परिचय
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां संसार के भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 2-4 प्रतिशत और जल संसाधनो का लगभग 4 प्रतिशत भाग उपलब्ध है। देश में भौगोलिक मानव आबादी का 17 प्रतिशत तथा पशु आबादी का 15 प्रतिशत भाग उपलब्ध है। यहा की 50 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या खेती पर ही निर्भर है। देश में कृषि व्यवसाय उद्योगों के लिए कच्चे माल का एक प्रमुख स्रोत है। वर्ष 2011-12 के दौरान सभी प्रयासों के बावजूद देश में खाद्यान्न उत्पादन 25.932 करोड़ टन हुआ जिसमें से 13.127 करोड़ टन खरीफ मौसम के दौरान और 12.805 करोड़ टन रबी मौसम में था ।
भारतीय कृषि में हरित क्रांति का प्रभाव काफी हद तक सिंचित क्षेत्रों में मुख्यतः चावल और गेहूं की फसल तक सीमित रहा। हमारे देश में प्रति इकाई क्षेत्रफल उत्पादकता, अन्य देशों की अपेक्षा काफी कम है। इसके अतिरिक्त राज्यों में और राज्यों के विभिन्न जिलों में विभिन्न फसलों की उत्पादकता में काफी भिन्नता पाई गई है। हमारा पड़ोसी देश चीन सभी तीन प्रमुख खाद्यान्न फसलों (गेहूं, चावल और मक्का) उपज के मामले में भारत से काफी आगे हैं। विभिन्न देशों के उर्वरक उपयोग के आकड़ों के अवलोकन से यह ज्ञात हुआ है कि वर्ष 2005 के दौरान उर्वरक उपयोग (नाइट्रोजन + फास्फोरस पेंटाआक्साइड + पोटेशियम आक्साइड किलोग्राम / हेक्टेयर) के मामले में विभिन्न देशों का स्तर इस प्रकार था : नीदरलैंड किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (666)> कोरिया गणतंत्र (474) > जापान (373) > आस्ट्रिया (358) > न्यूजीलैंड (309) > चीन (301) > ब्रिटेन (287) > नार्वे (251) > जर्मनी (205) > पाकिस्तान (178), जबकि सभी देशों की औसत 109 किलोग्राम / हेक्टेयर थी। भारत की औसत मात्रा 89.80 किलोग्राम / हेक्टेयर थी। देश में कम और असंतुलित उर्वरकों का उपयोग भी भूमि की कम उर्वरता शक्ति और फसल की पैदावार की दृष्टि से चिंता का विषय है। एक ऊष्णकटिबंधीय देश होने के नाते, भारतीय मृदा में कार्बनिक पदार्थकी मात्रा बहुत कम है, जिसके फलस्वरूप मृदा उर्वरता भी बहुत कम है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में पानी की कमी के अतिरिक्त, मृदाओं में पोषक तत्वों की भी बहुत कमी है। जिसके परिणामस्वरूप वर्षा आधारित फसलों की उत्पादकता भी अपेक्षा से काफी कम है।
मृदा की कम उर्वरता क्षमता के कारण
भारत में कृषि फसलों के अंतर्गत 14.2 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल में से लगभग 8.3 करोड़ हेक्टेयर वर्षा पर निर्भर है। यहां फसल की पैदावार काफी कम होती है। एक सुनिश्चित अनुमान के अनुसार देश में कुल 32.9 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल में से लगभग 12.07 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल विभिन्न प्रकार की भूमि विकृत्तिकरण समस्याओं से ग्रस्त है। इस 12.07 करोड़ हेक्टेयर आक्रमित क्षेत्रफल में 7.33 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल जल के कटाव से, 1.24 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल हवा के कटाव से, 0.673 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल लवणता एवं क्षारीयता से और 2.5 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल मृदा अम्लता से प्रभावित है। विभिन्न अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो चुका है कि मृदा की गुणवत्ता कमी आने के मुख्य कारण इस प्रकार है: -
मृदा की उर्वरता को प्रभावित करने वाले कारक
- जल द्वारा भूमि के कटाव के दौरान मृदा एवं कार्बनिक पदार्थ का जल प्रवाह के साथ बह जाना ।
- भूमि की बार- बार आवश्यकता से अधिक गहरी जुताई करना ।
- कम एवं असंतुलित उर्वरीकरण ।
- कार्बनिक पदार्थों (कंपोस्ट, गोबर की खाद, हरी खाद, जैविक खाद इत्यादि) का कम या न के बराबर उपयोग करना ।
- किसानों द्वारा फसल अवशेषों को खेत में न के बराबर छोड़ना या खेत में ही जला देना ।
- सिर्फ एकल फसल प्रणाली अपनाना और फसल चक्र को न अपनाना।
- भूमि में जल भराव, लवणता एवं क्षारीयता और मृदा अम्लता का होना ।
- मृदा में कीटनाशी रसायनों एवं विषाक्त पदार्थों का अधिक मात्रा में उपयोग करना ।
- सतही मृदा का ईटें आदि बनाने के लिए दुरुपयोग करना ।
- वातावरण एवं मृदाओं में उच्च तापमान के कारण कार्बनिक पदार्थों का तीव्र गति से अपघटन होना।
इन सभी उपरोक्त कारणों की वजह से भूमि का विकृत्तिकरण हुआ है और मृदा की गुणवत्ता (भौतिक, रासायनिक, जैविक) में भारी कमी आई है।
मृदा उर्वरता
पौधों की वृद्धि के लिए मृदा की उर्वरता का तात्पर्य उसकी उस क्षमता से है जो फसल उत्पादन हेतु पौधों के लिए पोषक तत्वों को उचित एवं संतुलित मात्रा में प्रदान करें। यह क्षमता मृदा उर्वरता कहलाती है। कुछ लोग पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैव गुणों के योग को भी मृदा उर्वरता कहते है
पोषक तत्व प्रबंधन
