खराब नीतियों ने क्षेत्र को कैसे सूखे की बदतर स्थिति की ओर धकेला
![लातूर जिले के गाँव की महिलाएं पानी लाने के लिये दिन में कम से कम दो बार दो किलोमीटर से ज्यादा दूरी तय करती है](https://c4.staticflickr.com/9/8706/28336205195_a06154e380.jpg)
सोनवती गाँव मराठवाड़ा के लातूर तहसील में पड़ता है, जो महाराष्ट्र का सबसे ज्यादा सूखा प्रभावित क्षेत्र है। गोदावरी मराठवाड़ा सिंचाई विकास निगम की अप्रैल 2016 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि मराठवाड़ा के आठ जिलों में 11 प्रमुख सिंचाई परियोजनाओं, 75 मध्यम सिंचाई परियोजनाओं और 729 लघु सिंचाई परियोजनाओं के लिये क्रमशः केवल चार, पाँच और तीन प्रतिशत ही जीवित जल भण्डार बचे हैं।
ऐसी ही तस्वीर महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों की भी है। इस वर्ष यहाँ के वर्ष 60 प्रतिशत से अधिक गाँव सूखे की चपेट में हैं। आने वाले दिन और भी बदतर होंगे क्योंकि मानसून की बारिश तो जून में शुरू होगी।
इधर, संकट की इस भयावहता को देखते हुए महाराष्ट्र सरकार ने कई फौरी उपायों किये हैं जिसमें लातूर के लिये - 50 से भी ज्यादा वैगन सहित - रेलगाड़ियों के जरिए पानी की ढुलाई और पानी की आपूर्ति वाले स्थलों के आस-पास लोगों की भीड़ को जमा होने से रोकना भी शामिल है।
सरकार की फौरी उपायों के बीच संकट गहराता जा रहा है और लोग एक ही बुनियादी सवाल पूछ रहे हैं- सरकार ने पहले ही कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? जल और भूमि प्रबंधन संस्थान, औरंगाबाद के पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर प्रदीप पुरंदरे सूखे की इस विकराल स्थिति को लेकर सवाल उठाते हुए कहते हैं, “अन्य आपदाओं के विपरीत, सूखा पर्याप्त चेतावनी देता है। सूखे जो स्थिति दिख रही है उसमें पाँच वर्ष लगे हैं। राज्य सरकार ने पीने के पानी का संग्रहण और उद्योगों के लिये पानी की आपूर्ति को विनियमित क्यों नहीं किया?”
वल्से भी पुरंदरे की बातों का समर्थन करते हुए कहते हैं कि पिछले चार वर्षों से इस क्षेत्र में ऐसे हालत दिखने लगे थे जिससे लग रहा था कि सूखा आयेगा। वल्से कहते हैं, “मेरी सालाना आय चार साल में 80 प्रतिशत कम हो गई है। उस समय मेरे पास 12 मवेशी थे। अब मेरे पास बस एक गाय और उसका बछड़ा बच गया है।” उनके खेत के तीन बोरवेल सूख गये हैं। आखिरी बोरवेल में थोड़ा-सा पानी बचा है जिसे सिर्फ पीने के काम में लाया जाता है।
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वैसे मौजूदा हालात देखकर अंदाजा लगायाजा सकता है कि पानी की कमी ने यहाँ कितना विकराल रूप ले लिया है। पानी की किल्लत के कारण यह कृषि उत्पाद में गिरावट आ रही है। औरंगाबाद-स्थित निसर्ग मित्रमंडल के अध्यक्ष और मराठवाड़ा विकास बोर्ड के पूर्व सदस्य विजय दीवान ने कहा, समस्या की शुरुआत 2011 में हुई थी जब औसत से कम बारिश हुई थी। वर्ष 2012 में मराठवाड़ा में 136 प्रतिशत से अधिक बारिश हुई लेकिन वर्ष 2013, वर्ष 2014 और वर्ष 2015 में मानसून की बारिश 50 प्रतिशत कम हुई। उस पर वर्ष 2014 और 2015 के फरवरी-मार्च के दौरान ओलावृष्टि हो गई जिसने रबी की तैयार फसलों (अक्टूबर-मार्च) को नष्ट कर दिया। लातूर के कृषि अधिकारी मोहन भीसे का कहना है कि पिछले वर्ष क्षेत्र में 50 प्रतिशत मानसून की कमी के बाद जिले के 15 प्रतिशत गाँवों में किसानों ने खरीफ (जुलाई-अक्टूबर) की बुवाई नहीं की।
