पटाखे से निकले धुएँ में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, शीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर साँसों के जरिए शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मौजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाये तो भयानक वायु प्रदूषण होता है। यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाइकल किया जाये तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डम्पिंग में यूँ ही पड़ा रहने दिया जाये तो इसके विषैले कण ज़मीन में जज्ब होकर भूजल व जमीन को स्थायी व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। अभी 28 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह कहते हुए आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबन्दी से इनकार कर दिया था कि इसके लिये पहले से ही दिशा-निर्देश उपलब्ध हैं व सरकार को इस पर अमल करना चाहिए।
तीन मासूम बच्चों ने संविधान में प्रदत्त जीने के अधिकार का उल्लेख कर आतिशबाजी के कारण साँस लेने में होने वाली दिक्कत को लेकर सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबन्दी लगा दी जाये। सरकार ने अदालत को बताया था कि पटाखे जलाना, प्रदूषण का अकेला कारण नहीं है।
अदालत ने भी पर्व की जन भावनाओं का खयाल कर पाबन्दी से इनकार कर दिया, लेकिन बीती दीपावली की रात दिल्ली व देश में जो कुछ हुआ, उससे साफ है कि आम लोग कानून को तब तक नहीं मानते हैं, जब तक उसका कड़ाई से पालन ना करवाया जाये। पूरे देश में हवा इतनी जहर हो गई कि 68 करोड़ लोगों की जिन्दगी तीन साल कम हो गई।
अकेले दिल्ली में 300 से ज्यादा जगह आग लगी व पूरे देश में आतिशबाजी के कारण लगी आग की घटनाओं की संख्या हजारों में हैं। इसका आँकड़ा रखने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने लोग आतिशबाजी के धुएँ से हुई घुटन के कारण अस्पताल गए। दीपावली की रात प्रधानमंत्री के महत्त्वाकांक्षी व देश के लिये अनिवार्य ‘स्वच्छता अभियान’ की दुर्गति देशभर की सड़कों पर देखी गई।
दीपावली की अतिशबाजी ने राजधानी दिल्ली की आबोहवा को इतना जहरीला कर दिया गया कि बाक़ायदा एक सरकारी सलाह जारी की गई कि 11 नवम्बर की रात से 12 नवम्बर के दिन तक यदि जरूरी ना हो तो घर से ना निकलें। इस बार दीपावली पर लक्ष्मी पूजा का मुहुर्त कुछ जल्दी था, यानि पटाखे जलाने का समय ज्यादा हो गया।
फेफड़ों को जहर से भर कर अस्थमा व कैंसर जैसी बीमारी देने वाले पीएम यानि पार्टिकुलर मैटर अर्थात हवा में मौजूद छोटे कणों की निर्धारित सीमा 60 से 100 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि दीपावली की शाम से यह सीमा 900 के पार तक हो गई। ठीक यही हाल ना केवल देश के अन्य महानगरों के बल्कि प्रदेशों की राजधानी व मंझोले शहरों के भी थे।
सनद रहे कि पटाखे जलाने से निकले धुएँ में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, शीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर साँसों के जरिए शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मौजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाये तो भयानक वायु प्रदूषण होता है।
यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाइकल किया जाये तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डम्पिंग में यूँ ही पड़ा रहने दिया जाये तो इसके विषैले कण ज़मीन में जज्ब होकर भूजल व जमीन को स्थायी व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिशबाजी से उपजे शोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े व बीमार लोग भुगतते ही हैं।
दिल्ली के दिलशाद गार्डन में मानसिक रोगों का बड़ा चिकित्सालय है। यहाँ अधिसूचित किया गया है कि दिन में 50 व रात में 40 डेसीबल से ज्यादा का शोर ना हो। लेकिन यह आँकड़ा सरकारी मॉनिटरिंग एजेंसी का है कि दीपावली के पहले से यहाँ शोर का स्तर 83 से 105 डेसीबल के बीच है। दिल्ली के अन्य इलाकों में यह 175 तक पार गया है।
