मवेशियों के लिये पोखर-गोकट्टी

पूरे कर्नाटक में धरती पर छोटे-छोटे ताल बिखरे पड़े हैं। गोकट्टी कहे जाने वाले यह ताल मवेशियों के लिये बनाए गए हैं। गोकट्टी जानवरों को पीने के लिये पानी और आराम के लिये स्थल प्रदान करते हैं। बारिश के पानी से भरने वाले यह ताल पूरे वर्ष जानवरों के लिये पानी के स्रोत और समुदाय की सम्पत्ति के रूप में काम करते हैं।

किसानों को स्वयं ही गोकट्टियों, पोखरों और तालाबों की पहचान करनी चाहिए, उनकी स्थितियों का अध्ययन करना चाहिए और उनमें वर्षा के पानी का अविरल प्रवाह सुनिश्चित करना चाहिए। तालाबों और पोखरों की गाद निकाली जानी चाहिए और जलस्तर को बढ़ाया जाना चाहिए। आज एक गोकट्टी के निर्माण की लागत 40,000 तक आती है। अगर सरकार इस खर्च का जिम्मा कर्ज या सब्सिडी के तौर पर ले और एक गोकट्टी का निर्माण अनिवार्य कर दे तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि गाँव दो साल के भीतर पानी के मामले में समृद्ध हो जाएँगे। ग्रामीण समुदायों के लिये धरती और जल की सुरक्षा अहम महत्त्व का मुद्दा रहा है। समय के साथ स्थानीय ज्ञान के उपयोग के माध्यम से तमाम किस्म की संरक्षण रीतियों का विकास हुआ है, जिसमें एक साहसिक प्रयोग का बोध है और माप व गणना की एक पैनी नजर है। इसलिये यह आश्चर्य नहीं है कि स्थानीय कौशल के आधार पर विकसित तालाब, पोखर, कुएँ और पशुओं के ताल आजकल के चेकडैम, गुली प्लग और खाई व बंधों का खाका प्रदान करते हैं।

गोकट्टी या जानवरों के ताल एक सामान्य और पारम्परिक जल संरक्षण की रीति है। यह ताल गाँव के भीतर-बाहर, कस्बों के बाहर, खेतों के किनारे, पहाड़ी के नीचे और यहाँ तक कि तालाब के बीच में भी बने होते हैं। इनमें से कुछ बहुत व्यवस्थित तरीके से पत्थरों के प्रयोग से बने होते हैं जबकि कुछ गड्ढों में होते हैं। इनका निर्माण बिना किसी विशेष औजार या उपकरण के सहारे किया जाता है।

कर्नाटक में कई तरह की गोकट्टियाँ होती हैं, जैसे कि सामुदायिक जानवर पोखर, कस्बों के तालाब, छोटे तालाब, मडका, खोदे गए कुएँ और जल गड्ढे वगैरह। हालांकि जल संरक्षण के तरीके बदलते रहते हैं लेकिन गोकट्टी किसी-न-किसी रूप में चलन में रहती है, एक सामुदायिक प्रयास के तौर पर यह दो दशक पहले तक रही है। हालांकि सामुदायिक गतिविधियाँ न सिर्फ गोकट्टी बनाने पर केन्द्रित रहती थीं बल्कि तालाबों की गाद निकालने व उन्हें मजबूती देने, दीवार की मरम्मत करने, पोखरों की सफेदी करने और उनकी मिट्टी निकालने का काम भी सामुदायिक प्रयासों का हिस्सा रहा है। गोकट्टी और पोखर का निर्माण करने में लोगों की अच्छी तादाद में भागीदारी होती थी।