मृदा में विद्यमान सभी तत्व पौधों के पोषण में भाग नहीं लेते हैं। इसलिए वही तत्व जो पौधों के पोषण में भाग लेते है, पोषक तत्व कहलाते हैं। पौधे इन पोषक तत्वों को जल, वायु एवं मृदा से ग्रहण करते हैं। पौधों की वृद्धि और विकास के लिए 16 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। इन 16 पोषक तत्वों में से किसी भी पोषक तत्व की कमी होने से पौधे अपना जीवन चक्र पूरा नहीं कर सकते। रासायनिक विश्लेषण के आधार पर ज्ञात हो चुका है कि पौधों में कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन, नत्रजन, फास्फोरस, गंधक, जीवद्रव्य के अवयवी तत्व होते है। इन छः तत्वों के अतिरिक्त अन्य पंद्रह तत्व भी होते हैं जो पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक होते हैं। वे तत्व हैं पोटेशियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम, मैग्नीज, लोहा, जस्ता, मोलिब्डेनम, बोरोन, तांबा, क्लोरीन, कोबाल्ट, सोडियम, निकिल, सिलिकान और वेनेडियम। इनमें से (सिलिकान, बेनेडियम) कुछ पौधों के लिए ही आवश्यक होते हैं।
पोषक तत्वों का वर्गीकरण
पोषक तत्वों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है:-
- मुख्य पोषक तत्व : कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन, नत्रजन, फास्फोरस और पोटेशियम मुख्य पोषक तत्वों के अंतर्गत आते हैं। पौधे, कार्बन, हाइड्रोजन और आक्सीजन की पूर्ति हवा और पानी से कर लेते हैं परंतु नत्रजन, फास्फोरस और पोटेशियम की पूर्ति मृदा में उपलब्ध तत्वों और खाद एवं उर्वरकों द्वारा की जाती है।
- द्वितीयक एवं गौण पोषक तत्व : कैल्शियम, मैग्नीशियम और गंधक द्वितीयक एवं गौण पोषक तत्वों की श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। इन पोषक तत्वों की आवश्यकता मुख्य पोषक तत्वों की अपेक्षा कम होती है।
- सूक्ष्म पोषक तत्व : पौधों की अच्छी वृद्धि एवं पैदावार के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। यह तत्व लोहा, जस्ता, मैग्नीज, तांबा, निकिल, मोलिब्डेनम, बोरोन, क्लोरीन आदि हैं।
- पौधों की बढ़वार के लिए आवश्यक पौषक तत्वों के कार्य तथा इनकी कमी के लक्षणों को सारणी-1 में दर्शाया गया है:-
सारणी-1 पोषक तत्वों के कार्य एवं कमी के लक्षण :
मृदा उर्वरता की स्थिति और उत्पादकता से संबंधित बाधाएं
वर्षा आधारित क्षेत्रों में कई प्रकार की मृदाएं पाई जाती हैं। इनमें मुख्यतः एल्फीसोल्स (लाल मृदाएं), वर्टीसोल्स (काली मृदाएं), अरीडीसोल्स ( रेतीली मृदाएं), एंटीसोल्स (नवीन जलोढ़ मृदाएं) इत्यादि हैं। इन सब मृदाओं के गुण (मृदा संरचना, कणाकार, जल धारण क्षमता, उर्वरता इत्यादि) भिन्न-भिन्न होते हैं। इन सब मृदाओं में से एल्फीसोल्स (लाल मिट्टी) एवं वर्टीसोल्स (काली मिट्टी) के अंतर्गत काफी क्षेत्रफल वर्षा आधारित है।
सामान्य तौर पर यह देखा गया है कि लाल एवं काली मृदाओं में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा कम है। अनुसंधानों से यह साबित हो चुका है कि कार्बनिक पदार्थ कई पादप पोषक तत्वों जैसे कि नाइट्रोजन, फासफोरस, पोटाश, सल्फर एवं सूक्ष्म तत्वों का भंडार है। जलवायु घटकों एवं अनुपयुक्त मृदा प्रबंधन के कारण, इन मृदाओं में कार्बनिक पदार्थ की काफी कमी पाई जाती है। जिसके परिणामस्वरूप मृदाएं उर्वरता की दृष्टि से भी काफी कमजोर हो जाती हैं।
एक सर्वेक्षण के अनुसार यह पाया गया है कि भारत में लगभग 62.5 प्रतिशत जिले नत्रजन उर्वरता में निम्न दर्जे की श्रेणी में आते हैं और लगभग 32.6 प्रतिशत जिले मध्यम श्रेणी में पाए गए हैं। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार क्रमशः 59, 36 एवं 5 प्रतिशत जिले नत्रजन उर्वरता में कम, मध्यम एवं उच्च श्रेणी में आंके गए।
सारणी-2 भारत में विभिन्न जिलों में मृदा उर्वरता वर्गों का विवरण (प्रतिशत)
फासफोरस एक महत्वपूर्ण तत्व है। जिसकी मृदा में व्यापक कमी है। इसकी कमी के कारण वर्षा आधारित फसलों की उत्पादकता में निरंतर गिरावट आ रही है। काली मृदाएं ग्रेनाइट और तलछटीय चट्टानों से विकसित हुई है जो फासफोरस की कमी से ग्रस्त हैं। इन मृदाओं में पोटाश की कोई कमी नहीं है। कुछ मोर्ट कणाकार वाली मृदाओं को छोड़कर अन्य मृदाओं में पोटेशियम उपलब्धता की कोई गंभीर समस्या नहीं है।
एक अध्ययन के अनुसार यह ज्ञात हुआ है कि भारत के अर्धशुष्क एवं ऊष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में किसानों के खेतों में कई द्वितीयक (गंधक) और सूक्ष्म पोषक तत्वों (बोरान, जस्ता) की कमी है। असिंचित मृदाओं में जहां तिलहन और दलहन की फसलें अधिक उगाई जाती है, वहां गंधक की उपलब्धता में कमी पाई गई है। इसके अतिरिक्त भारत के अर्ध-शुष्क एवं ऊष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की मृदाओं में पोषक तत्वों, विशेषकर जिंक की काफी कमी अनुभव की गई है। इन क्षेत्रों में कई फसलों जैसे कि मूंगफली एवं चना में लोहे की कमी के कारण हरिद्रोंग (क्लोरोसिस) भी दिखाई दी है।
