मत्स्यपालन नीलक्रान्ति की दिशा में


कृषि के मुकाबले मछली-पालन विज्ञान अपेक्षाकृत नया विषय है। तत्सम्बन्धी अनुसन्धान में मछली-भण्डारों का मूल्यांकन करने तथा अनेक मछली प्रजातियों की जीव वैज्ञानिक और पर्यावरण विषयक स्थितियों के अध्ययन के क्षेत्र में काफी कुछ किया गया है। मछलीपालन विकास विशेषकर व्यावसायिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कई प्रजातियों के जनन सम्बन्धी विकास और कृत्रिम आहार के विकास में अनुसन्धान गतिविधियों का सन्तुलित योगदान रहा है। मछलियों की गुणवत्ता में सुधार तथा नई संकर प्रजातियों और नस्लों के निर्माण में जैव-प्रौद्योगिकी के उपकरणों का इस्तेमाल किया जा रहा है। भारत का समुद्रतटीय क्षेत्र विशाल है। इसकी विभिन्न अन्तरदेशीय जल संसाधन व जलवायु विषयक स्थितियाँ न केवल वार्षिक और बारहमासी फसल पद्धतियों के अनुकूल हैं बल्कि पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय, वानिकी, मछलीपालन आदि के लिये भी अत्यन्त लाभप्रद है।

जैवप्रौद्योगिकी साधन से मत्स्यपालन क्षेत्र में अधिक उत्पादन करके जलकृषि के तीव्र विस्तार के लिये अत्यधिक अवसर प्रदान करते हैं।

हमारा शरीर स्वस्थ व सुदृढ़ रखने के लिये जानवरों से प्राप्त होने वाले प्रोटीन की आवश्यकता होती है। परन्तु मछली से प्राप्त होने वाला प्रोटीन स्वास्थ्य के लिये अति उत्तम समझा जाता है। इसकी कमी उसके नियमित सेवन के बिना पूरी नहीं की जा सकती।

मछली पैदावार में भारत विश्व के देशों में आठवें स्थान पर है। विश्व के मछली उत्पादन में हमारा योगदान 3.2 प्रतिशत है। हमारा मछली उत्पादन करीबन 4.5 मिलियन टन है, जिसमें 1.8 मिलियन टन जलीय संवर्धन से प्राप्त होता है व बाकी उत्पादन का संचय हमारी जनसंख्या के लिये सीमित नहीं है। यह भी अनुमान लगाया गया है कि सन 2000 तक हमें 13 मिलियन टन मछलियों की आवश्यकता पड़ेगी, जिसमें से हमारे पास केवल 4.5 टन ही उपलब्ध है। आने वाले समय में इसकी बढ़ोत्तरी सघन व अर्धसघन पद्धति से सम्भव हुई है। विकसित तकनीक और जैव प्रौद्योगिकी की मदद से हम करीबन 4.0 मिलियन टन की पैदावार समुद्रीय जल से व 3.0 मिलियन टन जलीय संवर्धन से प्राप्त कर सकते हैं।

देश में मछली उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये उपाय तो किये गए हैं, किन्तु उत्पादन की दर अभी कम है। इसकी अधिक माँग और आपूर्ति का अन्तर समाप्त करने के लिये इनके पालन के परम्परागत तरीके पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि उनसे अपेक्षित मात्रा में मछलियों का उत्पादन नहीं हो सकता।

विश्व में हर साल असमुद्री मछली उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा मछली फार्मों से प्राप्त होता है, जहाँ मुख्य रूप से कार्प या शफरी मछली-प्रजातियों का उत्पादन होता है। जापान, अमेरिका और इजराइल जैसे देशों में कार्प मछली की गहन खेती में हाल ही में जो विकास हुआ है वह अन्य देशों से भिन्न है। कार्प मछली की खेती समूचे एशिया और पश्चिमी यूरोप में व्यापक रूप से की जाती है, क्योंकि इसकी अनेक प्रजातियाँ हैं, जो अलग-अलग तरह की विशेषताएँ रखती हैं, जहाँ एक ही उत्पादन इकाई में विभिन्न प्रकार की प्रजातियों का एक साथ पालन भी किया जाता है। मछलियों की बहु प्रजातियों के पालन की प्रणाली से होने वाले उत्पादन का आधा हिस्सा विभिन्न प्रकार की कार्प प्रजातियों से प्राप्त होता है, इनमें चीनी कार्प-प्रजाति का विशेष स्थान है।