नेत्र-तकनीक


गोकट्टी एक सरल और आश्चर्यजनक संरचना है जो कि इलाके की सम्पूर्ण वर्षा को इकट्ठा कर लेती है। बुजुर्गों के नेत्र-तकनीक का इस्तेमाल करते हुए यह प्रणाली प्रशिक्षित नेत्रों के कौशल का इस्तेमाल पानी के पूरे प्रवाह को गोकट्टी में ले जाने के लिये करती है। इस पद्धति में धरती के अवयवों का अवलोकन किया जाता है। गोकट्टी के निर्माण का स्थल इतना वैज्ञानिक होता था कि पानी की एक बूँद भी बेकार नहीं जाती थी और गोकट्टी मुँह तक भर जाती थी। गोकट्टी का पानी जब उफनता था तो गाँव के तालाब में जाता था और उसी के साथ इलाके के कुओं को भी भर देता था।

आमतौर पर इलाके की सभी गोकट्टियाँ एक दूसरे से जुड़ी होती थीं। इससे एक प्रणाली बनती थी जिसके तहत एक तालाब लबालब होने पर दूसरे को भरता था और जब वह भरता था तो पास के अन्य तालाब को भरता था। जब सारे तालाब भर जाते थे तो पानी कस्बे के मुख्य तालाब में चला जाता था।

मवेशी आमतौर पर कस्बे के बाहर की पहाड़ियों पर चराई करते थे। लौटते समय वे पहाड़ी की तलहटी में स्थित या गाँव के किनारे बनी गोकट्टी से पानी पीते थे। चूँकि यह ताल ढलान पर बनाए जाते थे इसलिये पानी का एक हिस्सा जमीन सोख लेती थी और बाकी मवेशियों के ताल में जमा हो जाता था।

बाक्स----कुछ दशक पहले चित्रदुर्ग जिले के मदनायकनहल्ली गाँव के एक सामान्य निवासी रंगप्पा ने मवेशियों को पानी देने के लिये अपने गाँव में गोकट्टी बनाई। उन्होंने अकेले ही इस गोकट्टी का निर्माण किया और उस पर आने वाला सारा खर्च खुद ही उठाया। उनके इस प्रयास की तारीफ में गाँव वालों ने उन्हीं के नाम पर गोकट्टी का नाम रख दिया। आज तक यह गोकट्टी गाय, भेड़, बकरी और दूसरे चरने वाले मवेशियों के लिये जल का स्रोत है। इसमें साल भर पर्याप्त पानी रहने के कारण फलदार वृक्ष उग आए और गोकट्टी पारिस्थितिकीय सन्तुलन की बेहतरीन नमूने के तौर पर उभरी है।

गोकट्टी किसने बनाई


इस सवाल का सामान्य जवाब यह है कि उन्हें तालुका पंचायत, जिला पंचायत और ग्राम पंचायत ने बनाया है। पर उसके लिये रामज्जा और कित्तप्पा जैसे लोगों का नाम लिया जाता है जिन्होंने गांव वालों के फायदे के लिये गोकट्टी, तालाब, पोखर और कुएँ बनाए। यह पूरी तरह श्रमदान या समुदाय की सेवा के आधार पर बनाए गए। समुदाय के कल्याण के लिये उनके समर्पण को मान्यता दी गई और आज भी कई गोकट्टियों की पहचान उनके दाताओं के नाम से होती है, यह समुदाय के लिये की गई उनकी सेवा को अहमियत देने का तरीका है।