अखिल भारतीय समन्वित बारानी कृषि अनुसंधान परियोजना (एक्रीपडा) के अंतर्गत कि गए एक अध्ययन में देश के प्रांतों से एकत्रित 2.5 लाख मृदा नमूनों का विश्लेषण किया गया। इस विश्लेषण में 49 प्रतिशत मृदा नमूने जिंक में 33 प्रतिशत बोरान में, 13 प्रतिशत लोहे में, 7 प्रतिशत मोलिब्डेनम और 4 प्रतिशत मैंगनीज, मृदा उर्वरकता की दृष्टि से निम्न श्रेणी में पाए गए हैं। ये आंकड़े मृदाओं में सूक्ष्म तत्वों की कमी संबंधी समस्याओं की तरफ संकेत करते हैं। सूक्ष्म तत्वों की कमी का स्तर आमतौर पर मृदा के प्रकार, कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र, फसल एवं फसल प्रणालियों के प्रबंधन और उत्पादकता के अनुसार होता है। अक्सर यह देखा गया है कि जिंक की कमी मुख्यत: मृदा के मोटे कणों की वजह से, कैल्शियम की अधिक मात्रा होने से, जैविक कार्बन कम होने से, पी.एच. अधिक होने से और मृदा में अत्यधिक रिसाव इत्यादि से बढ़ती है। उदाहरण के तौर पर जिंक की कमी बिहार की कैल्शियम युक्त मुदाओं में, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की काली और जलोढ़ मृदाओं में, कर्नाटक की लाल मृदाओं, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की गहरी काली मुदाओं एवं हरियाणा की रेतीली मुदाओं में व्यापक रूप से पाई गई है,जिससे फसलों की पैदावार में कमी आई है। इन मृदाओं में क्षारीयता को ठीक करने के उपाय सहित जिंक उर्वरक की भी सिफारिश की गई है।
मृदा परीक्षण में परखे गए कुल नमूनों में से 26 प्रतिशत हरियाणा में 18 प्रतिशत तमिलनाडु में, 12 प्रतिशत पंजाब में और 8-9 प्रतिशत गुजरात और उत्तर प्रदेश की कैल्शियमयुक्त मृदाओं में लोहे की मात्रा में कम पाए गए हैं। बोरान के मामले में गुजरात में 2 प्रतिशत से लेकर पश्चिम बंगाल में 68 प्रतिशत तक की कमी पाई गई। आमतौर पर यह देखा गया है कि बोरान की कमी कर्नाटक की लाल और लैटराइटिक मृदाओं में और पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा और महाराष्ट्र की रिसाव युक्त अम्लीय मृदाओं में 56 प्रतिशत थी। बिहार में उच्च कैल्शियम युक्त और पुरानी जलोढ़ मृदाओं में बोरान की 22.4 प्रतिशत कमी पाई गई।
वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैसे कि आंध्र प्रदेश, ओडिशा और पूर्वी मध्य प्रदेश में मृदा और उत्पादकता संबंधी कई अड़चने अनुभव की गई हैं। इनमें से प्रमुख हैं:-
- आंध्र प्रदेश में चावल की फसल में फासफोरस और जस्ते की कमी।
- आंध्र प्रदेश में चावल की फसलों में कीट और रोग महामारी के कारण निरंतर कीट नाशकों
- और नाइट्रोजन उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग ।
ओडिशा और मध्य प्रदेश में कई स्थानों पर उर्वरकों की कम दर का उपयोग करने की वजह से भूमि में उर्वरता की कमी।
ओडिशा और मध्य प्रदेश की वर्षा आधारित उथली भूमियों में फासफोरस, जस्ता और गंधक की कमी। सूक्ष्म, द्वितीय एवं विषाक्त तत्वों संबंधी अखिल भारतीय समन्वित बारानी कृषि अनुसंधान परियोजना की रिपोर्ट के अनुसार बिलासपुर एवं सरघुघ जिलों में मृदाओं के लगभग 50-75 प्रतिशत नमूनों में जस्ते की कमी पाई गई, जबकि रायपुर जिले में 25-50 प्रतिशत मृदा नमूनों में जस्ते की कमी अनुभव की गई। गंधक, बोरान, मोलिब्डेनम, तांबा और लोहे के मामलों में पूर्वी मध्य प्रदेश के क्रमश: 12-71, 12, 10-30, 10 और 30 प्रतिशत मृदा नमूनों में कमी पाई गई। अनुसंधानों से सुनिश्चित हुआ है कि विभिन्न फसलों में जस्ता (जिंक) अनुप्रयोग के प्रति अच्छी अनुक्रिया अनुभव की गई और अच्छी उपज उपलब्ध हुई।
मृदा में उपलब्ध पोषक तत्वों संबंधी क्रांतिक स्तर सारणी-3 में दिए गए हैं। इनसे मृदा उर्वरता संबंधी श्रेणी का अनुमान लगाया जा सकता है।
सारणी-3 मृदा उर्वरता मापदंडों के लिए क्रांतिक स्तर (वर्ग)
एक अध्ययन में मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन के तहत आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों के आठ केंद्रों पर 90 गांवों में मृदा उर्वरता समस्याओं का निदान करने के लिए परीक्षण किया गया। इस परीक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों के वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक कार्बन की मात्रा निम्न से मध्य स्तर, नाइट्रोजन की मात्रा निम्न स्तर और सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा की भारी कमी है ( सारणी - 4 ) ।
सारणी - 4: आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 8 जिलों के विभिन्न केंद्रों में पोषक तत्वों की स्थिति
वर्षा आधारित मृदाओं में जैविक पदार्थ की स्थिति
वर्षा आधारित मृदाओं में जैविक पदार्थ की मात्रा बहुत कम है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि वर्षा आधारित क्षेत्रों में भूक्षरण के कारण मृदाओं की ऊपरी सतह, जिसमें जैव- पदार्थ की मात्रा ज्यादा होती है, पानी के साथ बह जाती है। इसके परिणामस्वरूप मृदाओं का विकृत्तिकरण हो जाता है। शुष्क एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में जैव पदार्थ की कमी की मुख्य वजह मृदाओं के अधिक तापमान के कारण भी होती है। अनुसंधान आंकड़ों के विश्लेषण से यह पाया गया कि सामान्यतः जैव पदार्थ की मात्रा आर्द्र क्षेत्रों में ज्यादा होती है और जैसे-जैसे शुष्क क्षेत्रों की ओर बढ़ते हैं, इसकी मात्रा कम होती जाती है। इन आंकड़ों से इस तथ्य का भी पता चला कि जैव-पदार्थ की मात्रा और मृदा उत्पत्ति के समय के वातावरण में घनिष्ठ संबंध है । शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की शुष्क और अर्ध-शुष्क मृदाओं में जैव पदार्थ 2-4 प्रतिशत पाया गया जबकि उष्णकटिबंध क्षेत्रों की अर्ध-शुष्क मृदाओं में इसकी मात्रा एक प्रतिशत से भी कम पाई गई। वर्षा आधारित क्षेत्रों की मृदाओं में जैविक कार्बन की कमी का अनुमान
