एक बार अप्रैल और मई के महीने में मुझे व्यक्तिगत कारणों से उदयपुर (राजस्थान), इन्दौर, उज्जैन, देवास जैसे मालव अंचल में जाने का काम पड़ा। वहाँ चारों ओर जल का संकट छाया हुआ था। पानी को लेकर आये दिन लड़ाई-झगड़े व प्रदर्शन हो रहे थे। पलायन की स्थिति भी थी। ऐसा क्यों हुआ? क्या ऐसा प्रकृति द्वारा अपने हाथ खींच लेने के कारण हुआ?
वास्तव में प्रकृति हमें हमारी आवश्यकता के अनुसार पर्याप्त देती है और सदा से देती भी आई है। परन्तु हमारे ही द्वारा लालच के कारण प्रकृति के संसाधनों का दुरुपयोग होता रहा है। हमने वर्षाजल के संचय और संरक्षण के लिये आज तक कभी आवश्यक सावधानियाँ नहीं बरती। यद्यपि हमारे धर्मग्रंथ स्कंध पुराण, गरुड़ पुराण इस सम्बन्ध में समुचित आदेश दे चुके हैं।
भारतीय धर्मशास्त्रों में नारदमुनि की अनेक कथाएँ हैं। वास्तव में वे दुनिया भर में भ्रमण कर मानव जाति के कल्याण की कामना करते आये हैं। मानवीय कष्टों, दुखों के निवारण के लिये वे भगवान और ऋष्षि-मुनियों से कल्याण मार्ग पूछते आये हैं और मानव जाति को समाधान का रास्ता भी सुझाते रहे हैं। वास्तव में वे ईश्वर के सच्चे अर्थों में सम्पर्क अधिकारी है। वह सम्पर्क का यह कल्याणकारी कार्य नारायण के मंत्र जाप के साथ करते आये हैं।
उनके इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य का विवरण नारद पुराण में मिलता है। नारद पुराण में मानव कल्याण के लिये लगभग सभी विषय हैं पर उसमें जल संचय और संरक्षण के लिये तो स्पष्ट निर्देश हैं। आधुनिक काल में जल संचय और संरक्षण के लिये शासकीय योजनाओं द्वारा जो तालाब, पोखर और कूप निर्माण का कार्य किया जा रहा है उसको करने के लिये स्पष्ट रूप से आदेश है। नारद पुराण में इस सम्बन्ध में एक रोचक कथा भी है। नारद पुराण कहता है- ‘‘यदि मनुष्य परोपकारी न हो तो वह मरे हुए के समान है।’’ इसलिये वह जल संरक्षण के लिये छोटे-से-छोटे कार्य करने के लिये भी प्रेरणा देता है और इसके लिये वह एक चिड़िया के प्रयत्न का उल्लेख करता है। शुद्ध जल की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए नारद पुराण जल को अशुद्ध करने को भी दण्डनीय घोषित करता है। नारद पुराण में जल संचय और संरक्षण के सम्बन्ध में जो कथा कही गई है। वह इस प्रकार से है-
एक बार की बात है, राजा वीरभद्र अपने मंत्रियों आदि के साथ शिकार खेलने के लिये घने वन में गए। दोपहर तक शिकार खोजते-खोजते वह थक कर चूर हो गए। तभी वहाँ राजा को एक छोटी सी पोखर दिखाई दी। वह सूख गई थी। उसे देख मंत्री ने सोचा, पृथ्वी के ऊपर शिखर पर यह पोखर किसने बनाई है। आखिर यहाँ जल कैसे प्राप्त होगा।
उस पोखर को खोदा गया। एक हाथ खोदने पर ही उसमें जल दिखाई पड़ा। तब उस जल को पीकर राजा वीरभद्र, उसके मंत्री बुद्धि सागर आदि तृप्त हुए। मंत्री ने सुझाव दिया कि इस पोखर के आस-पास पक्का बाँध बना दिया जाये। इस पोखर में कभी वर्षाजल रहा होगा। राजा ने मंत्री का सुझाव स्वीकार किया और मंत्री बुद्धि सागर के नेतृत्व में जलाशय बनकर तैयार हो गया। इस जलाशय से प्यासे पथिक, वनचर पशु-पक्षी अपनी प्यास बुझाने लगे। इस जलाशय निर्माण के कारण राजा और मंत्री स्वर्ग के अधिकारी हो गए।
