सारांश
मृदुजलीय मीन हेट्रोप्न्यूस्टिस फासिलिस (सिंघी) में निराहारता के फलस्वरूप, शारीरिक उपापचय के प्रमुख जैव रसायनिक द्योतक रक्त यूरिया स्तर पर घटित प्रभाव का अध्ययन किया गया। निराहारता के प्रथम मास से ही रक्त यूरिया स्तर में क्षरण (11.63%) प्रदर्शित हुआ जो निरंतर बढ़ते निराहारता काल के सापेक्ष चौथे मास के अंत तक 64.19% इंगित हुआ। सिंघी मीन में यह परिवर्तन निराहारता के कारण सतत घटते उपापचय क्रियाओं से संबंधित थे, जो प्राय: जलीय वातावरण में चक्रीय परिवर्तनों के कारण घटित होती हैं।
Abstract
Studies were made to observe impact of starvation on blood urea levels, a potent biochemical indicator of body metabolism, of freshwater catfish H. fossilis. The level started decreasing from the initial month (11.63%) and declined sharply up to 64.19% after four months, gradually with increasing starvation period. The alterations were correlated with declining metabolic rate of the fish following starvation, a situation often prevails in aquatic environment due to cyclic changes.
प्रस्तावना
विभिन्न ऋतुओं के चिरपरिचित जलीय वातावरण, जहाँ नित्यप्रति प्राकृतिक, भौतिक, रासायनिक व जैविक उच्चवचन घटित होते रहते हैं, मछलियाँ अपने व्यवहार, शारीरिक वृद्धि, उपापचय क्रियाओं व प्रतिरोधक क्षमता में व्यापक परिवर्तन प्रदर्शित करती हैं। वातावरणीय क्षोभ अस्थायी मीनों में प्राय: प्रभावी व प्रतिपूर्तिकारक स्थिति उत्पन्न करते हैं। वर्ष के अल्पाधिक अवधि में वातावरण जनित प्रतिकूल परिस्थितिवश बुभुक्षण की स्थिति भी अनिवार्य रूप से मछलियों को अंगीकृत करना पड़ता है, जिससे उनके शारीरिक उपापचय क्रियाओं पर निश्चित प्रभाव पड़ता है (क्रीच व सरफटी, 1965; जोशी, 1974; चन्द्र, 1980, 2009)। ऐसे अपवर्तकों का जलीय वातावरण में आहार की उपलब्धता, गुणवत्ता व मात्रा पर संज्ञानीय प्रभाव निर्विवाद है। उपरोक्त परिस्थितियों में मछलियों को अनुकूलन हेतु व्यापक आंतरिक परिवर्तनों से सज्ज होना आवश्यक हो जाता है, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके विभिन्न रक्त घटकों में स्वाभाविक रूप से दृष्टिगोचर होता है (जोशी, 1980; चन्द्र, 1982; ग्रैमपर्ल, 1994; शफी, 2000; नेगी व मलिक, 2004)। प्रस्तुत लेख में इस क्षेत्र की एक महत्त्वपूर्ण, उच्चपोषणज गुणता एवं औषधीय गुणों से युक्त बहुमूल्य खाद्यमीन हेट्रोप्न्यूस्टिस फासिलिस (सिंघी) में निराहारता के फलस्वरूप रक्त यूरिया स्तर पर घटित प्रभाव का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
प्रयुक्त सामग्री व विधियाँ
मत्स्यपालकों की सहायता से लखनऊ व समीपस्थ प्राकृतिक जलाशयों से मछलियाँ एकत्रित कर, प्रयोगशाला में लाने व जलगृह में अनुकूलन, टंडन एवं चन्द्र (1979) द्वारा पूर्व वर्णित विधि अनुसार संपन्न किया गया। तत्पश्चात लगभग समभार की स्वस्थ मछलियों का चयन कर 2 प्रतिशत पोटैशियम परमैग्नेट विलयन में स्नानोपरांत ‘‘अध्ययन’’ व ‘‘नियंत्रण’’ जलगृहों में अलग-अलग रखा गया। नियंत्रण जलगृह की मछलियों को समयानुसार भेड़ का यकृत व जीवित केचुयें के सूक्ष्म टुकड़े, घोघियों व जलीय कीटों का आहार नियमित रूप से उपलब्ध कराया जाता रहा, जबकि ‘‘अध्ययन’’ जलगृह की मछलियों को निरंतर निराहार रखा गया।
दोनों ही जलगृहों का जल दिवसीय अंतराल पर परिवर्तित किया जाता रहा तथा मछलियों के व्यवहार पर दृष्टि रखी गई। प्रत्येक माह के अंत में नियंत्रण तथा प्रयोग अध्ययन जल गृहों से मछलियाँ निकालकर, प्रत्येक को रोयेंदार मुलायम तौलिये से सुखाकर, पुच्छदंड काटकर स्वच्छ व शुष्क रक्त स्कंदन रोधी पदार्थयुक्त शीशी में बहता रक्त एकत्रित कर अध्ययन काल तक फ्रिज में रखा गया। प्रत्येक मछली का भार लेकर, तथा विच्छेदन कर किसी संभावित आंतरिक परजीवी संक्रमण का भी अवलोकन किया गया। नैटेल्सन (1957) द्वारा प्रतिपादित जीवरासायनिक विधि द्वारा, स्पेकाल स्पेक्ट्रोफोटोमीटर की सहायता से सभी नमूनों में रक्त यूरिया स्तर का आंकलन किया गया।
परिणाम
‘‘प्रयोग’’ तथा ‘‘नियंत्रण’’ जलगृहों की सिंघी मछलियों में प्रयोगानुसार प्राप्त रक्त यूरिया स्तर सारिणी-1 में दर्शाया गया है। अध्ययन अवधि में निराहारता के कारण एच. फासिलिस मीन के रक्त यूरिया स्तर में सतत व निरंतर क्षरण प्रदर्शित हुआ। निराहारता के प्रथम मासोपरांत नियंत्रण की अपेक्षा प्रयोगरत मीन के रक्त यूरिया सतर में 11.63 प्रतिशत की न्यूनता पाई गई, जो द्वितीय मास में बढ़कर 30.23 प्रतिशत थी। मीन के रक्त यूरिया सतर पर प्रभावी क्षरण तृतीय व चतुर्थ माह के अंत में सुस्पष्ट था जो क्रमश: 51.16 प्रतिशत व 64.19 प्रतिशत इंगित हुआ। चतुर्थ माह के अंत तक केवल तीन मछलियाँ ही जीवित रह सकीं। स्पष्ट है कि निराहारता का सर्वाधिक प्रभाव तीसरे व चौथे मास में रहा, जो सांख्यिकीय दृष्टि से उल्लेखनीय (पी.