सारणी-5 में दर्शाए गए आंकड़ों से लगाया जा सकता है।
सारणी-5 : वर्षा आधारित क्षेत्रों की मृदाओं में जैविक कार्बन मात्रा स्थिति
मृदा में जैविक पदार्थ का महत्व
जैविक पदार्थ मृदाओं का जीवन है। अनुसंधान के आंकड़े दर्शाते हैं कि कुल नत्रजन और गंधक का लगभग 95 प्रतिशत भाग जैव पदार्थ में ही पाया जाता है ( सारणी - 6 ) । नत्रजन की मात्रा, जैविक-पदार्थ के घटने या बढ़ने से प्रभावित होती है। इसलिए जिन मृदाओं में जैविक पदार्थ अच्छी मात्रा में पाया जाता है, उन मृदाओं में नत्रजन की उपलब्धता भी अच्छी होती है। जैविक पदार्थ मृदाओं में उपस्थित अनेकों सूक्ष्म जीवों के भोजन और ऊर्जा का स्रोत है। अनेक पोषक तत्वों के भंडारण के अतिरिक्त, जैविक पदार्थ, मृदा में उपस्थित अनेकों अघुलनशील पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाता है। जब पौधों और पशुओं के जीव अवशेषों का मृदा में विघटन होता है, उस समय कई अम्ल जैसेकि कार्बनिक अम्ल, नाइट्रिक अम्ल, गंधक का अम्ल, फास्फोरस अम्ल, सिट्रिक अम्ल, फारमिक अम्ल, ऐसिटिक एवं बुटारिक अम्ल उत्पन्न होते हैं जो कि अघुलनशील यौगिकों को घुलनशील योगिकों में परिवर्तित करते हैं। इसके अतिरिक्त, जैविक पदार्थ पोषक तत्वों को बांधकर रखने में भी सक्षम हैं, जिससे मृदाओं में प्रतिकूल अवस्था में भी पोषक तत्वों की कम हानि होती है।
पोषक तत्वों की आपूर्ति के साथ-साथ जैविक पदार्थ कई जैवीय नियंत्रक योगिकों, वृद्धि नियंत्रक अवयवों एवं हारमोन्स की आपूर्ति भी करता है। इसके अतिरिक्त जैविक पदार्थ मृदा पोषक तत्व निर्धारण क्षमता में भी वृद्धि करने में सहायक सिद्ध होता है।
सारणी- 6: जैव पदार्थ में पोषक तत्वों की मात्रा
जैविक पदार्थ मृदा की भौतिक स्थिति में भी दृष्टिगोचर सुधार करता है। कई अध्ययन इस बात के प्रमाण हैं कि जैविक पदार्थ, मृदा संरचना में सुधार, मृदा आपतन घनत्व में कमी लाने, मृदा जल संचयन क्षमता वृद्धि, मृदा-वायु एवं जल संचालन में मुख्य भूमिका निभाता है। जैविक पदार्थ मृदा के समूहित कणों के आकार में वृद्धि, मृदा में वर्षा की बूंदों के प्रति रोधता में सुधार करके भूक्षरण में कमी करता है। जिन मृदाओं में जैविक पदार्थ की मात्रा अधिक होती है, उनमें सूखे के दौरान जल की उपलब्धता में निमितता एवं आपूर्ति काफी समय तक बनी रहती है।
जैविक पदार्थ एवं पोषक तत्वों के अतिरिक्त मृदा संबंधी समस्याएं
जैविक पदार्थ और पोषक तत्वों की कमी के अतिरिक्त मृदा से संबंधित और भी काफी समस्याएं हैं। जिनमें से प्रमुख हैं:- मृदाओं की कमजोर संरचना एवं गठन, मृदा की परिक्षेदिका की गहराई का कम होना, मृदा में सख्त मोर्रम परत का होना, मृदा में घनत्वता का ज्यादा होना, मृदा की निचली परत कड़ी बनना, मृदा में कैल्शियम के कंकरों की अधिक मात्रा होना, मृदा में लवणता एवं क्षारीयता और अम्लीयता का होना, मृदा में कम नमी होने से ऊपरी सतह पर कठोर पपड़ी बनना, मृदा में उचित जल निकास न होने के कारण जल भराव होना, मृदा में बहुत कम या अत्यधिक जल चालकता का होना इत्यादि। इन सब समस्याओं की वजह से पर्याप्त पोषक तत्वों के बावजूद भी वर्षा आधारित फसलों से भरपूर उत्पादन प्राप्त नहीं हो पाता। इसलिए यह अति आवश्यक है कि वर्षा आधारित क्षेत्रों की मृदाओं में भौतिक, रसायनिक और जैव गुणों को सुधारने के लिए निरंतर प्रयत्न करना चाहिए।
वर्षा आधारित फसलों की उर्वरक पोषक तत्वों के प्रति अनुक्रिया
वर्षा आधारित फसलों की उर्वरक उपयोग के प्रति अनुक्रियाओं का लेखा-जोखा अखिल भारतीय समन्वित बारानी कृषि अनुसंधान परियोजना (एक्रीपडा) के विभिन्न केंद्रों से प्राप्त हुआ है। एक्रीपड़ा के इस नेटवर्क के जरिए खरीफ और रबी फसलों में नत्रजन और फास्फोरस प्रयोगों के प्रति अनुक्रियाओं पर व्यापक जानकारियां उपलब्ध की गई हैं। विभिन्न फसलों, वर्षा की मात्रा, मृदाओं के प्रकार तथा विभिन्न स्थानों के आधार पर नत्रजन और फास्फोरस प्रयोग के प्रति अनुक्रियाएं तीन किलोग्राम अनाज प्रति किलोग्राम पोषक तत्व से लेकर 50 किलोग्राम अनाज प्रति किलोग्राम पोषक तत्व तक वृद्धि देखी गई है। पोषक तत्वों में नत्रजन गैर-फली फसलों के उत्पादन के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। इन फसलों के विकास और संवर्धन के लिए बड़ी मात्रा में नत्रजन की आवश्यकता होती है। अनुसंधान के आधार पर ये पाया गया है कि वर्षा की मात्रा एवं मृदा में नमी की उपलब्धता बहुत महत्वपूर्ण घटक हैं, जो फसलों की नत्रजन अनुप्रयोग के प्रति अनुक्रियाओं को प्रभावित करते हैं। अनुसंधान के आंकड़ों से पता चला है कि मक्का की फसल में सबसे ज्यादा (67.4 किलोग्राम अनाज प्रति किलोग्राम नत्रजन) अनुक्रिया थी। रबी ज्वार की फसल में नत्रजन उर्वरक के प्रति अनुक्रिया सोलापुर में 19.0 किलोग्राम (वर्षा 722 मिलीमीटर), कोविलपट्टी में 27.7 किलोग्राम (वर्षो 700 मिलीमीटर), बेल्लारी में 6.5 किलोग्राम (वर्षा 500 मिलीमीटर) और बीजापुर में 9.7 किलोग्राम (वर्षा 680 मिलीमीटर ) अनाज प्राप्त प्रति किलोग्राम नत्रजन अनुभव की गई । इन आंकड़ों से यह भी ज्ञात हुआ कि अच्छी वर्षा होने से नत्रजन उर्वरक के प्रति फसलों की अनुक्रिया भी अच्छी होती है। कई पोषक तत्वों जैसे कि कैल्शियम, सल्फर और पोटेशियम के प्रति अनुक्रिया मूंगफली की फसल में स्पष्ट रूप से दिखाई दी। इसी तरह चना और मूंगफली की फसल में लोहे का अनुप्रयोग करने से अच्छी अनुक्रिया दिखाई दी।
