पहाड़ से लेकर मैदान तक दुनिया का शायद ही कोई ऐसा कोना होगा जहां अनियमित विकास के कारण ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का असर न दिख रहा हो। इन्हीं कारणों का परिणाम जल संकट के रूप में भी देखने को मिल रहा है, जिसका सामना भारत के 60 करोड़ से ज्यादा लोग कर रहे हैं। जल संकट न केवल लोगों के जीवन और आजीविका को प्रभावित कर रहा है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत असर डालता है और किसी भी देश में विकास की गति को धीमा कर देता है। ऐसे में, जिस गति से वर्तमान में जल संकट बढ़ रहा है, यदि ऐसा ही रहा तो भविष्य में अर्थव्यवस्था का एक बहुत बड़ा हिस्सा जल संकट से निपटने में खर्च होगा। तो वहीं, हर साल करोड़ों लोगों की असमय मौत भी पानी से जुड़ी विभिन्न समस्याओं के कारण हो सकती है, लेकिन वर्तमान और भविष्य में जल संकट की विकरालता को देखते हुए कई लोग पानी की हर बूंद को सहेजने के कार्य में जुटे हुए हैं। इन लोगों के प्रयासों का धरातल पर असर भी देखने को मिल रहा है। इन्हीं लोगों में उत्तराखंड़ के नैनीताल जिले के रामगढ़ ब्लाॅक के ‘बची सिंह बिष्ट’ भी शामिल हैं, जिनके प्रयासों से नैनीताल के 6 गांवों में पानी का संकट खत्म हो गया है।
उत्तराखंड़ सैंकड़ों नदियों का उद्गम स्थल है। गंगा, यमुना और सरस्वती जैसी पवित्र नदियों का जन्म उत्तराखंड़ में हिमालय की वादियों में हुआ है। इसी राज्य के नैनीताल को सरोवर नगरी भी कहा जाता है, जो प्रारंभ से ही पानीदार रहा है, लेकिन जलवायु परिवर्तन और अनियमित विकास के कारण नौले-धारे सहित विभिन्न प्राकृतिक स्रोत सूख गए या सूखने की कगार पर हैं। इससे नदियों और झीलों का आकार सिकुड़ गया और पहाड़ों पर भी लोगों के सामने जल संकट खड़ा हो गया। जिससे नैनीताल भी अछूता नहीं रहा। नैनीताल रामगढ़ ब्लाॅक में भी अधिकांश जलस्रोत सूख गए या फिर इन स्रोतों से सभी लोगों को पर्याप्त पानी भी नहीं मिल पाता था। यहां तक कि नैनी झील का जलस्तर में कम हो रहा है।
पानी की किल्लत के कारण पानी और खेती प्रभावित हुई। इसका असर ग्रामीणों की आजीविका पर पड़ा। स्रोतों में पानी कम होते ही महिलाओं के लिए समस्या ज्यादा बढ़ी थी, क्योंकि उन्हें ही घरों से दूर पानी लेने के लिए जाना पड़ता था, जो उनके स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा था। एक प्रकार से ‘बिन पानी सब सून’ हो रहा था और गांव की खुशहाली जा रही थी। समस्या में पड़े लोगों की समस्या को जंगलों के कटान और अवैध कब्जों ने और बढ़ा दिया था। लोगों की समस्या को बढ़ता देख बची सिंह बिष्ट से लोगों की समस्या का समाधान करने का संकल्प लिया और वर्ष 1992 में जनमैत्री संगठन बनाया। हालांकि कि ये संगठन कहीं भी पंजीकृत नहीं है और न ही किसी प्रकार का एनजीओ है, लेकिन इसके अंतर्गत लोगों के सामुहिक श्रमदान से ही जल, जंगल और जमीन को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। प्रकृति के संरक्षण के लिए जनता की इसी मित्रता के कारण इस संगठन का नाम ‘जनमैत्री’ रखा गया है।
बची सिंह बिष्ट ने बताया कि ग्राम विकास पर महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने जनमैत्री संगठन शुरू किया था। हमने लोगों को कहा था कि वें मजदूरी करें, खेती-बागवानी करें, घोड़ा चलाएं या कोई अपना रोजगार करें, लेकिन उनसे उम्मीद की जाती है कि अपने परिवेश को संरक्षित करने के लिये कुछ वक्त दें। इसके लिए सभी गांवों के लोगों से अभियान के विषय पर चर्चा की जाती है और लोगों से श्रमदान करने के लिए कहा जाता है। श्रमदान ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है और ऐसे ही मिलजुलकर हम सभी की परेशानियों को दूर करने का प्रयास करते हैं।
