नैनीताल को ढूँढ निकालने वाले बैरन महोदय ने नैनीताल की तीन कारणों से प्रशंसा की थी- स्वच्छ साफ पानी की झील, वन-पशु और नैसर्गिक सौन्दर्य, समय पलट गया। चीनापीक टूट कर गिरा तो ‘फ्लैट्स’ बन गया। विश्वयुद्ध छिड़ा, ज्ञानी-ध्यानी कहते हैं कि इस कारण यहाँ अपने बच्चों के लिये स्कूल अंग्रेजों ने खोले, सेण्ट जोसेफ, शेरवुड, सेण्ट मेरीज, आल सेण्ट्स आज भी चल रहे हैं। फ्लेण्डर्स स्मिथ बिरला विद्या मन्दिर बन गया। वेलेज्ली स्कूल डी. एस. बी. राजकीय विद्यालय और फिर कुमाऊँ विश्वविद्यालय का संघटक महाविद्यालय बना। रॉयल एयर फोर्स ने उसी समय कैम्प्स खोले थे। ब्रुक हिल्स, आर्डवेल आज भी बदलते रूप में खड़े हैं। स्वतंत्रता की पहली लड़ाई की लहर तराई तक ही आई थी। दूसरी व आखिरी लड़ाई की लहर इस ‘ठेठ’ अंग्रेज शहर में जम कर आई। इसके पूर्व मालरोड़ पर हिन्दुस्तानियों का चलना फिरना वर्जित था। नीचे वाली सड़क पर घोड़े, टट्टू और हिन्दुस्तानी चलते थे। ऊपर की सड़क पर साब मेमसाब और मिसी बाबा घूमते थे, ठण्डी सड़क लम्बे समय तक निर्जन रही, नैनीताल में आम हिन्दुस्तानी और अंग्रेज साहबों के घूमने-फिरने का जिक्र जैनेन्द्र जी के ‘अपना-अपना भाग्य’ में आया था। फिर आ गई आजादी! नैनीताल शब्द ‘खुल-जा-सिम-सिम’ की रूमानियत लेकर सामने आया। इस पार प्रिय, भीड़, धूल-धक्कड़ गर्मी है, उस पार नैनीताल होगा (बच्चन जी से क्षमा याचना सहित) गुनगुनाते लोग ऊपर आने लगे। काठगोदाम पार करते ही, बोर्ड कहता है, ‘धीमे चलिए, पर्वतीय सड़क प्रारम्भ होती है,’ देवी के मन्दिर पर ड्राइवर जरा सी धीमी होती गाड़ी से प्रणाम करता है और यात्री देखता है - पहाड़, थिरकती नदी, रंग-बिरंगे पोस्टर, कोहरे का रेला, नैनीताल शुरू हो गया।
पिछले पच्चीस तीस साल में नैनीताल टूरिस्ट डिपार्टमेंट के विज्ञापनों तथा लेखन और फिल्मों के माध्यम से देश के गाँवों तक चला गया है। यहाँ यशपाल के ‘बारह घंटे’ या शिवानी की ‘कृष्णकली’ और अन्य कई उपन्यासों की बात छोड़ दीजिए, धन्यभाग्य नैनीताल के कि गुलशन नन्दा, आदिल रशीद उसे मिले। फिल्मों ने जो ‘खुल जा सिम सिम’ की कहानी ‘मधुमती’, ‘वक्त’, ‘शगुन’ से शुरू की थी, वह ‘कटी पतंग’ या ‘कलाबाज’ पर भी नहीं रूकी। अब जंगल या क्लब के (बतर्ज: हम किसी के कम नहीं) सीन नैनीताल के नाम पर बम्बइया स्टूडियो में ही बनाये जा रहे हैं। कुल मिलाकर, नैनीताल का नाम बिक ही रहा है।
अंग्रेजों ने जो शहर बसाये-अपनाये-कावनपोर से लेकर मसूरी-नैनीताल तक, सबों में अपनी एक अदद मालरोड भारत छोड़ते समय धरोहर रख गये। नैनीताल का बस अड्डा समाप्त होती ही मालरोड़ शुरू हो जाती है। जब हम पढ़ते थे, हर शाम बिना नागा एक चक्कर इसका लगाना अनिवार्य माना जाता था। सफर देवी रेस्टोरेंट, तल्लीताल से नैनी मिष्ठान भण्डार, मल्लीताल तक के बीच रहता था। इसे हम डूरेण्ड लाइन और मैकमोहन लाइन कहते थे। इस यात्रा के लिए तैयारी 3-4 बजे से शुरू हो जाती थी। कोशिश यह होती थी कि इस ‘टहलन’ के समय बड़बाज्यू/कक्का किस्म के लोग कम से कम टकरायें, उन्हें देख कर रास्ता बदलना पड़ता था। कुछ ‘डेंजर जोन्स’ भी थे, जहाँ सारे दिन बुजुर्ग बैठे मिल जाते थे, जैसे मॉडर्न बुक डिपो, अलाइड स्टोर्स के आगे की बेंच, इससे भी हमें बचना होता था, दोस्तों/परिचितों से हाथ मिलाने का फैशन जोर पकड़ चुका था। हाथ मिलाकर, केवल ‘और ?’ कह कर भी काम चल जाता था। जाड़ों में हाथ निकालने में कठिनाई होती थी, केवल सिर हिला कर कुशल पूछ ली जाती थी।