वर्षा आधारित फसलों में उर्वरक अनुप्रयोग के प्रति वांछित अनुक्रिया हासिल करने के लिए, निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान देना अति आवश्यक है:-
सूखे के प्रति सहनशील अच्छी किस्मों की फसलों का चयन करना है।
वर्षा जल को मृदा में प्रवेश कराने हेतु और संचयित करने हेतु प्रभावी नमी संरक्षण पद्धत्तियों को अपनाना ।
- संतुलित उर्वरीकरण पर विशेष ध्यान देना ।
- उर्वरीकरण करने के लिए उचित समय, विधि, स्थान एवं उर्वरक का प्रयोग करना ।
- उपयुक्त फसल चक्र अपनाना।
वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक पुन:चक्रण और समन्वित पादप पोषक तत्व प्रबंधन का महत्व
मृदा में कार्बनिक पदार्थ सामग्री को बढ़ाने और मृदा में कार्बन पृथक्करण (सीकुस्ट्रेशन) की तत्काल आवश्यकता है। इससे न केवल निम्नीकृत भूमि की मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार होगा, बल्कि पोषक तत्वों की कमी की भरपाई करने में भी मदद मिलेगी। पर्यावरणविदों के दृष्टिकोण से, कार्बनिक पदार्थ को बढ़ाने के लिए किए गए प्रयासों से मिट्टी में अधिक कार्बन पृथक्करण में मदद मिलेगी और बदले में वातावरण में कार्बनडाईआक्साइड (CO2) की सांद्रता को भी कम किया जा सकता है। किसान वर्ग अधिक रासायनिक उर्वरक की मांग को कम करने और पोषक तत्वों के वैकल्पिक स्रोतों को भुनाने के लिए चिंतित हैं। इस तरह से यह जैविक पुनः चक्रण और एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन की अवधारणा अति आवश्यक है। एकीकृत पादप पोषक तत्व प्रबंधन का तात्पर्य यह है कि फसल की वांछित पैदावार हासिल करने के लिए कार्बनिक, अकार्बनिक एवं जैव खादों का उचित मात्रा में प्रयोग कर मृदा की उर्वरता को बनाए रखा जा सके और वातावरण को भी प्रदूषण से बचाया जा सके।
एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन के लिए समग्र नीति की आवश्यकता है और इसमें रसायनिक उर्वरक, जैव उर्वरक, जैविक खाद (गोबर की खाद, कंपोस्ट खाद वर्मीकंपोस्ट, बायोगैस घोल, हरी खाद और फसलों के अवशेष आदि) और फसल प्रणालियों में नत्रजन स्थिरीकरण करने वाली फसलों इत्यादि को शामिल करना अति आवश्यक है। एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन पर भारत में काफी शोध किया गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार नत्रजन की मात्रा के आधार पर जैविक खाद, खनिज उर्वरकों की तुलना में कम प्रभावशाली हैं। हालांकि इन पोषक तत्वों के स्रोतों का संयुक्त उपयोग, रासायनिक उर्वरक या अकेले जैविक खाद का उपयोग करने से बेहतर है। विभिन्न अनुप्रयोगों से यह स्पष्ट हो चुका है कि एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन, बेहतर मृदा स्वास्थ्य, उच्च उत्पादकता और ग्रामीण गरीबों की खाद्यान्न सुरक्षा बनाए रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है।
एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन के मुख्य उद्देश्य
- रासायनिक उर्वरकों पर निर्भता को कम करना।
- मृदा के भौतिक, रासायनिक, जैविक गुणों में सुधार लाना ।
- उर्वरक उपयोग दक्षता में सुधार लाना ।
- विभिन्न प्रदूषण फैलाने वाले कार्बनिक व्यर्थ पदार्थों का उपयुक्त इस्तेमाल कर पर्यावरण को प्रदूषण रहित रखना ।
- उत्पादकता को बढ़ाना ।
- उत्पादों की पौष्टिक गुणता में अपेक्षित सुधार लाना ।
- एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन के मुख्य घटक
- एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन के मुख्य घटक इस प्रकार हैं:-
- मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित उर्वरीकरण करना ।
- नत्रजन स्थिरीकरण करने वाली फसलों को अंतरसस्यन फसलीकरण और फसल चक्र प्रणालियों में शामिल करना ।रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ जैविक खादों (हरी खाद, नत्रजन स्थिरीकरण करने वाले वृक्षों की पत्तियों की खाद, केंचुए की खाद, गोबर की खाद, प्रक्षेत्र कंपोस्ट, जैव उर्वरक, उपचारित गटर की खाद ) का संतुलित उपयोग करना ।
- फसल की कटाई के उपरांत फसलों के अवशेषों (पशुओं के चारे की जरूरत को पूरा के बाद) का भूमि में उपयुक्त रूप से पुनः चक्रण करना ।
- नैनो उर्वरकों का अनुप्रयोग करना ।
- संरक्षण खेती और कम जुताई पद्धति अपनाना ।
- मृदा एवं जल संरक्षण पद्धतियों को अपनाना ।
एकीकृत पोषक तत्वों की आपूर्ति प्रणाली के महत्वपूर्ण घटक
एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन : अब तक सीखे गए सबक
एकीकृत पोषक तत्वों के उपयोग के मूल उद्देश्य, रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करना, मृदाओं में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा को बढ़ाना, पोषक तत्व उपयोग दक्षता को बढ़ाना इत्यादि प्रमुख हैं। यद्यपि केवल जैविक खाद फसल पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति करने के लिए सक्षम नहीं होते फिर भी इनकी भूमिका पूर्वोक्त उद्देश्यों को पूरा करने में महत्वपूर्ण मानी जाती है।