2015-16 के महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 2015 के खरीफ के मौसम के दौरान राज्य के 14 मिलियन हेक्टेयर खेतों में ही बुवाई की गई। इससे खाद्यान्न के उत्पादन में 18 प्रतिशत और खरीफ फसलों के तिलहन उत्पादन मामले में 2 प्रतिशत की गिरावट हो सकती है। रबी की फसलों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में भी खाद्यान्न और तिलहन के उत्पादन में क्रमशः 27 प्रतिशत और 50 प्रतिशत की गिरावट की आशंका है जो पिछले वर्ष की तुलना में 16 प्रतिशत कम होगी। वर्ष 2014-15 में मानसून में गिरावट और बेमौसम बारिश की वजह से खाद्यान्न, अनाज और दालों के उत्पादन में पिछले वर्ष की तुलना में क्रमशः 24.9 प्रतिशत, 18.7 प्रतिशत और 47.4 प्रतिशत की गिरावट आई। फलों और सब्जियों के उत्पादन में भी लगभग 15 प्रतिशत तक की कमी आई लेकिन गन्ने के उत्पादन में 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
गन्नाः एक अभिशाप
वर्तमान सूखे का एक मुख्य कारण पिछले कुछ दशकों से अर्द्ध-शुष्क मराठवाड़ा क्षेत्र में खेती की बदलती पद्धति है। कई किसानों ने ज्वार और चना जैसे सूखा-प्रतिरोधी फसलों को छोड़ कर ज्यादा पानी की जरूरत वाले गन्ना जैसे नकदी फसलों को चुना है। मराठवाड़ा में औसतन 844 मिलीमीटर औसत वार्षिक वर्षा होती है, जबकि गन्ने के लिये आदर्श रूप में 2,100-2,500 मिलीमीटर वर्षा की जरूरत होती है।
औरंगाबाद के कृषि अधिकारी उदय देवलंकर का कहना है कि जहाँ परम्परागत रूप से इस क्षेत्र में उगाई जाने वाली मूँग और मक्का जैसी फसलों के लिये 3.5-5.7 मिलियन लीटर पानी प्रति हेक्टेयर की खपत होती है, वहीं गन्ने के लिये 25 मिलियन लीटर पानी प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है लेकिन सूखे के बावजूद इस क्षेत्र में गन्ने की खेती जारी है। मराठवाड़ा में गन्ना क्षेत्र 2009-10 के 184900 हेक्टेयर से बढ़कर 2014-15 में 219400 हेक्टेयर हो गया है। इसी अवधि में लातूर में गन्ने का उत्पादन 39,000 हेक्टेयर से बढ़ कर 46,400 हेक्टेयर हो गया है। वहीं, इसी अवधि के लिये खरीफ के ज्वार का उत्पादन 117,200 हेक्टेयर से घटकर 88,300 हेक्टेयर हो गया।
![लातूर जिले के नजगिरी बांध के पास सूखे मंजीरा नदी पर निष्क्रिय जैकवेल](https://c3.staticflickr.com/9/8716/28054251050_1012300937.jpg)
महाराष्ट्र की कुल 205 चीनी कारखानों में से 34 प्रतिशत मराठवाड़ा में हैं। अकेले लातूर में ही 13 चीनी मिलें हैं और वार्षिक आधार पर 45,000-50,000 हेक्टेयर क्षेत्र में गन्ने की खेती होती है। लातूर के कलेक्टर पांडुरंग पोल का कहना है कि जिले की सिंचाई क्षमता 1,18,000 हेक्टेयर का मुश्किल से 50-60 प्रतिशत ही सक्रिय है। वे कहते हैं, “जिले में सिंचाई के लिए उपलब्ध कुल जल का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा गन्ने की खेती के लिये प्रयोग कर लिया जाता है।” दरअसल जिले के 13 क्रियाशील चीनी मिलों में से सात-आठ मिलें इस साल फरवरी तक गन्ने की पेराई कर रही थीं। जब उनसे पूछा गया कि इसे क्यों नहीं रोका गया, तो पोल ने कहा, “कोई ऐसा कानून नहीं है जो मुझे चीनी मिलों को रोकने की शक्ति दे। हम किसानों को गन्ना न उगाने के लिये शिक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं।” ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि बहुत पहले 1999 में ही महाराष्ट्र जल और सिंचाई आयोग की रिपोर्ट ने सूखा प्रभावित क्षेत्रों में गन्ने की खेती न करने और चीनी मिलों के स्थानांतरण की सिफारिश की थी। बावजूद इसके वर्ष 2012 में राज्य सरकार ने 20 से अधिक निजी क्षेत्र की चीनी कारखानों को मराठवाड़ा में लगाने की मंजूरी दे दी। “महाराष्ट्र सिंचाई अधिनियम, 1976 राज्य सरकार को जल-प्रधान फसलों के लिये पानी की आपूर्ति कम करने के लिये पर्याप्त शक्तियाँ प्रदान करता है। सिंचाई परियोजना के कमान वाले क्षेत्र की फसलों को भी सूखे के समय नियंत्रित किया जा सकता है। इतने वर्षों से राज्य सरकार क्या कर रही थी?” पुरंदरे ने यह सवाल उठाया।
महाराष्ट्र सरकार आखिरकार जाग गई है और उसने अगले पाँच साल के लिये मराठवाड़ा में चीनी मिलों को नए परमिट नहीं देने का फैसला किया है।
![बीड़ कस्बे के पास एक पशु शिविर। शिविर में मौजूद 799 मवेशियों के लिये शिविर हर रोज 36,00 लीटर पानी खरीदता है](https://c3.staticflickr.com/8/7660/28054252490_ac62f13d85.jpg)
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सरकारी आँकड़े राज्य में पानी के वितरण में क्षेत्रीय असंतुलन पर प्रकाश डालते हैं। राज्य के योजना विभाग की अक्टूबर 2013 की रिपोर्ट के अनुसार विदर्भ की 985 क्यूबिक मीटर और महाराष्ट्र के बाकी हिस्सों की 1,346 क्यूबिक मीटर की तुलना में मराठवाड़ा में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 438 क्यूबिक मीटर है। ऐसा इसलिए हुआ है कि राज्य सरकार ने नियमित रूप से मराठवाड़ा क्षेत्र में पानी की आवश्यकता की उपेक्षा की है। उदाहरण के लिये वर्ष 1965 में महाराष्ट्र सरकार ने औरंगाबाद के पैठण तहसील में गोदावरी नदी पर ‘जयकवाडी बाँध’ का प्रस्ताव रखा ताकि मराठवाड़ा के जिलों के लिये आवश्यक पानी उपलब्ध कराया जा सके। बाँध पर पहली रिपोर्ट में 240 किलोमीटर लम्बी बाएँ किनारे की नहर और सिंचाई के लिये 180 किमी लम्बी दाहिने किनारे की नहर का प्रावधान किया गया था। सिंचाई सुविधाओं के लिये घोषित कमान क्षेत्र 2,72,000 हेक्टेयर था।
![हरंगुल ग्रामवासी अपने द्वारा गहरी खोदी गई सूखी धारा में खड़े हैं](https://c7.staticflickr.com/8/7738/28054247950_68ef8c8b2c.jpg)
शुष्क वादा
सूखे से लोगों को बचाने का वादा करने वाली राज्य सरकार की गलत तरीके से बनायी गयी योजनाअों के बारे में कुछ कहना ही बेकार है। वर्ष 2014 में जलयुक्त शिविर अभियान की शुरूआत इस वादे के साथ की गई थी कि वर्ष 2019 तक राज्य को सूखा-रहित बना दिया जाएगा। इसका उद्देश्य नदियों को गहरा और चौड़ा करने, सीमेंट और मिट्टी के रोक-बाँधों का निर्माण, नाले पर काम तथा खेतों में तालाबों की खुदाई के माध्यम से प्रति वर्ष 5,000 गाँवों को पानी की कमी से मुक्त करना है। इस परियोजना के तहत कुल 1,58,089 काम किये जाने हैं जिनमें से इस वर्ष 22 अप्रैल तक 51,660 काम ही पूरे हुए हैं।