हालांकि यह सरकार व समाज देानों जानता है कि रात 10 बजे के बाद पटाखे चलाना अपराध है। कार्रवाई होने पर छह माह की सजा भी हो सकती है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2005 में दिया था जो अब कानून की शक्ल ले चुका है।
1998 में दायर की गई एक जनहित याचिका और 2005 में लगाई गई सिविल अपील का फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिये थे। 18 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी और न्यायमूर्ति अशोक शर्मा ने बढ़ते शोर की रोकथाम के लिये कहा था।
सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारों की आड़ में दूसरों को तकलीफ़ पहुँचाने, पर्यावरण को नुकसान करने की अनुमति नहीं देते हुए पुराने नियमों को और अधिक स्पष्ट किया, ताकि कानूनी कार्रवाई में कोई भ्रम न हो। अगर कोई ध्वनि प्रदूषण या सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्देशों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ भादंवि की धारा 268, 290, 291 के तहत कार्रवाई होगी।
इसमें छह माह का कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। पुलिस विभाग में हेड कांस्टेबल से लेकर वरिष्ठतम अधिकारी को ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई का अधिकार है। इसके साथ ही प्रशासन के मजिस्ट्रियल अधिकारी भी कार्रवाई कर सकते हैं।
विडम्बना है कि इस बार रात एक बजे तक जम कर पटाखे बजे, ध्वनि के डेसीमल को नापने की तो किसी को परवाह थी ही नहीं, इसकी भी चिन्ता नहीं थी कि ये धमाके व धुआँ अस्पताल, रिहाइशी इलाकों या अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में बेरोकटोक किये जा रहे हैं।
असल में आतिशबाजी को नियंत्रित करने की शुरुआत ही लापरवाही से है। विस्फोटक नियमावली 1983 और विस्फोटक अधिनियम के परिपालन में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिये थे कि 145 डेसीबल से अधिक ध्वनि तीव्रता के पटाखों का निर्माण, उपयोग और विक्रय गैरकानूनी है। प्रत्येक पटाखे पर केमिकल एक्सपायरी और एमआरपी के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी अंकित होना चाहिए, लेकिन बाजार में बिकने वाले एक भी पटाखे पर उसकी ध्वनि तीव्रता अंकित नहीं है।
सूत्रों के मुताबिक बाजार में 500 डेसीबल की तीव्रता के पटाखे भी उपलब्ध हैं। यही नहीं चीन से आये पटाखों में जहर की मात्रा असीम है व इस पर कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। कानून कहता है कि पटाखा छूटने के स्थल से चार मीटर के भीतर 145 डेसीबल से अधिक आवाज नहीं हो। शान्ति क्षेत्र जैसे अस्पताल, शैक्षणिक स्थल, न्यायालय परिसर व सक्षम अधिकारी द्वारा घोषित स्थल से 100 मीटर की परिधि में किसी भी तरह का शोर 24 घंटे में कभी नहीं किया जा सकता।
पिछले महीने अदालत ने तो सरकार को समझाइश दे दी थी कि केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारें पटाखों के दुष्प्रभावों के बारे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में व्यापक प्रचार करें और जनता को इस बारे में सलाह दे। सरकार ने विज्ञापन जारी भी किये, देश भर के स्कूलों में बच्चों को आतिशबाजी ना जलाने की शपथ, रैली जैसे प्रयोग भी हुए।
टीवी व अन्य प्रचार माध्यमों ने भी इस पर अभियान चला, लेकिन 11 नवम्बर की रात बानगी है कि सभी कुछ महज औपचारिकता, रस्म अदायगी या ढकोसला ही रहा। यह जान लें कि दीपावली पर परम्पराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाइयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है।
हालांकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि आतिशबाजी चलाना सनातन धर्म की किसी परम्परा का हिस्सा है, यह तो कुछ दशक पहले विस्तारित हुई सामाजिक त्रासदी है। आतिशबाजी पर नियंत्रित करने के लिये अगले साल दीपावली का इन्तजार करने से बेहतर होगा कि अभी से ही आतिशबाजियों में प्रयुक्त सामग्री व आवाज पर नियंत्रण, दीपावली के दौरान हुए अग्निकाण्ड, बीमार लोग, बेहाल जानवरों की सच्ची कहानियाँ सतत प्रचार माध्यमों व पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से आम लोगों तक पहुँचाने का कार्य शुरू किया जाये।
तीन मासूम बच्चों ने संविधान में प्रदत्त जीने के अधिकार का उल्लेख कर आतिशबाजी के कारण साँस लेने में होने वाली दिक्कत को लेकर सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबन्दी लगा दी जाये। सरकार ने अदालत को बताया था कि पटाखे जलाना, प्रदूषण का अकेला कारण नहीं है।
अदालत ने भी पर्व की जन भावनाओं का खयाल कर पाबन्दी से इनकार कर दिया, लेकिन बीती दीपावली की रात दिल्ली व देश में जो कुछ हुआ, उससे साफ है कि आम लोग कानून को तब तक नहीं मानते हैं, जब तक उसका कड़ाई से पालन ना करवाया जाये। पूरे देश में हवा इतनी जहर हो गई कि 68 करोड़ लोगों की जिन्दगी तीन साल कम हो गई।
अकेले दिल्ली में 300 से ज्यादा जगह आग लगी व पूरे देश में आतिशबाजी के कारण लगी आग की घटनाओं की संख्या हजारों में हैं। इसका आँकड़ा रखने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने लोग आतिशबाजी के धुएँ से हुई घुटन के कारण अस्पताल गए। दीपावली की रात प्रधानमंत्री के महत्त्वाकांक्षी व देश के लिये अनिवार्य ‘स्वच्छता अभियान’ की दुर्गति देशभर की सड़कों पर देखी गई।
दीपावली की अतिशबाजी ने राजधानी दिल्ली की आबोहवा को इतना जहरीला कर दिया गया कि बाक़ायदा एक सरकारी सलाह जारी की गई कि 11 नवम्बर की रात से 12 नवम्बर के दिन तक यदि जरूरी ना हो तो घर से ना निकलें। इस बार दीपावली पर लक्ष्मी पूजा का मुहुर्त कुछ जल्दी था, यानि पटाखे जलाने का समय ज्यादा हो गया।
फेफड़ों को जहर से भर कर अस्थमा व कैंसर जैसी बीमारी देने वाले पीएम यानि पार्टिकुलर मैटर अर्थात हवा में मौजूद छोटे कणों की निर्धारित सीमा 60 से 100 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि दीपावली की शाम से यह सीमा 900 के पार तक हो गई। ठीक यही हाल ना केवल देश के अन्य महानगरों के बल्कि प्रदेशों की राजधानी व मंझोले शहरों के भी थे।
सनद रहे कि पटाखे जलाने से निकले धुएँ में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, शीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर साँसों के जरिए शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मौजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाये तो भयानक वायु प्रदूषण होता है।
यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाइकल किया जाये तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डम्पिंग में यूँ ही पड़ा रहने दिया जाये तो इसके विषैले कण ज़मीन में जज्ब होकर भूजल व जमीन को स्थायी व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिशबाजी से उपजे शोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े व बीमार लोग भुगतते ही हैं।
दिल्ली के दिलशाद गार्डन में मानसिक रोगों का बड़ा चिकित्सालय है। यहाँ अधिसूचित किया गया है कि दिन में 50 व रात में 40 डेसीबल से ज्यादा का शोर ना हो। लेकिन यह आँकड़ा सरकारी मॉनिटरिंग एजेंसी का है कि दीपावली के पहले से यहाँ शोर का स्तर 83 से 105 डेसीबल के बीच है। दिल्ली के अन्य इलाकों में यह 175 तक पार गया है।
हालांकि यह सरकार व समाज देानों जानता है कि रात 10 बजे के बाद पटाखे चलाना अपराध है। कार्रवाई होने पर छह माह की सजा भी हो सकती है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2005 में दिया था जो अब कानून की शक्ल ले चुका है।