देश में विकसित मछली पालन सम्बन्धी तकनीक के फलस्वरूप मछली उत्पादन में औसतन लगभग 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। प्रमुख कार्प प्रजातियाँ जिनका भार एक वर्ष में, औसतन एक किलोग्राम प्रति मछली हो जाता है।

पाॅलिकल्चर अथवा मिश्रित कर्प पालन का प्रमुख घटक है, देशी शफरी (कार्प) प्रजातियों में कतला, रोहू, मृगल और कल्वासू तथा विदेशी शफरी कार्प प्रजातियों में सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प तथा काॅमन कार्प प्रमुख हैं। मिश्रित कार्प-पालन की सामान्य पद्धति में भारतीय और चीनी कार्पों की छः प्रजातियाँ शामिल हैं। किन्तु, प्रजातियों का मिश्रण भिन्न-भिन्न होता है, जो उनकी उपलब्धता और क्षेत्रीय प्राथमिकताओं पर आधारित होता है। प्रतिवर्ष 10 टन और 15 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन के लक्ष्यों को पाने के लिये पाँच कार्प प्रजातियों- कतला, रोहू, मृगल, सिल्वर कार्प और ग्रास कार्प का समीकरण क्रमशः 15-25, 20-30, 10-15 और 5-10 की औसत में होना चाहिए।

पारिस्थितिकी प्रणाली के अनुरूप तालाबों का प्रबन्ध करके बड़े और मध्यम आकार के मछली फार्मों से सामान्यतः 5 टन प्रति हेक्टेयर तक मछली-उत्पादन हासिल किया जा सकता है।

कतला ऐसी देशी कार्प प्रजाति है जो सबसे अधिक तेजी से बढ़ती है और सारे देश में पाली जा सकती है, यह सतह से भोजन ग्रहण करती है और मुख्यतः इसका जीवन प्राणिप्लवक (जैविक पदार्थ) पर आधारित होता है। रोहू की पैदावार गहरे तालाबों में अधिक होती है। मृगल तालाब के तल पर रहती है, अतः इसका भोजन सड़े-गले जैविक पदार्थ तथा मलबा होता है। ये सारी प्रजातियाँ पहले वर्ष ही 500 से 1500 ग्राम तक बढ़ जाती हैं सिल्वर कार्प जल सतह पर पौधों की पत्तियों से भोजन ग्रहण करती हैं और यह शैवाल-समूहों पर नियंत्रण करने में उपयोगी है। इसी तरह ग्रास कार्प मछली ऐसी मछली है, जो जलीय खरपतवारों तथा स्थलीय वनस्पतियों को बड़े चाव से खाती है। काॅमन कार्प तेजी से बढ़ने वाली सर्वाहारी जीव है, जो जल के तल में रहती है तथा अन्य कार्प प्रजातियों के मुकाबले पर्यावरण के दबावों का प्रतिरोध करने में अधिक सक्षम है।

