मूलतः जैविक प्रदेश उत्तराखंड का कृषि विभाग किसानों को रासायनिक उर्वरक मुफ्त में बाँट रहा है। बगैर किसी सार्वजनिक चर्चा या सूचना के यह प्रसाद ‘पोषक सुरक्षा हेतु तदन्य मोटा अनाज विकास पहल’ के अंतर्गत चुपचाप बाँटा जा रहा है। किसानों को प्रदर्शन के तौर पर डी.ए.पी., यूरिया, जिंक जैसे रासायनिक उर्वरकों के मिनीकिट मुफ्त दिए जा रहे हैं। 2011-2012 के लिए पूरे उत्तराखण्ड में मंडुवा के रु. 3 लाख (प्रति हे. रु. 3000) व झंगोरा के रु. 13.60 लाख (प्रति हे. रु. 2000) मूल्य के मिनीकिट दिए जाने हैं। इस खरीफ के मौसम से उत्तराखण्ड के छः जिलों में यह योजना शुरू की गयी है। पहल का कथित उद्देश्य मंडुवा (कोदा) व झंगोरा का उत्पादन बढ़ाना है। पर यह तय है कि इससे मिट्टी व पानी के प्रदूषण के साथ बीजों की विविधता व उत्पादकता का तथा फसलों पर आत्मनिर्भरता व खाद्य सुरक्षा का ह्रास होगा। जिस खेती को किसान अब तक नैसर्गिक तौर पर, लगभग बगैर किसी खर्च के करते आए हैं, उस पर उनका नियंत्रण जाता रहेगा। ‘मोटा अनाज विकास पहल’ हू ब हू हरित क्रान्ति के ही स्वरूप पर ढली हुई है। लगता है हमारी सरकारें हरित क्रान्ति के दुष्प्रभाव को समझी नहीं हैं।
16 राज्यों व एक संघीय प्रदेश में चलाई जा रही राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की ‘मोटा अनाज विकास पहल’ चार पोषक अनाजों पर केन्द्रित है- ज्वार, बाजरा, मडुवा व लघु अनाज जैसे झंगोरा, कुटकी आदि। यह कार्यक्रम उन जिलों में चलाया जाना है, जहाँ ये अनाज व्यापक क्षेत्र में उगाये तो जाते हैं पर उनकी उत्पादकता औसत राष्ट्रीय उत्पादन से कम है। प्रथम वर्ष 2011-2012 के लिए इसमें 300 करोड़ रुपये का प्रावधान है। उत्तराखण्ड में यह पहल पौड़ी व अल्मोड़ा जिलों में मडुवा (कोदा) और अल्मोड़ा, चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी, टिहरी व उत्तरकाशी में झंगोरा पर की जा रही है। मंडुवा का औसत राष्ट्रीय उत्पादन 1226 किलो प्रति हेक्टर (आधार वर्ष 2006-2007) है जो कि अल्मोड़ा (1200 किलो/हे.) व पौड़ी (1068 किलो/हे.) के औसत उत्पादन से कुछ ही अधिक है। उधर झंगोरा के औसत राष्ट्रीय उत्पादन 475 किलो प्रति हेक्टर की तुलना में अल्मोड़ा की उत्पादकता 996 किलो, चमोली की 1372 किलो, रुद्रप्रयाग की 1146, पौड़ी की 1072, टिहरी की 1250 तथा उत्तरकाशी की 1245 किलो प्रति हेक्टर है। जब उत्तराखण्ड में सभी जगह झंगोरा की उत्पादकता औसत राष्ट्रीय उत्पादन से दो से तीन गुना है तो इस कार्यक्रम को चलाने की जरूरत ही क्यों पड़ी ? अब तक स्थानीय किसान बगैर किसी सरकारी मदद या हस्तक्षेप के इन अनाजों में अच्छी उत्पादकता लेते आए हैं और उसमें आत्मनिर्भर हैं तो इस कृषि को न छेड़ा जाना ही बेहतर होता। मंडुवा की उत्पादकता भी यदि औसत राष्ट्रीय उत्पादन से अंश भर कम है तो इसलिये कि पिछले कुछ दशकों से मंडुवा खाना हेय माना जाने लगा था, जिससे वह कम उगाया जाने लगा। लेकिन इधर के कुछ सालों से मडुवा की पौष्टिकता को लेकर पुनः जागरूकता दिखी है। उसका उत्पादन बढ़ाने के लिये उसे बस जरा सा प्रोत्साहन की जरूरत है।