मालरोड पर टहलन अभी भी होती है, लेकिन केवल तल्लीताल, मल्लीताल रिक्शा-स्टैण्ड के बीच ही चलना होता है। दोनों बाजारें शाम तक दबा कर भर जाती हैं। घूमने का अर्थ मशक्कत से हो जाता है, भीड़ से कुश्ती लड़ने सा, कभी-कभार नैनादेवी के मन्दिर की ओर भी जाना हो सकता है। यहाँ भी गुरूद्वारे के आगे जाना ‘जाना’ होता है, टहलना नहीं। अब टहलना कम, खड़े रहना अधिक सरलसा है।
मालरोड में अंग्रेजों के बनाये सारे अन्तर टूट गये हैं, लेकिन कुछ लोग अभी भी नीचे वाली सड़क पर चलना पसंद करते हैं। नाजुक सी पतली मालरोड़ पर कार, जीप, रिक्शों, साइकिलों का लगातार चलता और खूब चलता ट्रैफिक रहता है, वैसे भी इस रूमानी शहर में इधर कुछ ‘जल्द/स्पीड’ के लक्षण आ गये हैं? तभी तो एक नहीं, तीन ‘स्पीड-ब्रेकर’ लगाने पड़ गये। कुछ साल पहले तक आराम से चला जाता था। चढ़ाई पर जाने के लिए डाँडी थी, सड़क पर मन्थर गति से ‘राम रथ’ चलता था। 4-5 साल पहले तक, डाँडी का एक छोटा सा जमाव सी.आर.एस.टी. को जाते रास्ते पर दिख जाता था। अब शायद दो बची हैं। इनमें से भी एक-दो केवल वाइ.डब्ल्यू.सी.ए. जाते रास्ते पर दिखती हैं। ‘राम रथ’ भी आखिरी साँस भर रहा है। केवल सुबह-शाम सब्जी लादे या कार्ड बोर्ड के डिब्बों को खेता दिख जाता है। गर्मियों में इक्का-दुक्का रामरथ बच्चों-औरतों को इधर-उधर ले जाते दिख जाते हैं। वह भी शाम को जब यातायात बन्द होता है। वरना जिन सूनी सड़कों पर बच्चे कपड़ो को सिल कर बनाई बाँल को पैर मारकर खेलते दिखते थे, वहाँ भी लारियाँ चली जाती हैं।
लेकिन नीचे की सड़क पर चलना भी कठिन हो जाता है, कभी सड़क की कीचड़ इसका कारण हो जाती है, कभी नौसिखिये या ‘अधिक सिख लिए’ घुड़सवारों के कारण, यह साल एकाध चोट-चपेट की घटना हो ही जाती है। कभी पैदल चलता, कभी घुड़सवार, कभी घोड़ा चोट खा जाता है।
‘जापानी ढँग’ की बनी किनारी रोड अल्का होटल से एलफिंस्टन होटल तक के रास्ते को अरामदेह बनाती रही। इधर कुछ बदबू फैलने, कुछ रोशनी के सिकुड़ने के कारण इधर से जाना भी मुश्किल सा रहा। एक तरीका और भी था। ‘केहि विधि होय, पानी पर चलना।’
पानी पर चलने की विधि नाव से जुड़ी है। ये केवल मार्च से अक्टूबर तक बहुतायत में पाये जाने वाली सुविधा है, बचपन में इसमें बैठना चोरी छिपे होता था। जब कभी कक्का जी के साथ नाव पर बैठना होता था, हर बच्चे को घर में मुँह न खोलने की सख्त मनाही होती। वरना न बोलने वाली ‘आमा’ की भी डाँट पड़ती थी और बड़बाज्यू की छड़ी बेहद हिलती थी।
अब नाव पर जाना खुलेआम होता है, बशर्ते नाव मिल जाय, गर्मियों में दशहरे के समय नाव में बैठ पाना महँगी लक्जरी है, शेष समय हमारा होता है।
नैनीताल में घोड़े पर बैठ कर फोटो खिंचवाना बेहद लोकप्रिय रहा है, पर नाव में बैठकर फोटो खिंचवाना और भी अधिक लोकप्रिय है। नाव के इस संदर्भ में दो गुण हैं। नाव पर हर मुद्रा में बैठ पोज बनाई जा सकती है, दूसरा लाभ यह होता है कि नाव पर बनाई मुद्रा को केवल नाव वाला ही देख पाता है और वह वक्त-बेवक्त कैमरे का शटर दबा भी सकता है।
वैसे नाव में बैठना फिर भी जोखिम भरा नहीं है, इस बीच ‘याट्स’ सभी के लिए उपलब्ध होने लगी हैं, इन पालदार नावों को भी गोरे साब लाये थे। बाद में इनका प्रयोग भारत के साब लोग करते रहे। इसी तरह से कई परिवर्तन इनमें आये, पहले पाल झक्क सफेद रंग की होती थी। अब रंगीन होती हैं, कुल मिलाकर, ताल में तैरती नावों का चेहरा-मोहरा बदल गया। जनसंख्या भी बढ़ गई, चलाने वाले बदलते चले गये, लेकिन इनके उलटने का डर कम होता चला गया। वैसे भी संकट काल के लिए ट्यूब हर नाव में रहती है, पहले इनकी बाकायदा चैकिंग होती थी। अब भी भरे- अधभरे ट्यूब हर नाव में रहते ही हैं, लेकिन हहर हाल में ‘ताल-मुखी’ दुर्घटनाएँ होती नहीं हैं। यह जरूर है कि हर साल कुछ लोग ताल में डूब जाने दे देते हैं, यहाँ तक कि ताल का बदलता रंग देख लोग कह लेते हैं-ताल बलिदान लेगा।
