मत्स्य पालन एवं प्रोटीन


भारत सरकार ने भी मछली का उत्पादन तथा उत्पादकता बढ़ाने के विभिन्न कार्यक्रम तेज किये हैं। जिसके फलस्वरूप वर्ष 1971-81 के दशक में विश्व के 13.2 प्रतिशत की औसत वृद्धि दर के मुकाबले भारत में वृद्धि की औसत दर 32 प्रतिशत रही। गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के कार्यक्रम को तेज करने के लिये मछली पकड़ने की नौकाओं के देश में उत्पादन तथा उनकी आयात करने के अलावा मछली पकड़ने के लिये विदेशी नौकाओं के चार्टर करने का भी एक कार्यक्रम शुरू किया गया है।

विश्व के 3/4 भाग में मछलियों को खाने के प्रयोग में लाया जाता है जो संसार के बहुसंख्यक गरीब लोगों के प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। भारत के 5600 किलो मी. समुद्री किनारों पर जो मनुष्य रहते हैं वो भी मछलियों से प्रोटीन के रूप में भोजन प्राप्त करते हैं तथा अपनी आजीविका चलाते हैं। भारत विश्व के प्रमुख मछली उत्पादक देशों में से एक हो गया है तथा राष्ट्रमण्डल देशों में मछली उत्पादक के रूप में भारत का प्रथम स्थान है तथा पूरे विश्व में छठा स्थान है।

मछली क्षेत्र


भारत में समुद्री किनारों पर रहने वाले पश्चिमी क्षेत्र गोवा, गुजरात एवं महाराष्ट्र दक्षिण के आन्ध्रकेरल, तमिलनाडु एवं कर्नाटक तथा पूरब में बंगाल, उड़ीसा एवं असम में मछलियों का प्रयोग मुख्य रूप से भोजन के रूप में किया जाता है। केवल वैष्णव ब्राह्मण क्षेत्र पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में मछलियों का प्रयोग कम लेकिन इन जगहों पर अण्डे माँस का प्रयोग दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।

भारत में मछली उत्पादन की प्रति वर्ष क्षमता 80 लाख है। मछली उत्पादन विगत 35 वर्षों में काफी बढ़ा है। सन 1950 में मछली उत्पादन पूरे विश्व में 2 करोड़ टन था जो 1987-88 में बढ़कर 9 करोड़ टन हो गया है। भारत में वर्ष 1983-84 के दौरान वर्ष में 26.04 लाख टन मछली का उत्पादन हुआ। इसमें 16.4 लाख टन समुद्री क्षेत्र से तथा 10 लाख मीट्रिक टन अन्तर्देशीय (नदी, तालाब, पोखरों) से उत्पादन हुआ।

मछली की प्रजातियाँ


प्रोटीन से पूर्ण तथा स्वाद में स्वादिष्ट मछलियाँ प्रकृति की देन हैं। करीब 1300 प्रजातियाँ मछलियों की हैं जो समुद्रों तथा नदियों, पोखरों व तालाबों में पायी जाती हैं। भारत में मुख्य रूप से खायी जाने वाली अलवणीय जलीय (नदियों, पोखरों तथा तालाबों) में मछलियाँ जैसे कतला, रोहू कालावासू, कूरची बाटा, मिरगल, मुलेटस व बारबस स्टीगमा तथा टिकतो खायी जाने वाली मछलियाँ हैं। शार्क व रेज, ईल, सारडाइन, वेल्स समुद्र में पायी जाती हैं और भारत तथा बहुत से देशों में आहार का मुख्य स्रोत है।

पेलियोलिथिक मानव के समय से ही मछलियाँ भोजन के रूप में उपयोग में लायी जाती हैं और आज भी संसार के विभिन्न भागों में खायी जाती हैं। मछलियों का माँस सफेद या गुलाबी रंग का तथा पपड़ीदार होता है। यह प्रोटीन का अति उत्तम स्रोत है। इसमें 13 से 30 प्रतिशत तक प्रोटीन होती है तथा इससे 300-1600 कैलोरी प्रतिग्राम ऊर्जा प्राप्त होती है। मछलियों के माँस में विटामिन्स की मात्रा भी काफी होती है। इसमें विटामिन्स ए.सी.डी. तथा बी-कॉम्पलेक्स जैसे थायमीन, राइबोफ्लोवीन तथा निकोटिनिक अम्ल आदि पाये जाते हैं। कुछ मछलियों के यकृत में भी विटामिन्स ए. तथा डी. की बहुलता होती है।

मछली अरबों लोगों का भोजन (प्रोटीन) एवं आजीविका का साधन है। भारत में छोटे (मछुआरों) मछली पकड़ने वालों की संख्या करीब 1 करोड़ है, परन्तु मछलियों का बाजार में भाव तेज होने से साधारण नागरिक (गरीब) नहीं खरीद पा रहे हैं या जिसे प्रोटीन की आवश्यकता है वो खरीद नहीं सकता या यों कहा जाय कि मछलियाँ जो परम्परागत प्रोटीन की स्रोत थी अब वह एक उपभोग की वस्तु बनकर रह गई है।

