मृदा स्वास्थ्य का संरक्षण


मृदा स्वास्थ्य कार्ड से किसानों को मृदा में पोषक तत्वों के विषय में तथा इन तत्वों की कमी को दूर कर मृदा स्वास्थ्य में सुधार लाने और इसकी उत्पादकता बढ़ाने के लिये पोषक तत्वों की उचित मात्रा की अनुशंसाओं को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। इसके तहत नियमित तौर पर देश के सभी खेतों के मृदा स्वास्थ्य-स्तर का मूल्यांकन करने की योजना है ताकि मृदा में पोषक तत्वों की कमियों को चिन्हित कर आवश्यक सुधार किये जा सकें। पृथ्वी पर पादप जैव विविधता का अस्तित्व मृदा स्वास्थ्य पर निर्भर है क्योंकि स्वस्थ मृदा पर ही पौधों का प्रजनन और संवर्धन होता है। कृषि व्यवसाय का पल्लवन और प्रवर्धन पूरी तरह मृदा पर निर्भर है। मृदा, भूमि के ऊपरी भाग का वह प्राकृतिक आवरण है जो विच्छेदित, अपक्षयित खनिजों व कार्बनिक पदार्थों के विगलन से निर्मित पदार्थों और परिवर्तनशील मिश्रण से परिच्छेदिका के रूप में संश्लेषित होता है।

मृदा जनन एक जटिल व सतत प्रक्रिया है। पैतृक शैलें, जलवायु, वनस्पति, भूजल और सूक्ष्म जीव सहित कई कारक मृदा की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। स्थानीय उच्चावच, जलीय दशाएँ, मिट्टी के संघटक और पीएच मान आदि मृदा की विशेषताओं को निर्धारित करते हैं। लेकिन इन सब में जलवायु मृदा निर्माण के विभिन्न प्रक्रमों जैसे लेटरीकरण, पाड़जोलीकरण, कैल्सीकरण, लवणीकरण, क्षारीयकरण आदि निर्धारण में सक्रिय भूमिका निभाती है।

मृदा संगठन में कार्बनिक पदार्थ 5 से 10 प्रतिशत, खनिज पदार्थ 40 प्रतिशत, मृदा जल 25 प्रतिशत, मृदा वायु 25 प्रतिशत सहित मृदा जीव व मृदा अभिक्रियाएँ भागीदार होते हैं। ये सभी प्रकार की मृदाओं में कम या अधिक मात्रा में प्रायः कलिकीय पदार्थों के रूप में पाये जाते हैं, जो मृदा की उर्वरता को बढ़ाते हैं। मृदा में अनेक आवश्यक खनिज और पोषक तत्व अधिक या कम मात्रा में पाये जाते हैं। अमेरिकी वैज्ञानिक आरनोन ने पौधे की वृद्धि हेतु 16 आवश्यक पादप तत्व बताए हैं जिनमें 3 गैसीय, 3 प्राथमिक, 3 द्वितीयक और 7 सूक्ष्म पोषक तत्व हैं।

इन तत्वों की उपलब्धता और भिन्नता के आधार पर आईसीएआर ने वर्ष 1986 में भारतीय भूमि में आठ प्रमुख और 27 गौण प्रकार की मिट्टियों की पहचान की है। इन आठ प्रधान मृदाओं में कापीय, जलोढ़, काली, लैटेराइट, शुष्क, लवणीय, पीटमय एवं जैव वनीय मृदा शामिल हैं। इनमें से कापीय मृदा 43.4 प्रतिशत, लाल मृदा 18.6 प्रतिशत, काली मृदा 15.2 प्रतिशत, लैटेराइट मृदा 3.7 प्रतिशत और अन्य मृदाएँ 17.9 प्रतिशत भारतीय क्षेत्र पर विस्तृत हैं।

आमतौर पर मृदा में नाइट्रोजन, पोटेशियम, फास्फोरस, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, कार्बन, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन अधिक मात्रा में तथा लौह, गंधक, सिलिका, क्लोरीन, मैंगनीज, जस्ता, निकेल, कोबाल्ट, मॉलिब्डेनम, तांबा, बोरान व सेलिनियम अल्प-मात्रा में प्राप्त पोषक हैं जो अन्ततः मृदा का निर्माण करते हैं।

इस तरह किसी क्षेत्र की मृदा में इन पोषकों की मौजूदगी से उस क्षेत्र में खेती का स्वरूप, फसल चक्र और उत्पादकता निर्धारित होती है। इसलिये किसान को खेती करने से पहले खेत की मृदा में धारित विविधता के साथ फसल विशेष के लिये उपयुक्त मृदा की जानकारी और उसमें यथेष्ठ उत्पादकता के लिये आवश्यक पोषकों की समझ होना जरूरी है और इस समझ के अनुरूप खेती करने से ही मृदा के उपजाऊपन का अधिकतम सम्भव प्रयोग किया जा सकता है। देश के किसानों में इस समझ को विकसित करने में मदद के लिये भारत सरकार ने मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना शुरू की है।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड (एसएचसी) योजना


कृषकों को उपयुक्त आगतों का उपयोग करते हुए उत्पादकता में सुधार के वास्ते एक महत्त्वाकांक्षी पहल के रूप में 19 फरवरी, 2015 को प्रधानमंत्री ने राजस्थान के श्री गंगानगर जिले के सूरतगढ़ में मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना का शुभारम्भ किया ताकि एक किसान को इस बात की जानकारी हो कि वह जिस भूमि पर खेती करना चाहता है, उसकी सेहत कैसी है।