बिना ताल नैनीताल बेसुर-बेताल ही रहेगा। ताल को दर्पण मान लीजिए, शहर की लगातार बढ़ती जनसंख्या और बनते मकानों का प्रभाव ताल पर देखा जा सकता है।
यथा उदाहरण आज भी पिछले कई सालों की तरह, कैप्टन राम सिंह का बैण्ड गर्मियों में ‘बेडु पाको बारो मासा’ की धुन निकालता है, उसी बैण्ड स्टैंड के ठीक नीचे-अब की बार देख लीजियेगा-झील का लबालब भरा रहने वाला किनारा नीचे आ गया होता है, वहीं खाये गये भुट्टे के अवशेष, बीयर की बोतलें, जूस के टिन, सिगरेट के डिब्बों के अलावा हवाई चप्पल जैसी न खाई जाने वाली वस्तुएँ तैरती थिरकती दिख जाती हैं।
नैनीताल का ताल क्यों सूख रहा है, क्यों ‘बीमार’ है या क्या वाकई में ताल ‘बीमार’ है ? इन प्रश्नों का समाधान देने का ‘मंहगा’ प्रयास होता रहा है, कुछ बातें सरासर अकादमिक हो जाती हैं, कुछ विवादास्पद, लेकिन नैनीताल की झील विजुअल एजुकेशन - ‘चाक्षुष शिक्षा’ का उदाहरण है, दिल्ली जाने वाली एयरकण्डीशन बस और ग्वालदम जाती चल-यार-धक्का-मार ब्राण्ड की के.एम.ओ.यू. वाली गाड़ी देख कर ही दिल्ली और ग्वालदम की स्थिति साफ हो जाती है, ठीक उसी तरह ताल के चारों तरफ उग आये सूखे और फैलते किनारे, ताल का पानी पीते लोगों के पेट की आम बीमारी अपने आप में पूरे ठोस सबूत हैं, ताल इधर बीमार चल रहा है, लेकिन यह ‘बीमार’ नैनीताल शहर का वफादार है, ताल शहर की खूबसूरती को लगभग दो-गुना बढ़ा देता है। हजार बल्बों के हजार प्रतिबिम्ब मुफ्त दे देता है, नैनीताल को देखने का सबसे अच्छा समय शाम सात बजे के बाद शुरू होता है, तब शहर को देखने के लिए मिडिल अयारपाटा-चीनामाल के स्तर पर कचहरी, महाविद्यालय या फिर अमरालय से ऊपर मार्शल काटेज की तरफ जाया जा सकता है।
रात का नैनीताल शहर बेहद खूबसूरत है। दिन के उजाले में कान से कान सटाये खड़े, एक मंजिल पर बेतरतीब दूसरी मंजिल लिये मकान, धुआँ खाई भूरी-काली होती छतें, दिन भर नाक बहाती नालियाँ, साफ झलक जाती हैं।
कुछ साल पहले तक रामजे हॉस्पिटल से ऊपर की ऊँचाईयों पर लोग रहना नहीं चाहते थे तल्लीताल रिक्शा स्टैण्ड से ऊपर जाते समय जंगल शुरू हो जाता था। अब इस सारी सड़क के किनारे कंक्रीट का जंगल उग आया है। स्नोभ्यू के आस-पास के मकानों का किराया स्नोभ्यू जितना ही ऊँचा महसूस होता है।
बचपन में जॉयविला से नीचे पुलिस अस्पताल का हिस्सा, हमारे लिये ‘जंगल’ था, यहाँ डाकू-पुलिस के खेल के अलावा कलम बनाने के लिये, जगह-जगह आग जला, पत्थर फेंक बच्चे साही को दौड़ाते थे, सारी जगह अब छतें दिख जाती हैं।
ऊँचाईयों में जहाँ ‘लगता था ’ कि पहाड़ और जंगल बादलों में खो जाते हैं, जमीन के छोटे-छोटे हिस्सों में मकान ही मकान हैं, फिर भी रहने के लिए उनकी कमी बढ़ती जा रही है। इसलिए और बनेंगे। रास्ते और मकान। अँग्रेज, बुजुर्ग कहा करते थे कि, स्मगलर्स रॉक्स की तरफ के पहाड़ों को लोहे की जंजीरों से बाँध कर रखा था। हम भी कुछ न कुछ करना चाहते हैं, इस साल मिट्टी कटने से रोकने के लिए ईंट बिछाई है। कुछ कहते हैं कि पाला पड़ने पर इस साल जाड़ों में रपटने की सम्भावनाएँ पूरी हैं। प्रकृति भी साथ नहीं दे रही है। अब बर्फ कम गिरती है। यादें शेष हैं। पहले नैनीताल में, यहाँ तक कि बाजार में जमकर बर्फ गिरती थी। अब केवल नैनापीक, स्नोभ्यू और उनके इर्द-गिर्द बरफ पड़ती है। कुछ इक्का-दुक्का बचा-खुचा बर्फ का हिस्सा बैरंग लिफाफे सा नीचे पहुँचता है। अब अधिकांश हिस्सों में ओला या बजरी आती है। जम जाती है। रपटने की सम्भावनायें बराबर बनी रहती हैं।
