भारत में मृदा संरक्षण की बेहद जरूरत महसूस की जा रही है। विकास तेजी से हो रहा है। कल-कारखाने से लेकर स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र सभी खुल रहे हैं। खेती योग्य जमीन का रकबा लगातार कम हो रहा है तो दूसरी तरफ विभिन्न कारणों से मिट्टी का क्षरण भी हो रहा है।
वैज्ञानिकोें की अोर से दी गई विभिन्न सिफारिशों में मृदा संरक्षण पर जोर दिया गया है। यही वजह है कि केंद्र सरकार की अोर से कृषि विभाग के जरिए किसानों को मृदा संरक्षण के प्रति जागरूक किया जा रहा है। मृदा संरक्षण संबंधी अन्य अभियान भी चलाए जा रहे हैं। आज मृदा संरक्षण के प्रति तत्पर रहने की जिम्मेदारी हर किसान की है तभी ये अभियान सफल हो सकते हैं।कृषि वैज्ञानिक डा. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिवर्ष क्षरण के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव को बचा लिया जाए तो हर साल करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत बचेगी और इससे हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा भी बचेगी।
आंकड़े बताते हैं कि अनुकूल परिस्थितियों में मिट्टी की एक इंच मोटी परत जमने में करीब आठ सौ साल लगते हैं, जबकि एक इंच मिट्टी को उड़ाने में आंधी और पानी को चंद पल लगते हैं। एक हेक्टेयर भूमि की ऊपरी परत में नाइट्रोजन की मात्रा कम होने से किसान को औसतन तीन से पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रति वर्ष 27 अरब टन मिट्टी का क्षरण जलभराव, क्षारीकरण के कारण हो रहा है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के बराबर है।
खेती योग्य जमीन के बीच काफी भू- भाग ऐसा है, जो लवणीय एवं क्षारीय है। इसका कुल क्षेत्रफल करीब सात मिलियन हेक्टेयर बताया जाता है। मिट्टी में सल्फेट एवं क्लोराइड के घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है।
कृषि में पानी के अधिक प्रयोग एवं जलजमाव के कारण मिट्टी उपजाऊ होने के बजाय लवणीय मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है। वास्तव में मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पड़ता है।
यदि फसलों की वृद्धि के लिए आवश्यक नाइट्रोजन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, गंधक, पोटाश सहित अन्य तत्वों को बचाकर उनका समुचित उपयोग पौधे को ताकतवर बनाने में किया जाए तो एक तरफ हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा और दूसरी तरफ मृदा संरक्षण की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण पहल होगी।
हालांकि केंद्र सरकार की अोर से भूमि सुधार कार्यक्रम, बंजर भूमि सुधार कार्यक्रम सहित कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। फिर भी आज दुनिया के सामने मरुस्थलीयकरण को रोकना भी एक बड़ी चुनौती है। हम मिट्टी की प्रवृत्ति पर गौर करें तो मिट्टी कुछ सेंटीमीटर गहरी होती है जबकि औसत रूप में कृषि योग्य उपजाऊ मिट्टी की गहराई 30 सेंटीमीटर तक मानी जाती है।
मृदा की चार परतें होती हैं। पहली अथवा सबसे ऊपरी सतह छोटे-छोटे मिट्टी के कणों और गले हुए पौधों और जीवों के अवशेष से बनी होती है। यह परत फसलों की पैदावार के लिए महत्वपूर्ण होती है। दूसरी परत महीन कणों जैसे चिकनी मिट्टी की होती है और तीसरी परत मूल विखंडित चट्टानी सामग्री और मिट्टी का मिश्रण होती है तथा चौथी परत में अविखंडित सख्त चट्टानें होती हैं।