कैसे खोदा गया था वह छोटा पोखर
जो पोखर राजा को पृथ्वी के शिखर पर दिखाई दिया था, उसका निर्माण कैसे हुआ था, उसकी कथा भी रोचक है। सैकतगिरी के इस शिखर पर लावक नामक एक चिड़िया ने अपनी प्यास बुझाने के लिये अपनी चोंच से दो अंगुल भूमि खोदी थी। इसके बाद वराह ने अपनी प्यास बुझाने के लिये अपनी थूथन से एक हाथ भर गड्ढा कर दिया था। तब इस गड्ढे में एक हाथ पानी रहने लगा था। उसके बाद काली नामक एक पक्षी ने उस गड्ढे को खोदकर उसे दो हाथ गहरा कर दिया। तब उस गड्ढे में दो माह तक जल रहने लगा और पशु-पक्षी उससे अपनी प्यास बुझाने लगे। इसके कुछ वर्ष बाद एक हाथी ने उस गड्ढे को देखा। हाथी ने उस गड्ढे को तीन हाथ गहरा कर दिया। अब इसमें और अधिक जल एकत्र होने लगा और तीन माह तक जल रहने लगा। काफी दिनों तक उसमें जल एकत्र रहने के बाद धीरे-धीरे वह गड्ढा सूख गया। तब राजा ने उसे देखा और गड्ढा खुदवाकर जल प्राप्त किया और सभी तृप्त हुए।
कहानी का सन्देश स्पष्ट है। एक छोटी सी चिड़िया द्वारा खोदी गई दो अंगुल भूमि भी कालान्तर में अपनी आवश्यकता के अनुसार विकास की गति पकड़ती गई और बाद में उसने विशाल जलाशय का रूप ले लिया। यहाँ स्पष्ट है कि आवश्यकता सिर्फ अच्छे और भले कार्य प्रारम्भ करने की है फिर तो समय के साथ आवश्यकतानुसार उसमें चरणबद्ध विकास होता ही चला जाता है। यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि प्रथम प्रयास किसने किया। छोटी सी चिड़िया का प्रयास भी कालान्तर में महत्त्वपूर्ण हो जाता है। महत्त्व केवल प्रयास करने का है। प्रयास के साथ भाव भी महत्त्वपूर्ण है। यदि जल सरंक्षण जैसे पवित्र कार्य के लिये यह कदम हो तो फिर इसके रुकने का प्रश्न ही नहीं है। इस सम्बन्ध में कहा गया है ‘‘जो सरसों बराबर मिट्टी भी तालाब से निकाल कर बाहर फेंकता है वह अनेक पापों से मुक्त हो सौ वर्षों तक स्वर्ग में निवास करता है।’’ यहाँ प्रश्न छोटे या बड़े प्रयासों का नहीं, भाव का है।
इसी तरह यह प्रयास कितने समय तक किया गया, यह भी महत्त्वपूर्ण नहीं है। नारद पुराण का स्पष्ट मत है- ‘‘जो मनुष्य एक दिन में भूमि पर जल का संग्रह एवं संरक्षण कर लेता है, वह सब पापों में छूट कर सौ वर्ष तक स्वर्ग लोक में निवास करता है।”
प्रश्न यह भी नहीं है कि कौन यह प्रयास कर रहा है? वह निर्धन है या समृद्ध? कोई भी प्रयास हो, कैसा भी प्रयास हो वह समान अर्थ रखता है। नारद पुराण में यह भी कहा गया है- ‘‘धनी पुरुष पत्थर से मन्दिर या तालाब बनवाएँ और दरिद्र पुरुष मिट्टी से बनाएँ तो भी उन दोनों को समान फल मिलता है।’’
जलदान है महादान
नारद पुराण जलदान को महादान घोषित करता है। आज के सन्दर्भ में तो यह समय की आवश्यकता है। नारद पुराण कहता है- ‘‘अन्न और जल के समान दूसरा कोई दान न हुआ है, और न होगा।’’ जलदान महादान क्यों है, इसे इस प्रकार स्पष्ट किया गया है- ‘‘जलदान तत्काल सन्तुष्ट करने वाला है। इसलिये ब्रह्मवादी मनुष्यों ने जलदान को अन्न्दान से श्रेष्ठ बताया है। महापातक अथवा उपपातकों से युक्त मनुष्य भी यदि जलदान करने वाला है, तो वह उन सब पापों से मुक्त जो जाता है।’’
तब क्या है कर्तव्य