जितना याददाश्त साथ देती है, नैनीताल छोटा सा था, 999 सीटों वाले ‘विशाल’ सिनेमा का बनना कोई सोच भी नहीं सकता था। ‘कैपिटल’ शहर के लिये बहुत था, नटराज की जगह पर ‘लक्ष्मी/रॉक्सी’ थियेटर था। तल्लीताल की धर्मशाला दो/तीन कमरों की थी।
परिवर्तन आता है, जो था, अच्छा-बुरा सब ले जाता है।
नैनीताल में जम कर परिवर्तन आया। भरमार दफ्तर खुले, तराई में हरित क्रांति आई और नैनीताल की माँग बढ़ी, पब्लिक स्कूल गले तक भर गये। बोट हाउस क्लब की सदस्यता शुल्क और सदस्य दोनों बढ़ गये। ‘केवल वयस्कों के लिये’ ‘वामाचार’ नाटक चला।
पण्डित गोबिन्द बल्लभ पंत की मूर्ति का उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति वी वी गिरि ने किया था। सारा फ्लैट्स भर गया था। अब उतनी भीड़ हर गर्मियों में आराम से मिल जाती है। गत वर्ष दशहरे के दिन लोग रात को होटल भर जाने की वजह से बैण्ड स्टैण्ड, मॉडर्न बुक डिपो से जनता प्रेम तक खिंचे बरामदे, बस स्टेशन तक में सोये रहे। चीनापीक का गिरना वरदान हो गया। सारा शहर फ्लैट्स में सिमट गया। ‘सीजन’ की मात्रा को यहाँ देखा-मापा जा सकता है। चाट, तिब्बती गिफ्ट्स, शॉल, पुलओवर, कार्डीगन, बहुचर्चित ‘बंगला देश’ के कपड़ों की दुकानों के अलावा एयरगन से गुब्बारे फोड़ने, भार लेने, ग्रिप पावर नापने की सुविधायें, चूरन, नानखटाई, भुट्टे, जूस, चना-नमकीन, खीरा, कुल्फी की छाबड़ियाँ यहाँ आ जाती हैं, सारे दिन चहल-पहल रहती है, शाम को बैण्ड स्टेण्ड के आस-पास जमघट, जिस शाम बैण्ड बजता है, टिवस्ट करने वाले बड़े चाव से लोगों का मन बहलाते हैं, पिछले पाँच-सात सालों से गर्मियों में घूमते कव्वाली गाने वाले आने लगे हैं। पिछले साल एक लड़का बिना गाजे-बाजे के रात गये ‘खई के पान बनारस वाला’ (शैली: शेरवुड के पुराने विद्यार्थी अमिताभ बच्चन वाली) गाते नाचता था।
गाड़ी पड़ाव पर, खास तौर पर बारिश के दिनों, पहले मेट भाई गोल घेरा बना, झोड़ा लगा गाते दिख जाते थे, पिछले साल कैपिटल में दो मेट भाई अंग्रेजी पिक्चर देखते मिल गये।
नन्दाष्टमी और होली उल्लास, गीत-नृत्य के त्यौहार रहे। होली के रंग सूखे, गीत रंगीन होेते थे। गीतों का अब पता नहीं, अलबत्ता वार्निश-पेंट होली में जम के लगाया जाने लगा है। नन्दाष्टमी के ‘कौतिक’ में ‘देवी को मन्दिरा, सुरा-सुरा’ पतलून पहने लड़के दिख जाते थे।
तल्लीताल पोस्ट ऑफिस की रेलिंग, फ्लेट्स के किनारे पाँगड़ के नीचे बैठ समय गुजारना अपने आप में एक विधा रही, कुछ नहीं तो ‘रमकणी गिलास में चमकणी चहा’ (अहा, एक घूँट मारते ही आँखों में रोशनी आ जाती होगी। शिवानी अभी भी कभी अपने यात्रा वर्णनों में जिक्र करती होंगी) पीने चौकोट रेस्टोरेंट चले गये। भगत जी की टिकिया, हरदा की पकौड़ी, लुटिया की जलेबी, कुछ गिने-चुने शौक, कभी कभार लड़के मोहनिया को घेर कर गाने सुन लेते थे। उसे मूड आ गया तो सहगल की गजल से लेकर ‘हे जगमाता’ तक गा देता था।
एसप्रेसो कॉफी, पॉपकॉर्न, सॉफ्टी आइसक्रीम (लॉफ्टी भी) शहर में आ कर बस गये हैं। यह बदलाव हर शहर, हर जगह में आया है। बनारस में ट्रैफिक लाइट्स लगीं (भोले की नगरी में रूको-देखो-और चलो ?), लखनऊ में तीतर - बटेर की संख्या कम हुई, पिक्चर हॉल बढ़ गये, गाँवों में ट्रांजिस्टर सारे दिन बज रहा होगा, लेकिन पहाड़ से घिरे, कटोरे के पेंदे में बसे नैनीताल में परिवर्तन आते कुछ अधिक ही दिखा, कारण शायद पूरे शहर का एक निगाह में सामने आ जाना है, सुबह उठ कर घर से बाहर आते ही सारा शहर करीब-करीब दिख ही जाता है- मकान जो मालरोड़ से उठ कर रामजे अस्पताल तक चले गये हैं, ट्रक जिसका ‘हाइवे हॉर्न‘ ऊपर तक सुनाई देता है, मच्छर जो इधर दिखाई देने लगे हैं, बिना मीलों जाकर किसी खास जगह को देखना नैनीताल के लिये कहाँ जरूरी है?