देशभर के किसानों को इस योजना का फायदा पहुँचाने के उद्देश्य से केन्द्र सरकार द्वारा अगले तीन वर्षों में 14.5 करोड़ किसानों को राष्ट्रीय मृदा स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध कराने का प्रावधान किया है। इसके द्वारा मृदा की स्थिति का हर 2 वर्षों के चक्र में नियमित रूप से मूल्यांकन किया जाना है। अभी किसानों को वितरण के लिये 12 करोड़ एसएचसी बनाने हेतु परीक्षण के लिये 253 लाख मिट्टी के नमूने एकत्र किये जा रहे हैं।

इस कार्ड में मृदा की उर्वराशक्ति के साथ किसानों के लिये विभिन्न प्रकार के उर्वरकों के उपयोग की जानकारी भी होती है ताकि किसान उसी के अनुरूप खेती करके फसलों का उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ा सके। वैसे तो राज्यों के स्तर पर ऐसी योजनाएँ पहले भी संचालित होती रही हैं। तमिलनाडु वर्ष 2006 से ही इन्हें जारी कर रहा है। इसके अलावा आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा जैसे राज्य इन कार्डों का वितरण पिछले कई वर्षों से सफलतापूर्वक कर रहे हैं।

12 मई, 2015 को पंजाब कृषि विभाग किसानों को व्यक्तिगत मृदा सेहत कार्ड जारी करने के कार्य का शुभारम्भ कर सभी किसानों को एसएचसी जारी करने वाला प्रथम राज्य बन गया है। इसके लिये प्रत्येक जिले को एक मोबाइल मृदा परीक्षण प्रयोगशाला प्रदान की गई है जो प्रत्येक खेत से मिट्टी के नमूने लेकर डिजिटल एसएचसी जारी करती है। लेकिन भारत सरकार द्वारा इस योजना को संचालित करने का उद्देश्य देश भर के किसानों को एसएचसी जारी करना है।

यह देशव्यापी-स्तर पर भारत सरकार द्वारा राज्यों के सहयोग से उनके कृषि विभाग के स्वामित्व वाले एसटीएल और उनके स्वयं के स्टॉफ सहित आउटसोर्स एजेंसी के कर्मचारी, आईसीएआर के संस्थानों सहित केवीके और एसएयू, में, विज्ञान कॉलेजों/विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाओं, प्रोफेसर/कृषि वैज्ञानिक की देखरेख में छात्रों के द्वारा चलाई जा रही है।

एसएचसी की अनूठी विशेषताओं में मिट्टी के नमूनों के संग्रह और प्रयोगशालाओं में परीक्षण के लिये एक समान दृष्टिकोण, देश के सभी खेतों का सार्वभौमिक कवरेज और हर दो साल बाद मृदा स्वास्थ्य कार्ड जारी करना शामिल है। इसमें पहली बार एक एकीकृत मिट्टी नमूनाकरण मानदण्ड अपनाकर सिंचित क्षेत्र में 2.5 हेक्टेयर पर और गैर-सिंचित क्षेत्र में 10 हेक्टेयर के ग्रिड में नमूने एकत्र किये जाते हैं।

इसमें जीपीएस-आधारित मिट्टी नमूनाकरण अनिवार्य कर दिया गया है ताकि एक व्यवस्थित डाटाबेस तैयार किया जा सके और वर्ष में मिट्टी के स्वास्थ्य में परिवर्तन की निगरानी की जा सके। इसके तहत प्राथमिक, माध्यमिक, सूक्ष्म व अन्य पोषकों सहित 12 मृदा स्वास्थ्य मापदंडों का व्यापक विश्लेषण किया जाता है जिसमें माध्यमिक और सूक्ष्म पोषक तत्वों का विश्लेषण अनिवार्य है। एसएचसी में मिट्टी परीक्षण आधारित फसलवार वैज्ञानिक रूप से पोषक उर्वरक के सिफारिश की विधि अपनाई जा रही है।

मिट्टी के नमूनों के पंजीकरण के लिये, नमूनों के परीक्षण के परिणामों को रिकॉर्ड करने और उर्वरक सिफारिशों के साथ एसएचसी के लिये पोर्टल www.soilhealth.dac.gov.in विकसित किया गया है। इसमें मृदा नमूना पंजीकरण, मृदा परीक्षण प्रयोगशाला द्वारा टेस्ट परिणाम की प्रविष्टि, जीएफआर के आधार पर उर्वरक सिफारिशें और सूक्ष्म पोषक सुझावों के साथ एसएचसी का सृजन और निगरानी के लिये एमआईएस मॉड्यूल प्रगति आदि सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। इसके अलावा इसमें शोध और नियोजन के लिये भविष्य में उपयोग हेतु मृदा स्वास्थ्य पर एक राष्ट्रीय डाटाबेस निर्माण करने की परिकल्पना की गई है।

‘स्वस्थ धरा खेत हरा’ के घोष वाक्य की एसएचसी योजना में खर्च की 75 फीसदी राशि केन्द्र सरकार वहन कर रही है और इसके अलावा मृदा परीक्षण प्रयोगशालाएँ स्थापित करने के लिये भी राज्यों को सहायता मुहैया कराई जा रही है। इस योजना के तहत भारत सरकार द्वारा वर्ष 2014-15 में 23.56 करोड़, वर्ष 2015-16 में 96.43 करोड़, वर्ष 2016-17 में 133.66 करोड़, वर्ष 2017-18 में 114.33 करोड़ रुपए सहित अब तक कुल 367.98 करोड़ रुपए जारी किये गए हैं।

