मुअनजोदड़ोः लघुता में भी महत्ता

वह कोई खंडहर क्यों न हो, किसी घर की देहरी पर पांव रख कर सहसा सहम जा सकते हैं, जैसे भीतर कोई अब भी रहता हो। रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं। शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान देकर उस बैलगाड़ी की रुन-झुन भी सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्त्व की तस्वीरों में मिट्टी के रंग में देखा है।

मुअनजोदड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं, दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। ये सिंधु घाटी सभ्यता के परवर्ती यानी परिपक्व दौर के शहर हैं। खुदाई में और शहर भी मिले हैं। लेकिन मुअनजोदड़ो ताम्र काल के शहरों में सबसे बड़ा है। वह सबसे उत्कृष्ट भी है। व्यापक खुदाई यहीं पर संभव हुई। बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियां, चाक पर बने चित्रित भाण्डे, मुहरें, साजो-सामान और खिलौने आदि मिले। सभ्यता का अध्ययन संभव हुआ। उधर हड़प्पा के ज्यादातर साक्ष्य रेललाइन बिछने के दौरान ‘विकास’ की भेंट चढ़ गए। खुदाई से पहले हड़प्पा को ठेकेदारों और ईंट-चोरों ने खोद डाला था। मुअनजोदड़ो के बारे में धारणा है कि अपने दौर में वह घाटी की सभ्यता का केंद्र रहा होगा। यानी एक तरह की राजधानी। माना जाता है यह शहर दो सौ हेक्टर क्षेत्र में फैला था। आबादी कोई पचासी हजार थी। जाहिर है, पांच हजार साल पहले यह आज के ‘महानगर’ की परिभाषा को भी लांघता होगा। सिंधु घाटी मैदान की संस्कृति थी, पर पूरा मुअनजोदड़ो छोटे-मोटे टीलों पर आबाद था। ये टीले प्राकृतिक नहीं थे। कच्ची और पक्की दोनों तरह की ईंटों से धरती की सतह को ऊंचा उठाया गया था, ताकि सिंधु का पानी बाहर पसर आए तो उससे बचा जा सके।

मुअनजोदड़ो की खूबी यह है कि इस आदिम शहर की सड़कों और गलियों में आप आज भी घूम-फिर सकते हैं। यहां की सभ्यता और संस्कृति का सामान चाहे अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, शहर जहां था अब भी वहीं है। आप इसकी किसी भी दीवार पर पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैं। वह कोई खंडहर क्यों न हो, किसी घर की देहरी पर पांव रख कर सहसा सहम जा सकते हैं, जैसे भीतर कोई अब भी रहता हो। रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं। शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान देकर उस बैलगाड़ी की रुन-झुन भी सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्त्व की तस्वीरों में मिट्टी के रंग में देखा है। यह सच है कि किसी आंगन की टूटी-फूटी सीढि़यां अब आपको कहीं ले नहीं जातीं; वे आकाश की तरफ जाकर अधूरी ही रह जाती हैं। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर खड़े हैं; वहां से आप इतिहास को नहीं, उसके पार झांक रहे हैं।

सबसे ऊंचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है। मगर यह मुअनजोदड़ो की सभ्यता के बिखरने के बाद एक जीर्ण-शीर्ण टीले पर बना था। कोई पचीस फुट ऊंचे चबूतरे पर भिक्षुओं के कमरे भी हैं। 1922 में जब राखालदास बंद्योपाध्याय यहां आए, तब वे इसी स्तूप की खोजबीन करना चाहते थे। इसके गिर्द खुदाई शुरू करने के बाद उन्हें भान हुआ कि यहां ईसा पूर्व के निशान हैं। धीमे-धीमे यह खोज विशेषज्ञों को सिंधु घाटी सभ्यता की देहरी पर ले आई।