गोकट्टी का पानी और उसका इस्तेमाल


कर्नाटक के मैदानी इलाकों जैसे कि कोलार, तुमकुर, चित्रदुर्ग, दावणगेरे, शिमोगा और बंगलुरु के ग्रामीण जिलों में बहुत सारी गोकट्टियाँ हैं। उदाहरण के लिये कोलार जिले के गौरीबिदनूर तालुका में गोकट्टी पानी के तालाबों की शक्ल में हैं। अवकाश प्राप्त शिक्षक श्रीनारायणस्वामी इनकी संख्या 200 तक बताते हैं। उनके अनुसार यह तालाब न सिर्फ सामुदायिक परिसम्पत्ति हैं बल्कि हर किसान के खेत की सिंचाई के लिये निजी जल प्रणाली भी थी। सम्बन्धित किसान उनके रखरखाव का काम देखते थे हालांकि उसमें जमा पानी को कोई भी इस्तेमाल कर सकता था।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मैदान के सारे नारियल के पेड़ गोकट्टी के पानी पर पलते रहे हैं। गोकट्टी जो अन्तर्भौमिक नमी प्रदान करती है वह दूरी के बावजूद नारियल के पौधों के बढ़ने के लिये काफी होती है। गोकट्टी फूलों की खेती के लिये भी फायदेमन्द है और चित्रदुर्ग जिले में ऐसे किसान हैं जो गोकट्टी के पानी का इस्तेमाल करते हुए फूलों की खेती करते हैं और सालाना 50,000 तक कमाते हैं।

चित्रदुर्ग के एक जलविशेषज्ञ एन देवराज रेड्डी गोकट्टी से निकली सफलता की कुछ कहानियाँ बताते हैं जो इस प्रकार हैं—

1. छह सदस्यों के परिवार वाले गरीब किसान केंचप्पा के पास चित्रदुर्ग जिले के होललकेरे तालुका के नागरहट्टा गाँव में 40 गुंटा खेत है। यह शुष्क इलाका है और बारिश के पानी पर ही निर्भर है। लेकिन उसके गाँव में गोकट्टी है। वह चमेली की खेती करते हैं और पौधों को पानी देने के लिये गोकट्टी से साइकिल पर पानी लाते हैं। इससे केंचप्पा साल में 50,000 की कमाई कर लेते हैं।

उसी जिले के होलालकेरे और होसादुर्ग तालुका में गोकट्टी के पानी का इस्तेमाल आज भी नारियल के पौधों को सींचने के लिये किया जाता है। दूर या नज़दीक जो भी हो यहाँ के किसान साइकिल पर बर्तनों में भरकर पानी लाते हैं और सिंचाई करते हैं। चिक्काईमिगानूर का किसान शेखरप्पा अपने दस एकड़ के नारियल के बगीचे की सिंचाई गोकट्टी से करता है।

चित्रदुर्ग कस्बे में रंगज्जना गोकट्टी का पानी बोरिंग के पानी से ज्यादा मीठा है। ऐसा इसलिये है क्योंकि गोकट्टी में जो पानी इकट्ठा होता है वह बारिश का पानी है और कई सालों तक धरती में रिसकर जाता है। इससे भूजल का स्तर मात्रा और गुणवत्ता दोनों मामले में सुधरता है। स्थानीय लोगों का मानना है कि बोरिंग के पानी से तैयार खाना कच्चा रह जाता है जबकि गोकट्टी के पानी से तैयार खाना स्वादिष्ट होता है।

आमतौर पर किसान गोकट्टी के आसपास किस्म किस्म की फसल उगाते हैं क्योंकि इसका पानी किसी भी प्रकार की खेती के लिये उपयुक्त होता है। इसका अर्थ है कि गोकट्टी भूजल को संरक्षित करती है और खेती की विविधता बनाए रखता है।

जब एक एनजीओ बीएआईएफ ने तिपतुर जिले में समुदाय आधारित जल-संरक्षण का काम शुरू किया तो उसने पहला काम गोकट्टी के बारे में चेतना फैलाने का किया। संगठन ने गोकट्टी के इतिहास को अपनी परियोजना का हिस्सा बनाया ताकि लोगों को जल-शिक्षित किया जा सके। इसने गाँवों में लुंज पुंज पड़ी गोकट्टियों को पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया, इसके पानी के इस्तेमाल से हरी-भरी नर्सरी का प्रसार किया और किसानों के लिये रोज़गार पैदा किया।