1998 में दायर की गई एक जनहित याचिका और 2005 में लगाई गई सिविल अपील का फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिये थे। 18 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी और न्यायमूर्ति अशोक शर्मा ने बढ़ते शोर की रोकथाम के लिये कहा था।
सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारों की आड़ में दूसरों को तकलीफ़ पहुँचाने, पर्यावरण को नुकसान करने की अनुमति नहीं देते हुए पुराने नियमों को और अधिक स्पष्ट किया, ताकि कानूनी कार्रवाई में कोई भ्रम न हो। अगर कोई ध्वनि प्रदूषण या सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्देशों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ भादंवि की धारा 268, 290, 291 के तहत कार्रवाई होगी।
इसमें छह माह का कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। पुलिस विभाग में हेड कांस्टेबल से लेकर वरिष्ठतम अधिकारी को ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई का अधिकार है। इसके साथ ही प्रशासन के मजिस्ट्रियल अधिकारी भी कार्रवाई कर सकते हैं।
विडम्बना है कि इस बार रात एक बजे तक जम कर पटाखे बजे, ध्वनि के डेसीमल को नापने की तो किसी को परवाह थी ही नहीं, इसकी भी चिन्ता नहीं थी कि ये धमाके व धुआँ अस्पताल, रिहाइशी इलाकों या अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में बेरोकटोक किये जा रहे हैं।
असल में आतिशबाजी को नियंत्रित करने की शुरुआत ही लापरवाही से है। विस्फोटक नियमावली 1983 और विस्फोटक अधिनियम के परिपालन में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिये थे कि 145 डेसीबल से अधिक ध्वनि तीव्रता के पटाखों का निर्माण, उपयोग और विक्रय गैरकानूनी है। प्रत्येक पटाखे पर केमिकल एक्सपायरी और एमआरपी के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी अंकित होना चाहिए, लेकिन बाजार में बिकने वाले एक भी पटाखे पर उसकी ध्वनि तीव्रता अंकित नहीं है।
सूत्रों के मुताबिक बाजार में 500 डेसीबल की तीव्रता के पटाखे भी उपलब्ध हैं। यही नहीं चीन से आये पटाखों में जहर की मात्रा असीम है व इस पर कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। कानून कहता है कि पटाखा छूटने के स्थल से चार मीटर के भीतर 145 डेसीबल से अधिक आवाज नहीं हो। शान्ति क्षेत्र जैसे अस्पताल, शैक्षणिक स्थल, न्यायालय परिसर व सक्षम अधिकारी द्वारा घोषित स्थल से 100 मीटर की परिधि में किसी भी तरह का शोर 24 घंटे में कभी नहीं किया जा सकता।
पिछले महीने अदालत ने तो सरकार को समझाइश दे दी थी कि केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारें पटाखों के दुष्प्रभावों के बारे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में व्यापक प्रचार करें और जनता को इस बारे में सलाह दे। सरकार ने विज्ञापन जारी भी किये, देश भर के स्कूलों में बच्चों को आतिशबाजी ना जलाने की शपथ, रैली जैसे प्रयोग भी हुए।
टीवी व अन्य प्रचार माध्यमों ने भी इस पर अभियान चला, लेकिन 11 नवम्बर की रात बानगी है कि सभी कुछ महज औपचारिकता, रस्म अदायगी या ढकोसला ही रहा। यह जान लें कि दीपावली पर परम्पराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाइयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है।
हालांकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि आतिशबाजी चलाना सनातन धर्म की किसी परम्परा का हिस्सा है, यह तो कुछ दशक पहले विस्तारित हुई सामाजिक त्रासदी है। आतिशबाजी पर नियंत्रित करने के लिये अगले साल दीपावली का इन्तजार करने से बेहतर होगा कि अभी से ही आतिशबाजियों में प्रयुक्त सामग्री व आवाज पर नियंत्रण, दीपावली के दौरान हुए अग्निकाण्ड, बीमार लोग, बेहाल जानवरों की सच्ची कहानियाँ सतत प्रचार माध्यमों व पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से आम लोगों तक पहुँचाने का कार्य शुरू किया जाये।
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