जनमैत्री संगठन के माध्यम से कई वर्षों तक महिला सशक्तिकरण, स्वच्छता, जंगल संरक्षण और पहाड़ को अतिक्रमण (अवैध कब्जा) से बचाने का कार्य किया, लेकिन बढ़ते जल संकट को देखते हुए वर्ष 2015 में जल संरक्षण का काम भी शुरू किया। दरअसल, वर्ष 2015 में ‘उत्तराखंड सेवा निधि’ संस्था ने नैनीताल में सूपी के पास पाटा गांव को जलवायु परिवर्तन के अध्ययन के लिए चुना था। इसी दौरान बची सिंह बिष्ट की इनसे मुलाकात हुई। संगठन ने सभी ग्रामीणों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बारे में बताया और साथ ही जल संकट की समस्या से परिचित कराते हुए समाधान भी बताया। फिर इन्हीं लोगों से प्ररेणा लेकर जनमैत्री संगठन के लोगों ने सेवा निधि के साथ मिलकर जल संरक्षण का कार्य करने का निर्णय लिया। सभी ने मिलकर जल संरक्षण के ऐसे सस्ते उपाय खोजे जिससे प्राकृतिक स्रोतों और बारिश के पानी को संरक्षित किया जा सके। फिर जल संरक्षण के लिए बची सिंह और उनकी टीम ने तालाब बनाने की शुरूआत पाटा गांव से की। गांव में पाॅलिथीन से कृत्रिम तालाब बनाए गए।
उन्होंने बताया कि पाटा गांव में 90 परिवार रहते हैं। हर परिवार के लिए एक-एक कृत्रिम तालाब बनाने का निर्णय लिया। इसके लिए लोगों के घरों के आसपास या फिर खेतों में छोटे-छोटे गड्ढ़े बनाए गए। इसके बाद गड्ढ़ों में पाॅलिथीन बिछाई गई। घरों की छत से नीचे आने वाले पाइप को कृत्रित तालाब से जोड़ दिया। साथ ही प्राकृतिक जलस्रोतों से भी पानी के पाइप को जोड़ा गया। तालाब भरने पर पानी बर्बाद न हो, इसके लिए हर तालाब को पाइप के माध्यम से जोड़ दिया। इससे एक तालाब भरने पर पाइप लगाकर दूसरे घर का तालाब भर जाता है। अब तक 6 गांवों में इस प्रकार के 414 छोटे कृत्रिम तालाब बनाए जा चुके हैं। एक तालाब में 10 से 12 हजार लीटर पानी जमा होता है। यानी 75 लाख लीटर पानी का संरक्षण हो रहा है।
रामगढ़ के इलाके में वर्ष 2017 के दौरान काफी जल संकट गहराया था, लेकिन गांव में पानी आते ही लोगों की खुशहाली भी लौट रही है। हालांकि जिनता सरल जल संरक्षण का कार्य पहाड़ों पर दिख रहा है, उतना सरल ये था नहीं, किंतु महिलाओं के सहयोग से ये कार्य सरल और सफल हुआ। दरअसल, मैदान हो या पहाड़, पानी का न आना महिलाओं के लिए ज्यादा जिम्मेदारियां लेकर आता है। उनका आधा दिन केवल पानी का बदोबस्त करने में ही चला जाता है, लेकिन पहाड़ पर ये समस्या ज्यादा बढ़ जाती है और पथरीले रास्तों पर चलना ज्यादा थकावट भरा होता है। रास्तें में जंगली जानवरों का डर भी बना रहता है। ऐसे में इस पूरे अभियान में महिलाओं सहित सभी लोगों ने श्रमदान किया, लेकिन मोर्चा महिलाओं ने ही संभाले रखा। हर काम में महिलाएं बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं।
बची सिंह ने बताया कि पहले की अपेक्षा अब गांव में फसल उत्पादन अधिक होने लगा है, लेकिन वे अब पहाड़ों से निकलने वाली छोटी नदियों को बचाने का कार्य भी कर रहे हैं। क्योंकि छोटी-छोटी नदियां और जलस्रोत मिलकर बड़ी नदियों में प्रवाह हो बनाए रखते हैं। इसलिए मैं अपनी टीम के साथ नदियों को उनके उद्गम स्थल से ही संरक्षित करने का प्रयास कर रहा हूं।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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