क्यों गायब हो गईं गोकट्टियाँ


बंगलुरु के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के स्वर्गीय डॉ. सोमशेखर रेड्डी अनुसार अंग्रेजी शासन के दौरान सरकार ने एक सर्वे किया था। इस सर्वे में सरकार को आमदनी न करने वाली ज़मीन का पता चला उसे खेती के लिये अनुपयुक्त घोषित कर दिया गया और उसे सरकारी प्रशासन के तहत ले लिया गया। इस सर्वे के नतीजे के तौर पर गोकट्टी की ज्यादातर जमीनों को जनता से जब्त कर लिया गया। इस तरह की कार्रवाइयों के चलते धीरे-धीरे गोकट्टी प्रणाली विलुप्त हो गई। आज जो बची हैं वह वो गोकट्टियाँ हैं सामुदायिक स्वामित्व में हैं या फिर धार्मिक स्थलों पर हैं।

मौजूदा स्थिति


दुर्भाग्य से गोकट्टियों को बेकार हो जाने दिया गया। तालाब और बंधे जो कभी समुदायों ने बनाए और जिनका रखरखाव किया था वे अब गाँव, तालुका और जिला प्रशासन के तहत आ चुके हैं। इस तरह अब गाँव वाले पोखरों की गाद निकालने और गोकट्टी की मरम्मत के लिये अपनी सेवाएँ नहीं देते। अब उनके व्यवहार में बदलाव आ चुका है और करदाता के तौर पर अब उन्हें इन चीजों की चिन्ता नहीं है। सरकार ने भी इस प्रणाली के प्रति आँख मूँद ली है। परिणामस्वरूप इनसे जुड़ी आजमाई हुई परम्परा और संस्कृति का दुर्भाग्यपूर्ण नुकसान हो चुका है।

इसी के साथ सरकार ने विश्व बैंक के अनुदान से चलने वाली सुजला, जल संवर्धन परियोजना संघ और नदी घाटी विकास कार्यक्रम शुरू किये हैं , जिसके माध्यम से उसने गोकट्टी तालाब और उस तरह के जल स्रोतों के संरक्षण के काम में कदम बढ़ाए हैं। अब उनमें काफी परिवर्तन हो चुका है और उन्हें नहर के तटबन्ध, गुली प्लग, खेती के गड्ढे जैसे नामों से सम्बोधित किया जाता है। एक फर्क यही आया है कि समुदायों में उनको लेकर अब ज्यादा रुचि नहीं है और सरकार उनको परियोजनाओं में भागीदारी के लिये तमाम तरह के प्रोत्साहन और धन दे रही है।

पुनर्जीवन से समाधान


किसानों को स्वयं ही गोकट्टियों, पोखरों और तालाबों की पहचान करनी चाहिए, उनकी स्थितियों का अध्ययन करना चाहिए और उनमें वर्षा के पानी का अविरल प्रवाह सुनिश्चित करना चाहिए। तालाबों और पोखरों की गाद निकाली जानी चाहिए और जलस्तर को बढ़ाया जाना चाहिए। आज एक गोकट्टी के निर्माण की लागत 40,000 तक आती है। अगर सरकार इस खर्च का जिम्मा कर्ज या सब्सिडी के तौर पर ले और एक गोकट्टी का निर्माण अनिवार्य कर दे तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि गाँव दो साल के भीतर पानी के मामले में समृद्ध हो जाएँगे। अगर मानसून से पहले गोकट्टी को पुनर्जीवित कर दिया जाए तो एक पारंपरिक और समय की कसौटी पर सफल पाई गई जल संरक्षण की एक व्यवस्था को नया जीवन मिल सकता है।

घनाधालु श्रीकांत एक पत्रकार हैं जो इस समय कन्नड़ दैनिक प्रजावाणी के लिये काम करते हैं। उनकी कृषि, ग्रामीण विकास, बागवानी और आर्गेनिक खेती में विशेष रुचि है।

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Post By: RuralWater
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