जब मूर्ति नौवें दिन अपने अंतिम दिवस हवन के बाद स्थान से हटाई जाती है तो स्वतः ही देवी का परायण हो जाता है। इसके पश्चात वह मिट्टी है और यदि मिट्टी की वस्तु का मिट्टी में विसर्जन कर दिया जाए तो गलत क्या है? हिंदु धर्म में जल विसर्जन उनका किया जाता है जो अकाल मृत्यु मरे हों, जहरीले कीड़े ने काटा हो, जल कर मरा हो, अविवाहित हो, पाचक में मरा हो। मां दुर्गा और श्री गणेश महोत्सव में किया जाने वाला जल विसर्जन नदी की आस्था को प्रदूषित करने से अधिक कुछ भी नहीं है। बांदा। उच्च न्यायालय इलाहाबाद उत्तर प्रदेश के गंगा प्रदूषण बोर्ड की तरफ से दाखिल की गई जनहित याचिका संख्या 4003/2006 गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन पर रोक से सकते में आई उत्तर प्रदेश सरकार और इलाहाबाद जिला प्रशासन के लिए नदी में मूर्ति विसर्जन गले की फांस बन गया। एक वर्ष पूर्व उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने इसी याचिका पर आदेश पारित करते हुए इलाहाबाद जिला प्रशासन को जल विसर्जन के विकल्प तलाश करने की हिदायत दी थी। बावजूद इसके एक वर्ष तक ब्यूरोक्रेसी नींद में सोती रही और वर्ष 2013 के मां दुर्गा महोत्सव के बाद मूर्तियों के जल विसर्जन को लेकर न्यायालय में उसकी जवाबदेही को याचिका कर्ताओं ने कटघरे में खड़ा कर दिया।
उच्च न्यायालय ने सख्त लहजे में इलाहाबाद जिला प्रशासन से कहा कि आप एक वर्ष तक सोते रहे तो अब सजा भी भुगतिए। कोर्ट के ये शब्द सुनकर प्रशासन से लेकर प्रदेश सरकार तक के प्रमुख सचिव के लिए मूर्तियों का विसर्जन मुद्दा बन गया। आनन-फानन में इलाहाबाद जिला प्रशासन ने उच्च न्यायालय से इस वर्ष किसी तरह नदी में ही मूर्ति विसर्जन की अनुमति देने की जिरह की और कहा कि इतनी बड़ी संख्या में प्रदेश भर के शहरों से जहां गंगा-यमुना बहतीं हैं पर मूर्ति विसर्जन रोक पाना कठिन कार्य है, इसलिए समय को देखते हुए हमें मूर्ति को नदी में डुबोकर वापस निकाल लेने की अनुमति दी जाए। प्रशासन के इस कुतर्क पर कोर्ट ने नाराजगी भी जताई कि आपने अगर ऐसा किया तो जिस प्रदूषण को लेकर यह जनहित याचिका दाखिल की गई है काम तो वही किया जा रहा है।
इन हालातों में जिला प्रशासन ने सभी दुर्गा कमेटियों की औचक बैठक बुलाई और नदी की बजाय तालाब या कहीं और मूर्ति के विसर्जन की बात कही गई, लेकिन वर्षों से चली आ रही आस्था की यह परंपरा तोड़ने के लिए हिंदुवादी संगठन तैयार नहीं हुए और बात बिगड़ने की स्थितियाँ उत्पन्न होते देख जिला प्रशासन ने पुनः प्रदेश सरकार की तरफ से न्यायालय में हलफ़नामा दाखिल कर इस वर्ष के लिए जल विसर्जन की अनुमति देने का निवेदन किया। जिसे परस्थितिवश ध्यान में रखकर उच्च न्यायालय ने गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन की अनुमति प्रदान की। मगर समाज के एक तबके ने कुछ ऐसा भी किया जो औरों के लिए भले ही अतिश्योक्ति पूर्ण कार्य हो, मगर हकीक़त यही है। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में कई मूर्तियों का मां के भक्तों ने आस्था के साथ भूमि विसर्जन किया। उच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करते हुए और आस्था के तर्कों पर भी मूर्ति के भूमि विसर्जन को न्याय संगत वर्तमान नदी परिस्थितियों में बतलाया।