इस परियोजना को पहले ही मुश्किलों ने घेर लिया है क्योंकि देसरडा ने यह आरोप लगाते हुए मुम्बई हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है कि जलयुक्त शिविर वाटरशेड प्रबंधन के सिद्धान्तों के विरुद्ध है। देसरडा स्पष्ट करते हैं कि वाटरशेड प्रबंधन का बुनियादी सिद्धान्त टीले-से-घाटी है जिसका मतलब है जल और मिट्टी संरक्षण का कोई भी काम टीले से शुरू होना चाहिए ताकि तेज प्रवाह को रोका जा सके और अंततः नीचे घाटी की ओर लाया जा सके। देसरडा ने हाल ही में जलयुक्त शिविर तथा नदी के कायाकल्प की परियोजनाओं का आकलन करने के लिये महाराष्ट्र के 17 जिलों का दौरा किया। उन्होंने शिकायती लहजे में कहा, “जलयुक्त शिविर बिल्कुल इसके विपरीत कर रही है। टीले पर कोई काम किए बिना खेतों और गाँवों में बिखरी हुई और एकल पंक्ति की गतिविधियाँ सम्पन्न की जा रही हैं। नदी के ताल और नालों को बेहद अवैज्ञानिक तरीके से भारी मशीनरी के साथ जाम किया जा रहा है।”
![पशु शिविरों में चारे के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है](https://c1.staticflickr.com/9/8877/28054250000_2f40a116b4.jpg)
दीवान कहते हैं, “नदियों और धाराओं को तीन मीटर से नीचे गहरा नहीं करना चाहिए वरना वे भूजल को खुला प्रदर्शित करेंगे और जलवाही स्तर को स्थायी नुकसान का कारण बन सकते हैं।” विशेषज्ञों का कहना है कि जलयुक्त शिविर अभियान की एक और समस्या है कि इस प्रक्रिया में लोगों को शामिल किए बिना यह मुख्य रूप से उन्हीं कामों को करता है जिनका महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत उल्लेख किया गया है। यदि केंद्रीय योजना को ठीक तरह वित्तपोषित और लागू किया जाता तो संकट के दौरान सूखा प्रभावित क्षेत्र में इससे लोगों के लिये रोजगार का अवसर उत्पन्न हो सकता था। मगर ऐसा हो नहीं रहा है उल्टे इससे जलयुक्त शिविर अभियान से केवल ठेकेदारों को ही लाभ हो रहा है जो आँख मूंदकर निकर्षण कर रहे हैं। एक अन्य समस्या यह है कि पानी के लिये बेताब लोग भी अपने दम पर मनमाने ढंग से नदियों और धाराओं का निकर्षण कर रहे हैं। पुरंदरे चेतावनी देते हैं कि बेतरतीब जल संरक्षण से “हम पारिस्थितिकी आपदा की ओर बढ़ रहे हैं”।
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जल संरक्षण के इन प्रयासों का लाभ अब दिखना शुरु हो गया है। पिछली गर्मियों तक भादेगाँव अपने पीने के पानी की जरूरत को पूरा करने के लिये पानी के टैंकरों पर निर्भर था। जून 2015 से गाँव में पानी का एक भी टैंकर नहीं आया। 122 टीसीएम जल भंडारण के लिये तैयारी की गई है और फसल उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। पिछले एक साल में किसानों ने खरीफ और रबी दोनों फसलों की बुवाई की है। कुछ ने तीसरी फसल भी बोई है और इनकी औसत आय सालाना 31,000 से बढ़कर 63,000 हो गई है।
औरंगाबाद के कृषि अधिकारी उदय देवलंकार का कहना है कि उनकी टीम टीले-से-घाटी की अवधारणा का उपयोग करते हुए सूखा-रहित गाँवों की योजना तैयार करने के लिये मई के पहले सप्ताह में औरंगाबाद के तीन ब्लॉकों के सभी गाँवों का सर्वेक्षण करने की योजना बना रही है।
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