मत्स्य पालन के नए आयाम (New dimensions of fisheries)

मत्स्य पालन
मत्स्य पालन

भारत सरकार द्वारा लक्ष्य निर्धारित किया गया है कि देश के मात्स्यिकी उत्पादन में वर्ष 2020 तक कम-से-कम 50 टन लाख की बढ़ोत्तरी होनी चाहिए। इसके लिये न सिर्फ तकनीकी विकास जरूरी है बल्कि विभिन्न क्षेत्रों तक बुनियादी सुविधाओं को पहुँचाया जाना भी उतना ही आवश्यक है। यही नहीं उपलब्ध संसाधनों का क्षमता के अनुसार समुचित उपयोग सुनिश्चित किया जाना भी इस क्रम में अनिवार्य शर्त है।

विश्व में भारत मत्स्य उत्पादन या मात्स्यिकी में दूसरे स्थान पर है। देश में वर्ष 2016-17 के दौरान लगभग 1.14 करोड़ टन मछलियाँ और अन्य जलजीव, समुद्री तटों एवं अंतः स्थलीय मछुआरों द्वारा पकड़े अथवा मत्स्य पालन के जरिए उत्पादित किये गए हैं। यही नहीं जलजीव संवर्धन/पालन (एक्वाकल्चर aquaculture) के क्षेत्र में भी हमारा देश विश्व में दूसरे पायदान पर है। वर्तमान में देश में लगभग 1.5 करोड़ लोगों की आजीविका का आधार मात्स्यिकी/मत्स्य प्रग्रहण के कार्यकलापों से जुड़ा हुआ है।

वर्ष 2016-17 में भारत द्वारा रिकॉर्ड 37870.90 करोड़ रुपए मूल्य के बराबर की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा 11,34,948 मीट्रिक टन समुद्री मछलियों/जलजीवों का निर्यात कर कमाई गई थी। राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्ड (नेशनल फिशरीज डेवलपमेंट बोर्ड) या एनएफडीबी के आँकड़ों पर नजर डालें तो देश के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में मत्स्य क्षेत्र की भागीदारी लगभग 1.1 प्रतिशत और कृषि जीडीपी में लगभग 5.15 फीसदी है।

बढ़ते मत्स्य उत्पादन के कारण ही देश में प्रति व्यक्ति 9 किलोग्राम मत्स्य आहार की उपलब्धता सम्भव हो पाई है। इन तथ्यों से मात्स्यिकी (फिशरीज) के महत्त्व को बखूबी समझा जा सकता है। सरकार द्वारा भी इस क्षेत्र पर अब भरपूर ध्यान दिया जा रहा है और इसी क्रम में नील क्रान्ति मिशन को तैयार कर उस पर अमल किया जा रहा है। इसमें वर्ष 2020 तक मत्स्य निर्यात को 100 लाख करोड़ रुपए के लक्ष्य तक पहुँचाना तय किया गया है।

विश्व में समुद्री मात्स्यिकी को सर्वाधिक तेजी से बढ़ने वाले खाद्य उत्पादन क्षेत्र के तौर पर देखा जा रहा है। इसके पीछे कारण है बढ़ती विश्व आबादी के लिये प्रोटीनयुक्त अत्यन्त कम लागत के आहार को बड़ी मात्रा में उपलब्ध करवाने की समुद्री मात्स्यिकी की अकूत क्षमता। सीफूड पर आधारित व्यंजनों का चलन भी सम्भवतः इसी वजह से तमाम देशों में बढ़ता हुआ देखा जा सकता है।

कई फास्टफूड समूह तो सीफूड से तैयार विभिन्न डिश के बल पर ही अपने कारोबार को तेजी से बढ़ा रहे हैं। ऐसे में भारत के लिये विभिन्न प्रकार की समुद्री मछलियों और अन्य जलजीवों का निर्यात बढ़ाने के अच्छे अवसर हो सकते हैं। प्रकृति द्वारा हमें विरासत में कई उपहार मिले हैं जिनमें विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक जल संसाधनों का खासतौर पर जिक्र किया जा सकता है। इनमें देश में 8129 किलोमीटर लम्बा तटवर्ती क्षेत्र, 20.2 लाख वर्ग किमी. विशिष्ट आर्थिक प्रक्षेत्र (ईईजेड), 191.024 किलोमीटर लम्बाई की नदियाँ और नहरें, 31.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले जलाशय, 23.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मौजूद ताल एवं वाटर टैंक, 13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में व्याप्त झीलें, 12.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में उपलब्ध खारा जल तथा 2.9 लाख क्षेत्र में पसरे नदी मुहाने शामिल हैं। इन्हीं विपुल प्राकृतिक जल संसाधनों की बदौलत आज देश में मत्स्य उत्पादन में निरन्तर बढ़ोत्तरी सम्भव हो पा रही है। इन जलस्रोतों के बल पर ही मात्स्यिकी उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादन के नित नए रिकॉर्ड बन रहे हैं। इनमें अंतः स्थलीय मात्स्यिकी (इनलैण्ड फिशरीज Inland fisheries) की हिस्सेदारी 65 प्रतिशत और शेष समुद्री मात्स्यिकी की है।

