिव का मन्दिर ऊँचाई पर स्थित है। मन्दिर परिसर में स्वच्छ जल का एक नौला है। जनश्रुति के अनुसार पांडव जब वनवास में थे, तो श्राद्ध की तिथि आ गई। इस हेतु पांडवों को मानसरोवर के जल की आवश्यकता थी, जिस कारण अर्जुन ने बाण से इसी मानेश्वर नौले पर जमीन से मानसरोवर का जल उपलब्ध करा दिया। इसके अतिरिक्त जनपद चम्पावत में अनेक नौले हैं।
जनपद पिथौरागढ़ के प्रसिद्ध कालिका मन्दिर, गंगोलीहाट के पास स्थित जान्हवी (भागीरथी) नौला 12वीं सदी में निर्मित होना बताया जाता है। इस क्षेत्र में इस नौले की काफी प्रसिद्धि है। जनपद पिथौरागढ़ के बेरीनाग क्षेत्र में पुगेंश्वर का नौला आकार में काफी बड़ा है। इसमें स्नान हेतु पर्याप्त स्थान है। जनपद बागेश्वर में कत्यूरी राजाओं के शासनकाल सातवीं सदी में बनाया गया बद्रीनाथ जी का नौला सबसे पुराने नौलों में बताया जाता है।
चम्पावत से चन्द राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा स्थानान्तरित होने के बाद कुमाऊँ का सबसे मुख्य शहर अल्मोड़ा तत्कालीन गतिविधियों का केन्द्र रहा। अल्मोड़ा शहर को यदि नौलों का शहर कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अल्मोड़ा में प्रायः प्रत्येक मोहल्ले में कोई-न-कोई नौला प्रसिद्ध है। हाथी नौला, कपिना नौला, दुगालखोला का नौला आदि काफी प्रसिद्ध हैं।
आज नौलों का महत्त्व लोगों को तब याद आता है, जब सरकारी पेयजल पाइप लाइनों में नियमित आपूर्ति नहीं होती। ग्रामीण क्षेत्रों में नौलों की दुर्दशा का एक कारण पर्वतीय गाँवों से लोगों का पलायन है। इसके अतिरिक्त विभिन्न नौलों के आस-पास वर्तमान में चल रहे भवन, मार्ग निर्माण आदि से भी नौलों को क्षति होती है। नौलों के आस-पास पाये जाने वाले पेड़ों का कटान, भूकम्प, भूगर्भीय हलचलें भी नौलों के पेयजल स्रोत को नुकसान पहुँचा रही है।
ऐसी स्थिति में पर्वतीय क्षेत्र के नौले जो वर्षों से हमारे समाज में किसी-न-किसी प्रकार जुड़े हुए थे, आज सूखते जा रहे हैं। इनको बचाने के लिये प्रबुद्ध नागरिकों को आगे आकर इन अनमोल प्राचीन धरोहरों को सुरक्षित रखने हेतु पूर्ण समर्पण के साथ प्रयास करने होंगे।
अपने अनुभवों के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इन प्राचीन जल स्रोतों के संरक्षण हेतु सर्वप्रथम जन सहयोग से नौलों की नियमित रूप से साफ-सफाई करनी होगी ताकि नौलों के अन्दर एवं आस-पास उग आई शैवाल, लाइकेन, मौस, फर्न आदि वनस्पतियाँ जो पानी एवं नौलों की दीवालों पत्थरों आदि हेतु हानिकारक है, को हटाकर पानी की गुणवत्ता बनाई रखी जा सके। जल संरक्षण एवं जल संग्रहण हेतु नौलों के आस-पास 20-25 मीटर के क्षेत्र में बांज, बुरांश, रिंगाल आदि के सदाबहार पेड़ों को रोपित कर संरक्षित करना होगा।
नौलों के ह्रास का कारण हमारी भौतिकतावादी संस्कृति है। जहाँ हम विकास के नाम पर भूमिगत पाइप लाइनों को घर के अधिकांश कमरों में जलापूर्ति हेतु लाये हैं। इससे प्रकृति पर हमारी निर्भरता कम कर रही है। अतः नौला जैसी प्राचीन धरोहर जो हमारे जीवन की मूल आवश्यकताओं से जुड़ी है, को संरक्षित करना होगा। यदि समय रहते समाज में इनके प्रति सही सोच पैदा नहीं हुई तो नौला भी अतीत का हिस्सा बन जाएँगे।
लेखक चम्पावत कलेक्ट्रेट में प्रशासनिक अधिकारी हैं।
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