एक सर्पिल पगडंडी पार कर हम सबसे पहले इसी स्तूप पर पहुंचे। पहली ही झलक ने हमें अपलक कर दिया। इसे नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप कहा गया है। शायद सबसे रोमांचक भी होगा। न आकाश बदला है, न धरती। पर कितनी सभ्यताएं, इतिहास और कहानियां बदल गईं। ठहरे हुए लैंडस्केप में हजारों साल से लेकर पल भर पहले तक की धड़कन बसी हुई है। इसे देखकर सुना जा सकता है। भले ही किसी जगह के बारे में हमने कितना पढ़-सुन रखा हो, तस्वीरें या वृत्तचित्र देखे हों, देखना अपनी आंख से देखना है। बाकी सब आंख का झपकना है। जैसे यात्रा अपने पांव चलना है। बाकी सब कदम-ताल है।

यह जगजाहिर है कि सिंधु घाटी के दौर में व्यापार ही नहीं, उन्नत खेती भी होती थी। बरसों यह माना जाता रहा कि सिंधु घाटी के लोग अन्न उपजाते नहीं थे, उसका आयात करते थे। नई खोज ने इस ख्याल को निर्मूल साबित किया है। बल्कि अब कुछ विद्वानों का मानना है कि यह मूलतः खेतिहर और पशुपालक सभ्यता थी। लोहा तब नहीं था। पर पत्थर और तांबे की बहुतायत थी। पत्थर सिंध में था। तांबे की खानें राजस्थान की तरफ थीं। इनके उपकरण खेती-बाड़ी में प्रयोग किए जाते थे। यहां के लोग रबी की फसल लेते थे। कपास, गेहूं, जौ, सरसों और चने की उपज के पुख्ता सबूत खुदाई में मिले हैं। वह सभ्यता का तर युग था, जो धीमे-धीमे सूखे में ढल गया। यहां ज्वार, बाजरा और रागी की उपज भी होती थी। लोग खजूर, खरबूजे और अंगूर उगाते थे। झाडि़यों से बेर जमा करते थे। कपास की खेती होती थी। कपास को छोड़कर बाकी सबके बीज मिले हैं और उन्हें परखा गया है।

कपास के बीज भले नहीं, पर सूती कपड़ा मिला है। वह दुनिया में सूत के दो सबसे पुराने नमूनों में एक है। दूसरा सूती कपड़ा तीन हजार ईसा पूर्व का है, जो जॉडर्न में मिला था। मुअनजोदड़ो में सूत की कताई-बुनाई के साथ रंगाई भी होती थी। रंगाई का एक छोटा कारखाना खुदाई में माधोस्वरूप वत्स को मिला था। कहते हैं छालटी(लिनन) और ऊन यहां सुमेर से आयात होते थे। शायद सूत उनको निर्यात होता हो, जैसे बाद में सिंध से मध्य एशिया और यूरोप को सदियों हुआ। प्रसंगवश, सुमेरी यानी मेसोपोटामिया के शिलालेखों में मुअनजोदड़ो के लिए ‘मेलुहा’ शब्द का प्रयोग मिलता है।

कपास के बीज भले नहीं, पर सूत कपड़ा मिला है। वह दुनिया में सूत के दो सबसे पुराने नमूनों में एक हैं दूसरा सूती कपड़ा तीन हजार ईसा पूर्व का है, जो जॉडर्न में मिला। मुअनजोदड़ों में सूत की कताई-बुनाई के साथ रंगाई भी होती थी। रंगाई का एक छोटा कारखाना खुदाई में माधोस्वरूप वत्स को मिला था। कहते हैं छालटी (लिनन) और ऊन यहां सुमेर से आयात होते थे।

यहां सड़क के दोनों ओर घर हैं। लेकिन सड़क की ओर सारे घरों की सिर्फ पीठ दिखाई देती है। यानी कोई घर सड़क पर नहीं खुलता; उनके प्रवेशद्वार अंदर गलियों में हैं। चण्डीगढ़ में ठीक यही शैली साठ साल पहले ली कार्बूजिए ने इस्तेमाल की। वहां भी कोई घर मुख्य सड़क पर नहीं खुलता। आपको किसी के घर जाने के लिए पहले मुख्य सड़क से सेक्टर के भीतर दाखिल होना पड़ता है; फिर घर की गली में, फिर घर में। क्या ली कार्बूजिए ने यह सीख मुअनजोदड़ो से ली? कहते हैं, कविता में से कविता निकलती है। कलाओं की तरह वास्तुकला में भी कोई प्रेरणा चेतना-अवचेतन में ऐसे ही सफर नहीं करती होगी?