एशिया के अनेक लोगों के पोषण और उनकी अर्थव्यवस्थाओं के लिये कार्प प्रजातियाँ काफी महत्त्वपूर्ण हैं, किन्तु दुर्भाग्य से अधिसंख्य मछलियाँ फार्म की स्थितियों में पूर्ण परिपक्वता हासिल नहीं करती। मछलियों के प्रजनन की विधि में सुधार के लिये अण्डे दिलाने की कृत्रिम विधियाँ अपनाई जा रही हैं। ये पद्धतियाँ उन मछलियों से अण्डे दिलाने के लिये इस्तेमाल की जाती हैं जो बन्दी स्थिति में प्रजनन नहीं करतीं। कृत्रिम जनन आमतौर पर विशुद्ध बीज सामग्री पैदा करने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। हालांकि कार्प-जनन वर्ष में एक बार ही होता है, लेकिन हार्मोनिक और पर्यावरण सम्बन्धी कौशल ने एक ही तरह की मछली के अनेक प्रजनन सम्भव कर दिये हैं। असमुद्री जल के मछलीपालन प्रणाली के लिये पशुओं का मल-मूत्र और पौधों के अवशेषों के रूप में जैविक पदार्थ उर्वरकों के प्रमुख घटक हैं। पशुओं का गोबर और मुर्गियों का कूड़ा-कचरा इस उद्देश्य के लिये दो प्रमुख जैविक पदार्थ हैं। यह जरूरी है कि तालाबों में जैविक उर्वरक इस्तेमाल किये जाएँ और प्रजातियों के समीकरणों में भिन्नताएँ लाई जाएँ। हाल के अध्ययनों से पता चला है कि शफरी मछली पालन के तालाब में नाइट्रोजन खाद के रूप में ऐजोला की काफी सम्भावनाएँ हैं। बायोगैस संयंत्रों से निकलने वाला कीचड़ मछली पालन के लिये एक प्रमुख और आदर्श उर्वरक-संसाधन है। इसका इस्तेमाल खेती पद्धतियों में खाद के रूप में किया जाता है और कार्प-पालन के विभिन्न चरणों जैसे नर्सरी, रिअरिंग और तालाबोेेें में संग्रहण के दौरान इन्हें काम में लाया जाता है।

केरल व पश्चिम बंगाल के राज्यों में चावल की खेती में मछली पालन करने की परम्परागत पद्धति आज भी प्रचलित है, जो कि मुख्यतः नैसर्गिक पद्धति है। परन्तु ऐसी खेती से बहुत कम उत्पाद प्राप्त किया जा सकता है। मछली पालनकर्ताओं तक आवश्यक तकनीक न पहुँच पाने के कारण इस क्षेत्र के विकास की गति धीमी रही है किन्तु मछली पालन की आधुनिक तकनीक अपनाकर इस क्षेत्र के समुचित प्रबन्ध के जरिए मछली उद्योग के विकास की अपार सम्भावनाएँ हैं।

भारत में मत्स्यपालन की नई-नई पद्धतियाँ विकसित हैं जैसे कि पारम्परिक, अर्द्धसघन, सघन और केज कल्चर, पेन कल्चर, पाण्ड कल्चर आदि। अर्धसघन व सघन पद्धति से वाणिज्यिक मछलीपालन के संवर्धन में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। केज कल्चर पद्धति से सिर्फ 100 वर्ग मीटर जल से लगभग 8,000 से 10,000 रुपए की आमदनी प्राप्त कर सकते हैं।

देश में स्थित केन्द्रीय मीठाजल जीवपालन अनुसन्धान संस्थान ने उच्च तकनीक व जैव प्रौद्योगिकी की सहायता से मछली का उत्पादन 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष बढ़ाने में सफलता प्राप्त की हैं इस तीव्र-सघन पद्धति में संक्रमण बीजों का प्रयोग, उच्च प्रतिका भोजन, आॅक्सीजन की पूर्ति, कृत्रिम खाद, बीमारियों पर रोक तथा मैटाबाॅलिक पुरश्चक्रण की प्रक्रिया इत्यादि शामिल है। इस विकसित पद्धति से 2 टन के मछली उत्पादन को 20 टन तक बढ़ाया गया है।

वैज्ञानिक संसोधन से यह भी पता चला है कि हम एक ही लिंग की मछली पैदा कर सकते हैं। जिसका योगदान वाणिज्यिक मछलीपालन में बहुमूल्य है। इस तरह ट्रिप्लाॅइडी, टेट्राप्लाॅइडी व पाॅलीप्लाईडी मछलियाँ भी तैयार करने में हमें सफलता मिली है।

मदुरै कामराज विश्वविद्यालय में वाणिज्यिक रूप से महत्त्वपूर्ण मछलियों जैसे तिलैपिया, जेब्रा मछली व कैट फिश के अण्डों में सूक्ष्म अन्तःक्षेपित संवृद्धि हारमोन जीनों एक निष्पीड़न के माध्यम से ट्रांसजेनिक मछली उत्पादन तकनीक का मानकीकरण किया गया है। इस आदर्श प्रणाली से यह मछलियाँ 20 से 60 प्रतिशत की अधिक विकास दर से बढ़ने में सफल हुई है। इसी तरह मच्छरों से होने वाली बीमारियों से बचने के लिये मछली को ‘बायोकन्ट्रोल एजेंट’ के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके प्रयोग से नालों व तालाबों में पाये जाने वाले जीव-जन्तु व मच्छरों का खात्मा करने के लिये गुम्बसिया जैसी मछलीपालन से पर्यावरण व स्वास्थ्य के बचाव व राहत में सुधार हुआ है।

