मूलभूत आवश्यकाताओं पर आधारित हो पहाड़ की विकास नीति

उत्तराखण्ड का रास्ता आज के उत्तराखण्ड को लेकर ‘नेति-नेति’ की भंगिमा में ही खोजा जाना हो तो मौजूदा खोट दृष्टि का रहा है। भावी उत्तराखण्ड की आर्थिकी, आर्थिक दर्शन, नियोजन तन्त्र, विकास प्रारूप, प्राथमिकताओं, लक्ष्यों, नीति/रीति-विधान एवं विकास-रणनीति आदि सम्बन्धी जितने मुद्दे उठाये जायें या उठाये जाने हैं, सभी के मामले में वर्तमान दृष्टि-दोष से मुक्ति पाई जानी आवश्यक होगी। इस दृष्टि दोष के अतिरिक्त हिमालय के आँगन में फैले पर्वतीय राज्यों की पूरी शृंखला ने किया है। परिणामतः दृष्टि-दोष के समाधान का मामला केवल उत्तराखण्ड के स्तर तक सीमित मामला नहीं है। हिमाचल से लेकर त्रिपुरा तक हिमालय का पूरा कंठहार इस प्रयास का साझीदार हो सकता है।पचास साल के अनवरत मोह भंग का नतीजा था 1994 का ऐतिहासिक उत्तराखण्ड आन्दोलन, वह विरोध में उठा हाथ था, विरोध में उठा आम आदमी का हाथ, नकार का सिंहनाद।

नकार का यह सिंहनाद उत्तराखण्ड राजय के संदर्भ में तमाम आयामों में (आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक) एक नई दिशा, नई/भिन्न दृष्टि, नई शुरूआत, आर्थिक-सामाजिक लक्ष्यों को पुनः परिभाषित किये जाने, निजी स्वार्थों की पकड़ को उत्तरोत्तर निर्बल करने एवं राजनैतिक आर्थिक सत्ता के पुनर्वितरण की माँग करता है, कैसा होगा उत्तराखण्ड का उत्तर ‘नेति-नेति’ (यह नहीं, ऐसा नहीं) में ही दिया जा सकता है। ‘यह नहीं, ऐसा नहीं’ के तहत मौजूदा सामाजिक-आर्थिक, राजनैतिक एवं संस्थागत ढाँचे का बदलाव एक अनिवार्यता है, क्योंकि मौजूदा संस्थागत व्यवस्था के अंतर्गत अर्थव्यवस्था की प्रभावोत्पादकता तथा कार्य कुशलता में सुधार, नियोजन लक्ष्यों की प्राप्ति एवं विकास-प्रतिफलों में आम-आदमी की हिस्सेदारी सम्भव नहीं लगती। ऐसे में स्वीकार किया जाना चाहिए कि, राज्य की स्थापना के तत्काल बाद का काल कड़े परीक्षणों एवं प्रयासों का होगा क्योंकि मौजूदा राजनैतिक, प्रशासनिक एवं आर्थिक तन्त्र रातों -रात नहीं बदला जा सकता। न ही सत्ता पर निजी-स्वार्थों की पकड़ असल लड़ाई तो राज्य की स्थापना के बाद लड़ी जानी होगी और वह भी उसी आम आदमी के द्वारा जो ‘नकार के सिंहनाद’ में सड़कों पर थी। इस लड़ाई में आम आदमी को रास्ता दिखाने का दायित्व निश्चिततः उस स्वतः-स्फूर्त साझा नेतृत्व का होगा, जो समूचे उत्तराखण्ड में बिखरी उन छोटी-छोटी शक्तियों एवं समूहों से आयेगा जिनकी आँखों में कल के उत्तराखण्ड का सपना है, जिनकी आँखों में बेईमानी के जाले नहीं हैं... जो ईमानदार, संघर्षशील तो हैं, किन्तु अज्ञात कारणों से आपस में मिलकर एक बड़ी ताकत बन पाने में अब तक असफल रहे हैं।