ढंकी हुई नालियां मुख्य सड़क के दोनों तरफ समांतर दिखाई देती हैं। बस्ती के भीतर भी इनका यही रूप है। हर घर में एक स्नानघर है। घरों के भीतर से पानी या मैले की नालियां बाहर हौदी तक आती हैं और फिर नालियों के जाल से जुड़ जाती हैं। कहीं-कहीं वे खुली हैं, पर ज्यादातर बंद हैं। स्वास्थ्य के प्रति मुअनजोदड़ो वासियों के सरोकार की यह उम्दा मिसाल है। अमत्र्य सेन कहते हैं कि मुअनजोदड़ो के चार हजार साल बाद तक अवजल-निकासी की ऐसी व्यवस्था देखने में नहीं आई।

बस्ती के भीतर छोटी सड़कें हैं। उनसे छोटी गलियां भी। छोटी सड़कें नौ से बारह फुट तक चौड़ी हैं। इमारतों से पहले जो चीज दूर से ध्यान खींचती है, वह है कुओं का प्रबंध। ये कुएं भी एक ही आकार की पकी हुई ईंटों से बने हैं। इरफान हबीब कहते हैं सिंधु घाटी सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है, जो कुएं खोद कर भू-जल तक पहुंची। उनके मुताबिक केवल मुअनजोदड़ो में सात सौ के करीब कुएं थे। बड़े व्यापरियों और किसानों के आंगन में शायद अपने कुएं रहे होंगे।

नदी, कुएं, कुण्ड और बेजोड़ जल-निकासी। क्या सिंधु घाटी सभ्यता को हम जल-संस्कृति कह सकते हैं? मुअनजोदड़ो में कुओं को छोड़कर लगता है, जैसे सब कुछ चौकोर या आयताकार हो। नगर की योजना, बस्तियां, घर, कुण्ड, बड़ी इमारतें, ठप्पेदार मुहरें, चैपड़ का खेल, गोटियां, तौलने के बाट आदि सब।

सिंधु घाटी सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है, जो कुएं खोद कर भू-जल तक पहुंची। उनके मुताबिक केवल मुअनजोदड़ो में सात सौ के करीब कुएं थे। बड़े व्यापरियों और किसानों के आंगन में शायद अपने कुएं रहे होंगे। नदी, कुएं, कुण्ड और बेजोड़ जल-निकासी। क्या सिंधु घाटी सभ्यता को हम जल-संस्कृति कह सकते हैं?

मुअनजोदड़ो के किसी घर में खिड़कियों या दरवाजों पर छज्जों के चिन्ह नहीं हैं। गर्म इलाकों में घरों में छाया के लिए तो यह आम प्रावधान होता है। क्या उस वक्त यहां इतनी कड़ी धूप नहीं पड़ती होगी? मुझे मुअनजोदड़ो की जानी-मानी मुहरों पर अंकित पशुओं की आकृतियों का ख्याल आया। शेर, हाथी या गैंडा इस मरुभूमि में कैसे हो सकते हैं? क्या उस वक्त यहां जंगल थे? यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि यहां अच्छी खेती होती थी। पुरातत्त्वी शीरीन रत्नागर का कहना है कि सिंधु-वासी कुओं से सिंचाई कर लेते थे। दूसरे, मुअनजोदड़ो की किसी खुदाई में नहर होने के प्रमाण नहीं मिले हैं। यानी बारिश उस काल में काफी होती होगी। क्या बारिश घटने और कुओं के अत्यधिक इस्तेमाल से भू-गर्भ जल भी पहुंच से दूर चला गया? क्या पानी के अभाव में यह इलाका उजड़ा और उसके साथ सिंधु घाटी की सभ्यता भी?