नौ वर्षों के अनुसंधान के उपरांत प्रयोग के परिणामों से पता चला है कि रागी ( फिंगर मिल्लेट) की उपज, इष्टतम नत्रजन, फास्फोरस और पोटाश के उपयोग या 50 प्रतिशत नत्रजन, फासफोरस एवं पोटाश (एन पी के) + 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद के संयुक्त उपयोग से बेंगलुरू की लाल मृदा (एल्फीसोल्स) में एक समान ही थी। उपज में स्थिरता के दृष्टिकोण से, यह उपचार काफी कारगर साबित हुआ। नौ में से आठ वर्षों के दौरान उपज पर प्रभाव काफी सकारात्मक था (>3 टन अनाज प्रति हेक्टेयर)। हालांकि, सिर्फ उर्वरक के उपयोग से यह प्रभाव नौ में से केवल चार वर्षों तक ही अनुभव किया गया। अर्थात् एकीकृत पौषक तत्व प्रबंधन करके 50 प्रतिशत तक रासायनिक खादों को बचाया जा सकता है। एक अन्य अनुसंधान के द्वारा गोबर की खाद और 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से कैलोट्रोपिस प्रोसेरा की टहनियों के उपयोग के लाभदायक प्रभावों से मृदा के भौतिक गुणों विशेष रूप से वर्षा आधारित अवस्थाओं के तहत नमी भंडारण में सुधार हुआ है। इससे पोषक तत्वों के खनिजीकरण और मृदा नत्रजन उपस्थिति में भी काफी लाभ हुआ है। हर दूसरे साल गोबर की खाद के 20 टनप्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग से पांच साल की अवधि में मृदा कार्बनिक पदार्थ में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई । अनुसंधानों से यह भी स्पष्ट हुआ कि कार्बनिक संशोधन तभी प्रभावशाली होते हैं, जब यह मृदा में 20-25 सेंटीमीटर तक की गहराई में डाले जाएं। अर्ध-शुष्क, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन पर किए गए अनुप्रयोगों से यह ज्ञात हुआ कि इन पद्धतियों से मृदा में मूंगफली, रागी, शीत कालीन ज्वार, बाजरा, ग्वार, अरंडी, सोयाबीन, कुसुंभ, मसूर और उच्च भूमि चावल के अंतर्गत मृदा में कार्बन की मात्रा में वृद्धि हुई। इससे कार्बन पृथक्करण के अतिरिक्त कृषि उत्पादकता में सुधार लाने और जलवायु परिवर्तन का शमन कम करने में भी मदद मिलेगी ( सारणी- 7 ) ।पैदावार बढ़ाने के अतिरिक्त, जैविक खाद कई पोषक तत्वों की कमी दूर करने में भी उपयोगी साबित हुई है। यह देखा गया है कि 10 साल की अवधि के लिए गोबर की खाद के प्रयोग से मृदा में जिंक की उपलब्धता में भी वृद्धि हुई ।
सारणी-7 : वर्षा आधारित क्षेत्रों में विभिन्न स्थानों पर एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन का फसल उपज दर पर प्रभाव
गोबर की खाद के प्रयोग से न केवल फसल में फास्फोरस की कमी को सुधारा गया बल्कि मृदा में भी इसकी वृद्धि हुई है। केंचुए की खाद फसलोत्पादन में अगर पर्याप्त मात्रा में डाली जाए तो इससे फसलोत्पादन में काफी लाभ होता है। कई अनुसंधानकर्ताओं ने विभिन्न कार्बनिक पदार्थों जैसे कि शहरी कचरा, ग्रामीण कचरा, रसोई का कचरा, उपचारित गटर की खाद और खेत के अवशिष्ट पदार्थों का प्रयोग कर बहुत अच्छी या बेहतर केचुए की खाद तैयार करने के सफल प्रयत्न किए हैं। वर्मीकंपोस्ट का रासायनिक उर्वरक के साथ नाइट्रोजन के आधार पर 1:1 अनुपात में प्रयोग करने से हैदराबाद की लाल मृदाओं में उगाई गई सूरजमुखी की फसल में बहुत अच्छा प्रभाव दिखाई दिया।
मृदा स्वास्थ्य के महत्व को ध्यान में रखते हुए इस परियोजना के अंतर्गत तेलंगाना एवं आंध्र प्रदेश के छ: जिलों में गांव के कुछ समूहों का सर्वेक्षण किया गया। इसमें यह पता लगाया गया कि किस जिले में किस प्रकार के विभिन्न जैविक संसाधन उपलब्ध हैं जो कि पोषक तत्वों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रयोग में लाए जा सकते हैं (सारणी- 8)। इन उपलब्ध जैविक संसाधनों पर आधारित एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन रणनीति तैयार की गई और इसे किसानों के खेतों पर लागू किया गया।
सारणी- 8 : तेलंगाना एवं आंध्रप्रदेश के छ: लक्षित जिलों में गावों में उपलब्ध जैविक संसाधनों की स्थिति
अनुसंधानों से यह स्पष्ट हुआ है कि फसल अवशेषों और रसायनिक उर्वरकों के संयुक्त प्रयोग का प्रदर्शन केवल अवशेषों की तुलना में काफी बेहतर था । नत्रजन की कमी वाली मृदा में (बेंगलुरू) फसल के अवशेषों के उपयोग से उर्वरता की स्थिति और मृदा के भौतिक गुणों में महत्वपूर्ण सुधार देखा गया है। पांच साल तक फसल अवशेषों के सतत उपयोग से मक्का की अनाज उपज में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई। मक्का अवशेषों के न डालने की अपेक्षा प्रति वर्ष 4 टन प्रति हेक्टेयर मक्का अवशेषों के उपयोग से कार्बनिक पदार्थ की मात्रा 0.5 प्रतिशत से बढ़कर 0.9 प्रतिशत तक हो गई। हैदराबाद की लाल मृदाओं में बाजरा और लोबिया में फसल अवशेषों के उपयोग ने न केवल पैदावार को बढ़ाया बल्कि इसने मृदा संरचना, मृदा समुच्चय और मृदा जल संचालकता की स्थिति में भी सराहनीय सुधार किया। अकोला में फसल अवशेषों के प्रयोग से ज्वार + अरहर सह रोपण प्रणाली में ज्वार की अनाज की उपज में 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई । रांची में फसल अवशेषों के प्रयोग से उच्च भूमि चावल की पैदावार में आधार उपज (4.4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) में 41 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वाराणसी केंद्र पर नवीन मृदाओं में मसूर की उपज लगभग दो गुना और तिल की उपज में कई गुना वृद्धि दर्ज की गई। हैदराबाद की लाल मृदाओं में कम अवधि की दलहनी फसलों, जैसे कि मूंग और लोबिया, को व्यापक अंतर से बोई जाने वाली फसलों (अरंड) में उगाने और इन्हें कटाई के उपरांत जुताई कर वापस मृदा में मिला देने से लगभग 30 किलो नत्रजन (उर्वरक नत्रजन समतुल्य) प्रति हेक्टेयर का फायदा हुआ।