राजनैतिक, प्रशासनिक एवं आर्थिक तंत्र को तत्काल नहीं बदले जा सकने की वास्तविकता की पृष्ठभूमि में एक 15/20 सालों तक विस्तृत ‘संक्रमण काल’ होगा। ‘उत्तराखण्ड जो हमें मिलेगा’ से ‘उत्तराखण्ड जो हम चाहते हैं’ के बीच इस संक्रमण काल के काम तो मौजूदा तंत्र से ही चलाया जाना होगा, किन्तु तन्त्र की नकेल जन संघर्षों/आन्दोलनों के हाथ में होगी। उत्तराखण्ड के विशिष्ट, पृथक एवं आदर्श राजनैतिक-प्रशासनिक-आर्थिक तन्त्र विकसित होने में जितना समय लेगा, उस पूरी अवधि में आम आदमी की तत्सम्बन्धी सक्रियता ही भविष्य को तय करेगी। निरन्तर बेहतरी की ओर आदमी की महायात्रा में ठहराव होता भी कहाँ हैं ? यह एक ‘यूटोपिया’ भले ही लगे किन्तु ‘नकार के सिंहनाद’ का लक्ष्य एक विशिष्ट जनोन्मुखी तन्त्र ही था और इसकी प्राप्ति ‘एक आग का दरिया है डूब के जाना है’ से ही सम्भव है।

कल के उत्तराखण्ड का रास्ता आज के उत्तराखण्ड को लेकर ‘नेति-नेति’ की भंगिमा में ही खोजा जाना हो तो मौजूदा खोट दृष्टि का रहा है। भावी उत्तराखण्ड की आर्थिकी, आर्थिक दर्शन, नियोजन तन्त्र, विकास प्रारूप, प्राथमिकताओं, लक्ष्यों, नीति/रीति-विधान एवं विकास-रणनीति आदि सम्बन्धी जितने मुद्दे उठाये जायें या उठाये जाने हैं, सभी के मामले में वर्तमान दृष्टि-दोष से मुक्ति पाई जानी आवश्यक होगी। इस दृष्टि दोष के अतिरिक्त हिमालय के आँगन में फैले पर्वतीय राज्यों की पूरी शृंखला ने किया है। परिणामतः दृष्टि-दोष के समाधान का मामला केवल उत्तराखण्ड के स्तर तक सीमित मामला नहीं है। हिमाचल से लेकर त्रिपुरा तक हिमालय का पूरा कंठहार इस प्रयास का साझीदार हो सकता है। क्षेत्र विशेष के राष्ट्रों के बीच क्षेत्रीय सहयोग का मामला लगभग समान समस्याओं से ग्रस्त एवं समान भौगोलिक परिवेशयुक्त पर्वतीय राज्यों के संदर्भ में क्योंकर सम्भव नहीं है? हिमालय के आँगन में सभी राज्य एक दूसरे के साथ ‘मानव-जीवन की गुणात्मकता’ के लक्ष्य की ओर एक यात्रा के परस्पर साझीदार हो सकते हैं।

मौजूदा दृष्टि-दोष से विमुक्ति हेतु कुछ आधारक प्रस्थापनायें (या परिकल्पनायें) निम्नवत हो सकते हैं।

1. आर्थिक-विकास के स्थान पर आर्थिक-सामाजिक विकास की अवधारणा को स्थापित करते हुए वर्तमान में प्रचलित विकास - मानकों/मापदंड़ों (मात्रात्मक आंकलन से अत्यधिक लगाव के अन्तर्गत सकल उत्पाद, प्रतिव्यक्ति आय, विनियोग-स्तर आदि) का नकार आवश्यक है। कितना ज्यादा और कितनी तेजी से उत्पादित किया जा सकता है। कितनी ज्यादा धनराशि कहाँ-कहाँ से प्राप्त कर लगातार योजनाओं/परियोजनाओं द्वारा अर्थव्यवस्था में पम्प की जा सकती है। (जैसे विकास धन व्यय करने का तरीका मात्र हो) सम्बन्धी विकास-दृष्टि के दुष्परिणाम समूचे भारत के साथ उत्तराखण्ड ने भी भोगे हैं। जिस आर्थिक दर्शन एवं दृष्टि से देश/प्रदेश की आर्थिक नीति आज तक संचालित होती रही है, वही अगर कल के उत्तराखण्ड हेतु भी स्वीकार्य रही तो अंततः ‘हासिल लगा जीरो’ की ही स्थितियाँ कमोबेश होंगी। अतः आवश्यक होगा कि आर्थिक-सामाजिक विकास को ‘मानव जीवन की गुणात्मकता’ से जुड़े किसी अन्य मानक द्वारा मापे जाने की कोशिश हो। उदाहरणार्थ- कुपोषण, बीमारी, अशिक्षा, अस्वच्छता, बेरोजगारी, एवं असमानताओं में गिरावट की दर (महबूब-उल-हक: पॉवर्टी कर्टेन)। भिन्न विकास-मानकों की स्थापना सरल नहीं है। किन्तु धरती बन्ध्या भी नहीं है कि ऐसी प्रतिभाएँ ही न हों जो इस दिशा में किसी सकारात्मक समाधान तक पहुँच सकें।