इस योजना के पहले चरण (फरवरी 2015 से अप्रैल 2017) में 2 जनवरी, 2018 तक 253 लाख मृदा नमूने एकत्रीकरण के लक्ष्य के मुकाबले 246.02 लाख नमूनों का परीक्षण किया गया, जो निर्धारित लक्ष्य का करीब 97 प्रतिशत है और 1198 लाख एसएचसी के लक्ष्य के मुकाबले, 1022.96 लाख एसएचसी किसानों को वितरित किये गए हैं, जो निर्धारित लक्ष्य का करीब 85 प्रतिशत है। इसी प्रकार योजना के दूसरे चरण (1 मई, 2017 से शुरू) में 2 जनवरी, 2018 तक वर्ष 2017-18 के लिये 127.16 लाख नमूना संग्रह के लक्ष्य के मुकाबले 98.75 लाख नमूने एकत्र किये गए और 54.45 लाख नमूनों का परीक्षण किया गया है और 624.08 लाख एसएचसी के लक्ष्य के मुकाबले 99.50 लाख कार्ड किसानों को वितरित किये गए हैं।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के उद्देश्य


1. मृदा स्वास्थ्य कार्ड से किसानों को मृदा में पोषक तत्वों के विषय में तथा इन तत्वों की कमी को दूर कर मृदा स्वास्थ्य में सुधार लाने और इसकी उत्पादकता बढ़ाने के लिये पोषक तत्वों की उचित मात्रा की अनुशंसाओं को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।
2. इसके तहत नियमित तौर पर देश के सभी खेतों के मृदा स्वास्थ्य-स्तर का मूल्यांकन करने की योजना है ताकि मृदा में पोषक तत्वों की कमियों को चिन्हित कर आवश्यक सुधार किये जा सकें।
3. भारतीय कृषि अनुसन्धान और राज्य कृषि विश्वविद्यालय के सम्पर्क में क्षमता निर्माण कृषि विज्ञान के छात्रों को शामिल करके मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं के क्रिया-कलाप को सशक्त बनाना।
4. राज्यों में मृदा नमूने के लिये मानकीकृत प्रक्रियाओं के साथ मृदा उर्वरता सम्बन्धी बाधाओं का पता लगाना और विश्लेषण करना तथा विभिन्न जिलों में तालुका/प्रखण्ड-स्तरीय उर्वरक सम्बन्धी सुझाव तैयार करना।
5. पोषक प्रबन्धन परम्पराओं को बढ़ावा देने के लिये जिला और राज्य-स्तरीय कर्मचारियों के साथ-साथ प्रगतिशील किसानों की क्षमता का निर्माण करना।
6. किसानों को तकनीकी नवप्रवर्तन और अभिनव प्रयोगों द्वारा खेती करने हेतु अभिप्रेरित करना और खेत विशेष की मृदा में प्रासंगिक फसल चक्र अपनाने में मदद करना।
7. मृदा की उर्वराशक्ति की जाँच करके फसल व किस्म विशेष के लिये पोषक तत्वों की सन्तुलित मात्रा की सिफारिश करना और यह मार्गदर्शन करना कि उर्वरक व खाद का प्रयोग कब व कैसे करें।
8. मृदा में लवणता, क्षारीयता तथा अम्लीयता की समस्या की पहचान व जाँच के आधार पर भूमि सुधारों की मात्रा व प्रकार की सिफारिश कर भूमि को फिर से कृषि योग्य बनाने में योगदान करना।
9. भूमि की उपयुक्तता का पता लगाना और उर्वराशक्ति को मानचित्र पर प्रदर्शित करना तथा उर्वरकों की आवश्यकता का पता लगाना। इस प्रकार की सूचना प्रदान कर उर्वरक वितरण एवं उपयोग में सहायता करना।

मृदा स्वास्थ्य की जाँच


सबसे पहले किसान के खेत की मिट्टी का नमूना लिया जाता है। उसके बाद उस मिट्टी के नमूने को परीक्षण प्रयोगशाला में भेजा जाता है। फिर विशेषज्ञ मिट्टी की जाँच करके मिट्टी के बारे में सभी जानकारियाँ प्राप्त करते हैं। उसके बाद रिपोर्ट तैयार करते हैं कि कौन-सी मिट्टी में कौन-कौन से पोषक कम या ज्यादा है। उसके बाद इस रिपोर्ट को एक-एक करके किसान के नाम के साथ अपलोड किया जाता है जिससे किसान अपनी मिट्टी की रिपोर्ट जल्द-से-जल्द देख सकें और उसके मोबाइल पर इसकी जानकारी दी जाती है।

बाद में किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड प्रिंट करके दिया जाता है। मिट्टी के नमूनों की जाँच में तेजी लाने के लिये सरकार ने मृदा स्वास्थ्य प्रबन्धन योजना के तहत 460 नई मिट्टी परीक्षण प्रयोगशालाओं को मंजूर किया है। मोबाइल मिट्टी परीक्षण प्रयोगशालाओं के अलावा कृषि मंत्रालय ने वित्तीय वर्ष 2016-17 में 2296 मिट्टी परीक्षण की छोटी प्रयोगशालाओं को काम करने की मंजूरी प्रदान की है। इससे सुदूर इलाकों में मिट्टी के परीक्षण में तेजी आएगी। इससे तकनीकी रूप से कुशल और शिक्षित ग्रामीण युवाओं के लिये भी रोजगार के अवसर पैदा हुए हैं।