सारिणी-1 निराहारता के कारण सिंघी मछली में विभिन्न स्थितियों पर रक्त यूरिया स्तर | ||
निराहारता की स्थिति | प्रेक्षण संख्या | रक्त यूरिया स्तर (मि.ग्रा./100 एमएल) माध्य + मानक विचलन (परास) |
नियंत्रण (भारत परास- 170-200 ग्राम) | 20 | 4.30 + 1.22 (3.60 - 6.00) |
एक माह | 4 | 3.80 + 0.86 (3.00 – 4.66) |
दो माह | 4 | 3.00 + 0.52 (2.40 – 3.70) |
तीन माह | 4 | 2.10 + 0.54 (1.60 – 2.60) |
चार माह | 3 | 1.50 + 0.40 (1.14 – 1.60) |
विवेचना
मछलियाँ प्राय: परिस्थितिजन्य बुभुक्षण की स्थिति में दीर्घकाल तक बिना आहार के भी जीवन निर्वाह में सक्षम है (स्मॉलवुड, 1966; बोटियस व बोटियस, 1967; विलकिन्स, 1967), तथापि निराहारता की स्थिति में अतिजीविता की दर (सरवायवल रेट) विभिन्न मीन प्रजातियों में अलग-अलग होती है (लव, 1970)। आहार के माध्यम से शरीर में मेटाबोलाइट्स की आपूर्ति न हो पाने की स्थिति में शारीरिक उपापचय क्रियाएं अव्यवस्थित हो जाती है, फलस्वरूप विभिन्न जैविक प्रक्रियाओं का प्रभावित होना स्वाभाविक है। आहाराभाव की ऐसी ही परिस्थितियों में अनेकानेक मछलियों के विभिन्न अंगों व रक्त के जैव रासायनिक अवयवों में प्रभावी उच्चावचन अंकित किये गये हैं (लव, 1958; सीवर्ट आदि, 1964; कुलीकोवा, 1966; नोडा, 1967; टंडन व चन्द्र, 1979; चन्द्र, 2002)।
निराहारता की स्थिति में सामान्य शारीरिक कार्यप्रणाली संचालन के लिये आवश्यक ऊर्जा हेतु मछलियाँ प्राय: संचित कार्बनिक ऊर्जा श्रोतों का प्रारंभिक उपयोग करती हैं, जो उनके विभिन्न रक्त अवयवों के बढ़ते या घटते स्तर से स्पष्ट है (पारकर व वैनस्टोन, 1966; वेलास व सरफटी, 1967; जोशी, 1974; चन्द्र, 1982, 2002)। निराहारता काल में सतत वृद्धि के सादृश सिंघी मीन के शारीरिक भार, क्षीणता व रक्त यूरिया स्तर में क्रमश: उत्तरोत्तर क्षय उपरोक्त वैज्ञानिकों द्वारा अंकित प्रेक्षण के अनुरूप है। अध्ययन अवधि के अंतिम माह में कुछ मछलियों में कशेरूक दण्डीय विकृति भी अवलोकित हुई, जो संभवत: समस्थैतिकता समन्वयन हेतु अकार्बनिक शारीरिक तत्वों के शनै: क्षरण से सहसंबंधित प्रतीत होती है। विलेन्यूव आदि (2005) एवं केसरवानी आदि (2007) ने भी व्याक्षिप्त वातावरणीय प्रबल स्थिति में मछलियों में विभिन्न शारीरिक विकृतियाँ इंगित की हैं।
स्पष्ट है, ऋतुजनित परिवर्तित जलीय वातावरण में भोजन अनुपलब्धता की स्थिति में मछलियाँ जीवन निर्वहनार्थ स्वयं के अनुकूलन में सक्षम है, परंतु जलाशयों में उत्तरोत्तर बढ़ता अप्राकृतिक प्रदूषण, पारिस्थितिकी की गुणवत्ता को व्यापक रूप से अपक्षीण कर निरंतर बुभुक्षुण की स्थिति उत्पन्न कर रहा है, जिसका निश्चित प्रभाव मत्स्य जीवन उनके पालन व उत्पादन पर पड़ना स्वाभाविक है। अस्तु इनका निदान अपेक्षित है।
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सुधीश चन्द्र
एसोसिएट प्रोफेसर, परास्रातक प्राणि विज्ञान विभाग, बीएसएनवी पीजी कॉलेज, लखनऊ-226001, यूपी, भारत, Sudhish1953@gmail.com
Sudhish Chandra
Associate Professor, P.G. Department of Zoology, B.S.N.V.P.G. College, Lucknow-226001, U.P., India, Sudhish1953@gmail.com
प्राप्त तिथि : 31.07.2015, स्वीकृत तिथि : 15.09.2015
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