दुर्गा कमेटियों ने कहा कि जब मूर्ति नौवें दिन अपने अंतिम दिवस हवन के बाद स्थान से हटाई जाती है तो स्वतः ही देवी का परायण हो जाता है। इसके पश्चात वह मिट्टी है और यदि मिट्टी की वस्तु का मिट्टी में विसर्जन कर दिया जाए तो गलत क्या है? वहीं हिंदु मंदिरों से जुड़े कुछ पुजारी भी अपने मुताबिक तर्क देते है उनमें प्रमुख हैं फतेहपुर जिले में हर वर्ष गंगा को बचाने के लिए भूमि विसर्जन कराने वाले स्वामी ज्ञानस्वरूपानंद जी। उनका कहना है कि हिंदु धर्म में जल विसर्जन उनका किया जाता है जो अकाल मृत्यु मरे हों, जहरीले कीड़े ने काटा हो, जल कर मरा हो, अविवाहित हो, पाचक में मरा हो। मां दुर्गा और श्री गणेश महोत्सव में किया जाने वाला जल विसर्जन नदी की आस्था को प्रदूषित करने से अधिक कुछ भी नहीं है। उनका यह भी कहना है कि क्या जल सिर्फ नदी में होता है? क्या हम मूर्ति को नहरों या दबंगों के कब्ज़े में खत्म हो रहे प्राचीन तालाबों, पोखर में यह नहीं कर सकते। लेकिन कहीं न कहीं तालाबों में जल विर्सजन भी उचित नहीं है, लेकिन यह कार्य उन सबसे भला है जो दबंगों के कब्जों में तालाबों को पाटने और विरासत को खत्म किए जाने का खेल कर रहे हैं। जितना धन देश के प्रत्येक शहरों में मूर्ति विसर्जन के लिए स्थानीय नगर पालिका, व्यवस्था, सड़क मार्ग, साफ-सफाई पर खर्च करती है उतने ही धन में मूर्ति विसर्जन के बाद तालाबों और नहरों की तत्कालिक सिल्ट, कचरा हटाया जा सकता है।
साल दर साल छोटे-बड़े शहरों से लेकर ग्राम की चौपाल तक दुर्गा महोत्सव और गणेश महोत्सव के नाम पर सैकड़ों मूर्तियों की बढ़ती हुई संख्या ने नदियों के भविष्य पर खतरा पैदा कर दिया है। क्या हम विचार एक मत से मूर्तियों की संख्या में कमी नहीं कर सकते, क्या देवियों के स्वरूप को सात फिट की बजाय कम नहीं किया जा सकता। आस्था और भगवान तो पत्थर में भी बसते हैं, बस देखने का नज़रिया अलग-अलग होता है।
क्या हम विकल्प रूप में आटे या बेसन या समाचार पत्र की लुगदी से ईको फ्रेंडली मूर्तियां पीओपी के बजाए तैयार नहीं कर सकते हैं, जो नदी या तालाब में प्रदूषण को कम करके बेसन और आटे के बहाने जलचर को भोजन उपलब्ध करा सकती है।
बुंदेलखंड के बांदा जिले में प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी युवा साथियों ने केन में मूर्ति विर्सजन के पश्चात फैली गंदगी को निकालकर बाहर किया। साथ ही ग्राम कानाखेड़ा में सूर्यपाल सिंह चौहान की अगुवाई में एक मूर्ति का भूमि विसर्जन भी कराया गया है। वहीं स्थानीय संगठन प्रवास सोसाइटी ने गंगा-यमुना पर दिए गए उच्च न्यायालय के आदेश को आधार बनाकर चित्रकूट की मंदाकिनी, बांदा की केन, हमीरपुर की बेतवा और यमुना पर मूर्ति विसर्जन रोक के लिए एक जनहित याचिका दाखिल की है। नदियों से जुड़े पर्यावरण मित्र और लोग गाहे-बगाहे समाज में पुरानी रूढ़िगत प्रथाओं को बदलने के लिए ऐसे सुखद कार्य करते हैं यह और बात है कि समाज का एक वर्ग उन्हें हिंदु विरोधी करार देता है। पर हर अंधेरे की तरह इस रात की भी सुबह होगी, इस उम्मीद के साथ दिया जलाना लाज़मी है।
उच्च न्यायालय ने सख्त लहजे में इलाहाबाद जिला प्रशासन से कहा कि आप एक वर्ष तक सोते रहे तो अब सजा भी भुगतिए। कोर्ट के ये शब्द सुनकर प्रशासन से लेकर प्रदेश सरकार तक के प्रमुख सचिव के लिए मूर्तियों का विसर्जन मुद्दा बन गया। आनन-फानन में इलाहाबाद जिला प्रशासन ने उच्च न्यायालय से इस वर्ष किसी तरह नदी में ही मूर्ति विसर्जन की अनुमति देने की जिरह की और कहा कि इतनी बड़ी संख्या में प्रदेश भर के शहरों से जहां गंगा-यमुना बहतीं हैं पर मूर्ति विसर्जन रोक पाना कठिन कार्य है, इसलिए समय को देखते हुए हमें मूर्ति को नदी में डुबोकर वापस निकाल लेने की अनुमति दी जाए। प्रशासन के इस कुतर्क पर कोर्ट ने नाराजगी भी जताई कि आपने अगर ऐसा किया तो जिस प्रदूषण को लेकर यह जनहित याचिका दाखिल की गई है काम तो वही किया जा रहा है।