ये एसएचसी से मिट्टी की उर्वरकता में सुधार लाने में कई तरीके से मदद करते हैं। इसमें जाँच के पहले चरण में मिट्टी में मौजूद पौषक तत्वों नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम, सूक्ष्म पोषक तत्वों और पीएच का पता लगाया जाता है। इन बुनियादी जानकारियों का उपयोग कर किसान दूसरे चरण में विशिष्ट खुराक का उपयोग कर मिट्टी की उर्वरकता में सुधार कर पैदावार बढ़ा सकता है।

देश में स्थापित प्रयोगशालाओं में मृदा की जाँच के बाद प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर किसानों को उर्वरकों/खादों एवं अन्य पोषकों को प्रयोग करने की सलाह दी जाती है। एसएचसी में मृदा के विभिन्न मानकों जैसे कार्बनिक पदार्थों, कार्बन, पीएच मान उपलब्ध नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का विस्तृत ब्यौरा तैयार किया जाता है यानी मृदा में जिस तरह की समस्या हो, उसी तरह का निदान किया जाता है। इससे यह पता लग जाता है कि किसी विशेष खेत की मृदा में कौन-कौन से पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में हैं और किन-किन पोषक तत्वों की कमी है। पोषक तत्वों के साथ-साथ मृदा की भौतिक, रासायनिक और जैविक दशा का भी ज्ञान हो जाता है। इसके अलावा खेत की अम्लीयता व क्षारीयता का भी पता चल जाता है।

इन कार्डों में किसानों के खेतों की मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों की स्थिति के आधार पर सलाह होती है। इसमें मिट्टी की बर्बादी रोकने और मिट्टी की उर्वरता में सुधार के लिये किस तरह के मृदा प्रबन्धन करने की जरूरत है, इसके बारे में भी सुझाव दिये गए होते हैं। ये कार्ड तीन फसल-चक्रों के लिये जारी किये जाते हैं, जिसमें प्रत्येक फसल-चक्र के बाद की मृदा की स्थिति दर्ज होगी। इस प्रकार एसएचसी केवल एक फसल-चक्र का समाधान नहीं है, बल्कि यह एक सतत प्रक्रिया है जिससे किसानों को मृदा स्वास्थ्य पर मूलभूत जानकारी उपलब्ध होती है।

खेती में अनवरत अपेक्षित उत्पादकता बनाए रखने हेतु मृदा का स्वस्थ होना आवश्यक है। इसके लिये कृषकों को नियमित अन्तराल में अपने खेतों का मृदा परीक्षण अवश्य कराते रहना चाहिए। यदि किसान व्यक्तिगत-स्तर पर अपने खेत की मृदा के स्वास्थ्य की जाँच कराना चाहते हैं, तो मृदा नमूने हमेशा रबी या खरीफ फसलों की कटाई उपरान्त लेने चाहिए। अगर पूरे खेत में वही फसल ली गई हो और समान मात्रा में उर्वरक डाले गए हों, फसल की पैदावार एक-सी रही हो, जमीन समतल, समरूप और देखने में एक जैसी लगती हो, तो सम्पूर्ण खेत में एक ही संयुक्त नमूना लें अन्यथा खेत को समान गुण वाले सम्भव भागों में बाँटकर उनसे अलग-अलग नमूने लेने चाहिए। एक हेक्टेयर खेत से प्राथमिक नमूना लेने के लिये और आकस्मिक चयन द्वारा 15-16 स्थानों को निश्चित कर लेना चाहिए।

अंग्रेजी के वी आकार का लगभग 20-30 सेमी गहरा गड्ढा खोदकर खुर्पी की सहायता से ऊपर से नीचे तक 0-20 सेमी, करीब 1.5 सेमी समान मोटाई के दोनों बगलों की तिरछी परत निकाल लेनी चाहिए। मिट्टी का नमूना लेकर अपने नजदीकी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि अनुसन्धान केन्द्रों, कृषि विज्ञान केंद्रों, कृभको व इफको इत्यादि के मृदा परीक्षण केन्द्रों में भेजा जा सकता है। इन केन्द्रों पर मृदा की जाँच सामान्यतया निःशुल्क की जाती है। इस समय देश भर में कुल 680 कृषि विज्ञान केन्द्र कार्यरत हैं।

एसएचसी की आवश्यकता


आज भी हमारे सकल घरेलू उत्पाद का छठवाँ भाग खेती से सम्बद्ध गतिविधियों से आय अर्जन करता है और देश की आधी आबादी अपनी आजीविका के लिये इस पर निर्भर है। लेकिन कृषि की बढ़ती लागतें, महंगी होती आगतें और मृदा की बिगड़ती सेहत की वजह से कृषि संसाधनों का अधिकतम उपयोग नहीं हो पा रहा है।