यहाँ यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में मत्स्य उत्पादन में लगभग 14 गुना वृद्धि हुई है। एक ओर जहाँ वर्ष 1950-51 में यह उत्पादन मात्र 7.5 करोड़ मीट्रिक टन था वही अब बढ़कर 1.141 करोड़ मीट्रिक टन तक पहुँच चुका है। अगर गत तीन वर्षों के मत्स्य उत्पादन की तुलना करें तो पता चलता है कि इस दौरान औसतन 18.86 प्रतिशत की औसत वृद्धि दर्ज की गई जबकि अंतः स्थलीय मत्स्य उत्पादन में 26 प्रतिशत वृद्धि देखने को मिली।

इस क्षेत्र के विशेषज्ञों के अनुसार देश में मत्स्य उत्पादन बढ़ाए जाने की अभी भी पर्याप्त क्षमता है। यानी कि वर्तमान की तुलना में मत्स्य उत्पादन को कई गुना किया जा सकता है, बशर्ते कि उपलब्ध जल संसाधनों का समुचित और वैज्ञानिक ढंग से उपयोग करते हुए जलजीव संवर्धन/प्रग्रहण किया जाये। केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा इसमें बढ़ोत्तरी के लिये तमाम योजनाएँ और भावी लक्ष्य तैयार किये गए हैं और उन पर अमल भी किया जा रहा है। सम्भवतः इसी सोच के अन्तर्गत वर्ष 2018-19 के केन्द्र सरकार के बजट में भी कई तरह के वित्तीय प्रावधानों की घोषणा इस क्षेत्र के विकास के लिये की गई हैं।

भारत सरकार द्वारा लक्ष्य निर्धारित किया गया है कि देश के मात्स्यिकी उत्पादन में वर्ष 2020 तक कम-से-कम 50 लाख टन की बढ़ोत्तरी होनी चाहिए। इसके लिये न सिर्फ तकनीकी विकास जरूरी है बल्कि विभिन्न क्षेत्रों तक बुनियादी सुविधाओं को पहुँचाया जाना भी उतना ही आवश्यक है। यही नहीं उपलब्ध संसाधनों का क्षमता के अनुसार समुचित उपयोग सुनिश्चित किया जाना भी इस क्रम में अनिवार्य शर्त है।

अधिकांश प्रदेशों में मछली पालन हेतु नए जलाशयों या पोखरों या तालाबों का निर्माण करने के लिये न तो भूमि है और न ही इन पर होने वाले निवेश के लिये धनराशि है, ऐसे में पिंजरे में जलजीव संवर्धन को एक अच्छे विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। देश में अधिकांश ताजा जल जलाशयों में मत्स्यपालन नहीं किया जाता है। इन जल संसाधनों से मत्स्य उत्पादन पर भी गम्भीरता से विचार किया जा रहा है।

मत्स्य उत्पादन बढ़ाने के उद्देश्य से ही जलजीव पालन में विविधिता पर अधिक जोर दिया जा रहा है। ब्रीडिंग की नई तकनीकियों तथा हैचरी प्रबन्धन में प्रोफेशनल दृष्टिकोण अपनाए जाने के कारण भी कई ताजा जलजीवों के उत्पादन में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई है। इस क्रम में एनएफडीबी द्वारा भुवनेश्वर में स्थापित ब्रूड बैंक से भी काफी मदद मिलने की आशा है। इससे आने वाले समय में हैचरियों के लिये बड़े पैमाने पर प्रमाणीकृत ब्रूड की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकेगी। इसी प्रकार शीत जल मात्स्यिकी के विकास के कार्य में भाकृअनुप-शीतजल मात्स्यिकी अनुसन्धान निदेशालय, भीमताल भी काम कर रहा है। यहाँ पर ब्राउन ट्राउट तथा रेनबो ट्राउट जैसे मूल्यवान जलजीवों के व्यावसायिक पालन से सम्बन्धित प्रौद्योगिकियाँ विकसित कर उद्यमियों को मदद प्रदान की जा रही है।