बचपन में बाहर रह कर भी नैनीताल सारे साल याद आता था। जहाँ दिवाली में पटाखा छोड़ने पर पहाड़ जवाब देते हैं, घास छूने से खुजली होती है, पहाड़ों के पीछे कोई कोहरा बना कर ताल की तरफ छोड़ता है, जंगल पार जाते समय थक जाने पर कुछ खाने को मिलता है...।
...फिर यहीं रहना हो गया। पहला दौर पढ़ाई का था। बीच में नौकरियों का सिलसिला रहा। गोरखपुर, दिल्ली से नागदा तक फिर जहाज के पंछी सा वापस, प्रवास के समय पहाड़ की याद पर बातचीत अड़ियल घोड़े सी अड़ती रही। हर शहर में दोस्तों के साथ घूम-फिर कर वहीं टिक जाती रही। दिल्ली, लखनऊ, धनबाद, बम्बई, जयपुर, कोई भी जगह चर्चा का एक ही। तब समझ में आया कि ‘नैनीतालो, नैनीतालो... घूमि आयो रेलो’ (कुछ समझ में नहीं आया तो एक बार दूर से लौटते लड़के गा रहे थे - नैनीताल... नैनीताल, टिनोपाल के विज्ञापन की धुन पर/उससे पहले केएमओयू को कम सेप्टेम्बर की धुन पर गाते सुना था) क्यों लिखा होगा? क्यों लालकुआँ पहुँचने तक बार-बार दरवाजे में खड़े होते हैं, चलती ट्रेन में पहाड़ से आती हवा के स्वागत में लोग खड़े हो जाते हैं ?
पिछले पच्चीस तीस साल में नैनीताल टूरिस्ट डिपार्टमेंट के विज्ञापनों तथा लेखन और फिल्मों के माध्यम से देश के गाँवों तक चला गया है। यहाँ यशपाल के ‘बारह घंटे’ या शिवानी की ‘कृष्णकली’ और अन्य कई उपन्यासों की बात छोड़ दीजिए, धन्यभाग्य नैनीताल के कि गुलशन नन्दा, आदिल रशीद उसे मिले। फिल्मों ने जो ‘खुल जा सिम सिम’ की कहानी ‘मधुमती’, ‘वक्त’, ‘शगुन’ से शुरू की थी, वह ‘कटी पतंग’ या ‘कलाबाज’ पर भी नहीं रूकी। अब जंगल या क्लब के (बतर्ज: हम किसी के कम नहीं) सीन नैनीताल के नाम पर बम्बइया स्टूडियो में ही बनाये जा रहे हैं। कुल मिलाकर, नैनीताल का नाम बिक ही रहा है।
अंग्रेजों ने जो शहर बसाये-अपनाये-कावनपोर से लेकर मसूरी-नैनीताल तक, सबों में अपनी एक अदद मालरोड भारत छोड़ते समय धरोहर रख गये। नैनीताल का बस अड्डा समाप्त होती ही मालरोड़ शुरू हो जाती है। जब हम पढ़ते थे, हर शाम बिना नागा एक चक्कर इसका लगाना अनिवार्य माना जाता था। सफर देवी रेस्टोरेंट, तल्लीताल से नैनी मिष्ठान भण्डार, मल्लीताल तक के बीच रहता था। इसे हम डूरेण्ड लाइन और मैकमोहन लाइन कहते थे। इस यात्रा के लिए तैयारी 3-4 बजे से शुरू हो जाती थी। कोशिश यह होती थी कि इस ‘टहलन’ के समय बड़बाज्यू/कक्का किस्म के लोग कम से कम टकरायें, उन्हें देख कर रास्ता बदलना पड़ता था। कुछ ‘डेंजर जोन्स’ भी थे, जहाँ सारे दिन बुजुर्ग बैठे मिल जाते थे, जैसे मॉडर्न बुक डिपो, अलाइड स्टोर्स के आगे की बेंच, इससे भी हमें बचना होता था, दोस्तों/परिचितों से हाथ मिलाने का फैशन जोर पकड़ चुका था। हाथ मिलाकर, केवल ‘और ?’ कह कर भी काम चल जाता था। जाड़ों में हाथ निकालने में कठिनाई होती थी, केवल सिर हिला कर कुशल पूछ ली जाती थी।
मालरोड पर टहलन अभी भी होती है, लेकिन केवल तल्लीताल, मल्लीताल रिक्शा-स्टैण्ड के बीच ही चलना होता है। दोनों बाजारें शाम तक दबा कर भर जाती हैं। घूमने का अर्थ मशक्कत से हो जाता है, भीड़ से कुश्ती लड़ने सा, कभी-कभार नैनादेवी के मन्दिर की ओर भी जाना हो सकता है। यहाँ भी गुरूद्वारे के आगे जाना ‘जाना’ होता है, टहलना नहीं। अब टहलना कम, खड़े रहना अधिक सरलसा है।
