मुआवजा तो मिला पर क्या इंसाफ मिला


सुप्रीम कोर्ट से एक ऐतिहासिक फैसला आया है जिससे छोटी-बड़ी तमाम विकास परियोजना के चलते विस्थापित होने वालों की उम्मीदें बढ़ी हैं। सरदार सरोवर परियोजना के चलते चालीस साल के संघर्ष के बाद अब उन्हें मुआवजा देने का फैसला हुआ है।

.मेधा पाटकर का नर्मदा बचाओ आंदोलन : मुआवजा क्या वाकई मिला या इंसाफ हुआ ही नहीं?

मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर प्रोजेक्ट के चलते विस्थापित लोगों को 38 साल से भी ज्यादा बीत चुके हैं और अब जाकर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया है। कानूनी किताबों में यह भी लिखा है कि यदि समय पर फैसला न हो तो इंसाफ हुआ ही नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर परियोजना के चलते विस्थापित प्रत्येक परिवार को साठ लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 681 परिवारों की शिकायतों को भी हल करने का निर्देश दिया है। एपेक्स कोर्ट ने अपना वह प्रस्ताव भी वापस ले लिया है जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट के तीन पूर्व जस्टिस इन विस्थापित लोगों के राहत और पुनर्वास मुद्दों पर नजर रखते। फैसला सुनाने वाले तीन जजों की बेंच का नेतृत्व किया था भारत के मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर जिन्होंने यह व्यवस्था दी कि मुआवजा प्रति परिवार 60 लाख रुपये होगा जिसकी दो हेक्टेयर जमीन थी।

“आप 38 साल से मुआवजे के लिये संघर्ष कर रही हैं। हम एक बारगी ही यह मुआवजा तय कर रहे हैं।” सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर से कहा।

नर्मदा बचाओ क कार्यकर्ता अपना विरोध जताते हुएशर्त यही है कि इन परिवारों को यह लिखकर देना होगा कि वे एक महीने के अंदर भूमि खाली कर देंगे अन्यथा अधिकारियों को यह अधिकार होगा कि वे जबरन उन्हें हटा सकेंगे। इस बेंच में जस्टिस एन.वी. रामाना और जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ भी थे। उन्होंने यह बताया कि भूमि के बदले मुआवजे में भूमि का आवंटन सम्भव नहीं था क्योंकि भूमि बैंक की कोई व्यवस्था नहीं है। बेंच ने यह भी कहा कि यदि इन परिवारों ने भूमि पर रुपये ले रखे हैं और उस पर विवाद है तो वे पंद्रह लाख रुपये की माँग कर सकते हैं जो उन्हें दी गई राशि काटकर दी जा सकती है।

एपेक्स कोर्ट ने गुजरात सरकार को यह धन मध्य प्रदेश सरकार को वितरण के लिये देने का निर्देश दिया है। यह वितरण हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में बने शिकायत प्राधिकरण के जरिये वितरित होगा। यह आदेश मध्यप्रदेश तक ही सीमित है क्योंकि इस राज्य में ही सबसे ज्यादा विस्थापित हैं। जहाँ तक महाराष्ट्र और गुजरात की बात है, एपेक्स कोर्ट ने निर्देश दिया कि राहत और पुनर्वास का काम तीन महीनों में पूरा कर लिया जाना चाहिए। इस फैसले के साथ ही नर्मदा बाँध परियोजना से जुड़े तमाम दीवानी और आपराधिक फौजदारी के दशकों से चल रहे मामले अब खत्म हो गए।

बेहतर सिंचाई और बिजली पैदा करने की व्यवस्था के लिहाज से 1979 में यह परियोजना शुरू हुई थी। लेकिन इसके पूरा होने में बाधाएँ आईं क्योंकि सामाजिक स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किये और अदालतों में मामले लम्बित रहे। परियोजना की लागत भी खासी बढ़ती गई।

अब तीन न्यायाधीशों की बेंच ने फैसला सुनाया जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर ने की। उन्होंने मध्य प्रदेश के प्रभावित उन 681 परिवारों को प्रति परिवार साठ लाख रुपए जिन्होंने अपनी ली गई जमीन के बदले कभी कोई मुआवजा नहीं लिया। आदेश में कहा गया कि उन 1,358 परिवारों को भी पंद्रह लाख रुपये का मुआवजा दिया जाए जिन्होंने पिछली दो किश्तें मुआवजे की ली हैं। आदेश में बताया गया है, इन्हें इसलिये और मुआवजा दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने तकलीफों को झेला और इस राशि से वे विकल्प में कहीं भी जमीन खरीद सकेंगे। हालाँकि जो मुआवजा राशि उन्हें पहले की गई है वह इस राशि से काट ली जाए।