इन हालातों में जिला प्रशासन ने सभी दुर्गा कमेटियों की औचक बैठक बुलाई और नदी की बजाय तालाब या कहीं और मूर्ति के विसर्जन की बात कही गई, लेकिन वर्षों से चली आ रही आस्था की यह परंपरा तोड़ने के लिए हिंदुवादी संगठन तैयार नहीं हुए और बात बिगड़ने की स्थितियाँ उत्पन्न होते देख जिला प्रशासन ने पुनः प्रदेश सरकार की तरफ से न्यायालय में हलफ़नामा दाखिल कर इस वर्ष के लिए जल विसर्जन की अनुमति देने का निवेदन किया। जिसे परस्थितिवश ध्यान में रखकर उच्च न्यायालय ने गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन की अनुमति प्रदान की। मगर समाज के एक तबके ने कुछ ऐसा भी किया जो औरों के लिए भले ही अतिश्योक्ति पूर्ण कार्य हो, मगर हकीक़त यही है। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में कई मूर्तियों का मां के भक्तों ने आस्था के साथ भूमि विसर्जन किया। उच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करते हुए और आस्था के तर्कों पर भी मूर्ति के भूमि विसर्जन को न्याय संगत वर्तमान नदी परिस्थितियों में बतलाया।
दुर्गा कमेटियों ने कहा कि जब मूर्ति नौवें दिन अपने अंतिम दिवस हवन के बाद स्थान से हटाई जाती है तो स्वतः ही देवी का परायण हो जाता है। इसके पश्चात वह मिट्टी है और यदि मिट्टी की वस्तु का मिट्टी में विसर्जन कर दिया जाए तो गलत क्या है? वहीं हिंदु मंदिरों से जुड़े कुछ पुजारी भी अपने मुताबिक तर्क देते है उनमें प्रमुख हैं फतेहपुर जिले में हर वर्ष गंगा को बचाने के लिए भूमि विसर्जन कराने वाले स्वामी ज्ञानस्वरूपानंद जी। उनका कहना है कि हिंदु धर्म में जल विसर्जन उनका किया जाता है जो अकाल मृत्यु मरे हों, जहरीले कीड़े ने काटा हो, जल कर मरा हो, अविवाहित हो, पाचक में मरा हो। मां दुर्गा और श्री गणेश महोत्सव में किया जाने वाला जल विसर्जन नदी की आस्था को प्रदूषित करने से अधिक कुछ भी नहीं है। उनका यह भी कहना है कि क्या जल सिर्फ नदी में होता है? क्या हम मूर्ति को नहरों या दबंगों के कब्ज़े में खत्म हो रहे प्राचीन तालाबों, पोखर में यह नहीं कर सकते। लेकिन कहीं न कहीं तालाबों में जल विर्सजन भी उचित नहीं है, लेकिन यह कार्य उन सबसे भला है जो दबंगों के कब्जों में तालाबों को पाटने और विरासत को खत्म किए जाने का खेल कर रहे हैं। जितना धन देश के प्रत्येक शहरों में मूर्ति विसर्जन के लिए स्थानीय नगर पालिका, व्यवस्था, सड़क मार्ग, साफ-सफाई पर खर्च करती है उतने ही धन में मूर्ति विसर्जन के बाद तालाबों और नहरों की तत्कालिक सिल्ट, कचरा हटाया जा सकता है।
साल दर साल छोटे-बड़े शहरों से लेकर ग्राम की चौपाल तक दुर्गा महोत्सव और गणेश महोत्सव के नाम पर सैकड़ों मूर्तियों की बढ़ती हुई संख्या ने नदियों के भविष्य पर खतरा पैदा कर दिया है। क्या हम विचार एक मत से मूर्तियों की संख्या में कमी नहीं कर सकते, क्या देवियों के स्वरूप को सात फिट की बजाय कम नहीं किया जा सकता। आस्था और भगवान तो पत्थर में भी बसते हैं, बस देखने का नज़रिया अलग-अलग होता है।
क्या हम विकल्प रूप में आटे या बेसन या समाचार पत्र की लुगदी से ईको फ्रेंडली मूर्तियां पीओपी के बजाए तैयार नहीं कर सकते हैं, जो नदी या तालाब में प्रदूषण को कम करके बेसन और आटे के बहाने जलचर को भोजन उपलब्ध करा सकती है।
बुंदेलखंड के बांदा जिले में प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी युवा साथियों ने केन में मूर्ति विर्सजन के पश्चात फैली गंदगी को निकालकर बाहर किया। साथ ही ग्राम कानाखेड़ा में सूर्यपाल सिंह चौहान की अगुवाई में एक मूर्ति का भूमि विसर्जन भी कराया गया है। वहीं स्थानीय संगठन प्रवास सोसाइटी ने गंगा-यमुना पर दिए गए उच्च न्यायालय के आदेश को आधार बनाकर चित्रकूट की मंदाकिनी, बांदा की केन, हमीरपुर की बेतवा और यमुना पर मूर्ति विसर्जन रोक के लिए एक जनहित याचिका दाखिल की है। नदियों से जुड़े पर्यावरण मित्र और लोग गाहे-बगाहे समाज में पुरानी रूढ़िगत प्रथाओं को बदलने के लिए ऐसे सुखद कार्य करते हैं यह और बात है कि समाज का एक वर्ग उन्हें हिंदु विरोधी करार देता है। पर हर अंधेरे की तरह इस रात की भी सुबह होगी, इस उम्मीद के साथ दिया जलाना लाज़मी है।
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