मालरोड में अंग्रेजों के बनाये सारे अन्तर टूट गये हैं, लेकिन कुछ लोग अभी भी नीचे वाली सड़क पर चलना पसंद करते हैं। नाजुक सी पतली मालरोड़ पर कार, जीप, रिक्शों, साइकिलों का लगातार चलता और खूब चलता ट्रैफिक रहता है, वैसे भी इस रूमानी शहर में इधर कुछ ‘जल्द/स्पीड’ के लक्षण आ गये हैं? तभी तो एक नहीं, तीन ‘स्पीड-ब्रेकर’ लगाने पड़ गये। कुछ साल पहले तक आराम से चला जाता था। चढ़ाई पर जाने के लिए डाँडी थी, सड़क पर मन्थर गति से ‘राम रथ’ चलता था। 4-5 साल पहले तक, डाँडी का एक छोटा सा जमाव सी.आर.एस.टी. को जाते रास्ते पर दिख जाता था। अब शायद दो बची हैं। इनमें से भी एक-दो केवल वाइ.डब्ल्यू.सी.ए. जाते रास्ते पर दिखती हैं। ‘राम रथ’ भी आखिरी साँस भर रहा है। केवल सुबह-शाम सब्जी लादे या कार्ड बोर्ड के डिब्बों को खेता दिख जाता है। गर्मियों में इक्का-दुक्का रामरथ बच्चों-औरतों को इधर-उधर ले जाते दिख जाते हैं। वह भी शाम को जब यातायात बन्द होता है। वरना जिन सूनी सड़कों पर बच्चे कपड़ो को सिल कर बनाई बाँल को पैर मारकर खेलते दिखते थे, वहाँ भी लारियाँ चली जाती हैं।
लेकिन नीचे की सड़क पर चलना भी कठिन हो जाता है, कभी सड़क की कीचड़ इसका कारण हो जाती है, कभी नौसिखिये या ‘अधिक सिख लिए’ घुड़सवारों के कारण, यह साल एकाध चोट-चपेट की घटना हो ही जाती है। कभी पैदल चलता, कभी घुड़सवार, कभी घोड़ा चोट खा जाता है।
‘जापानी ढँग’ की बनी किनारी रोड अल्का होटल से एलफिंस्टन होटल तक के रास्ते को अरामदेह बनाती रही। इधर कुछ बदबू फैलने, कुछ रोशनी के सिकुड़ने के कारण इधर से जाना भी मुश्किल सा रहा। एक तरीका और भी था। ‘केहि विधि होय, पानी पर चलना।’
पानी पर चलने की विधि नाव से जुड़ी है। ये केवल मार्च से अक्टूबर तक बहुतायत में पाये जाने वाली सुविधा है, बचपन में इसमें बैठना चोरी छिपे होता था। जब कभी कक्का जी के साथ नाव पर बैठना होता था, हर बच्चे को घर में मुँह न खोलने की सख्त मनाही होती। वरना न बोलने वाली ‘आमा’ की भी डाँट पड़ती थी और बड़बाज्यू की छड़ी बेहद हिलती थी।
अब नाव पर जाना खुलेआम होता है, बशर्ते नाव मिल जाय, गर्मियों में दशहरे के समय नाव में बैठ पाना महँगी लक्जरी है, शेष समय हमारा होता है।
नैनीताल में घोड़े पर बैठ कर फोटो खिंचवाना बेहद लोकप्रिय रहा है, पर नाव में बैठकर फोटो खिंचवाना और भी अधिक लोकप्रिय है। नाव के इस संदर्भ में दो गुण हैं। नाव पर हर मुद्रा में बैठ पोज बनाई जा सकती है, दूसरा लाभ यह होता है कि नाव पर बनाई मुद्रा को केवल नाव वाला ही देख पाता है और वह वक्त-बेवक्त कैमरे का शटर दबा भी सकता है।
वैसे नाव में बैठना फिर भी जोखिम भरा नहीं है, इस बीच ‘याट्स’ सभी के लिए उपलब्ध होने लगी हैं, इन पालदार नावों को भी गोरे साब लाये थे। बाद में इनका प्रयोग भारत के साब लोग करते रहे। इसी तरह से कई परिवर्तन इनमें आये, पहले पाल झक्क सफेद रंग की होती थी। अब रंगीन होती हैं, कुल मिलाकर, ताल में तैरती नावों का चेहरा-मोहरा बदल गया। जनसंख्या भी बढ़ गई, चलाने वाले बदलते चले गये, लेकिन इनके उलटने का डर कम होता चला गया। वैसे भी संकट काल के लिए ट्यूब हर नाव में रहती है, पहले इनकी बाकायदा चैकिंग होती थी। अब भी भरे- अधभरे ट्यूब हर नाव में रहते ही हैं, लेकिन हहर हाल में ‘ताल-मुखी’ दुर्घटनाएँ होती नहीं हैं। यह जरूर है कि हर साल कुछ लोग ताल में डूब जाने दे देते हैं, यहाँ तक कि ताल का बदलता रंग देख लोग कह लेते हैं-ताल बलिदान लेगा।
बिना ताल नैनीताल बेसुर-बेताल ही रहेगा। ताल को दर्पण मान लीजिए, शहर की लगातार बढ़ती जनसंख्या और बनते मकानों का प्रभाव ताल पर देखा जा सकता है।
यथा उदाहरण आज भी पिछले कई सालों की तरह, कैप्टन राम सिंह का बैण्ड गर्मियों में ‘बेडु पाको बारो मासा’ की धुन निकालता है, उसी बैण्ड स्टैंड के ठीक नीचे-अब की बार देख लीजियेगा-झील का लबालब भरा रहने वाला किनारा नीचे आ गया होता है, वहीं खाये गये भुट्टे के अवशेष, बीयर की बोतलें, जूस के टिन, सिगरेट के डिब्बों के अलावा हवाई चप्पल जैसी न खाई जाने वाली वस्तुएँ तैरती थिरकती दिख जाती हैं।