पिंजरे में जलजीव संवर्धन

समुद्री मुहानों, खाड़ियों, छोटे जलाशयों तथा खारे जलाशयों के लिये स्थानीय तौर पर बनाए गए उपयुक्त पिंजरों में मछली पालन एक उभरती हुई नवोन्मेषी और व्यावहारिक प्रौद्योगिकी है। रोजगार सृजन, मछली उत्पादन और आय अर्जन के उद्देश्य से इस प्रौद्योगिकी का प्रयोग खारे जल संसाधनों के साथ देश के तटीय हिस्सों में भी लोकप्रिय होता जा रहा है।

खारा जलजीव पालन विकास की दिशा में नोडल अनुसन्धान संस्थान के तौर पर भाकृअनुप-केन्द्रीय खारा जलजीव पालन संस्थान चेन्नई और राष्ट्रीय समुद्री प्रौद्योगिकी संस्थान, चेन्नई द्वारा साझेदारी में काम किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत न सिर्फ युवाओं को इससे सम्बन्धित विशिष्ट ट्रेनिंग प्रदान की जाती है बल्कि पिंजरा डिजाइन, निर्माण व स्थापना के क्षेत्र में भी कौशल को बढ़ावा दिया जाता है।

भाकृअनुप-केन्द्रीय समुद्री मात्स्यिकी अनुसन्धान संस्थान, कोच्चि द्वारा भी पिंजरे में जलजीव संवर्धन तकनीकी का विकास किया गया है। इसका सफलतापूर्वक प्रयोग कोबिया और सिल्वर पोम्पानो प्रजातियों के संवर्धन में कई स्थानों पर किया जा रहा है। तटवर्ती क्षेत्रों में इनके ब्रूड बैंक और हैचरी सुविधाओं की बड़े पैमाने पर आवश्यकता है ताकि स्थानीय मछुआरे इनका लाभ उठाते हुए पिंजरे में कोबिया और सिल्वर पम्पानों का उत्पादन कर देश के मत्स्य उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकें।

नेशनल फिशरीज डेवलपमेंट बोर्ड द्वारा संस्थान के इस प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है ताकि समुद्री तटवर्ती राज्यों में पिंजरे में मत्स्य संवर्धन को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन दिया जा सके। इस तकनीक की समुद्री और अंतः स्थलीय मत्स्य पालन, दोनों ही तरह के क्षेत्र में आने वाले समय में उपयोग बढ़ने की पूरी सम्भावनाएँ हैं।

ताजा जल में जलजीव संवर्धन में बढ़ोत्तरी

वर्ष 1980 के दौर में ताजा जलजीव संवर्धन के जरिए जहाँ मात्र 3.7 लाख टन का उत्पादन होता था वहीं 2010 आते-आते यह मात्रा दस गुना बढ़कर 40.3 लाख टन को पार कर गई। दूसरे शब्दों में, प्रतिवर्ष 6 प्रतिशत की दर से वृद्धि देखने को मिली। कुल जलजीव पालन में ताजा जलजीव संवर्धन की भागीदारी 95 प्रतिशत के बराबर है। इसमें कार्प, कैटफिश, प्रॉन, पंगासियास, तिलापिया आदि का मुख्य रूप से उत्पादन किया जाता है।

समुद्री मछली पालनताजा जलजीव संवर्धन में तीन मुख्य कार्प किस्मों कतला, रोहू और मृगल की हिस्सेदारी लगभग 70 से 75 प्रतिशत तक है। इनके बाद सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प, कॉमन कार्प, कैटफिश की भागीदारी है। एक आकलन के अनुसार फ्रेशवाटर एक्वाकल्चर (freshwater aquaculture) के अधीन उपलब्ध क्षेत्रफल का मात्र 40 प्रतिशत (कुल 23.6 लाख हेक्टेयर में उपलब्ध जलाशय का 40 प्रतिशत) ही वर्तमान में प्रयोग किया जाता है।