मुअनजोदड़ो में उस रोज हवा बहुत तेज बह रही थी। किसी बस्ती के टूटे-फूटे घर में दरवाजे या खिड़की के सामने से हम गुजरते तो सांय-सांय की ध्वनि में हवा की लय साफ पकड़ में आती थी। वैसे ही जैसे सड़क पर किसी वाहन से गुजरते हुए किनारे की पटरी के अंतरालों में रह-रहकर हवा के लयबद्ध थपेड़े सुनाई पड़ते हैं। सूने घरों में हवा और ज्यादा गूंजती है। इतनी कि कोनों का अंधियारा भी सुनाई पड़े। यहां एक घर से दूसरे घर में जाने के लिए आपको वापस बाहर नहीं आना पड़ता। आखिर सब खंडहर हैं। अब कोई घर जुदा नहीं है। एक घर दूसरे में खुलता है। दूसरा तीसरे में। जैसे पूरी बस्ती एक बड़ा घर हो।

कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार होने पर स्वाभिमानी गांव का हर वासी रातों रात अपना घर छोड़ गया था। चौखट-असबाब आदि पीछे लोग उठा ले गए। घर खंडहर हो गए। पर ढहे नहीं। घरों की दीवारें, प्रवेश और खिड़कियां ऐसी हैं जैसे कल की बात हो। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया।

लेकिन घर एक नक्शा ही नहीं होता। उसका एक चेहरा और संस्कार होता है। भले ही वह पांच हजार साल पुराना घर क्यों न हो। हममें हर कोई वहां पांव आहिस्ता उठाते हुए एक घर से दूसरे घर में बेहद धीमी गति से दाखिल होता था। मानो मन में अतीत को टटोलने की जिज्ञासा ही न हो, किसी अजनबी घर में अनाधिकार चहल-कदमी का अपराध-बोध भी हो। सब जानते थे यहां अब कोई बसने नहीं आएगा। लेकिन यह मुअनजोदड़ो के पुरातात्त्विक अभियान की खूबी थी कि मिट्टी में इंच-दर इंच कंघी कर इस कदर शहर, उसकी गलियों और घरों को ढूंढ़ा और सहेजा गया है कि एक अहसास हर वक्त साथ रहता हैः कल कोई यहां बसता था।

किसी राजस्थानवासी को मुअनजोदड़ो की गलियों में अपने इलाके का ख्याल न आए, ऐसा हो नहीं सकता। महज इसलिए नहीं कि (पश्चिमी) राजस्थान और सिंध-गुजरात की दृश्यावली एक-सी है। कई चीजें हैं जो यहां से वहां जुड़ जाती हैं। जैसे हजारों साल पुराने खेत। बाजरे और ज्वार की खेती। बेर।

मुअनजोदड़ो के घरों में टहलते हुए मुझे कुलधरा की याद आई। यह जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरों वाला एक खूबसूरत गांव है। उस खूबसूरती में हरदम एक गमी छाई रहती है। गांव में घर हैं, पर लोग नहीं हैं।

कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार होने पर स्वाभिमानी गांव का हर वासी रातोंरात अपना घर छोड़ गया था। चौखट-असबाब आदि पीछे लोग उठा ले गए। घर खंडहर हो गए। पर ढहे नहीं। घरों की दीवारें, प्रवेश और खिड़कियां ऐसी हैं जैसे कल की बात हो। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे थाम लिया। जैसे सुबह लोग घरों से निकले हों, शाम ढले लौट आने वाले हों। हर आगंतुक को एक अप्रत्याशित अवसाद में खींच लेने वाले इस गांव पर नंदकिशोर आचार्य ने ‘खोई हुई दुनिया में ’ नाम से मार्मिक कविताओं की एक श्रृंखला लिखी है। मधुकर उपाध्याय ने ‘कुलधरा’ नाटक भी लिखा है।