नैनीताल का ताल क्यों सूख रहा है, क्यों ‘बीमार’ है या क्या वाकई में ताल ‘बीमार’ है ? इन प्रश्नों का समाधान देने का ‘मंहगा’ प्रयास होता रहा है, कुछ बातें सरासर अकादमिक हो जाती हैं, कुछ विवादास्पद, लेकिन नैनीताल की झील विजुअल एजुकेशन - ‘चाक्षुष शिक्षा’ का उदाहरण है, दिल्ली जाने वाली एयरकण्डीशन बस और ग्वालदम जाती चल-यार-धक्का-मार ब्राण्ड की के.एम.ओ.यू. वाली गाड़ी देख कर ही दिल्ली और ग्वालदम की स्थिति साफ हो जाती है, ठीक उसी तरह ताल के चारों तरफ उग आये सूखे और फैलते किनारे, ताल का पानी पीते लोगों के पेट की आम बीमारी अपने आप में पूरे ठोस सबूत हैं, ताल इधर बीमार चल रहा है, लेकिन यह ‘बीमार’ नैनीताल शहर का वफादार है, ताल शहर की खूबसूरती को लगभग दो-गुना बढ़ा देता है। हजार बल्बों के हजार प्रतिबिम्ब मुफ्त दे देता है, नैनीताल को देखने का सबसे अच्छा समय शाम सात बजे के बाद शुरू होता है, तब शहर को देखने के लिए मिडिल अयारपाटा-चीनामाल के स्तर पर कचहरी, महाविद्यालय या फिर अमरालय से ऊपर मार्शल काटेज की तरफ जाया जा सकता है।
रात का नैनीताल शहर बेहद खूबसूरत है। दिन के उजाले में कान से कान सटाये खड़े, एक मंजिल पर बेतरतीब दूसरी मंजिल लिये मकान, धुआँ खाई भूरी-काली होती छतें, दिन भर नाक बहाती नालियाँ, साफ झलक जाती हैं।
कुछ साल पहले तक रामजे हॉस्पिटल से ऊपर की ऊँचाईयों पर लोग रहना नहीं चाहते थे तल्लीताल रिक्शा स्टैण्ड से ऊपर जाते समय जंगल शुरू हो जाता था। अब इस सारी सड़क के किनारे कंक्रीट का जंगल उग आया है। स्नोभ्यू के आस-पास के मकानों का किराया स्नोभ्यू जितना ही ऊँचा महसूस होता है।
बचपन में जॉयविला से नीचे पुलिस अस्पताल का हिस्सा, हमारे लिये ‘जंगल’ था, यहाँ डाकू-पुलिस के खेल के अलावा कलम बनाने के लिये, जगह-जगह आग जला, पत्थर फेंक बच्चे साही को दौड़ाते थे, सारी जगह अब छतें दिख जाती हैं।
ऊँचाईयों में जहाँ ‘लगता था ’ कि पहाड़ और जंगल बादलों में खो जाते हैं, जमीन के छोटे-छोटे हिस्सों में मकान ही मकान हैं, फिर भी रहने के लिए उनकी कमी बढ़ती जा रही है। इसलिए और बनेंगे। रास्ते और मकान। अँग्रेज, बुजुर्ग कहा करते थे कि, स्मगलर्स रॉक्स की तरफ के पहाड़ों को लोहे की जंजीरों से बाँध कर रखा था। हम भी कुछ न कुछ करना चाहते हैं, इस साल मिट्टी कटने से रोकने के लिए ईंट बिछाई है। कुछ कहते हैं कि पाला पड़ने पर इस साल जाड़ों में रपटने की सम्भावनाएँ पूरी हैं। प्रकृति भी साथ नहीं दे रही है। अब बर्फ कम गिरती है। यादें शेष हैं। पहले नैनीताल में, यहाँ तक कि बाजार में जमकर बर्फ गिरती थी। अब केवल नैनापीक, स्नोभ्यू और उनके इर्द-गिर्द बरफ पड़ती है। कुछ इक्का-दुक्का बचा-खुचा बर्फ का हिस्सा बैरंग लिफाफे सा नीचे पहुँचता है। अब अधिकांश हिस्सों में ओला या बजरी आती है। जम जाती है। रपटने की सम्भावनायें बराबर बनी रहती हैं।
जितना याददाश्त साथ देती है, नैनीताल छोटा सा था, 999 सीटों वाले ‘विशाल’ सिनेमा का बनना कोई सोच भी नहीं सकता था। ‘कैपिटल’ शहर के लिये बहुत था, नटराज की जगह पर ‘लक्ष्मी/रॉक्सी’ थियेटर था। तल्लीताल की धर्मशाला दो/तीन कमरों की थी।
परिवर्तन आता है, जो था, अच्छा-बुरा सब ले जाता है।
नैनीताल में जम कर परिवर्तन आया। भरमार दफ्तर खुले, तराई में हरित क्रांति आई और नैनीताल की माँग बढ़ी, पब्लिक स्कूल गले तक भर गये। बोट हाउस क्लब की सदस्यता शुल्क और सदस्य दोनों बढ़ गये। ‘केवल वयस्कों के लिये’ ‘वामाचार’ नाटक चला।