ऐसे जल संसाधनों के अधिक एवं दक्षतापूर्ण इस्तेमाल से निश्चित रूप से मत्स्य उत्पादन में काफी बढ़ोत्तरी हो सकती है। प्रेरित कार्प प्रजनन और पोलीक्लचर (polyculture) की तकनीक के प्रचलन से देश में ताजा जलजीव संवर्धन के क्षेत्र में क्रान्तिकारी बदलाव देखने को मिले हैं और इसी के परिणामस्वरूप उत्पादकता 600 किग्रा/ हेक्टेयर (वर्ष 1974) से बढ़कर 2900 किग्रा/हेक्टेयर प्रतिवर्ष हो गई है। निस्सन्देह इस सफलता में मत्स्य कृषकों की मेहनत के अतिरिक्त सरकारी मत्स्य कृषक विकास एजेंसियों, खाराजल मत्स्य कृषक विकास एजेंसियों तथा भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद द्वारा कार्यान्वित प्रशिक्षण कार्यक्रमों की अहम भूमिका को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है।

खारा जलजीव संवर्धन

प्रमुख तौर पर पश्चिम बंगाल और केरल में परम्परागत तौर पर खारा जलजीव पालन लम्बे समय से किया जाता रहा है। बाद में आधुनिक तकनीकों का प्रयोग कर निर्यात के लिये झींगा, पीनस मोनोडान और पीनस वेन्नामई के जल संवर्धन पर ज्यादा जोर दिया गया। यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि इसके अतिरिक्त देश में नदियों के मुहाने से जुड़ा लगभग 39 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल भी है, जिसमें से मात्र 15 प्रतिशत को ही अभी तक इस्तेमाल में लाया जा सका है। यही नहीं 90 लाख हेक्टेयर लवण-प्रभावित भूमि हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में भी है जिसमें इस तरह के जलजीव पालन की सम्भावनाओं पर शोध कार्य किये जा रहे हैं।

नील क्रान्ति मिशन (neel kranti mission)

भारत सरकार द्वारा मात्स्यिकी और जलजीव पालन के महत्त्व को समझते हुए पहले से चल रही इनसे जुड़ी विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों को ‘नील क्रान्ति मिशन’ के अन्तर्गत शामिल किया गया है। इसमें नेशनल फिशरीज डेवलपमेंट बोर्ड के कार्यकलापों के अतिरिक्त अंतःस्थलीय मात्स्यिकी एवं जलजीव पालन, समुद्री मात्स्यिकी इंफ्रास्ट्रक्चर तथा पोस्ट हार्वेस्ट अॉपरेशन मात्स्यिकी क्षेत्र के डाटाबेस तथा डीआईएस का समुचित विकास, मात्स्यिकी से जुड़े संस्थानों के बीच आपसी तालमेल, मछुआरों के कल्याण हेतु राष्ट्रीय योजना आदि को भी सम्मिलित किया गया है। इसका उद्देश्य मात्स्यिकी के माध्यम से लोगों की पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए मत्स्य कृषकों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य की प्राप्ति भी है।

वर्ष 2017 में लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में तत्कालीन केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण राज्यमंत्री श्री सुदर्शन भगत द्वारा बताया गया था कि उनके विभाग द्वारा आगामी 5 वर्षों की अवधि के लिये नेशनल फिशरीज एक्शन प्लान 2020 तैयार किया गया है। इसके तहत मत्स्य उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाते हुए नीलक्रान्ति मिशन की अवधारण को साकार किया जाएगा। नील क्रान्ति मिशन के अन्तर्गत वर्ष 2020 तक का लक्ष्य 1.5 करोड़ टन मत्स्य उत्पादन 8 प्रतिशत वृद्धि दर से हासिल करना निर्धारित किया गया है।

समेकित कृषि में मत्स्य पालन का बढ़ता चलन

भारत सहित पूर्वी और दक्षिणी एशियाई देशों में मत्स्य पालन के साथ कृषि अथवा पशुपालन काफी देखने को मिलता है। इसमें सिर्फ एक सरल-सी अवधारणा है कि खेती या पशुपालन का अवशिष्ट मछलीपालन में लाभदायक हो सकता है। इस प्रकार कम-से-कम लागत में अधिक कमाई इस प्रणाली के माध्यम से बिना अतिरिक्त मेहनत के सम्भव हो जाती है। इसमें भी कई मॉडल अब प्रचलन में हैं जैसे धान-मछली पालन प्रणाली, बागवानी फसल-मत्स्य पालन, पॉल्ट्री-मछली पालन, बत्तख-मछली पालन, सुअर-मछली पालन, गौपशु-मछली पालन, खरगोश-मछली पालन, बकरी-मछली पालन आदि।

राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्ड

इसकी स्थापना 2006 में स्वायत्तशासी संस्था के तौर पर पशुपालन, डेयरी एवं मात्स्यिकी विभाग (कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय) के अन्तर्गत की गई थी। इसके पदेन अध्यक्ष केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री होते हैं। बोर्ड का अधिदेश देश में मत्स्य उत्पादन और उत्पादकता में सतत बढ़ोत्तरी करने में योगदान देना है। इस अधिदेश के अन्तर्गत मात्स्यिकी उत्पादन, प्रसंस्करण, भण्डारण, परिवहन और मार्केटिंग से सम्बन्धित समस्त कार्यकलाप, राष्ट्रीय जल संसाधनों के प्रबन्धन और रखरखाव संरक्षण की जिम्मेदारी शामिल हैं।

मात्स्यिकी के क्षेत्र से जुड़ी प्रौद्योगिकीयों और आधुनिक तकनीकों का प्रचार-प्रसार मात्स्यिकी के क्षेत्र में समुचित प्रबन्धन एवं आधुनिक बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना, मात्स्यिकी के क्षेत्र में महिलाओं को प्रशिक्षित कर उनका सशक्तिकरण एवं रोजगार की व्यवस्था और पोषण सुरक्षा हेतु मत्स्य उत्पादों की उपलब्धता सुनिश्चित करना निहित है।

राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्ड द्वारा वित्तीय सहायता

1. श्रिम्प हैचरी में फिशफिश बीज के उत्पादन हेतु।
2. ओपन सी केज कल्चर की स्थापना हेतु।
3. समुद्री सजावटी मछली उत्पादन हेतु।
4. मस्सल फार्मिंग हेतु।
5. वित्तीय सहायता के तौर पर कुल प्रोजेक्ट लागत का 40 प्रतिशत तक सब्सिडी के तौर पर देने का प्रावधान है।

चुनौतियाँ और सरकारी प्रयास

गत वर्ष के बजट में जहाँ हरित क्रान्ति के अन्तर्गत जारी विभिन्न योजनाओं के लिये 13.741 करोड़ रुपए और श्वेतक्रान्ति के अन्तर्गत पशुपालन क्षेत्र हेतु 1641 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था वहीं दूसरी ओर मात्स्यिकी के लिये मात्र 401 करोड़ रुपए का आवंटन किये जाने पर मत्स्य क्षेत्र से जुड़े संगठनों ने कड़ा विरोध दर्ज किया था। इन्हीं शिकायतों को ध्यान में रखते हुए अलग से इस वर्ष के बजट में फिशरीज एंड एक्वाकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड (fisheries and aquaculture infrastructure development fund) का प्रावधान किया गया है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों के अनुसार निस्सन्देह सरकार के इस निर्णय से मात्स्यिकी क्षेत्र की समस्त समस्याओं का समाधान तो नहीं होगा, पर तात्कालिक तौर पर राहत अवश्य मिलेगी।

देश में निरन्तर बढ़ते मत्स्य उत्पादन के बावजूद अभी प्रति मछुआरा/वर्ष मत्स्य उत्पादन महज 2 टन है जबकि नार्वे में 172 टन, चिली में 72 टन तथा चीन में 6 टन है। भारतीय मछुआरों की मत्स्य उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की जरूरत है तभी भारतीय मछुआरा समुदाय के जीवन-स्तर में सुधार सम्भव हो सकता है।

सड़क बिजली और अन्य आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर का देश के ग्रामीण एवं अंदरूनी क्षेत्रों में अभाव होने के अलावा कोल्ड चेन स्टोरेज सुविधाओं की कमी भी मछुआरा समुदाय की आर्थिक बदहाली के लिये काफी हद तक जिम्मेदार कही जा सकती है। इनमें राज्य सरकारों द्वारा ध्यान देने के अतिरिक्त निजी क्षेत्र द्वारा भी निवेश किये जाने की तत्काल आवश्यकता है।

