नए साल में सरकार ने नमामि गंगे कार्यक्रम को शुरू कर दिया। कई सारे घोषित–अघोषित लक्ष्यों लेकर शुरू किये गए इस कार्यक्रम में रोडमैप और समय सीमा का कोई जिक्र नहीं है। कोई नहीं जानता कि नमामि गंगे कब अपने लक्ष्य तक पहुँचेगा। उमा भारती ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा वाहिनी सेना तैनात कर इसकी शुरुआत की।
गंगा वाहिनी में पूर्व सैनिकों को जोड़ा गया है जो गंगा में डाले जा रहे प्रदूषण पर नजर रखेंगे। मंत्रालय जल्दी ही कानपुर, वाराणसी और इलाहाबाद में भी गंगा वाहिनी की नियुक्ति करेगा। गंगा किनारे के 200 गाँवों की सीवेज व्यवस्था को सीचेवाल मॉडल की तर्ज पर विकसित किया जाएगा।
सन्त सीचेवाल ने सामुदायिक सहयोग से पंजाब की कालीबेई नदी को गन्दे नाले से पवित्र नदी में तब्दील कर दिया था। डेढ़ साल बाद भी हम काम करने के बजाय प्रतीकों का सहारा ले रहे हैं। जब एक्शन प्लान चरम पर होना चाहिए था तब सरकार पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत कर रही है।
गंगा किनारे हजारों गाँव है, सिर्फ कुछ गाँवों में निवेश करने से गंगा कैसे साफ होगी? क्या सरकार अगले चुनावों में जाने से पहले यह कहकर बचना चाहती है कि हमने शुरुआत तो की।
अब तय हुआ है कि गंगा को निर्मल बनाने के लिये सरकार सार्वजनिक-निजी-साझेदारी (पीपीपी) मॉडल का सहारा लेगी। इस मॉडल के तहत निजी क्षेत्र या केन्द्र और राज्य के विभिन्न विभागों को साथ लेकर विशेष कम्पनियाँ बनाई जाएँगी। ये कम्पनियाँ घरेलू और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले अपशिष्ट जल के प्रबन्धन और इस्तेमाल का काम करेंगी।
इस काम के लिये बनने वाली विशेष कम्पनियाँ भूजल के सीमित इस्तेमाल पर जोर देंगी। लेकिन इस मॉडल में यह कहीं नहीं कहा गया कि गंगा में पानी बरकरार रखने के लिये क्या किया जाएगा। क्या कानपुर जैसे शहरों को यह कहा जा सकता है कि वे अपने पानी का इन्तज़ाम खुद करे और गंगा पर बोझ ना बनें। ये कम्पनियाँ अपशिष्ट जल को साफ भी करेगी।
यह एक कदम है अपशिष्ट जल के बाजार की दिशा में। जो सुनने में तो अच्छा लगता है लेकिन जब पर्यावरण संरक्षण बाजार के हाथों में आ जाये तो चिन्ता स्वाभाविक है। हालांकि पीपीपी मॉडल की जरूरत भी शायद इसलिये पड़ी क्योंकि गंगा और यमुना में बने सीवेज प्लांटों में से 30 फीसद तो बन्द ही है और बाकि भी दिशा-निर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं।
इन्ही सवालों से बचने के लिये गंगा मंत्रालय ने अपनी सालाना प्रेस वार्ता को रद्द कर दिया और एकतरफा संवाद करते हुए जय गंगे का नारा लगाता हुआ पत्र जारी कर दिया। प्रेस वार्ता होती ये सवाल भी होते कि किन जगहों पर गंगा अब तक साफ हुई और अब तक गंगा बेसिन के लिये निर्धारित बजट को खर्च क्यों नहीं किया गया?
केन्द्र ने गंगा पर होने वाले सभी परियोजनाओं सौ फीसद वित्त पोषित करने की घोषणा कर चुकी है। राज्य सरकारों का नज़रिया गंगा लेकर उपेक्षित ही है। लेकिन खर्च का पूरा अंश देने के बाद भी राज्य सरकारों से नमामि गंगे पर सहयोग की उम्मीद कम ही है, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य नमामि गंगा में राजनीति को तौल रहे हैं।
सरकार प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के डिस्चार्ज पॉइंट पर यंत्र लगाने जा रही है ताकि 15 मिनट से ज्यादा डिस्चार्ज होने पर कानूनी कार्रवाई की जा सके। डिस्चार्ज पॉइंट पर यंत्र लगाने वाले अनेक प्रयास अब तक देखरेख के अभाव में दम तोड़ चुके हैं। इस तरह के यंत्र की खरीदी में भ्रष्टाचार की भारी आशंका रहती है और सप्लायर कम्पनियाँ भी खरीदी बाद की सेवा में विफल रहती है।
कुल मिलाकर नमामि गंगे में स्पष्ट दिशा-निर्देशों का पूरी तरह अभाव है उसमें सुप्रीम कोर्ट दायर याचिकाओं की चिन्ता भी नजर नहीं आ रही। कोर्ट कई बार सरकार को गंगा के हित में सीधी कार्रवाई करने का आदेश दे चुका है लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी के चलते ना तो टिनरीज हट पा रही हैं और ना ही आश्रम और रिहायशी अवैध निर्माणों को ही हटाया जा सका है।
एक बात और, लगातार प्रयासों के अभाव में कालीबेई फिर प्रदूषित हो चुकी है, सीचेवाल की स्वच्छ नदी अब मंचों का विषय है। उमा भारती को समझना होगा, ये नारों, संकल्पों, वादों और प्रतीकों से आगे बढ़ने का समय है। कुछ कर दिखाने का समय है।
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