भारत सरकार की ओर से इन दिनों मिट्टी की जांच पर विशेष जोर दिया जा रहा है। जिला स्तर पर स्थापित प्रयोगशालाओं में गांवों की मिट्टी पहुंचाने के लिए किसान मित्रों का भी चयन किया गया है। ये किसान मित्र अपने-अपने गांव के किसानों की मिट्टी को लेकर प्रयोगशाला तक पहुंचा रहे हैं और प्रयोगशाला की रिपोर्ट के आधार पर किसानों को रासायनिक खाद एवं अन्य पोषक तत्वों का प्रयोग करने की सलाह दी जा रही है।
इसके अलावा अब गांवों में शिविर आयोजित कर किसानों को प्रशिक्षित भी किया जा रहा है। क्योंकि उर्वरक संबंधी आवश्यकताओं के बारे में प्रबंधन संबंधी निर्णय लेने के लिए मृदा जांच इसका आधार है।
जांच के बाद उर्वरता मैप तैयार किया जाता है जिसमें उपलब्ध नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम का कितना प्रयोग किया जाना चाहिए, इसका विस्तृत ब्यौरा तैयार किया जाता है। मृदा की उर्वरता बढ़ाने के लिए उर्वरक जैसे एनपीके, चूना अथवा जिप्सम का उचित प्रयोग किया जाता है यानी जितनी जरूरत हो, उतना ही प्रयोग किया जाना चाहिए।
जांच के आधार पर उर्वरक की मात्रा का प्रयोग किए जाने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि मिट्टी की ताकत घटने के बजाय बढ़ती जाती है। इससे एक तरफ उत्पादन अधिक होता है तो दूूसरी तरफ मिट्टी की उर्वरता भी बरकरार रहती है।
भारत में कर्नाटक, असम, केरल, तमिलनाडु, हरियाणा और उड़ीसा में केंद्रीय प्रयोगशाला की स्थापना की गई है। इसके अलावा विभिन्न राज्यों में अलग से प्रयोगशालाएं चल रही हैं।
मिट्टी उर्वरता में खनिजों जैसे नाइट्रोजन, पोटैशियम और फॉस्फोरस की उपस्थिति को विचार में लिया जाता है। यह सही उर्वरकों के प्राप्ति तथा बीज के उपयुक्त प्रकार को चुनने में सहायता देती है, ताकि अधिकतम संभव फसल प्राप्त की जा सके।
उर्वरक भूमि पौधे के मूलभूत पोषण के लिए इसमें पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होना अनिवार्य है। इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम शामिल हैं। इसके अलावा खनिज तत्वों जैसे बोरॉन, क्लोरीन, कोबाल्ट, तांबा, लौह, मैग्नीज, मैग्नीशियम, मोल्बिडिनम, सल्फर और जस्ता का होना भी जरूरी है क्योंकि ये खनिज पौधों का पोषण बढ़ाते हैं।
इसी तरह इसमें कार्बनिक पदार्थ होते हैं जो मिट्टी की संरचना में सुधार लाते हैं। इससे मिट्टी को और अधिक नमी धारण करने की क्षमता मिलती है। इसका पीएच 6.0 से 6.8 होना चाहिए।
भारत में सिंचाई कुप्रबंधन के कारण करीब छह-सात मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता से प्रभावित है। यह स्थिति पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में ज्यादा है। इसी तरह करीब छह मिलियन हेक्टेयर भूमि जलजमाव से प्रभावित है।
देश में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में जलजमाव की समस्या है। असमतल भू-क्षेत्र वर्षा जल से काफी समय तक भरा रहता है। इसी तरह गर्मी के दिन में यह अधिक कठोर हो जाती है। ऐसे में इसकी अम्लता बढ़ जाती है और इसमें खेती नहीं हो पाती है।
यदि इस समस्या का निराकरण कर दिया जाए तो खाद्य उत्पादन में आशातीत बढ़ोतरी होगी। इसी तरह रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण अम्लीय भूमि भी हमारे देश की उत्पादन क्षमता को प्रभावित कर रही है। अम्लीय मृदा में विभिन्न पोषक तत्वों का अभाव हो जाता है। इससे मृदा अपरदन की संभावना बढ़ने लगती है।
रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण अम्लीय भूमि भी हमारे देश की उत्पादन क्षमता को प्रभावित कर रही है। अम्लीय मृदा में विभिन्न पोषक तत्वों का अभाव हो जाता है। इससे मृदा अपरदन की संभावना बढ़ने लगती है। बाढ़ के कारण कृषि योग्य भूमि प्रभावित होती है। बाढ़ के पानी के बहाव के साथ मिट्टी की ऊपरी परत भी बह जाती है। इसे जल अपरदन कहते हैं। भारत में करीब 60 फीसदी कृषि भूमि वर्षा पर आधारित है। बदलते परिवेश में मानसून की सक्रियता कहीं कम तो कहीं ज्यादा होने से बाढ़ व सूखे के हालात रहते हैं। बाढ़ के कारण कृषि योग्य भूमि प्रभावित होती है। बाढ़ के पानी के बहाव के साथ मिट्टी की ऊपरी परत भी बह जाती है। इसे जल अपरदन कहते हैं।
पारिस्थितिकीविदों की मानें तो भारत में हर साल करीब छह हजार टन उपजाऊ ऊपरी मिट्टी का कटाव होता है। पानी के साथ बहने वाली इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैग्नीशियम के साथ ही अन्य सूक्ष्य तत्व भी बह जाते हैं। इससे किसानों का खेत अनुपजाऊ हो जाता है।
मध्य एवं पूर्वी भारत जलजनित क्षरण की चपेट में ज्यादा आता है। इसका एक बड़ा कारण यहां की मिट्टी की स्थिति भी है। ऐसे में इस मिट्टी को बचाने के लिए सबसे उपयुक्त उपाय है मिट्टी के अनुकूल फसल चक्र का अपनाया जाना।
जलजनित क्षरण से बचने के लिए जड़युक्त फसलों की खेती ज्यादा से ज्यादा कराई जाए। बाढ़ प्रभावित इलाके में पानी के तीव्र गति से होने वाले बहाव को रोकने के लिए जगह-जगह बाड़बंदी कराई जाए। पट्टीदार खेती करने वाले किसानों को मेड़बंदी में विशेष सहयोग किया जाए।
कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि पौधे का प्रथम भोजन पानी माना गया है। पौधे को तैयार होने में करीब 90 फीसदी जल की आवश्यकता होती है। यह मिट्टी में उपस्थित तत्वों काे भोजन के रूप में पौधे तक पहुंचाता है।
मिट्टी में समुचित आर्द्रता होना भी जरूरी होता है। मिट्टी में पानी का कम होना और अधिक होना दोनों ही बात पौधे को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती हैं। इसलिए जल प्रबंधन बेहद जरूरी है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि हरितक्रांति के बाद उत्पादन क्षमता में करीब तीन से चार गुना बढ़ोतरी हुई है। इसके प्रमुख कारण रहे उन्नत किस्म के बीज का चयन, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई आदि। लेकिन इसका एक दुष्परिणाम भी सामने आया, जो हमारे सामने है। अधिक उत्पादन की लालसा में तमाम किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खाद का प्रयोग करना शुरू कर दिया।
इससे कुछ समय के लिए उत्पादन तो बढ़ गया, लेकिन मिट्टी की उर्वराशक्ति कमजोर हुई, जो भविष्य के लिए गंभीर चुनौती बन सकती है। क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति का क्षीण होने का सीधा-सा मतलब है भविष्य में उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ऩा।
जब मिट्टी में पोषक तत्व-नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, गंधक मैग्नीशियम एवं सूक्ष्म तत्वों में तांबा, लौह, जस्ता, बोरॉन आदि नहीं होंगे तो पौधे का पूर्ण रूप से विकास नहीं होगा। इसके तहत पोषण प्रबंधन पद्धति, एकीकृत जल प्रबंधन, एकीकृत बीज प्रबंधन, एकीकृत कीट प्रबंधन आदि पर विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है।