उर्वरकों का असन्तुलित उपयोग, जैविक तत्वों का कम प्रयोग और पिछले कुछ दशकों से घटते पोषक तत्वों की गैर-प्रतिस्थापना के परिणामस्वरूप देश के कुछ भागों में मृदा उर्वरता और उसमें पोषक तत्वों की मात्रा तेजी से घटी है। इसके बावजूद कृषकों को मृदा स्वास्थ्य के बारे में नियमित अन्तरालों पर आकलन करने की आवश्यकता होती है ताकि वे मृदा में पहले से मौजूद पोषकों का लाभ उठाते हुए अपेक्षित पोषकों का प्रयोग सुनिश्चित कर सकें। इसके अलावा, यदि देश की मौजूदा स्थिति पर गौर करें तो देश में कुल भूमि क्षेत्रफल करीब 32.9 करोड़ हेक्टेयर है जिसमें करीब 14.4 करोड़ हेक्टेयर में खेती होती है और देश की भूमि का बड़ा भाग बंजर है।

इस बंजर भूमि को सुधारने की बेहद जरूरत है। इसी तरह 4.72 करोड़ हेक्टेयर भूमि को परती के रूप में चिन्हित किया गया है जो देश के कुल भू-क्षेत्र का 14.2 फीसदी है और एसएचसी ऐसी भूमियों को पहचानने और उनमें सुधार अनुशंसित करने की अनुकरणीय पहल है जिसके माध्यम से ऐसी भूमियों को सुधार कर खेती के काबिल बनाया जा सकता है।

आज खेती बहुत तेजी से घाटे के उद्यम में तब्दील हो रही है। कृषि की प्रधानता और जीविकोपार्जन का आधार होने के बावजूद आधुनिक तकनीक और विज्ञान के व्यापक प्रयोग से दूर कृषि में अभी भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव कायम है जिसके चलते देश भर में चाहे तेलंगाना हो या महाराष्ट्र का विदर्भ या फिर उत्तर प्रदेश का बुन्देलखण्ड, हर कहीं किसानों की एक-सी कहानी है। बढ़ती कृषि लागतें, ऋण ग्रस्तता, मानसूनी अनिश्चितता और घटती आय के चलते पिछले 17 वर्ष में तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है और हर एक घंटे में दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

आज देश में कृषि और कृषकों की हालत यह है कि कोई भी कृषक स्वेच्छा से कृषि कार्य नहीं करना चाहता है। वह किसी तरह खेती छोड़कर आय और रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था के लिये शहरों में पलायन के लिये उत्सुक है। जनगणना 2011 के मुताबिक प्रतिदिन करीब 2400 किसान कृषि कार्य छोड़ रहे हैं और छोटी-मोटी नौकरी के लिये शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। ऐसे में एसएचसी जैसी योजना, जो भूमि के गहन उपयोग को बढ़ाती है, का प्रयोग अपरिहार्य हो गया है क्योंकि यह मृदा की पोषकता और उत्पादकता बढ़ाने में मदद कर कृषि को पुनः लाभदायी उद्यम में तब्दील कर सकता है। इसके अलावा, इससे सम्बद्ध मृदा में प्रासंगिक फसल उपजाने के साथ-साथ उपयुक्त फसल-चक्र अपनाने में भी मदद मिलेगी।

एसएचसी, मृदा के स्वास्थ्य से सम्बन्धित सूचकों और उनसे जुड़ी शर्तों को प्रदर्शित करता है। ये सूचक स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के सम्बन्ध में किसानों के व्यावहारिक अनुभवों और ज्ञान पर आधारित होते हैं। इसमें फसल के अनुसार उर्वरकों के प्रयोग तथा मात्रा का संक्षिप्त ब्यौरा प्रस्तुत किया जाता है, ताकि भविष्य में किसान को मृदा की गुणवत्ता सम्बन्धी परेशानियों का सामना नहीं करना पड़े और फसल उत्पादन में भी कमी नहीं हो।

इस योजना की मदद से किसानों को अपने खेत की मिट्टी के स्वास्थ्य के बारे में सही जानकारी मिल पाएगी। इससे वह मनचाहे अनाज/फसल का उत्पादन कर सकते हैं। इस योजना के तहत किसानों को अच्छी फसल उगाने में मदद मिलेगी जिससे उन्हें और देश दोनों का फायदा होगा।

इस तरह यह किसानों की दशा और खेती को सुधारने का एक कारगर प्रयास है क्योंकि जब तक मृदा में धारित गुणों की पहचान नहीं होती है, तब तक न तो अपेक्षित उत्पादकता बढ़ती है और न ही उर्वरक जैसी आगतों पर किसानों का खर्च सार्थक होता है जिसके कारण ऊँची आगतों के बावजूद किसानों की आय में अपेक्षित सुधार नहीं हो रहा है। अतः यदि किसानों को अपनी मृदा के रासायनिक-भौतिक गुणों की जानकारी मिल जाती है तो वह उसी के अनुरूप पोषकों का प्रयोग कर कम लागत पर भूमि की उत्पादकता को बढ़ा सकते हैं।

देश के महंगाई, भुखमरी और अल्प-पोषण के स्थायी समाधान खाद्यान्नों की अधिक आपूर्ति में ही निहित हैं क्योंकि मृदा की सेहत सीधे फसलों की उत्पादकता से जुड़ी है जिससे खाद्यान्नों की अधिक आपूर्ति अन्ततः महंगाई का संकट सुलझाने में सहायक होगी। वैश्विक भूख सूचकांक/रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में भुखमरी के शिकार 79.5 करोड़ लोगों में से 19.4 करोड़ भारतीय हैं यानी दुनिया में भुखमरी से पीड़ित लोगों में हर चौथा व्यक्ति भारतीय है।

रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश में भूख से पीड़ितों की संख्या घटने के बजाय बढ़ रही है। वर्ष 2000-02 के दौरान 18.55 करोड़ भारतीय भुखमरी से पीड़ित थे जो वर्ष 2014-16 के दौरान 19.46 करोड़ हो गए। यह एक कटु सत्य है कि देश के करीब 60 फीसदी किसान या तो आधे पेट भोजन या फिर भूखे पेट सोने को विवश है। इससे अधिक आश्चर्यजनक और क्या हो सकता है कि देश का अन्नदाता जो लोगों के लिये खाद्यान्न पैदा करता है, वह खुद भूखा सोता है। ऐसी स्थिति में देश के सामने एक बड़ी चुनौती कृषि उत्पादकता को बढ़ाने की है जो एसएचसी जैसी अभिनव मृदा सुधार पहलों के साथ सिंचाई की सघन और नियोजित व्यवस्था से ही सम्भव है। इस योजना से लघु एवं सीमान्त खेतों की उत्पादकता बढ़ाने में भी मदद मिलेगी।

कृषि गणना 2010-11 के मुताबिक देश के कुल किसानों में 67 प्रतिशत सीमान्त हैं जिनके पास एक हेक्टेयर से कम भूमि है। तीन में से दो सीमान्त किसान हैं और हर खेत पर जरूरत से तीन गुना लोग जीवनयापन के लिये निर्भर हैं। ऐसे में यह योजना मृदा स्वभाव के अनुरूप खेती करने और फसल प्रतिरूप को आसान बनाकर खेती को लाभदायक उद्यम बनाने में सहायक है।

मृदा स्वास्थ्य का संरक्षण और एसएचसी


मृदा संरक्षण का अर्थ उन सभी उपायों को अपनाना तथा कार्यान्वित करना है जो भूमि की उत्पादकता को बढ़ाने और उसे बनाए रखने, मृदा को अधोगति या अपरदन ह्रास से सुरक्षित रखने, अपरदित मृदा को पुनर्निर्मित और पुनरुद्धार करते हैं, फसलों के उपयोग के लिये मृदा नमी को सुरक्षित करके जमीन की उत्पादकता को बढ़ाते हैं। इस प्रकार मुनाफायुक्त जमीन-प्रबन्ध कार्यक्रम को मृदा संरक्षण कह सकते हैं और देश के भूमि साधन एवं भूसम्पत्ति का बिना उचित व्यवहार या प्रबन्ध के कारण नाश होता रहा है। ऐसे में वे सभी उपाय जो मृदा की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के साथ हमारी समृद्धि का आधार बनते हैं, उनकी सुरक्षा तथा उसकी उच्च-उत्पादन क्षमता को बनाए रखना न सिर्फ हमारा कर्तव्य है अपितु एक अहम जरूरत बन गया है।

एसएचसी इस दिशा में एक कारगर प्रयास है क्योंकि यह भू-संरक्षण के लिये उचित फसल चक्र के उपयोग को अनुशंसित करने में मदद करता है। फसल चक्र या सस्यावर्तन का अर्थ उसी खेत पर एक निश्चित अवधि में फसलों को नियमित तरीके से एक के बाद एक उगाना है। कम पौधों वाली फसलों को लगातार उगाने से अपरदन अधिक होता है। ऐसे में फसल चक्र की सततीयता मृदा संरक्षण को बढ़ावा देती है।

एसएचसी से मृदा की माँग के अनुसार फसलों का उत्पादन करने में मदद मिलती है जैसे यदि किसी खेत के मृदा की प्रवणता सूखे के प्रति अधिक है तो ऐसे खेतों में मक्का, ज्वार, मूँग, उड़द जैसी फसलें उगानी चाहिए। यदि मृदा में अधिक समय तक जल धारित रहता है तो धान आदि फसलें उगाई जा सकती हैं। एसएचसी में अनुशंसित सुझावों से मृदा के विभिन्न भौतिक गुणों के विकास में भी मदद मिलती है।

मृदा में उपस्थित कमियों के उजागर होने से मिट्टी की उत्पादकता बढ़ाने के लिये अपेक्षित जैव-पदार्थ, खाद, उर्वरक, चूना, जिप्सम आदि का उचित प्रयोग करना सम्भव होगा। इससे एक तो किसानों को अधिकाधिक उर्वरकों के प्रयोग से मुक्ति मिलेगी, जिससे उनकी कृषि लागतों में कमी आएगी। इसके अलावा, उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा प्रयोग करने से मृदा का स्वास्थ्य भी उत्पादक बना रहेगा।

मृदा स्वास्थ्य प्रबन्धन की एसएचसी योजना कृषि में नवाचार तरीके और वैज्ञानिक प्रबन्धन को भी प्रोत्साहित करती है क्योंकि अवैज्ञानिक तरीके से खेती करना और उर्वरकों व कीटनाशकों के अधिकतम उपयोग से मिट्टी की उर्वरता समाप्त हो रही है और कृषि मृदा अनुपयोगी बनती जा रही है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से सिंचाई के लिये जल की उपलब्धता बहुत कम हो रही है। उच्च तापमान के कारण मिट्टी में से कार्बनिक पदार्थ कम होने और लगातार मिट्टी के कटाव से बंजर भूमि बढ़ रही है।