मत्स्य संगठनों द्वारा लम्बे समय से मात्स्यिकी क्षेत्र को कृषि मंत्रालय से अलग करने और मत्स्य पालन मंत्रालय के गठन की माँग की जा रही है। हालांकि राज्यों में ऐसे मात्स्यिकी मंत्रालय/विभाग काम कर रही हैं। केन्द्र सरकार द्वारा चालू किये गए नीलक्रान्ति मिशन को इस दिशा में सकारात्मक कदम कहा जाना चाहिए।

मात्स्यिकी का क्षेत्र अभी भी बड़े पैमाने पर असंगठित है और प्रायः मत्स्य कृषकों को अपने मत्स्य उत्पादों के सही मूल्य नहीं मिल पाते हैं। मत्स्य व्यापारियों और बिचौलियों द्वारा अत्यन्त कम मूल्य में मत्स्य उत्पादों की खरीद की जाती है। इस शोषण से बचाव के लिये ठोस कदम उठाये जाने चाहिए।

मीठे पानी में मछली पालनअमूमन मछुआरा समुदाय अशिक्षित और अप्रशिक्षित होने के साथ आर्थिक दृष्टि से भी काफी कमजोर है। इनकेे लिये मत्स्य पालन ओर प्रग्रहण सम्बन्धित विशेष ट्रेनिंग की व्यवस्था बड़े पैमाने पर उपलब्ध करवाए जाने की आवश्यकता है। हालांकि भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के संस्थानों सहित राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्ड एवं राज्य सरकारों के मत्स्य विभागों द्वारा समय-समय पर ऐसे ट्रेनिंग कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।

भारत का बढ़ता मात्स्यिकी निर्यात

अमेरिका और यूरोप के देशों के अतिरिक्त यूरोपियन यूनियन के सदस्य देश भी भारत से समुद्री जलजीवों का भारी मात्रा में आयात कर रहे हैं।

श्रिम्प (झीगों) की इस निर्यात में हिस्सेदारी निरन्तर बढ़ रही है। कुल मत्स्य निर्यात में लगभग 38.28 प्रतिशत या डॉलर में हुई कमाई के रूप में 64.50 प्रतिशत की श्रिम्प की भागीदारी है।

श्रिम्प के बाद हिमीकृत मछलियों की सर्वाधिक मात्रा निर्यात (26.15 प्रतिशत) की जाती है।

समुद्री जलजीवों के भारत से आयात में डॉलर से भुगतान के आधार पर अमेरिका पहले (29.98 प्रतिशत), दक्षिणी-पूर्वी एशिया दूसरे (29.91 प्रतिशत) और यूरोपियन यूनियन (17.98 प्रतिशत) के साथ तीसरे स्थान पर है।

श्रिम्प एल वन्नामेयी, जलजीव प्रजातियों में विविधता और गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी तथा समुद्री जलजीवों के प्रसंस्करण की सुविधाओं में बढ़ते निवेश से निर्यात में वृद्धि हो रही है।

भारत से टाइगर श्रिम्प के खरीददार के रूप में जापान सबसे आगे है। इसकी हिस्सेदारी लगभग 48.34 प्रतिशत है।

भारत से लगभग 75 देशों को मछलियों और शेलफिश के उत्पादों का निर्यात किया जाता है।

देश के कुल कृषि निर्यात में मात्स्यिकी क्षेत्र की भागीदारी लगभग 20 प्रतिशत है।

बजट 2018-19 में मात्स्यिकी क्षेत्र

1. मात्स्यिकी, जलजीव संवर्धन और पशुपालन के क्षेत्र में संलग्न कृषकों को भी किसान क्रेडिट कार्ड की सुविधा उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान।
2. मात्स्यिकी क्षेत्र के विकास के लिये अलग से फिशरीज एंड एक्वाकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड की स्थापना।
3. इस फंड के लिये 10,000 करोड़ रुपए की धनराशि अलग से निर्धारित।
मत्स्य प्रग्रहण बढ़ाने में उपयोगी m@krishi पोर्टल/ऐप

