रेशमा भारती/ राष्ट्रीय सहारा/ देश के अधिकांश शहरों में अत्यधिक दोहन के कारण भूमिगत जलस्तर तो तेजी से घट ही रहा है, नदी, तालाब, झीलें आदि भी प्रदूषण, लापरवाही व उपेक्षा के शिकार रहे हैं। नदी जल बंटवारे या बांध व नहर से पानी छोड़े जाने को लेकर प्राय: शहरों का अन्य पड़ोसी क्षेत्रों से तनाव बना रहता है। शहरों के भीतर भी जल का असमान वितरण सामान्य है। जहां कुछ इलाकों में बूंद–बूंद पानी के लिए हाहाकार रहता है, वहीं बढ़ती विलासिता और बढ़ते औघोगीकरण में पानी की बेइंतहा बर्बादी भी होती है।
बढ़़ती शहरी आबादी की बढ़ती जरूरतों और अंधाधुंध औघोगीकरण के चलते देश के अधिकांश शहरों में वैध और अवैध बोरिंग के चलते भूमिगत जलस्तर का दोहन तो खूब हो रहा है, पर उसके रिचार्ज के पर्याप्त प्रयास नहीं हो रहे। इसके चलते विभिन्न शहर जल की कमी और भूमिगत पानी के खारेपन को झेल रहे हैं। हाल में उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों से भूमिगत जल से खाली होती जमीन के फटने तक की गंभीर स्थितियां सामने आयी हैं। नदियों के किनारे बसे शहरों ने इस प्राकृतिक जल स्रोत को इतना दोहित व प्रदूषित किया है कि आज ये नदियां इन शहरों की प्यास नहीं बुझा पा रही। तालाब, झील, कुएं, बावड़ियां जैसे सतह के अन्य जल स्रोत भी प्रदूषण, उपेक्षा व कुप्रबंधन के शिकार रहे हैं।
दूसरी आ॓र वर्षा जल का जो अनमोल उपहार प्रकृति इन शहरों को हर साल देती है, उसे भी अधिकांश शहरों में काफी हद तक व्यर्थ जाने दिया जाता है। जबकि वर्षा जल संचय पर पर्याप्त ध्यान दिए जाने से न केवल जल संकट से जूझते शहर अपनी तत्कालीन जरूरतों के लिए पानी जुटा पाएंगे बल्कि इससे भूमिगत जल भी रिचार्ज हो सकेगा। इसलिए जरूरी है कि शहरों के जल प्रबंधन में हर संभव तरीके से बारिश की बूंदों को संजोकर रखने को प्राथमिकता मिले।
देश के अनेक शहरों में तालाब, कुंए, बावड़ियां, झीलें आदि परम्परागत जल स्रोतों की ऐसी समृद्ध विरासत रही है जो सदियों से वर्षा जल को संजोती रही और भूमिगत जल स्तर को रिचार्ज करती रही। अंधाधुंध शहरीकरण और नागरिकों की लापरवाही व प्रशासनिक उपेक्षा ने इन जल स्रोतों के साथ खिलवाड़ किया है। यहां तक कि कई स्रोत अब मृतप्राय हो गए हैं। इन जल स्रोतों को भरकर उन पर निर्माण कार्य हुए, उनके जलग्रहण क्षेत्रों में निर्माण कार्य हुए, जल के आवक–जावक रास्ते निर्माण कार्यों के चलते अवरूद्ध हुए। कई जलस्रोत तो कचरे का गड्ढा मानकर कूड़े से भर दिए गए, कई अवैध कब्जों का शिकार हुए। मिट्टी-गाद भर जाने से उनकी जल ग्रहण क्षमता समाप्त हो गई और समय के साथ-साथ टूट-फूट गए। इनमें से कई परम्परागत जलस्रोतों को आज पुनर्जीवित किया जा सकता है और वर्षा जल संचय की समृद्ध संस्कृति को सजीव किया जा सकता है।
आमतौर पर यह देखा गया कि जिन परम्परागत जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने में सरकार और नागरिकों ने सक्रियता दिखायी वहां काफी अच्छे परिणाम सामने आये। ऐसे कुछ प्रयासों से भूमिगत जल स्तर में उल्लेखनीय सुधार हुआ और इलाके की जरूरतों के लिए पर्याप्त पानी जुट सका। पूर्वी दिल्ली की संजय झील को जब उसके पुराने स्वरूप में लौटाने का प्रयास हुआ तो यहां के भूमिगत जलस्तर में सुधार हुआ। उदयपुर की पिछोला और फतेहसागर झीलों के नीचे के क्षेत्र में कई परम्परागत बावड़ियां हैं। एक समय इन बावड़ियों की काफी उपेक्षा हुई थी और सीधे झील के पानी का दोहन होता था। पर 1987–88 के सूखे से सबक लेकर इन बावड़ियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया गया।
आधुनिक वर्षा जल संचयन प्रणालियां भी विभिन्न शहरों में लगायी जा रही हैं। दिल्ली में जून 2001 में सौ स्क्वेयर मीटर के क्षेत्रफल वाली इमारतों में रेन वॉटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त भूमिगत जलस्तर जहां बहुत नीचे चला गया है, वहां भी वर्षा जल संचयन को सरकार ने अनिवार्य घोषित किया गया है। पर अनिवार्य घोषित किए जाने मात्र से ही वर्षा जल संचय प्रणालियां सब जगह स्थापित नहीं हो गई। कुछ रिहायशी कॉलोनियां स्वयं पहल करके इन्हें अपने घरों, अपार्टमेंटों में लगवा रही हैं। फिर भी अभी इसके व्यापक प्रसार की जरूरत है और इस संदर्भ में प्रशासन व आम नागरिकों में जुझारू इच्छाशक्ति व सहयोग विकसित होना चाहिए। साथ ही शहरी विकास में पेड़ों के संरक्षण और वृक्षारोपण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। जरूरत ऐसी सरकारी नीतियों के ठोस कार्यान्वन और नागरिकों की ऐसी जागरूकता की है जो हर संभव तरीके से शहरों को मिलने वाली वर्षा जल की बूंदों की इस अनमोल विरासत को संजोए।
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