गाँधी जी कहते थे कि धरती सबकी जरूरत पूरी कर सकती है, लेकिन किसी के लालच को पूरा नहीं कर सकती। आज के जल संकट के पीछे भी मनुष्य का यही लालच है जिसने पानी को प्रदूषित तो किया ही, उसे नष्ट भी कर दिया।
हम बचपन से सुनते आए हैं- ‘जल ही जीवन है।’ जलवायु परिवर्तन के दौर में तो ये शब्द और भी महत्त्व के हो गये हैं। यह जीवन देने वाला तत्व है। मानव सभ्यताएँ इसके निकट खड़ी हुईं, किन्तु आज धीरे-धीरे ये सभ्यताएँ ही जल को अपने कब्जे में ले रही हैं। मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि मेरा विकास से कोई विरोध नहीं किन्तु गाँधी के शब्दों में- “यह धरती सबकी जरूरत ही पूरी कर सकती है, किन्तु एक व्यक्ति की इच्छाओं को पूरा करने में असमर्थ है।”धरती पर जीव की रचना ही जल में अमीबा के रूप में हुई। अब आप जल को नदी मानें, समुद्र मानें, बादल मानें, बारिश मानें या बर्फ मानें; पर है सब जल ही। जो इन सभी संज्ञाओं में विद्यमान है। जल नदी, गाड-गदेरों, तालाबों में इकट्ठा होकर के जीवन देने के लिये आगे जाता है। पानी की पतली-सी भी लकीर एक नई आशा की किरण होती है।
बहते जल में ही जीवन का आनन्द है। बहते जल में जीवन विद्यमान होता है, जल के बँधते ही उसके स्वरूप, उसके तत्वों में, उसके विज्ञान में परिवर्तन आ जाता है। वह अपने मूल स्वरूप को खो देता है। हम यहाँ किसी गगरी बाल्टी, टब में बँधे जल की बात नहीं कर रहे हैं, वह तो जीवन देने के प्राकृतिक स्वरूप का हिस्सा है, किन्तु जब जल को हम अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिये बड़े-बड़े जलाशयों में बाँध देते हैं, नदी को बाँध देते हैं। वहाँ जल अपनी स्वाभाविक अस्मिता को खो देता है और जल विहीन नदी; जहाँ जल उछलता-कूदता था, कैसी लगती है? यह किसी भी नदी पर बाँध के नीचे देखा जा सकता है।
अफसोस तो तब होता है जब 20 हजार करोड़ की उसी निर्मल अविरल राष्ट्रीय नदी गंगा और उसकी तमाम सहयोगिनी नदियों-गंगाओं का यह हाल मिलता है। उत्तराखण्ड में देवप्रयाग से ऊपर गंगा की दोनों मुख्यधाराओं भागीरथी गंगा में 90 किलोमीटर बाद या तो गंगा बाँध के जलाशय में या सुरंगों में मिलती है, दूसरी धारा विष्णुपदी अलकनंदा गंगा का भी यही हाल है। जल का नदी के रूप में बहना उसके जीवनकाल का प्रमुख हिस्सा होता है।
जल की उत्पत्ति कैसे होती है? कहाँ बादलों से वाष्प बनकर उस पर गिरना, फिर दूर पहाड़ों पर जगह-जगह या धरती पर उसका गिरना और सिमटकर बहना। वह बहना ही जल का सच्चा स्वरूप है। जल अपने में पूरी प्रकृति को साथ लेकर चलता है। जल के इस स्वरूप को ही नदी कहते हैं। नदी पूरी प्रकृति को जीवन देती है और प्रकृति से जीवन लेती भी है। प्रकृति से निर्मित होती है और प्रकृति पर आश्रित जीवों को जीवन देती है। जिसमें मनुष्य भी है।
इस पूरी प्रक्रिया में जल बहते रहना जरूरी है। जल के इस स्वरूप, नदी में, तरंगता होती है, संगीत होता है, एक नाद होता है। जल जब बहता है, तो पूरे आलोड़न के साथ बहता है। पत्थरों से टकराता है और कहीं गहरी कन्दराओं में चला जाता है, तो कहीं सपाट मैदान में फैलकर चलता है। जल से नदी, नद और सागर बनता है। जैसे गंगा नदी, तो ब्रह्मपुत्र नद है। वो आपसे बात करता है।
जरा इन नदियों पर बात करें, तो पाएँगे कि संसार भर में मानव सभ्यता का विकास अपने किनारे खड़ा करने वाली इन नदियों को हमने क्या दिया? नदियों को अगर हमने कुछ दिया, तो पहले उससे जल लिया, जल लेकर के हमने उसे गन्दगी दी और फिर हमने नदी को बाँधा और नदी से बिजली बनाने के लिये जल लिया, शहरों-उद्योगों के लिये जल लिया और उसकी गन्दगी नदी को अर्पित कर दी, फिर एक के बाद एक बाँध बाँधे। नदी का पूरा रूप ही हमने विछिन्न करके रख दिया।
अब हमारे सामने नदी का वह स्वरूप नजर ही नहीं आ सकता। हम विकास की जिस धारणा को लेकर चले हैं, उसने नदियों की हत्या की है। जबकि यह तब है जब हम नदियों की पूजा-अर्चना करते हैं। नदियों को माँ का पवित्र दर्जा देते हैं। नदियाँ जो जल का एक स्वरूप हैं; उन्होंने जीवों को, जिसमें मानव एक हिस्सा है, जीवन दिया है। हम नदियों की स्वतंत्रता की बात करते हैं। अविरलता की बात करते हैं। वह जरूर जल के एक हिस्से की बात हो सकती है, किन्तु यह भी सही है कि जल का स्वरूप जल की विधि मान्यता नदियों में है।