पण्डित गोबिन्द बल्लभ पंत की मूर्ति का उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति वी वी गिरि ने किया था। सारा फ्लैट्स भर गया था। अब उतनी भीड़ हर गर्मियों में आराम से मिल जाती है। गत वर्ष दशहरे के दिन लोग रात को होटल भर जाने की वजह से बैण्ड स्टैण्ड, मॉडर्न बुक डिपो से जनता प्रेम तक खिंचे बरामदे, बस स्टेशन तक में सोये रहे। चीनापीक का गिरना वरदान हो गया। सारा शहर फ्लैट्स में सिमट गया। ‘सीजन’ की मात्रा को यहाँ देखा-मापा जा सकता है। चाट, तिब्बती गिफ्ट्स, शॉल, पुलओवर, कार्डीगन, बहुचर्चित ‘बंगला देश’ के कपड़ों की दुकानों के अलावा एयरगन से गुब्बारे फोड़ने, भार लेने, ग्रिप पावर नापने की सुविधायें, चूरन, नानखटाई, भुट्टे, जूस, चना-नमकीन, खीरा, कुल्फी की छाबड़ियाँ यहाँ आ जाती हैं, सारे दिन चहल-पहल रहती है, शाम को बैण्ड स्टेण्ड के आस-पास जमघट, जिस शाम बैण्ड बजता है, टिवस्ट करने वाले बड़े चाव से लोगों का मन बहलाते हैं, पिछले पाँच-सात सालों से गर्मियों में घूमते कव्वाली गाने वाले आने लगे हैं। पिछले साल एक लड़का बिना गाजे-बाजे के रात गये ‘खई के पान बनारस वाला’ (शैली: शेरवुड के पुराने विद्यार्थी अमिताभ बच्चन वाली) गाते नाचता था।
गाड़ी पड़ाव पर, खास तौर पर बारिश के दिनों, पहले मेट भाई गोल घेरा बना, झोड़ा लगा गाते दिख जाते थे, पिछले साल कैपिटल में दो मेट भाई अंग्रेजी पिक्चर देखते मिल गये।
नन्दाष्टमी और होली उल्लास, गीत-नृत्य के त्यौहार रहे। होली के रंग सूखे, गीत रंगीन होेते थे। गीतों का अब पता नहीं, अलबत्ता वार्निश-पेंट होली में जम के लगाया जाने लगा है। नन्दाष्टमी के ‘कौतिक’ में ‘देवी को मन्दिरा, सुरा-सुरा’ पतलून पहने लड़के दिख जाते थे।
तल्लीताल पोस्ट ऑफिस की रेलिंग, फ्लेट्स के किनारे पाँगड़ के नीचे बैठ समय गुजारना अपने आप में एक विधा रही, कुछ नहीं तो ‘रमकणी गिलास में चमकणी चहा’ (अहा, एक घूँट मारते ही आँखों में रोशनी आ जाती होगी। शिवानी अभी भी कभी अपने यात्रा वर्णनों में जिक्र करती होंगी) पीने चौकोट रेस्टोरेंट चले गये। भगत जी की टिकिया, हरदा की पकौड़ी, लुटिया की जलेबी, कुछ गिने-चुने शौक, कभी कभार लड़के मोहनिया को घेर कर गाने सुन लेते थे। उसे मूड आ गया तो सहगल की गजल से लेकर ‘हे जगमाता’ तक गा देता था।
एसप्रेसो कॉफी, पॉपकॉर्न, सॉफ्टी आइसक्रीम (लॉफ्टी भी) शहर में आ कर बस गये हैं। यह बदलाव हर शहर, हर जगह में आया है। बनारस में ट्रैफिक लाइट्स लगीं (भोले की नगरी में रूको-देखो-और चलो ?), लखनऊ में तीतर - बटेर की संख्या कम हुई, पिक्चर हॉल बढ़ गये, गाँवों में ट्रांजिस्टर सारे दिन बज रहा होगा, लेकिन पहाड़ से घिरे, कटोरे के पेंदे में बसे नैनीताल में परिवर्तन आते कुछ अधिक ही दिखा, कारण शायद पूरे शहर का एक निगाह में सामने आ जाना है, सुबह उठ कर घर से बाहर आते ही सारा शहर करीब-करीब दिख ही जाता है- मकान जो मालरोड़ से उठ कर रामजे अस्पताल तक चले गये हैं, ट्रक जिसका ‘हाइवे हॉर्न‘ ऊपर तक सुनाई देता है, मच्छर जो इधर दिखाई देने लगे हैं, बिना मीलों जाकर किसी खास जगह को देखना नैनीताल के लिये कहाँ जरूरी है?
बचपन में बाहर रह कर भी नैनीताल सारे साल याद आता था। जहाँ दिवाली में पटाखा छोड़ने पर पहाड़ जवाब देते हैं, घास छूने से खुजली होती है, पहाड़ों के पीछे कोई कोहरा बना कर ताल की तरफ छोड़ता है, जंगल पार जाते समय थक जाने पर कुछ खाने को मिलता है...।
...फिर यहीं रहना हो गया। पहला दौर पढ़ाई का था। बीच में नौकरियों का सिलसिला रहा। गोरखपुर, दिल्ली से नागदा तक फिर जहाज के पंछी सा वापस, प्रवास के समय पहाड़ की याद पर बातचीत अड़ियल घोड़े सी अड़ती रही। हर शहर में दोस्तों के साथ घूम-फिर कर वहीं टिक जाती रही। दिल्ली, लखनऊ, धनबाद, बम्बई, जयपुर, कोई भी जगह चर्चा का एक ही। तब समझ में आया कि ‘नैनीतालो, नैनीतालो... घूमि आयो रेलो’ (कुछ समझ में नहीं आया तो एक बार दूर से लौटते लड़के गा रहे थे - नैनीताल... नैनीताल, टिनोपाल के विज्ञापन की धुन पर/उससे पहले केएमओयू को कम सेप्टेम्बर की धुन पर गाते सुना था) क्यों लिखा होगा? क्यों लालकुआँ पहुँचने तक बार-बार दरवाजे में खड़े होते हैं, चलती ट्रेन में पहाड़ से आती हवा के स्वागत में लोग खड़े हो जाते हैं ?
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