देशी भाषा में प्रान झींगा मछली के नाम से जाना जाता है। मीठे पानी में पाये जाने वाले झींगे काफी बड़े आकार के होते हैं वे करीबन 150 से 320 मि.मी. तक बढ़ते हैं। मत्स्य प्रयोगशाला ने बड़े पैमाने पर अनेक जातियों के झीगों के पालन में सफलता प्राप्त की है। इन्हें कृत्रिम रूप से तैयार करके झींगा पालन के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व उपलब्धि अर्जित की है। लगभग सात माह पूर्व जाइंट फ्रेशवाटर प्रान तथा इंडियन रीवर प्रान के बच्चों को पाण्ड कल्चर में बढ़ाया, जिसकी पैदावार 2 टन प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष आँकी गई है। प्रान कल्चर की प्रबन्धन प्रक्रिया में सुधार लाकर उत्पादन कई गुना बढ़ाया जा सकता है। कृत्रिम जल में झींगापालन करने की दिशा में बड़े पैमाने पर अनुसन्धान चल रहा है।

वाणिज्यिक झींगा पालन के संवर्धन के लिये एम.पी.ई.डी.ए. द्वारा अर्द्ध गहन कृषि रीतियों से झींगा उत्पादन में विपुल सफलता हासिल हुई है। इस आधार पर अर्द्ध गहन झींगा पालन प्रदर्शन परियोजना के अधीन 110 दिनों की अवधि के दौरान प्रति हेक्टेयर 5 टन टाइगर झींगा की औसत फसल प्राप्त कर सकते हैं। भारत सरकार के बायोटेक्नोलाॅजी विभाग ने नेल्लूर के पास पूटिपर्ती गाँव में एक निजी स्थान पर ऐसी परियोजना स्थापित की जिसमें विकसित तकनीक के जरिए सालाना दो फसलों में 8 से 10 टन झींगे की फसल प्राप्त की जा सकती है। इस परियोजना के प्रभाव से अनेक उद्योगपति और धनिक किसान झींगा खेती करने उतरे हैं। इस उद्योग में लगभग 30 से 40 प्रतिशत सालाना मुनाफा सम्भव है। उच्च तकनीक और जैव प्रौद्योगिकी से मत्स्यपालन व वाणिज्यिक झींगापालन के संवर्धन में काफी योगदान मिला है।

कृषि के मुकाबले मछली-पालन विज्ञान अपेक्षाकृत नया विषय है। तत्सम्बन्धी अनुसन्धान में मछली-भण्डारों का मूल्यांकन करने तथा अनेक मछली प्रजातियों की जीव वैज्ञानिक और पर्यावरण विषयक स्थितियों के अध्ययन के क्षेत्र में काफी कुछ किया गया है। मछलीपालन विकास विशेषकर व्यावसायिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कई प्रजातियों के जनन सम्बन्धी विकास और कृत्रिम आहार के विकास में अनुसन्धान गतिविधियों का सन्तुलित योगदान रहा है। मछलियों की गुणवत्ता में सुधार तथा नई संकर प्रजातियों और नस्लों के निर्माण में जैव-प्रौद्योगिकी के उपकरणों का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह उपयुक्त समय है कि इस क्षेत्र में अनुसन्धान, प्रशिक्षण, प्रदर्शन और सूचना विस्तार गतिविधियों को संयुक्त रूप से आगे बढ़ाने के लिये सहकारी संगठन बनाए जाएँ। इस तरह के प्रयासों में हमें पूरी उम्मीद है कि हम अन्तरदेशी एवं समुद्रतटीय जलकृषि से मछली उत्पादन में वृद्धि कर पाएँगे, जिससे देश में नीलक्रांति आएगी।

लेखक, बायोटेक्नोलाॅजी विभाग में प्रधान वैज्ञानिक अधिकारी हैं।

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