ऐसे में इस ‘पहल’ को लेकर यह शंका बिल्कुल वाजिब है कि इसे निर्यात की दृष्टि से थोपा जा रहा है। जापान जैसे देशों में मंडुवा के प्रति रुचि बढ़ने के कारण इसकी खेती में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों व संकर बीजों का जबरन प्रवेश आवश्यक लग रहा है। इसके पीछे रासायनिक उर्वरक व बीज कम्पनियों का ही हाथ होने की संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। खुले बाजार में असीम मुनाफा देख कर स्थानीय लोगों को निर्यात के लिये ललचाते हुए उनकी आत्मनिर्भरता व खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करना समझदारी का काम नहीं है।
हरित क्रान्ति केवल सिंचित खेती के लिए ही नियोजित थी। पर मडुवा-झंगोरा तो असिंचित भूमि में ही उगाए जाते हैं। यही उनकी खासियत है। हाशिए पर पड़ी कमजोर जमीन, जिसमें शायद ही कभी रासायनिक उर्वरक डाला गया होगा, पर नाममात्र के बाहरी निवेश के ये अच्छी पैदावर दे जाते हैं। अब इस योजना के अंतर्गत रासायनिकों को डालने से मिट्टी दुष्प्रभावित होगी और उसके भीतरी सूक्ष्म पोषण तत्वों का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ेगा। जमीन की उर्वरता का तीव्र ह्रास होगा। पंजाब से लेकर तमिलनाडु तक हरित क्रान्ति ने यही किया है।
‘तदन्य मोटा अनाज विकास पहल’ में किसानों को इन अनाजों के अधिक उपज देने वाले व संकर किस्मों के बीज भी दिए जाएंगे। उत्तराखण्ड में रु 34 लाख मूल्य के 3370 क्विंटल ऐसे बीज तैयार करने की योजना है। संकर के लिए रु. 3000 प्रति क्विंटल व अधिक उपज किस्म के लिए रु. 1000 प्रति क्विंटल प्रोत्साहन देने का भी प्रावधान है। इसमें 75 प्रतिशत किसानों को व 25 प्रतिशत बीज उत्पादक एजेन्सियों को दिया जाएगा, ताकि किसान येन-केन प्रकारेण इन बीजों को लेना शुरू करें। हमारे किसानों ने आदिकाल से ही मंडुवा-झंगोरा की उत्पादकता बनाये रखी है। उनकी बेहतर प्रजातियाँ भी विकसित की हैं। ‘बीज बचाओ आंदोलन’ ने मंडुवा की 12 और झंगोरा की 8 ऐसी उत्कृष्ट प्रजातियाँ संरक्षित की हैं, जिन्हें किसान आज भी उगाते आ रहे हैं। विभाग के पास अभी बीज न होने के कारण इस पहल के तहत अभी टिहरी जिले में झंगोरा के कोई बीज नहीं दिए जा रहे हैं। गो.ब. पंत कृषि व तकनीकी विश्वविद्यालय, पंतनगर ने नैनीताल जनपद स्थित अपने मझेड़ा फील्ड स्टेशन में झंगोरा की एक प्रजाति विकसित कर उसे प्रदर्शन के तौर पर लोगों में बाँटा। परंतु कम स्वाद तथा चारा कम होने के कारण लोगों में उसे लेकर कोई उत्साह नहीं जगा। इस योजना में संकर व अन्य किस्मों के बीजों का बाँटा जाना चिंताजनक है। इसी रणनीति के तहत देश में हरित क्रान्ति लाकर बीज संपदा व संप्रभुता को खत्म किया गया था और रासायनिक कंपनियों को असीमित मुनाफा दिया गया था। ऐसे बीज दीर्घकालिक नहीं होते और प्रति वर्ष उत्पादकता खोते रहने के कारण वे किसानों को एक आर्थिक कुचक्र में फँसा देते हैं। लगता है कि ‘तदन्य मोटा अनाज विकास पहल’ भी सरकार का वैसा ही एक कार्यक्रम है, जिसमें कुछ समय तक किसानों को मुफ्त में बीज और रसायन बाँटे जायेंगे जब उनके खेतों को रसायनों की लत लग चुकी होगी, तब उन्हें सब कुछ महंगी दरों पर बाजार से खरीद कर लाना पड़ेगा।
देश में पिछले कुछ समय से पारम्परिक अनाज पुनर्स्थापित हो रहे हैं। मंडुवा-झंगोरा उत्तराखण्ड की समृद्ध जैव विविधता व उसकी बहु-फसल बारानाजा कृषि पद्धति का हिस्सा है। क्या हमारी सरकार इस आत्मनिर्भरता को पूरे होशोहवाश में नष्ट कर रही है ?