जल संग्रह और संरक्षण के सम्बन्ध में नारद पुराण के पूर्व भाग प्रथम पाद में हमारे कर्तव्यों का स्पष्ट निर्देश है। नारद पुराण में कहा गया है- ‘‘जो स्वयं अथवा दूसरे के द्वारा तालाब बनवाता है, उसके पुण्य की संख्या बताना असम्भव है। राजन! यदि एक राही भी पोखर का जल पी ले तो बनाने वाले पुरुषों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं।’’ आगे कहा गया है- ‘‘जो मनुष्य अपनी शक्ति भर तालाब खुदाने में सहायता करता है, जो उससे सन्तुष्ट होकर प्रेरणा देता है, वह भी पोखर बनाने का पुण्य फल पा लेता है। जिस पर देवता अथवा गुरूजन सन्तुष्ट होते हैं, वह पोखर खुदवाने के पुण्य फल का भागी होता है। यह सनातन श्रुति है।’’
आज जब विश्व व्यापी जल संकट के बादल हर कहीं दिखाई दे रहे हैं तब हमारी लोकतांत्रिक सरकारें भी जल सरंक्षण के लिये खेतों में तालाब और पोखरें बनाने के कार्यक्रम हाथ में ले रही हैं। इसके लिये सहायता और अनुदान भी दे रही हैं और जिन क्षेत्रों में हर जल संचय और संरक्षण पर कार्य हुआ है वहाँ हरियाली भी आई है। जलस्तर बढ़ा है, उत्पादन बढ़ा है और पानी पीने के लिये पर्याप्त जल भी उपलब्ध हुआ है। नारद पुराण ने जलदान के इस महत्त्वपूर्ण अभियान के सन्दर्भ में वर्षों पूर्व यह सन्देश दे दिया था।
नारद पुराण नए तालाब और पोखर की आवश्यकता ही प्रतिपादित नहीं करता वह पुराने तालाब और पोखरों को सुधार कर उन्हें उपयोगी बनाने पर भी बल देता है। नारद पुराण में कहा गया है- ‘‘जलाशय बनवाना आदि कार्य पूर्त कहा जाता है। विशेषतः बगीचा, किसी देवता के लिये बने हुए तालाब, बावड़ी, कुआँ, पोखर और देवमन्दिर ये यदि गिरते या नष्ट होते हों तो जो इनका उद्धार कराता है, वह पूर्त कर्म का फल भोगता है।’’
क्या न करें
जल की स्वच्छता का भी अपना महत्त्व है। स्वच्छ जल ही हमारे शरीर को स्वस्थ्य व शक्तिशाली बनाता है। अतः ऐसा कोई भी कार्य जिससे पर्यावरण खराब हो, बीमारियों की आशंका हो वह आज भी दण्डनीय है। नारद पुराण में भी इसे दण्डनीय माना गया है। नारद पुराण कहता है- ‘‘जो जल और देव मन्दिर में तथा उसके समीप अपना मल का त्याग करता है। वह भ्रूण हत्या के समान अत्यन्त भयानक पाप को प्राप्त होता है।’’
इसी तरह से नारद पुराण में पर्यावरण के नुकसान को भी पाप मानते हुए दण्डनीय घोषित किया गया है। वास्तव में जल को अशुद्ध करने, जलाशयों को तोड़ने आदि अपराधों का विशद वर्णन गरुड़ पुराण में दिया गया है। इसमें समय की आवश्यकता के अनुसार जल के संचय, संरक्षण और पर्यावरण की रक्षा के लिये भी स्पष्ट निर्देश दिये गए हैं। इसलिये हमें जल संचय व संरक्षण के लिये तो प्रयत्न करना ही है, जल के उपयोग में मितव्ययता पर भी ध्यान देना है।
जल कितना ही उपलब्ध हो, किन्तु हमें उसका उपयोग सावधानीपूर्वक केवल आवश्यकता भर ही करना है। वह केवल हमारे लिये नहीं है। हमें प्राकृतिक साधनों का उपयोग इस प्रकार करना है कि हमारी आगामी पीढ़ी हमें कोसे नहीं। यह पृथ्वी हमें सब कुछ देती है, किन्तु हमें हमारी आवश्यकता भर ही लेने का अधिकार है, दुरुपयोग और अपव्यय करने का नहीं।
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