हम नदियों के अस्तित्व को, नदियों के स्वरूप को, नदियों के मूल स्वभाव को अस्वीकार करके जल को अलग से परिभाषित नहीं कर सकते। ‘गंगा को अविरल बहने दो, गंगा को निर्मल रहने दो’ -का नारा जब सुंदरलाल बहुगुणा जी ने 90 के दशक में दिया था, तब वे संकेत दे रहे थे कि बस बहुत हो चुका, अब मानव का भविष्य बहते जल में ही है। हमने जल को, नदियों को बाँधों में भयंकरतम बाँधा है। अगर आँकड़ों में जाएँ, तो मात्र गंगा के मायके में, 56 बड़े बाँध, यमुना पर लगभग 26 बड़े बाँध और हिमालय की तमाम नदियों पर बाँधों की संख्या 1000 के करीब आ रही है, देश में 5 हजार पाँच सौ बाँध बन चुके हैं।
मैदानों में ताजा उदाहरण नर्मदा का है जिस पर पाँच बड़े, 30 मझोले और 130 छोटे बाँध! तो नदी बची कहाँ? आज नर्मदा समुद्र से 60 किलोमीटर पहले ही ठहर गई है! गायब हो गई है! 60 किलोमीटर समुद्र का पानी अन्दर आ गया है। मीठे जल को दूषित जल में परिवर्तित कर दिया है। प्रकृति ने नहीं, हमने किया है। उसमें आदि मानव की संख्या मानव जाति का बुरा ही हुआ है। प्रकृति की अथक मेहनत से बने मीठे जल को उसके स्वतंत्र बहाव क्षेत्र को खारा कर दिया गया है।
सरकारी आँकड़े बताते हैं कि उद्योगों व कम्पनीयों को नर्मदा जल दिया जा रहा है, किन्तु जिस कच्छ के नाम पर सरदार सरोवर बनाया गया वहाँ पानी नहीं। मध्य प्रदेश, गुजरात के किसानों को पानी नहीं। भागीरथी गंगा पर बने टिहरी बाँध से उजड़ों को पानी नहीं, भले ही 500 मीटर पर गंगा नहर बहती हो। ऐसा देश के बहते जल को बाँधों में बाँधकर किया गया है, जबकि एक भी बाँध से न घोषित बिजली पैदा हुई, न सिंचाई हुई है।
जाहिर है जल प्रवाह जब सत्ता अपने हाथ में ले लेती है, तो जल का बँटवारा भी मानव समाज के ही बीच अन्यायपूर्ण हो जाता है। अन्य जीव-जन्तुओं से उनके जीने का अधिकार ही छिन जाता है। महासीर-जैसी मछलियाँ और गंगा, नर्मदा नदियों के घड़ियाल। हम बाँधों की बहस में यहाँ नहीं जाएँगे। बहता जल, प्रदूषण को भी साफ कर सकता है। यह जल की विशेषता रही है, किन्तु जब नदी को उसके ऊपरी क्षेत्र से नहरों में मोड़ दिया जाए और उसके मूल रास्ते में मात्र गन्दे नालों का प्रवाह आए तो क्या होगा? यह दिखता है कुम्भ की स्थली उज्जैन की शिप्रा नदी में।
यमुना कोई हिमालय में देखे, फिर उसे दिल्ली से पहले गायब होते देखे और बाद में 19 नालों का गन्दा पानी जब यमुना नदी में आता है, तो नदी की कातर पीड़ा को कितना समझेगा कोई? और नदी क्षेत्र में क्या मानव और क्या अन्य जन्तुओं व पारिस्थितिकी के लिये जल बचा? याद रहे कि ये 19 नाले कभी दिल्ली में साफ पानी की नन्हीं नदियाँ होते थे।
आज मानव सभ्यता ने दुनिया के तमाम जल संसाधनों पर भी पूरी तरह कब्जा कर लिया है। बहते जल को तमाम तरह की गन्दगी बहाने का एक साधन मात्र मान लिया गया है। यह प्रकृति प्रदत्त अविरल जल प्रवाह की प्रक्रिया को धोखा देना है, बाँधना और प्रदूषित करना है।
देश के आम किसान, आदिवासी, नदी तटवासी से तो जल छिन गया है। जल संसाधन विहीन हो वह जीवन के निम्न स्तर पर पहुँच रहा है। आवश्यक पर्यावरण सन्तुलन के लिये भी जल का निर्बाध बहना जरूरी है। उच्च न्यायालय से लेकर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण बार-बार नदियों में न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने का आदेश दे रहा है। न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह आज एक गम्भीर प्रश्न है। उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने मार्च, 2017 में गंगा-यमुना को मानव का दर्जा प्रदान किया है, किन्तु सभी सरकारें इन आदेशों के खिलाफ कार्यरत हैं।
हम नागरिक भी जब तक अपने जीवन में भोगवाद को कम नहीं करेंगे, तब तक जल के निर्मल अविरल प्रवाह की बात बेमानी होगी। जल संसाधन का इस्तेमाल कीजिए, किन्तु शोषण न करें। यह भविष्य का वृक्ष काटने-जैसा कार्य है।
समय तो निकल चुका है, किन्तु फिर भी आमजन व नीति-निर्धारकों को तय करना ही होगा कि जल प्रवाहों की यह हत्या कब तक जारी रहेगी? जीवन, यानी बहता जल; यह बात रेखांकित करते हुए अन्त में पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणाजी के शब्द कहना चाहूँगा- ‘जीवन की जय, मृत्यु का क्षय’।
(लेखक गाँधीवादी पर्यावरणविद हैं)
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