16 राज्यों व एक संघीय प्रदेश में चलाई जा रही राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की ‘मोटा अनाज विकास पहल’ चार पोषक अनाजों पर केन्द्रित है- ज्वार, बाजरा, मडुवा व लघु अनाज जैसे झंगोरा, कुटकी आदि। यह कार्यक्रम उन जिलों में चलाया जाना है, जहाँ ये अनाज व्यापक क्षेत्र में उगाये तो जाते हैं पर उनकी उत्पादकता औसत राष्ट्रीय उत्पादन से कम है। प्रथम वर्ष 2011-2012 के लिए इसमें 300 करोड़ रुपये का प्रावधान है। उत्तराखण्ड में यह पहल पौड़ी व अल्मोड़ा जिलों में मडुवा (कोदा) और अल्मोड़ा, चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी, टिहरी व उत्तरकाशी में झंगोरा पर की जा रही है। मंडुवा का औसत राष्ट्रीय उत्पादन 1226 किलो प्रति हेक्टर (आधार वर्ष 2006-2007) है जो कि अल्मोड़ा (1200 किलो/हे.) व पौड़ी (1068 किलो/हे.) के औसत उत्पादन से कुछ ही अधिक है। उधर झंगोरा के औसत राष्ट्रीय उत्पादन 475 किलो प्रति हेक्टर की तुलना में अल्मोड़ा की उत्पादकता 996 किलो, चमोली की 1372 किलो, रुद्रप्रयाग की 1146, पौड़ी की 1072, टिहरी की 1250 तथा उत्तरकाशी की 1245 किलो प्रति हेक्टर है। जब उत्तराखण्ड में सभी जगह झंगोरा की उत्पादकता औसत राष्ट्रीय उत्पादन से दो से तीन गुना है तो इस कार्यक्रम को चलाने की जरूरत ही क्यों पड़ी ? अब तक स्थानीय किसान बगैर किसी सरकारी मदद या हस्तक्षेप के इन अनाजों में अच्छी उत्पादकता लेते आए हैं और उसमें आत्मनिर्भर हैं तो इस कृषि को न छेड़ा जाना ही बेहतर होता। मंडुवा की उत्पादकता भी यदि औसत राष्ट्रीय उत्पादन से अंश भर कम है तो इसलिये कि पिछले कुछ दशकों से मंडुवा खाना हेय माना जाने लगा था, जिससे वह कम उगाया जाने लगा। लेकिन इधर के कुछ सालों से मडुवा की पौष्टिकता को लेकर पुनः जागरूकता दिखी है। उसका उत्पादन बढ़ाने के लिये उसे बस जरा सा प्रोत्साहन की जरूरत है।
ऐसे में इस ‘पहल’ को लेकर यह शंका बिल्कुल वाजिब है कि इसे निर्यात की दृष्टि से थोपा जा रहा है। जापान जैसे देशों में मंडुवा के प्रति रुचि बढ़ने के कारण इसकी खेती में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों व संकर बीजों का जबरन प्रवेश आवश्यक लग रहा है। इसके पीछे रासायनिक उर्वरक व बीज कम्पनियों का ही हाथ होने की संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। खुले बाजार में असीम मुनाफा देख कर स्थानीय लोगों को निर्यात के लिये ललचाते हुए उनकी आत्मनिर्भरता व खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करना समझदारी का काम नहीं है।