इन सबका कारण मछलियों का स्थानीय बाजार में कम आना है। अर्थात नदियों, तालाबों एवं पोखरों के अलवणीय जलों से पकड़े जाने वाली मछलियों का उत्पादन कम होता है जिससे कि गरीब मनुष्य ज्यादातर ऑयल सारडिन्स नामक मछली का उपयोग करते हैं। पिछले दस सालों से इनका पकड़ना कम हो गया है इसी तरह मैकरल एवं स्रिम्पा का उत्पादन भी कम हुआ है। इन मछलियों की प्रजातियों की संख्या ज्यादा होने से इनके भाव में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। इन मछलियों के बाजार भाव बढ़ने के मुख्य दो कारण हैं-

पहला कारण इन मछलियों का निर्यात करना। वर्ष 1970 में करीब 77 करोड़ रुपये की मछलियों का निर्यात किया गया जो 1987-88 में उत्तोरत्तर वृद्धि करके 450 करोड़ रुपए तक पहुँच गयी। वर्ष 1984-85 के दौरान समुद्री मछलियों के निर्यात से देश को 400 करोड़ की विदेशी मुद्रा की आय हुई।

दूसरा कारण मछलियों को पकड़ने के लिये बड़े व्यवसायी विदेशी नौकाओं का प्रयोग करते हैं और ज्यादातर मछलियों का निर्यात करते हैं।

इससे साफ जाहिर होता है कि एक तरफ तो हम मछलियों के उत्पादन के लिये अधिक प्रयत्नशील हैं तो दूसरी तरफ साधारण मनुष्यों को मछली (प्रोटीन) की कमी महसूस हो रही है। आज मत्स्य उद्योग एक लाभदायक व्यवसाय बन गया है जो विदेशी मुद्रा अर्जित करने की होड़ में जुट गया है। इसके अलावा जो मछलियाँ निर्यात के उपयुक्त नहीं होती उन्हें बड़े व्यवसायी फिर से समुद्र में फेंक देते हैं जो देश के लिये प्रोटीन का नुकसान है। खाद्य और कृषि संगठन के विशेषज्ञ सिडकी हालट के अनुसार पकड़ी हुई मछलियों को समुद्र में बारबार फेंकी जाने वाली मछलियों की मात्रा 60 लाख है जो संसार के 10 प्रतिशत पूर्ण पकड़ने की क्षमता के बराबर है।

एफ.ए.ओ. के अनुसार वर्ष 2000 तक मछलियों का उत्पादन बढ़कर 15 करोड़ टन हो जायेगा। पोषण कार्यक्रम में मछलियों का स्थान, गरीब लोगों के लिये अन्य कोई दूसरी वस्तु नहीं ले सकती। पूरे संसार में मछलियों का स्रोत पूरी तरह फैला हुआ है तथा गरीब मनुष्य उन तक आसानी से पहुँच सकता है। मछलियों से ज्यादा से ज्यादा मनुष्यों को पोषण देने के लिये भारत जैसे देश को आवश्यकता है। सबसे पहले मछलियों की उत्पादक लागत कम की जाय। उत्पादन लागत कम करने के लिये भारत को परम्परागत मछली पकड़ने के साधनों को बढ़ावा देना चाहिए जिससे कि मछुआरे अपनी आजीविका इसी से चलाते रहें।

भारत सरकार ने भी मछली का उत्पादन तथा उत्पादकता बढ़ाने के विभिन्न कार्यक्रम तेज किये हैं। जिसके फलस्वरूप वर्ष 1971-81 के दशक में विश्व के 13.2 प्रतिशत की औसत वृद्धि दर के मुकाबले भारत में वृद्धि की औसत दर 32 प्रतिशत रही। गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के कार्यक्रम को तेज करने के लिये मछली पकड़ने की नौकाओं के देश में उत्पादन तथा उनकी आयात करने के अलावा मछली पकड़ने के लिये विदेशी नौकाओं के चार्टर करने का भी एक कार्यक्रम शुरू किया गया है। छोटे मछुआरों के लिये, भारत के अलावा बहुत से देशों ने समुद्र में 10 किलोमीटर तक मछली पकड़ने के लिये सुरक्षित क्षेत्र बनाया है। परन्तु मत्स्य व्यवसाय में जुटे बड़े व्यवसायी, विभिन्न कारणों से इसका प्रतिपालन नहीं करते। बहुत समय से छोटे मछुवारों 20 किमी के सुरक्षित क्षेत्र की माँग कर रहे हैं। अभी तक किसी भी देश में उनकी माँग नहीं है। पोषण को ध्यान में रखते हुए सरकार को इसे लागू करना चाहिए।

विभागाध्यक्ष, जन्तु विज्ञान विभाग, सरस्वती महाविद्यालय, हाथरस-204101

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