2. आवश्यकता उत्तराखण्ड की भौगोलिक- पारिस्थितिकीय - संसाधन परिस्थिति एवं तदनुसार ‘धारक क्षमता’ (निर्दिष्ट क्षेत्र कुल जितने लोगों के पोषण की क्षमता रखता है) की पृष्ठभूमि में एक समुचित उपभोग-स्तर /रहन-सहन स्तर को परिभाषित करने की भी होगी। इस सिलसिले में जन नेतृत्व, नियोजकों एवं नीति-निर्माताओं को स्वीकारना ही होगा कि जीवन-स्तर सापेक्ष धारणा है। प्रत्येक अर्थव्यवस्था अपने संसाधनों की परिधि में एक निश्चित रहन-सहन स्तर को ही प्राप्त कर सकती है। पाश्चात्य या नगरीय रहन-सहन स्तर का अनुकरण उत्तराखण्ड को गहन पारिस्थितिकीय संकट की ओर ही ले जायेगा। किसी अर्थव्यवस्था की धारक क्षमता के समानान्तर ‘आहरण क्षमता’ (समग्र पारिस्थितिकीय व्यवस्था पर लोगों की माँग दबाव) की अवधारणा (एडलर-कार्लसन) भी है। दोनों के बीच संस्थिति की स्थापना हेतु मानवीय उपभोग की सीमाओं का निर्धारण आवश्यक होता है। उत्तराखण्ड में अमेरिकी जीवन स्तर (अमेरिकी लोग प्रतिवर्ष 70 लाख कारें, 10 करोड़ टायर 2 करोड़ टन अनाज, 28 करोड़ बोतलें और 48 अरब डिब्बे कूड़े में फेंकते हैं- फैलिक्स ग्रीन) की कल्पना भी भयावह है। ‘क्या-क्या खा दूँ’ के घोर उपभोक्तावादी दृष्टिकोण या राक्षसी भक्षण भाव से मुक्ति पाये बिना पर्यावरण रक्षा की बात करना भी बेमानी है।

उत्तराखण्ड का उपभोग प्रारूप ही नहीं विकास स्तर भी हमारी अपनी जीवन शैली एवं दारिद्रय के अनुरूप होना चाहिये। इस दृष्टि से मौजूदा विकास प्रयासों एवं रीति विधान से उपजे ‘सम्पन्नता के द्वीपों’ के मौजूदा जीवन-स्तर से कहीं पूर्व के एक अपेक्षाकृत सरल-सहज मूलभूत आवश्यकताओं पर आधारित ऐसे समुचित जीवन-स्तर मानक की स्थापना उपयुक्त होगी जिसमें आवश्यकता पहले आती हो, वस्तुएँ या उत्पादन बाद में।

3. विकास-रणनीति/ व्यूह रचना मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं के तुष्टिकरण पर आधारित होनी चाहिये न कि बाजार-माँग पर। ऐसी आवश्यकता -उन्मुख विकास रणनीति, जिसमें आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन पर बल हो, चर्चा का प्रारम्भ पोषण, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य के संदर्भ में होना चाहिए, आज के उत्तराखण्ड के ‘निशंक’ राजनीतिज्ञों की तरह बिजली बेचेंगे, फल बेचेंगे, जड़ी-बूटी बेचेंगे, पर्यटन बेचेंगे, मिट्टी-पानी बेचेंगे से नहीं, जरूरत ऐसी विकास-रणनीति की है, जो उत्तराखण्ड की श्रम शक्ति के प्रत्येक अंश के लिये किसी न किसी प्रकार के रोजगार की व्यवस्था के पक्ष में झुकी हो। उत्तराखण्ड की परिस्थिति एवं आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादन-रीतियों यदि अधिक श्रम गहन हों तो पैसा निश्चिततः कम मिलेगा। (शायद उत्तराखण्ड के समुचित जीवन स्तर मानक के तहत कम न भी हो) किन्तु रोजगार प्राप्ति निश्चिततः होगी। आवश्यकता भी रोजगार को सर्वोपरि विकास-लक्ष्य मानने की है, क्योंकि रोजगार ही निर्धन समाज में आय के पुनर्वितरण का माध्यम होता है। विकास-प्रयासों के मामले में आवश्यक होगी- विकास के नगरीय-पूर्वाग्रहों से विमुक्ति, अत्यधिक पूँजी प्रधान विकास मॉडल औद्योगीकरण (वस्तुतः पाश्चात्यीकरण) एवं तद्जनित शहरीकरण के प्रति जो दृष्टि रखता है, उसके तहत समूचा नियोजन एवं तत्सम्बन्धी नीतियाँ ग्रामीण संसाधनों को नगरों की ओर प्रवाहित करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राकृतिक ही नहीं मानवीय संसाधन भी विस्थापित होते हैं।