भारत में पिछले कुछ वर्षों में उर्वरकों, कीटनाशकों और कीटनाशक दवाइयों के अविवेकपूर्ण और अधिक प्रयोग की वजह से प्रत्येक वर्ष करीब 5334 लाख टन मिट्टी खत्म हो रही है। औसतन 16.4 टन प्रति हेक्टेयर उपजाऊ मिट्टी हर साल समाप्त हो रही है। इसी प्रकार उचित प्रबन्धन के अभाव में 10 से 12 सेमी की वर्षा एक हेक्टेयर के खेत से हर साल करीब 2 हजार क्विंटल मिट्टी बहा ले जाती है जो मृदा की उर्वरा हानि का एक बड़ा कारण है। अविवेकपूर्ण तरीके से उर्वरकों के इस्तेमाल से मिट्टी की उर्वरकता में कमी आती है जिसके फलस्वरूप मिट्टी के सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर पोषक तत्वों में कमी हो जाती है और कृषि पैदावार में भी कमी आ जाती है।

इन समस्याओं के समाधान के लिये ठोस डाटाबेस तैयार करने की आवश्यकता है, क्योंकि देश भर से एकत्रित मिट्टी के नमूने और मिट्टी की जाँच से देश के अलग-अलग पारिस्थितिकीय क्षेत्र में मिट्टी की स्थिति के बारे में वैज्ञानिक जानकारी उपलब्ध होती है। इसके आधार पर मिट्टी की उर्वरकता को दोबारा हासिल करने के उपायों का व्यावहारिक कार्यान्वयन सम्भव हुआ है। इससे न केवल लागत में कमी आएगी, बल्कि किसानों की फसल का उत्पादन भी अधिक होगा और अन्ततः गरीबी समाप्त करने में मदद मिलेगी।

स्वस्थ मृदा और स्वस्थ भोजन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध उपयोग के कारण हमारे देश की मिट्टी बहुत जहरीली हो गई है। जहरीली मिट्टी से उगने वाली फसल से बनाए जाने वाले भोजन से स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ती हैं। रासायनिक उर्वरक डालकर अधिक पैदावार तो ले सकते हैं, लेकिन उस फसल में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होती है, जो स्वस्थ शरीर के लिये आवश्यक है। इस तरह एसएचसी योजना देश की मृदा के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य को बढ़ाने में भी सहायक है।

एसएचसी से मृदा में धारित वर्गीकृत विशेषता से सम्बन्धित मृदा के उपजाऊपन और उसमें उपज योग्य फसलों की समझ कृषकों को आसानी से हो जाती है जैसे- मृदा में पोटाश, फास्फोरिक अम्ल, चूना व जैविक पदार्थों से समृद्ध है और इसमें नाइट्रोजन व ह्यूमस तत्वों की कमी है तो ऐसी मृदा पर जूट, गन्ना, गेहूँ, कपास, मक्का, तिलहन, फल और सब्जियों को उपजाया जा सकता है।

यदि मृदा जैविक पदार्थों की कमी के बावजूद देर तक नमी धारण करने की क्षमता और अधिक उर्वरा रखती है और लौह, चूना, कैल्शियम, पोटाश, एल्यूमिनियम व मैग्नीशियम कार्बोनेट से समृद्ध है तो यह कपास, अरहर, तम्बाकू, गन्ना, मोटा, अनाज, अलसी, जैसी फसलों के लिये उपयुक्त है। लौह व एल्यूमिनियम से समृद्ध मृदा में नाइट्रोजन, पोटाश, पोटेशियम, चूना व जैविक पदार्थों की कमी है, तो इसमें उर्वरकों के प्रयोग से चावल, रागी, गन्ना, काजू जैसी फसलें उगाई जा सकती हैं। यदि मृदा अपरिपक्व और हल्के से मध्यम अम्लीय है तो यह वृक्षदार फसलों व आलू की खेती के लिये उपयोगी है।

यदि मृदा अत्यधिक अम्लीय व जैविक पदार्थों से समृद्ध है तो यह धान की खेती के लिये उपयुक्त होती है। इन वर्गीकृत लक्षणों के प्रति किसानों की समझ से एक तो मृदा संरक्षण को बढ़ाया जा सकता है। दूसरा, खेती की लागतों में कमी आती है और इसके अलावा मृदा और फसलों की उत्पादकता में भी वृद्धि होती है। लेकिन प्रायः किसानों की इसके प्रति अनिभिज्ञता होती है। ऐसे में किसानों द्वारा अपने खेत में किसी फसल की खेती की योजना बनाने से पहले यदि उसके खेत के मृदा की गुणवत्ता ज्ञात हो जाती है तो समय रहते मृदा की गुणवत्ता बढ़ाने वाले उचित पोषकों का प्रयोग कर तथा अपेक्षित फसल-चक्र अपनाकर अच्छी उत्पादकता का लाभ उठा सकते हैं।

कृषि व दूसरी गतिविधियों में संसाधनों के अन्धाधुन्ध और अनियोजित उपयोग से आज भारतीय मृदाएँ कई समस्याओं से ग्रसित हैं जिनमें मृदा अपरदन, निक्षालन, विनाइटीकरण, उर्वरता में कमी, जलमग्नता, लवणता, क्षारीयता, मरुस्थलीकरण, परतीपन, बंजरीकरण आदि प्रमुख हैं। इसके लिये कई कारणों जैसे मृदा का अनुचित, अनियोजित व अत्यधिक दोहन, खेत में फसली अवशेषों का अल्प उपयोग, सिंचाई की दोषपूर्ण प्रणाली अपनाना, उच्च भौम-स्तर और उचित जल निकास की कमी, लवणीय जल से लगातार सिंचाई करना, क्षारीय उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग करना, खेती में कृषि रसायनों का बढ़ता प्रयोग, जैविक और हरी खादों का अल्प प्रयोग, कृषि भूमि का बिगड़ता समतल एवं मृदा कटाव, कृषि भूमि में खरपतवारों के बढ़ता प्रकोप को जिम्मेदार कहा जा सकता है।