वहां अनुशासन था, पर ताकत के बल पर नहीं। वे मानते हैं कोई सैन्य सत्ता तब शायद न रही हो। मगर कोई अनुशासन जरूर था जो नगर योजना, वास्तुशिल्प, मुहर- ठप्पियां, पानी या साफ-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं में एकरूपता को कायम रखे हुए था। दूसरी बात, जो सांस्कृतिक धरातल पर सिंधु घाटी सभ्यता को दूसरी सभ्यताओं से अलग ला खड़ा करती है, वह है प्रभुत्व या दिखावे के तेवर का नदारद होना।

गुलाब पीरजादा ने ध्यान दिलाया कि मुअनजोदड़ो का अजायबघर देखना अभी बाकी है। खंडहरों से निकल हम उस इमारत में आ गए। जिस तरह खुदाई में निकला सामान वहां प्रदर्शित है, वह हमें खंडहरों से निकल आने का अहसास नहीं होने देता। अजायबघर छोटा ही है। जैसे स्कूल की इमारत होती है। सामान भी ज्यादा नहीं है। अहम चीजें कराची, लाहौर, दिल्ली और लंदन में जा सजी हैं। अकेले मुअनजोदड़ो की खुदाई में निकली पंजीकृत चीजों की संख्या पचास हजार से ज्यादा है। मगर जो मुट्ठी भर चीजें यहां जमा हैं, पहुंची हुई सिंधु सभ्यता की झलक दिखाने को काफी हैं। शायद जल कर काला पड़ गया गेहूं, तांबे और कांसे के बर्तन, मुहरें, वाद्य, चाक पर बने विशाल मृद-भाण्ड, उन पर काले भूरे चित्रा, चैपड़ की गोटियां, दीये, माप-तौल के पत्थर, तांबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी और दूसरे खिलौने, पिसाई वाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन, रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औजार। अजायबघर में तैनात अली नवाज बताता है, कुछ सोने के गहने भी यहां हुआ करते थे, जो चोरी चले गए।

एक खास बात यहां हर कोई महसूस करेगा। अजायबघर में प्रदर्शित चीजों में औजार तो हैं, पर हथियार कोई नहीं है। मुअनजोदड़ो क्या, सिंधु सभ्यता के हड़प्पा से लेकर हरियाणा तक हथियार उस अंदाज में मिले ही नहीं हैं जैसे किसी राजतंत्र में होने चाहिए। इस बात को लेकर विद्वान सिंधु सभ्यता में शासन या सामाजिक प्रबंध के तौर-तरीके को समझने की कोशिश कर रहे हैं। वहां अनुशासन था, पर ताकत के बल पर नहीं। वे मानते हैं कोई सैन्य सत्ता तब शायद न रही हो। मगर कोई अनुशासन जरूर था जो नगर योजना, वास्तुशिल्प, मुहर-ठप्पियां, पानी या साफ-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं में एकरूपता को कायम रखे हुए था। दूसरी बात, जो सांस्कृतिक धरातल पर सिंधु घाटी सभ्यता को दूसरी सभ्यताओं से अलग ला खड़ा करती है, वह है प्रभुत्व या दिखावे के तेवर का नदारद होना।

दूसरी जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का इजहार करने वाले महल, उपासना-स्थल, मूर्तियां और पिरामिड आदि मिलते हैं। हड़प्पा संस्कृति में न भव्य राजप्रसाद मिले हैं, न मंदिर। न राजाओं, महंतों की समाधियां। यहां के मूर्तिशिल्प छोटे हैं और औजार भी। मुअनजोदड़ो के ‘नरेश’ के सिर पर जो ‘मुकुट’ है, शायद उससे छोटे रिपेंच की कल्पना नहीं की जा सकती। वह पीछे फीते से बंधा है।

आज के मुहावरे में हम कह सकते हैं वह ‘लो-प्रोफाइल’ सभ्यता थी; लघुता में भी महत्ता अनुभव करने वाली संस्कृति।

वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक मुअनजोदड़ो के कुछ अंश। लेखक श्री ओम थानवी जनसत्ता के संपादक हैं और समाज, साहित्य, कला, सिनेमा जैसे जिन विषयों में रुचि लेते हैं, उनकी सूची बहुत बड़ी है। उसका कुछ आभास इस संक्षिप्त अंश में भी मिलेगा।


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