पिछड़े ग्रामीण समुदायों हेतु नगरों के आकर्षण कारक/ ‘पुल फैक्टर्स’ पलायन-प्रेरणाओं का काम करते हैं और ग्रामीण विकास हेतु आवश्यक श्रमशक्ति नगरों की ओर प्रवाहित होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में दरिद्रता का अधिकांश होने के साथ ही प्रगति/विकास के अधिकांश न्यून लागत स्रोत भी होते हैं, किन्तु चूँकि अभिव्यक्ति, संगठन एवं शक्ति का अधिकांश नगरों में केन्द्रित होता है, परिणामतः ग्रामीण समुदाय पर नगरीय समुदाय को प्राथमिकता मिलती है और विकास प्रक्रिया अनावश्यक रूप से धीमी एवं अन्यायपूर्ण होती है। (माइकल लिप्टन) यह विकास का नगरीय पूर्वाग्रह ही है, जिसके अन्तर्गत दुलर्भ विनियोग कृषि के लिए सिंचाई के स्थान पर नगरीय क्षेत्र की सड़कों को ‘हॉट मिक्स’ करने पर लगाया जाता है, इसी नगरीय पूर्वाग्रह के परिणामस्वरूप शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, सड़क सभी कुछ सम्पन्नों के पक्ष में वितरित होता है। नगरीय विकास पर बल एवं कृषि एवं ग्रामीण विकास की उपेक्षा ने संसाधनों को ऐसी क्रियाओं से हटाया है, जहाँ वह विकास में सहायक होते एवं निर्धनों को लाभ पहुँचाते हैं, 15117 गाँवों एवं 63 नगरों/कस्बों के उत्तराखण्ड में कोई कारण नहीं है कि विकास-प्राथमिकताओं का स्वरूप ग्रामीण-आवश्यकताओं के पक्ष में झुका न हो। आवश्यक है कि लोगों के इर्द-गिर्द रोजगार सृजन हो एवं नीतियाँ ग्रामीण-नगरीय विषमता के ‘साइड इफैक्ट्स’ से मुक्त हों।

4. ‘नकार के सिंहनाद’ का आग्रह है कि राष्ट्रीय विकास को आंचलिक विकास से और राष्ट्रीय हितों को आंचलिकहितों से जोड़ने का नया प्रयास हो। विकास कार्यक्रमों को ऊपर से बना कर नीचे के स्थानीय जन समुदायों पर थोपने की प्रक्रिया समाप्त हो, वे नीचे से सोचे गए, आजमाए गए और जन को भागीदार बनाकर रचे गए राष्ट्र निर्माण और विकास के कार्यक्रमों को ही ऊपर से मान्यता दें। विकास को ऐसी दिशा मिले, जिसकी जड़े स्थानीय और आंचलिक समाज में गहरी हों (पी.सी. जोशी), इस पृष्ठभूमि में समुदाय के निम्नतम स्तर पर योजना -प्रतिपादन हेतु आयोजन एवं विकास प्रशासन का विकेन्द्रीकरण एवं कार्यक्रम निर्माण/क्रियान्वयन में लोगों की सक्रिय सहभागिता आवश्यक है। स्थानीय आवश्यकताओं, स्थानीय पृष्ठभूमि एवं स्थानीय प्राथमिकताओं को अभिव्यक्ति तभी मिल पाएगी जब योजना-प्रतिपादन सम्बन्धी अधिकार स्थानीय नियोजन संगठनों को प्राप्त हों।

5. उत्तराखण्ड के मामले में पर्यटन में अपार सम्भावनाएँ देखी जाती रही हैं, किन्तु आर्थिक क्रियाओं के उत्प्रेरक के स्वरूप में उपयोगी पर्यटन अपने मौजूदा स्वरूप में बड़े गहरे एवं सावधान किस्म के चिंतन, दूरदृष्टि, सोच एवं तदनुसार नीतियों की माँग करता है। पर्यटन का एक नकारात्मक आयाम भी होता है जिसके अर्न्तगत मेजबान समुदायों की जीवन-शैली, संस्कृति, परम्परागत शिल्प, रीति रिवाज, पुरातत्व सभी दुष्प्रभावित हो सकता है। पर्यटन स्थानीय समुदाय में एक प्रकार की हीनता का भाव भी उत्पन्न करता है। पर्यटक अपने साथ एक भिन्न जीवन शैली, जीवन स्तर एवं जीवन मूल्य भी लाते हैं। जिसके ‘प्रदर्शनकारी प्रभाव’ के अन्गतर्गत अपने जीवन स्तर को ऊपर उठाने की एक छटपटाहट सी पैदा होती है। पूँजी का अभाव आड़े आता है। जिसकी कमी कृषि भूमि को बेचने की ही प्रेरणा देती है। जो हाथ में है वह भी इस मृग मरीचिका में खो जाता है। पर्यटन के मामले में औद्योगिक नजरिया नहीं अपनाया जा सकता।