भारत में प्रमुख वर्षा आधारित उत्पादन प्रणाली पर दीर्घ कालिक खाद प्रयोगों के आंकड़ों से यह स्पष्ट हो चुका है कि फसल अवशेषों के माध्यम से मृदा में कार्बन की मात्रा बढ़ाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त यह भी पाया गया है कि नत्रजन स्थिरीकरण करने वाले पेड़ों जैसे ल्यूसिना और गिरीपुष्पा की डालियों (पत्ते + टहनियां) में औसतन रूप से सूखे वजन के आधार पर 3 प्रतिशत तक नत्रजन की मात्रा होती है। इन पेड़ों को पोषक तत्वों की आपूर्ति हेतु बायोमास उत्पन्न करने के लिए या तो खेतों की मेढ़ो पर या खेत के किसी कोने में उगाया जा सकता है।
इन पेड़ों की डालियों को या तो अकेले या रासायनिक उर्वरकों के साथ संयोजन के रूप में ज्वार और सूरजमुखी जैसी फसलों की पैदावार बढ़ाने में प्रयोग किया जा सकता है। अनुसंधान से यह भी ज्ञात हुआ है कि यूरिया एवं ल्यूसिना और गिरीपुष्पा जैसे कार्बनिक पदार्थों के संयुक्त उपयोग (1:1 नत्रजन समतुल्य) से ज्वार की अनाज की उपज को बढ़ाया जा सकता है। इस दृष्टिकोण से यह सिद्ध हो चुका है कि उर्वरक नत्रजन की 50 प्रतिशत तक की आवश्यकता इन वृक्षों की हरी पत्तियों और टहनियों के प्रयोग के माध्यम से पूरी की जा सकती है।
अकोला की मृदाओं में मृदा गुणता सूचकों पर किए गए अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ कि अकोला की मृदाओं में प्रमुख मृदा गुणता सूचक और उनका मृदा गुणता में योगदान इस प्रकार था जैसे - कार्बनिक कार्बन (28 प्रतिशत) > सूक्ष्म जैव बायोमॉस (25 प्रतिशत) > उपलब्ध पोटाशियम (24 प्रतिशत) > विद्युत चालकता ( 7 प्रतिशत) > पीएच ( 6 प्रतिशत) > डीएचए (6 प्रतिशत) > उपलब्ध मैगनीशियम (4 प्रतिशत ) | हैदराबाद की लाल मृदा की गुणवत्ता में सुधार पर किए गए एक लंबी अवधि के अध्ययन के परिणामों से पता चला कि मृदा में लंबे समय तक 2 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गिरीपुष्पा की हरी कर्तने डालने से या ज्वार की कड़वी 2 टन प्रति हेक्टेयर (सूखा भार ) की दर से अनुप्रयोग से बिना उपचार की अपेक्षा उच्च मृदा गुणता सूचकमान दर्ज किया गया और इसके अतिरिक्त नत्रजन का स्तर बढ़ाने से भी उच्च मृदा गुणता सूचक दर्ज किया गया और इसके अतिरिक्त नत्रजन का स्तर बढ़ाने से भी उच्च मृदा गुणता सूचक को बनाए रखने में मदद मिली। कुल 24 उपचारों के आधार पर मृदा गुणता सूचक 0.90 से 1.27 तक दर्ज किए गए। उच्च मृदा गुणता सूचक पारंपरिक जुताई+ गिरीपुष्पा कर्तने 2 टन प्रति हेक्टेयर की दर से + 90 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर डालने से (1.27) और पारंपरिक जुताई+गिरीपुष्पा कर्तने 2 टन प्रति हेक्टेयर की दर से+60 किलोग्राम नाइट्रोजन से (1.79) प्राप्त किए गए। इसके उपरांत न्यूनतम जुताई+ज्वार की कड़बी 2 टन प्रति हेक्टेयर +90 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर का ( 1.18) स्तर रहा।
अध्ययन से यह भी पता चला है कि सबसे महत्वपूर्ण सूचक और इनका मृदा गुणता में योगदान क्रमश: उपलब्ध नत्रजन (32 प्रतिशत), जीवाणुविय जैविक कार्बन (31 प्रतिशत), उपलब्ध पोटाश (17 प्रतिशत), जल संचालकता ( 16 प्रतिशत) और गंधक (4 प्रतिशत ) था । पारंपरिक जुताई के साथ-साथ 2 टन प्रति हेक्टेयर गिरीपुष्पा (हरा ) + 90 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर डालने से मृदा गुणता के अतिरिक्त अरंड और ज्वार की भरपूर पैदावार दर्ज की गई। हैदराबाद की लाल मृदाओं में एक लंबी अवधि के एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन पर किए गए प्रयोग से, बिना उपचार की तुलना में क्रमश: 84.62 और 77.7 प्रतिशत तक ज्वार की उपज में वृद्धि दर्ज की गई। मूंग की फसल में 2 टन कंपोस्ट + 1 टन गिरीपुष्पा कर्तने और 2 टन कंपोस्ट +10 किलोग्राम नत्रजन के अनुप्रयोग से बिना उपचार की तुलना में 51.6 प्रतिशत और 50.8 प्रतिशत अधिक मूंग की उपज दर्ज की गई। परिणामों से यह स्पष्ट रूप से इंगित है कि ज्वार और मूंग की नत्रजन की मांग का 50 प्रतिशत भाग कृषि आधारित जैविक सामग्री जैसे कि गोबर की खाद या गिरीपुष्पा की कर्तनो के माध्यम से पूरा किया जा सकता है। ज्वार के मामले में विभिन्न उपचारों में सर्वाधिक कृषि दक्षता 2 टन गिरीपुष्पा कर्तने + 20 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर (20.32 किलो अनाज प्रति किलो नत्रजन) तत्पश्चात यूरिया के माध्यम से 40 किलोग्राम नत्रजन (18.61 किलो अनाज प्रति किलो नत्रजन) डालने से दर्ज की गई। मूंग की फसल में उच्चतम सस्य दक्षता ( 13.75 किलो अनाज प्रति किलो नत्रजन) 2 टन गोबर की खाद+ 1 टन गिरीपुष्पा की कर्तनो के उपचार में पाई गई। तत्पश्चात 2 टन गोबर की खाद + 10 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर (13.56 किलो अनाज प्रति किलो नत्रजन) का स्थान था। पारंपरिक जुताई (0.71 प्रतिशत) की तुलना में कम जुताई (0.74 प्रतिशत) द्वारा उच्च जैविक कार्बन की मात्रा दर्ज की गई। जैविक कार्बन की सबसे अधिक मात्रा (0.82 प्रतिशत) 4 टन गोबर की खाद +2 टन गिरीपुष्पा की कर्तनों के उपचार से दर्ज की गई।