इन कारणों के निदान से अपेक्षित भूमि सुधार प्राप्त किये जा सकते हैं जैसे- मृदा स्वास्थ्य जानने के लिये अपने खेत की मिट्टी की जाँच प्रयोगशाला में कराएँ और जाँच के आधार पर ही खादों एवं उर्वरकों की मात्राएँ सुनिश्चित करें, इससे मृदा स्वास्थ्य और उर्वराशक्ति में सन्तुलन बनाए रखने में मदद मिलेगी। मृदा की ऊपरी उपजाऊ सतह को जल व वायु द्वारा होने वाले क्षरण से बचाने के लिये खेतों की मेड़बंदी करके वर्षा ऋतु में वर्षाजल को संरक्षित किया जाये। इससे क्षेत्र विशेष में भूजल स्तर ऊपर उठने के साथ भूमि कटाव से होने वाले नुकसान से भी मृदा को बचाया जा सकता है। अधिक जैविक खादों के प्रयोग से भी भूमि की जलधारण क्षमता को बढ़ाया जा सकता है।

कृषि की कार्यपद्धति में बदलाव करके तथा मृदा को आवरण प्रदान करने वाली फसलों जैसे मूँग, उड़द, लोबिया आदि का समावेश फसल चक्र में करने से मृदा को संरक्षित कर सकते हैं। लवणीय भूमि सुधार के लिये भूमि समतलीकरण, मेड़बंदी या सिंचाई जलभराव करके घुलनशील लवणों का निक्षालन करें और मृदा जाँच के आधार पर क्षारीय भूमि में जिप्सम, सल्फर, केल्साइट, पाइराइट का प्रयोग करें। हरी खाद वाली फसलें भी क्षारीय भूमि सुधारने का काम करती हैं। इसके अलावा पीएच मान के अनुसार चूने की मात्रा का प्रयोग करके भी मृदा को सुधारा जा सकता है।

यदि फसल अवशेष व अन्य जैविक खादों का नियमित प्रयोग होता रहे, तो मृदा में पौधों के लिये आवश्यक पोषक तत्वों के अतिरिक्त पोटाश की कमी भी नहीं रहती। फास्फोरस की कमी जीवाणु खाद द्वारा बीज का जीवाणु उपचार करके पूरी की जा सकती है। खेतों में कम-से-कम रसायनों का प्रयोग कर कार्बनिक कृषि को प्रोत्साहित कर जीवांश खादों का प्रयोग करना चाहिए। इससे मृदा में मुख्य पोषक तत्वों के साथ-साथ द्वितीयक एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की आपूर्ति और भूमि की उर्वराशक्ति तो बढ़ती है, साथ ही मृदा स्वास्थ्य में भी सुधार होता है।

निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि मृदा न केवल हमारी खाद्य सुरक्षा और आजीविका सुरक्षित करती है बल्कि मानव के जीवन और धरती पर धारित जैव विविधता पर मृदा की अहमियत इतनी अधिक है कि अन्तरराष्ट्रीय मृदा संघ ने वर्ष 2002 में प्राकृतिक प्रणाली के प्रमुख घटक के रूप में मृदा के योगदान के प्रति आभार के उद्देश्य से 5 दिसम्बर को विश्व मृदा दिवस मनाने का प्रस्ताव किया था जिसे स्वीकार कर 20 दिसम्बर, 2013 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 68वीं बैठक में संकल्प पारित कर 5 दिसम्बर को विश्व मृदा दिवस और वर्ष 2015 को ‘अन्तरराष्ट्रीय मृदा वर्ष’ के रूप में मनाने की घोषणा की थी।

इस तरह मृदा के महत्त्व को कायम रखने के लिये 05 दिसम्बर, 2014 से हर साल ‘विश्व मृदा दिवस’ सम्पूर्ण विश्व में मनाया जा रहा है। अतः यदि भारत में मृदा को पर्याप्त संरक्षण मिलता है तो भारत में संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद दूसरी सर्वाधिक कृषि योग्य भूमि है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का 46.54 प्रतिशत है, इसके साथ ही यहाँ 14.2 प्रतिशत परती भूमि भी है जो कृषि हेतु प्रयोग में लाई जा सकती है। यदि अपेक्षित सुधारों के साथ इसे उपयोग में लाया जाये तो भारत खाद्यान्न अतिरेक की स्थिति में पहुँच सकता है।

इस दिशा में एसएचसी की पहल स्वागत योग्य है क्योंकि मृदा स्वास्थ्य में सुधार द्वितीय हरित क्रान्ति के रचनात्मक सुधार के नवीनीकरण कार्यक्रम के छह घटकों में से एक है और इसके माध्यम से कृषि क्षेत्र में गुणवत्ता, उत्पादकता, सतत विकास और रोजगार का उन्नयन किया जा सकता है।

लेखक परिचय


गजेन्द्र सिंह ‘मधुसूदन’
(लेखक कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग में वरिष्ठ तकनीकी सहायक हैं।)
ईमेल : gajendra10.1.88@gmail.com

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