बिना गहन चिन्ताओं के कार्यक्रम/परियोजनाओं का निर्माण सामाजिक एवं पारिस्थितिकी लागतों की अवधारणाओं को पृष्ठभूमि में डाल देता है। पर्यटन में सम्भावनायें तलाशते हुए यह तथ्य निरन्तर दृष्टि में रखे जाने की आवश्यकता है कि पर्यटन की उच्च सामाजिक एवं पारिस्थितिकी लागतें होती हैं। उदाहरणार्थ -बुग्यालों को स्कीइंग हेतु प्रयोग में लाए जाने पर स्थानीय पशुचारक समुदायों की चारा आवश्यकताएँ घपले में पड़ती हैं। स्की स्लोप्ल, स्की लिफ्ट्स का निर्माण, पेड़ों को काटे जाने के कारण बनता है। नैनीताल, मसूरी जैसे पर्यटक स्थलों पर अधिकाधिक पर्यटन दबाव मूलभूत संसाधनों, भू-आकृति एवं जलापूर्ति को गड़बड़ाता है। अंततः प्रश्न पर्यटन के प्रति एक संतुलित/समुचित दृष्टि के विकास का है। पर्यटन के बहाने किसी समुदाय को भू-माफिया के चंगुल में नहीं धकेला जाना चाहिए। न ही क्षेत्र विशेष नव धनाढ्यों की विलास भूमि में बदला जाना चाहिए। दृष्टि उत्तराखण्ड की आवश्यकताओं के अनुरूप पर्यटन की होनी चाहिए न कि पर्यटन के लिए उत्तराखण्ड की। उत्तराखण्ड में पर्यटन का महत्व इस वास्तविकता पर निर्भर करता है कि रोजगार-सम्भावनाओं के स्तर पर पर्यटन एक आम आदमी या साधारण व्यवसायी को क्या देने की क्षमता रखता है।

6. सही या गलत, वर्तमान में राजनीति, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक यथार्थ की निर्धारक शक्ति है। अपनी तमाम समस्याओं के निदान, योजना प्रतिपादन, क्रियावन्यन, यहाँ तक कि मूल्यांकन तक का दायित्व पूरी तरह राजनीति के पेशेवर खिलाड़ियों को सौंपे जाने की लम्बी सजा भारतीय जन लगातार काट रहा है। यह स्थिति बदले जाने की आवश्यकता है। राजनैतिक-आर्थिक गठजोड़ों में बदलाव, राजनैतिक सत्ता के पुनर्वितरण, आर्थिक-सामाजिक विकास की जनोन्मुखी परिभाषा, विशेषाधिकार प्राप्त एवं निजी स्वार्थों के उन्मूलन आदि-आदि का बृहद कार्य किए जाने की सम्भावनाएँ भारत जैसे विशाल देश एवं उ. प्र. जैसे विशाल राज्य की अपेक्षा उत्तराखण्ड जैसे किसी नव-सृजित लघु प्रदेश में किया जाना अपेक्षाकृत सरल होगा। बशर्ते कि जन संघर्षों से उपजे नेतृत्व के हाथ में बागडोर हो।

7. सर्वोपरि उत्तराखण्ड में नीतियों के प्रति एक अन्तर्मुखी-दृष्टि की आवश्यकता है। समाधान के भीतर खोजे जाने की मानसिकता में हैं- आयातित समाधान स्थिति/परिस्थिति/परिवेश सम्बन्धी विभिन्नता के कारण निराशाओं एवं असफलताओं का ही कारण बनते हैं। प्रगति, आत्म प्रयत्न, आत्म विश्वास, उपलब्ध हस्तगत संसाधनों के समुचित उपयोग और प्रखर आशावाद पर आधारित होती है। उत्तराखण्ड में एक मनोवैज्ञानिक क्रांति की आवश्यकता है। नए वातावरण निर्माण की, चिन्तन तथा कर्म में नया नेतृत्व प्रदाान करने की आवश्यकता है, जो ईमानदारी तथा अच्छाई की शक्तियों का पोषण करें।

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