सरकार यह पूरी धनराशि नर्मदा वैली डवलपमेंट अथॉरिटी (नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण) के पास जमा कराएगी जो इसे शिकायत निपटान प्राधिकरण (ग्रिवैंस रिड्रेसल अथॉरिटी) को देती जो प्रभावित परिवारों में यह मुआवजा वितरित करेगी। यह भुगतान इस शर्त पर होगा कि प्रभावित परिवार 31 जुलाई तक यह लिख कर देंगे कि वे परियोजना के लिये ली गई भूमि को खाली कर देंगे। यह जिम्मेदारी राज्य सरकार की होगी कि वे फिर बलपूर्वक उस जमीन को खाली करा लें जिसे ये खुद नहीं छोड़ते। बेंच ने यह भी स्पष्ट किया कि तमाम दीवानी और फौजदारी के मामले जो सरदार सरोवर बाँध परियोजना से प्रभावित विस्थापितों पर झा कमीशन की रिपोर्ट के चलते बने उन्हें भी अब खत्म माना जाएगा। महाराष्ट्र और गुजरात सरकार को यह निर्देश दिया गया है कि वे तीन महीने के अंदर पुनर्वास का काम खत्म करें।

बेदखल कौन?


रैली निकालते हुए नर्मदा बचाओ कार्यकर्ताबेदखल वे हैं जिन्हें किसी भी परियोजना के चलते उससे प्रभावित होकर विस्थापित होना पड़ा। यह सुप्रीम कोर्ट का तर्क है जिसे मध्य प्रदेश सरकार को जताया गया जिसने छोटी नहरों पर बने बाँध को बनाने के लिये ली गई जमीन के एवज में मात्र 11,000 रुपए विस्थापित परिवारों को दिये और बड़े बाँधों के लिये ली गई जमीन के बदले मात्र पचास हजार रुपये बतौर मुआवजे दिये जिनमें लोगों को अपने पक्के घर भी छोड़ने पड़े थे। लगभग फटकारते हुए जस्टिस खेहर, एन.वी. रामाना और डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा, “आप उनके साथ जानवरों सा बर्ताव कर रहे हैं। आपको उन्हें समुचित मुआवजा देना चाहिए।” साथ ही निर्देश दिया कि प्रति परिवार 50 हजार रुपये का मुआवजा दिया जाये।

 

जीत तो बड़ी है, बशर्ते फैसला अमल में आ जाये


जमीन के बदले जमीन की माँग पूरी करने में सरकारें असमर्थ रहीं। विकास के नाम पर औने-पौने मुआवजे पर जमीन ले लेती हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन चार-पाँच दशकों से पुनर्वास के नाम पर हुई फर्जी रजिस्ट्रियों के दर्जनों मामले उजागर करता रहा है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा पिछले दो दशकों की अवधि में दिये गये आदेशों की अवहेलना करते हुए बिना पुनर्वास की व्यवस्था किये सरकारी स्तर पर बाँध के काम को पूरा करने की साजिश हो रही थी। उसके मद्देनजर मैं सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले का स्वागत करता हूँ। नर्मदा बचाओ आंदोलन की यह बड़ी जीत है। अब सरकारों को फैसला अमल में लाना चाहिए।


कोर्ट ने जमीन के बदले जमीन के मामले में दो दशकों से चल रही सुनवाई के दौरान समय पर दिये गये आदेश के बावजूद प्रभावित किसानों को जमीन दिलाने में सरकार असमर्थ रही है। पुनर्वास के नाम पर फर्जी रजिस्ट्री के खिलाफ आंदोलन छेड़ा गया। दूसरी ओर बाँध का काम भी अब पूरा हो चला है।


यह कितना अजब है कि कार्पोरेट हाउसों को देने के लिये तो सरकार के पास जमीन है लेकिन किसानों से ली गई जमीन के बदले जमीन देने का बंदोबस्त नहीं है। बहरहाल, यह फैसला स्वागतयोग्य है। - भूपेंद्र रावत किसान नेता