इस प्रकार कई अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि रासायनिक उर्वरकों और जैविक पदार्थों के एकीकृत प्रयोग से मृदा की गुणता को सुधारने के साथ वर्षा आधारित फसलों की उत्पादकता भी बढ़ाई जा सकती है और वर्षा आधारित कृषि में टिकाऊपन लाया जा सकता है।
मृदा स्वास्थ्य और पोषक तत्व प्रबंधन को सुदृढ़ बनाने के लिए मुख्य सुझाव
वर्षा आधारित क्षेत्रों में मृदा स्वास्थ्य और पोषक तत्व प्रबंधन को सुदृढ़ बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जाते हैं:-
- किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध कराना ।
- जिला मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं का पुनर्विन्यास करना। इसमें योग्य और प्रशिक्षित कर्मचारियों का चयन अति आवश्यक है और समय-समय पर उनको प्रशिक्षण देना अति आवश्यक है।
- किसानों में मृदा की महत्ता हेतु जागरूकता पैदा करना ।
- किसानों में मृदा उर्वरता और पोषक तत्व प्रबंधन हेतु जागरूकता पैदा करना ।
एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन पर अधिक ध्यान देना अति आवश्यक है। इसमें जैविक पदार्थों जैसे कि जैविक खाद (कंपोस्ट खाद, गोबर की खाद वर्मीकंपोस्ट) का अनुप्रयोग, नत्रजन स्थिरीकरण करने वाली फसलों पर आधारित हरी खाद, पेड़ों की पत्तियों पर आधारित हरी खाद, फसल अवशेषों की पुनरावृत्ति, भेड़-बकरियों की मैगनियों का प्रयोग, जैविक खेती, संरक्षण जुताई, फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश, जैविक उर्वरकों का प्रयोग, बायोचार का प्रयोग इत्यादि महत्वपूर्ण हैं।
- जैविक पदार्थों का प्रयोग कर खेत स्तर पर पोषक तत्व बैंक धारणा पर काम करना ।
- सूक्ष्मजीव विविधता बढ़ाना और जैव उरर्वकों की उपलब्धता को सुनिश्चित करना ।
- स्थान विशेष के लिए पोषक तत्व प्रबंधन पर जोर देना और संतुलित बहु पोषक तत्व उर्वरक और अनुकूलित उर्वरकों (अनुकूलित) की उपलब्धता सुनिश्चित करना ।
- परिशुद्धता खेती के माध्यम से उर्वरक उपयोग दक्षता बढ़ाना।
- मृदा की समस्याओं जैसे कि लवणता एवं क्षारीयता और अम्लता को सुधारने के लिए उपयुक्त तकनीक का प्रयोग करना ।
- भूमि आवरण प्रबंधन पर जोर देना जिससे कि उच्च तीव्र बारिश और तापमान के चरम से भूमि व मिट्टी की रक्षा हो सके।
- वर्षा आधारित क्षेत्रों में उर्वरक उपयोग की कूट योजना बनाना।
- यथा संभव उपयुक्त मृदा जल संरक्षण की तकनीकियों को अपनाना जिससे वर्षा के जल को प्रभावी रूप से संरक्षित किया जा सके और फसलों की रासायनिक और कार्बनिक उर्वरकों के प्रति अनुक्रिया बढ़ाई जा सके।
- नैनों उर्वरकों का उपयोग करना इत्यादि ।
सारांश
फसलों की उत्पादकता को बनाए रखने के लिए यह अति आवश्यक है कि उर्वरकों के उपयोग से पोषक तत्वों का अवक्षय रोका जाए। मृदा उर्वरता से संबंधित समस्याओं को सुलझाने के लिए यह जरूरी है कि कम वर्षा वाली स्थूल गठित भूमि में जैविक पदार्थों को मिलाने हेतु प्राथमिकता दी जाए। फसल के अवशेषों का उपयोग, वृक्षों की हरी पत्तियों पर आधारित पोषक तत्व खनन एवं चक्र, हरी पत्तियों की खाद कंपोस्ट एवं गोबर की खाद का उपयोग पोषक तत्वों के अवक्षय को रोकने के सक्षम मार्ग हैं। सस्यक्रम में फलीदार फसलों की खेती पर भी जोर दिया जाना चाहिए। फलीदार फसलों के पौधों से पकी हुई फलियों को चुन लेने के बाद उन पौधों को मृदा में मिलाने से मृदा में जैविक पदार्थ को बढ़ाने में सहायता मिलेगी। उर्वरकों और प्राकृतिक पोषक तत्वों का संयुक्त उपयोग वर्षा आधारित खेती में बहुत जरूरी है। तुलनात्मक रूप से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों की अपेक्षा, मध्यम वर्षा वाले क्षेत्रों में उर्वरकों से अधिक लाभ होने की संभावना है, लेकिन ऐसी स्थिति में भी जैविक और रासायनिक उर्वरकों से पोषक तत्वों की आपूर्ति और प्रबंधन को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
हालांकि, वर्षा आधारित मृदाओं में उर्वरकों का उपयोग आर्थिक दृष्टि से भी लाभदायक है, फिर भी वर्षा आधारित खेती पर निर्भर किसान अधिक लागत और कम पूंजी के कारण उर्वरकों पर अधिक खर्च नहीं कर पाते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा किए गए आदर्श जल विभाजकों के प्रबंधन से प्राप्त अनुभवों से ज्ञात हुआ कि यदि किसानों को बैंकों से ऋण दिलाने का प्रावधान हो और उन्हें गांव के ही नजदीकी स्थानों पर उर्वरक उपलब्ध कराने की व्यवस्था उपलब्ध कराई जाए तो वर्षा आधारित फसलों में उर्वरक के उपयोग को अधिक लोकप्रिय बनाने में सहायता मिल सकती है। इस विषय पर सरकारी, गैरसरकारी और स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इलैक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया तथा स्कूली पाठ्यक्रमों के माध्यम से भूमि, जल और मृदा संसाधनों और उनके संरक्षण और रख-रखाव के महत्व के बारे में जन जागरूकता अभियान भी चलाए जाने चाहिए।
संदर्भ
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सोर्स:- भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, वर्ष 22 अंक 2 दिसम्बर 2014
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