हरित क्रान्ति केवल सिंचित खेती के लिए ही नियोजित थी। पर मडुवा-झंगोरा तो असिंचित भूमि में ही उगाए जाते हैं। यही उनकी खासियत है। हाशिए पर पड़ी कमजोर जमीन, जिसमें शायद ही कभी रासायनिक उर्वरक डाला गया होगा, पर नाममात्र के बाहरी निवेश के ये अच्छी पैदावर दे जाते हैं। अब इस योजना के अंतर्गत रासायनिकों को डालने से मिट्टी दुष्प्रभावित होगी और उसके भीतरी सूक्ष्म पोषण तत्वों का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ेगा। जमीन की उर्वरता का तीव्र ह्रास होगा। पंजाब से लेकर तमिलनाडु तक हरित क्रान्ति ने यही किया है।
‘तदन्य मोटा अनाज विकास पहल’ में किसानों को इन अनाजों के अधिक उपज देने वाले व संकर किस्मों के बीज भी दिए जाएंगे। उत्तराखण्ड में रु 34 लाख मूल्य के 3370 क्विंटल ऐसे बीज तैयार करने की योजना है। संकर के लिए रु. 3000 प्रति क्विंटल व अधिक उपज किस्म के लिए रु. 1000 प्रति क्विंटल प्रोत्साहन देने का भी प्रावधान है। इसमें 75 प्रतिशत किसानों को व 25 प्रतिशत बीज उत्पादक एजेन्सियों को दिया जाएगा, ताकि किसान येन-केन प्रकारेण इन बीजों को लेना शुरू करें। हमारे किसानों ने आदिकाल से ही मंडुवा-झंगोरा की उत्पादकता बनाये रखी है। उनकी बेहतर प्रजातियाँ भी विकसित की हैं। ‘बीज बचाओ आंदोलन’ ने मंडुवा की 12 और झंगोरा की 8 ऐसी उत्कृष्ट प्रजातियाँ संरक्षित की हैं, जिन्हें किसान आज भी उगाते आ रहे हैं। विभाग के पास अभी बीज न होने के कारण इस पहल के तहत अभी टिहरी जिले में झंगोरा के कोई बीज नहीं दिए जा रहे हैं। गो.ब. पंत कृषि व तकनीकी विश्वविद्यालय, पंतनगर ने नैनीताल जनपद स्थित अपने मझेड़ा फील्ड स्टेशन में झंगोरा की एक प्रजाति विकसित कर उसे प्रदर्शन के तौर पर लोगों में बाँटा। परंतु कम स्वाद तथा चारा कम होने के कारण लोगों में उसे लेकर कोई उत्साह नहीं जगा। इस योजना में संकर व अन्य किस्मों के बीजों का बाँटा जाना चिंताजनक है। इसी रणनीति के तहत देश में हरित क्रान्ति लाकर बीज संपदा व संप्रभुता को खत्म किया गया था और रासायनिक कंपनियों को असीमित मुनाफा दिया गया था। ऐसे बीज दीर्घकालिक नहीं होते और प्रति वर्ष उत्पादकता खोते रहने के कारण वे किसानों को एक आर्थिक कुचक्र में फँसा देते हैं। लगता है कि ‘तदन्य मोटा अनाज विकास पहल’ भी सरकार का वैसा ही एक कार्यक्रम है, जिसमें कुछ समय तक किसानों को मुफ्त में बीज और रसायन बाँटे जायेंगे जब उनके खेतों को रसायनों की लत लग चुकी होगी, तब उन्हें सब कुछ महंगी दरों पर बाजार से खरीद कर लाना पड़ेगा।
देश में पिछले कुछ समय से पारम्परिक अनाज पुनर्स्थापित हो रहे हैं। मंडुवा-झंगोरा उत्तराखण्ड की समृद्ध जैव विविधता व उसकी बहु-फसल बारानाजा कृषि पद्धति का हिस्सा है। क्या हमारी सरकार इस आत्मनिर्भरता को पूरे होशोहवाश में नष्ट कर रही है ?
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