मत्स्य प्रग्रहण के क्षेत्र में अधिक कमाई के उद्देश्य से अब अन्तरिक्ष विज्ञान और आईसीटी का भी प्रभावी तौर पर उपयोग किया जाने लगा है। आईएनसीओआईएस (INCOIS), हैदराबाद और टाटा कंसल्टेंसी सर्विस (टीसीएस) द्वारा संयुक्त रूप से विकसित m@krishi पोर्टल इस क्रम में काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसका उपयोग करने वाले मछुआरों के लिये अब पहल की तुलना में 30-40 प्रतिशत अधिक समुद्री जलजीवों को पकड़ना सम्भव हुआ है। यही नहीं मोटरचालित समुद्री नौकाओं में उपयोग होने वाले ईंधन में भी 30 प्रतिशत की बचत और मछलियों की सही लोकेशन का पता इस पोर्टल की वजह से सम्भव हो रही है।

भाकृअनुप-केन्द्रीय समुद्री मात्स्यिकी अनुसन्धान संस्थान के साथ मिलकर इन संस्थानों द्वारा एम कृषि मोबाइल एप का भी विकास किया गया है। आईएनसीओआईएस, हैदराबाद सम्भावित मत्स्य-प्रग्रहण क्षेत्रों (पीएफजेड), एनओएए उपग्रहों से प्राप्त डाटा दूरसंवेदी सूचनाओं पर आधारित मछलियों के झुंड की भविष्यवाणी सतह का तापमान और विभिन्न मछली किस्मों के भोजन का निर्माण करने वाले समुद्री पादप प्लवकों की उपस्थिति जैसी सूचनाओं को एकत्रित करता है। इस एप के माध्यम से मोबाइल का इस्तेमाल कर इन सूचनाओं को स्थानीय भाषाओं में इच्छुक लोगों तक पहुँचाया जाता है।

सजावटी मछलियों से आय की सम्भावनाएँ

सजावटी मछलियों का कारोबार विश्व भर में हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ा है। वर्ष 1976 में केवल 28 देश ही ऐसे श्रृंगारिक मछलियों का निर्यात किया करते थे। पर अब ऐसे देशों की संख्या काफी अधिक हो चुकी है। प्रमुख रूप से एशियाई देशों द्वारा ही अन्य देशों को इन मछलियों का सर्वाधिक निर्यात किया जा रहा है।

भारत का हिस्सा विश्व की सजावटी मछलियों के कारोबार में मात्र एक प्रतिशत है। यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि इसमें वृद्धि की असीम सम्भावनाएँ हैं। विश्व-स्तर पर 1995 से 2011 के दौरान सजावटी मछलियों की निर्यात वृद्धि की औसतन दर 11 प्रतिशत रही। विश्व में 600 से अधिक सजावटी मछलियों की किस्में पाई जाती हैं जबकि हमारे देश में सजावटी मछलियों की 200 से अधिक किस्में हैं। इसलिये इन मछलियों का निर्यात बढ़ाने की दिशा में गम्भीरता से प्रयास किये जाएँ तो कोई कारण नहीं है कि नतीजे आशाजनक न हों।

नीली क्रान्ति

मत्स्य पालन क्षेत्र में क्रान्ति, नीली क्रान्ति के अन्तर्गत सभी मौजूदा योजनाओं को एकीकृत कर योजना की पुनर्संरचना की गई।

1. सभी मछली पालन योजनाओं का एकीकरण, नीलक्रान्ति योजना को मंजूरी।
2. पाँच वर्षों के लिये 3000 करोड़ रुपए के व्यय से एकीकृत मछली विकास एवं प्रबन्धन।
3. बचत-सह-राहत के अन्तर्गत प्रति वर्ष औसतन 4.90 लाख मछुआरे लाभान्वित।
4. प्रतिवर्ष औसतन 48.35 लाख मछुआरों का बीमा।
5. बजट का प्रावधान 2016-17 के 147 करोड़ रुपए से 62.35 बढ़ाकर 2017-18 में 401 करोड़ रुपए किया गया।
6. मछली उत्पादन 2012-14 में 186.12 लाख टन से बढ़कर 2014-16 में 209.59 टन हुआ।
7. मछुआरों की वार्षिक बीमा किश्त राशि को 29 रुपए से घटाकर 20.34 रुपए किया गया, जिससे अधिकांश मछुआरों ने बीमा कराया।
8. दुर्घटना मृत्यु और स्थायी अपंगता के लिये बीमा कवच राशि को एक लाख से बढ़ाकर दो लाख रुपए किया गया।

(लेखक भा.कृ.अ.प. द्वारा प्रकाशित ‘खेती’ पत्रिका के सम्पादक हैं।) ई-मेलःashok.singh.32@gmail.com


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