 

भारत में बाँधों के कारण विस्थापित हुए लोगों को मुआवजा देने का मुद्दा काफी दीर्घकालिक और विवादास्पद रहा है। बिजली और पानी की जरूरतें पूरी करने के लिये विकास परियोजनाओं को अमली जामा पहनाते हुए किसी की निजी जरूरतों को क्यों रोका जाना चाहिए? लेकिन राज्य की तमाम सरकारें और यहाँ तक कि केंद्र सरकार भी इन मुद्दों पर बड़ी ही क्रूरता से कार्रवाई करता है। यहाँ तक कि जो प्रभावित होने को हैं उनसे कभी बातचीत भी नहीं की जाती और उन्हें भरोसे में नहीं लिया जाता। जो जमीनें लेनी हैं वे पहले ही चुन ली जाती हैं और फिर जमीनों के मालिकों को जानकारी दी जाती है कि उन्हें यह जगह छोड़नी होगी।

इस तरह के विस्थापन पर अमूमन यह तर्क दिया जाता है कि जमीन के बदले कहीं और जमीन और कुछ राशि बतौर मुआवजे तो दी ही जाती है। लेकिन यह सिर्फ कहने की ही बात है। नर्मदा बाँध के ही मामले को देखें तो पता लगता है कि यदि बेदखल किये गये लोगों के मुद्दे को यदि स्वयंसेवी संगठन उठाए रखते तो उन्हें कुछ भी न मिल पाता। बहुत सारे लोग अपने पूर्वजों के घर नहीं छोड़ना चाहते थे। अपने पूजास्थलों से दूर नहीं जाना चाहते थे। बदले में कहीं और जो भूमि दी जाती है वह आम तौर पर परती होती है और उससे जीवन नहीं चल सकता। मुआवजे की राशि या तो बेहद कम होती है या वह बेदखल हुए लोगों तक पहुँच ही नहीं पाती।

बेदखल हुए ज्यादातर लोगों की पूरी एक पीढ़ी ही विस्थापन में निकल जाती है। वे इधर से उधर घोषित मुआवजे की थोड़ी सी राशि पाने के लिये भटकते रहते हैं। हीराकुंड बाँध से जुड़े हुए तमाम वादों-विवादों पर अदालतों को बार-बार दखल देना पड़ा। नर्मदा बाँध और पोंग बाँध भी ऐसे बाँधों में कुछ हैं जहाँ न्यायिक प्रणाली में देर होने के चलते न्याय पाने में दस साल से भी ज्यादा का समय लगता है।

मध्य प्रदेश में बाँध के मामले में ज्यादातर प्रभावित लोग आदिवासी हैं यानी उनके लिये धन न होने के कारण कानूनी मदद पाना भी बेहद कठिन होता है। राज्य ने भी कभी उन पर सहानुभूति से विचार नहीं किया। कानूनी दाँव-पेंच के चलते लागत बढ़ती गई और परियोजना के अमल में आने में देर होती गई। विस्थापन का मुद्दा विकास परियोजना का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है जो बंदरगाहों से हवाई अड्डों, सड़कों के और शॉपिंग मॉल वगैरह तक विभिन्न रूपों में होता है। इस पर पहले ही समुचित तरीके से विचार होना चाहिए।

कुछ ऐसे भी मामले हैं जहाँ स्वयंसेवी संगठनों और कानूनी दखल के बिना भी बेदखल लोगों को अपनी जमीनों के बदले अच्छा मुआवजा मिला। दरअसल सरदार सरोवर परियोजना में पहले विश्व बैंक को ही अनुदान देना था लेकिन जब पूरी परियोजना में उनके अधिकारियों ने ढेरों खामियाँ और जटिलताएँ पाईं तो उन्होंने इससे अलग रहना ही पसंद किया। उधर जब गुजरात सरकार की पहल पर परियोजना पर काम शुरू हुआ तो विस्थापित लोगों की तादाद बढ़ती गई। मध्य प्रदेश सरकार और उसके अधिकारियों की कुटिलता के चलते विस्थापितों के पक्ष में न्याय जरूर हुआ लेकिन उसे पाने में कुछ को तो लगभग पचास साल लग गए। वर्तमान मामला बताता है न्याय में वह कभी जिसके चलते न्याय पाने में लगभग चालीस साल लग गये।

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