प्रत्येक धारणा के पीछे कोई न कोई ठोस कारण होता है। तथ्य बताते हैं कि पूर्व काल में सरयू जी भैरव धाम महाराजगंज के सामने से होकर प्रवाहित होती थीं। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि सरयू जी की एक प्रवाहित शाखा यहाँ से होकर जाती थी। सरकारी अभिलेखों ने लोक मानस में व्याप्त ज्ञान को ग्रहण करने और उस आधार पर शोध करके अभिलेख तैयार करने की परेशानी नहीं उठायी। जिसका परिणाम यह हुआ कि सहायक नदी को छोटी सरयू नदी बना दिया तथा मूल सरयू का मार्ग चिह्नित नहीं कर सके। लोक दायित्व सहित तमाम शोधकर्ताओं ने भी इस विषय पर न्यूनाधिक मात्रा में कार्य किया है। घाघरा की उत्पत्ति घर्घर नामक नद से हुई है। उद्गम के पास इसी प्रकार का नाद करने के कारण इसका नाम घाघरा पड़ा। महाकवि कालीदास ने 'रघुवंशम में विभिन्न स्थानों पर इसका उल्लेख किया है। रामायण काल में सरयू गंगा नदी से बक्सर में मिलती थी (सिंह. अंकिता. पारिस्थितिकिय विकास आयोजना, पृष्ठ 23. राजेश पब्लिकेशन, दरियागंज, नई दिल्ली)। साथ ही नदी के प्रवाह मार्ग के अगल-बगल पाए जाने वाले प्राचीन प्रवाह मार्गों के अवशेष इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि इसने सदा अपने मार्ग में परिवर्तन किया है (सिंह, अंकिता, पृष्ठ 24)। अंकिता सिंह अपने शोध ग्रंथ में यह सिद्ध करती है कि तमसा कोपागंज नगर से 04 किमी० दक्षिण घाघरा से निकली हुई छोटी सरयू नदी से मिल जाती है।'
डॉ० गणेश पाठक अपने शोध पुस्तक ‘सेवा केन्द्र एवं ग्रामीण विकास’ में पृष्ठ 28 पर लिखते हैं कि छोटी सरयू गाजीपुर बलिया की सीमा पर पीपरसंड ग्राम के समीप से प्रवेश कर 64.4 किमी0 की दूरी तय करती हुई बाँस थाना के समीप गंगा में जा मिलती है।"
छोटी सरयू पर सघन शोधकर्ता श्री एस०सी० सिंह अपने शोधग्रंथ Changes in the courses of Rivers and their effect on urban settlement in middle Ganga Plain. में लिखते हैं कि “उत्तर प्राचीनकाल में सरयू आजमगढ़ जनपद के अंतर्गत गोपालपुर एवं सगड़ी परगनाओं की सीमा के पास दो शाखाओं में विभक्त हो गयी इसकी मुख्य शाखा उत्तर की ओर चली गयी, जो बड़ी सरयू कहलायी एवं गौड़ शाखा जिसमें पानी कम था, पुराने प्रवाह मार्ग पर ही रह गयी और छोटी सरयू कहलायी। जिसे आज लोक दायित्व डॉ० रामअवतार शर्मा के 'निर्देश पर मूल सरयू' कहता है।"
प्राचीन काल में गंगा के साथ सरयू का संगम कारोंधाम के निकट होता था। बाद में नरही कोट अंजोर एवं बांस थाना के पास होने लगा। इधर कुछ वर्षों से यह संगम तारनपुर के निकट ठगिनीया के डेरा के समीप हो रहा है। किन्तु बीच-बीच में यह संगम बलिया से पूरब नगवा, भेलसड़ एवं हांस नगर तक होता रहा है। 1781 से 1801 तक सरयू बलिया के पास कटहल नाला में मिलती थी। 1801 में मंगई नदी छोटी सरयू की ओर मुड़ गयी एवं पुनः छोटी सरयू बलिया के समीप पहुँच गयी (एस०सी० सिंह, 1973)। कालांतर में छोटी (मूल) सरयू पुनः दक्षिण की ओर खिसक गई है एवं गंगा से मिल संगम बनाती है।
उपरोक्त के अतिरिक्त चार कारण और हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि कम्हरिया माझा से लेकर बलिया गंगा में मिलने तक यह एक नदी है, जिसे मूल सरयू ही कहा जाना चाहिए पहला कारण- कम्हरियों से गंगा तक इस नदी में बड़ी सरयू जैसा ही सफेद बालू पाया जाता है, परन्तु भैरव बाबा महाराज में संगम करने वाली पश्चिम से आ रही नदी में यह बालू नहीं है। दूसरा कारण- नौसेमर एवं सहरोज में मूल (छोटी) सरयू एवं तमसा के संगम के बाद भी बलिया तक वहीं बालू प्राप्त होता है, परन्तु तमसा में उद्गम तक वह बालू नहीं पाया जाता। तीसरा कारण तमसा सहित अतरौलिया वाली नदी में भी बालू के लिए खनन नहीं होता है, जबकि कम्हरियाँ माझा से बलिया तक मूल सरयू में या उसके किनारे खनन होता है। चौथा कारण, बढ़ी सरयू मूल सरयू से ही होकर उत्तर तक गयी है। इसका एक बड़ा प्रमाण है कि उत्तर में इस नदी के अनेक अवशेष हैं, साथ कहीं भी एक दो फीट मिट्टी हटाने पर बड़ी सरयू वाला बालू प्राप्त हो जाता है। इस विषय पर भूगर्भ शास्त्रियों द्वारा और शोध की आवश्यकता है। इससे रामायण कालीन अन्य विषयों पर प्रकाश पड़ सकता है।
वर्तमान में रामायण सर्किट के चेयरमैन तथा वनवासी राम और लोक संस्कृति के लेखक, प्रभु राम के आगमन एवं वनगमन मार्ग को खोजने वाले डॉ० रामअवतार शर्मा शोध कर लिखते हैं कि सरयू की मूल धारा के स्थान पर अब नदी की पतली सी धारा बहती है, जिससे पुराने मार्ग में बने अधिकांश चिह्न लुप्त हो गए हैं अतः मार्ग खोजने में कठिनाई रही है प्राचीन मूल धारा को अब पुरानी सरयू अथवा छोटी सरयू कहते हैं। ..... अतः अनुमान है कि रामायण काल में सरयू गंगा संगम बलिया में बक्सर के निकट कहीं होता था। तभी बक्सर का मार्ग ठीक बनता है। जनता आज भी इसे सरयू जी ही कहती है।"
उक्त तथ्यों के आधार पर प्रथमदृष्ट्या यह सिद्ध होता है कि मूल (छोटी) सरयू ही पुरानी सरयू है, जिसके दक्षिणी तट से भगवान राम पैदल-पैदल ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के नेतृत्व में यज्ञ की रक्षा करने गए हैं। क्योंकि इसी मार्ग पर भगवान के चिह्न भी प्राप्त होते हैं। इस कार्य में और शोध की आवश्यकता है।
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