तमिलनाडु विश्वविद्यालय की अोर से अतिसूक्ष्म शाकनाशी विकास परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। उम्मीद है कि भविष्य में खरपतवारनाशी के लिए रासायनिक छिड़काव के बजाय नैनो हर्बीसाइड्स अति सूक्ष्म मात्रा में प्रयोग किया जाएगा। इसके जरिए कीड़ों के नियंत्रण में कम से कम रसायन का प्रयोग होगा और फसल उत्पादन प्राप्त किया जा सकेगा।
इसके अलावा कृषि विविधिकरण एवं फसल विविधिकरण की तकनीक भी अपनाए जाने की जरूरत है। एक ही तरह की फसलों को बार-बार लेने से भी मिट्टी की स्थिति प्रभावित होती है। ऐसे में यदि हम अलग-अलग फसल चक्र अपनाएं तो मृदा संरक्षण के साथ ही उत्पादन भी अधिक प्राप्त कर सकते हैं।
लवणीय मिट्टी में सोडियम और पोटैशियम कार्बोनेट की मात्रा अधिक होने के कारण पौधों की वृद्धि नहीं हो पाती है। ऐसे में पौधे या तो अविकसित ही रहते हैं अथवा वे सूख कर नष्ट हो जाते हैं। इसी तरह क्षारीय मिट्टी में पानी भरने पर काफी दिनों तक रूका रहता है और जब पानी सूखता है तो मिट्टी एकदम सख्त हो जाती है और बीच-बीच में दरारें दिखाई पड़ती हैं।
ऐसी मिट्टी में बोया जाने वाला बीज अंकुरित बहुत मुश्किल से होता है। क्षारीय भूमि को भी लवणीय भूमि की तरह निक्षालन क्रिया से शोधित किया जा सकता है। इसके अलावा जिप्सम का प्रयोग करके हानिकारक सोडियम तत्वों को नष्ट किया जा सकता है। इसके अलावा गोबर खाद, हरी खाद, वर्मी कंपोस्ट, नीलहरित शैवाल आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग करने के कारण कैल्शियम निचली सतह पर चला जाता है।
ऐसे में सोडियम भूमि की क्षारीय प्रकृति को बढ़ाकर मिट्टी की स्थिति को प्रभावित करता है। ऐसे में किसानोें को अनुमान के अनुरूप उत्पादन नहीं मिल पाता है।
मृदा संरक्षण के तहत उठाए जाने वाले अन्य प्रमुख उपाय हरी एवं जैविक खाद का प्रयोग- खेत में हरी खाद का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए। परंपरागत रूप में प्रचलित सनई, ठैंचा, मूंग, लोबिया, ग्वार आदि को खेत में बोया जाए और खड़ी फसल के बीच खेत की जुताई की जाए। इससे खेत में विभिन्न प्रकार के जैविक तत्वों का समावेश होता है।
मिट्टी की ताकत बढ़ती है और उत्पादन भी अधिक मिलता है। क्योंकि इन फसलों की जड़, डंठल एवं पत्तियां सभी मिट्टी के संपर्क में आते ही पूरी तरह से सड़ जाते हैं और मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के साथ ही जिंक, आयरन, कॉपर, मैग्नीशियम आदि भी प्रदान करते हैं।
इस प्रणाली का प्रयोग सिंचित क्षेत्र में अधिक प्रचलित है। हालांकि हरी खाद के प्रयोग का चलन विभिन्न राज्यों में कम होता जा रहा है। यही वजह है कि अब एक बार फिर सरकारी स्तर पर किसानों को हरी खाद के प्रति जागरूक किया जा रहा है।
जैव उर्वरकों का प्रयोग करने से पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व मिल जाते हैं। मिट्टी में मौजूद लाभकारी जीवाणुओं की बढ़त होती है। मिट्टी में पड़ने वाली रासायनिक खाद की घुलनशीलता बढ़ती है। भारत में मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, झारखंड में हरी खाद का प्रचलन है। इसी तरह मृदा संरक्षण की दिशा में जैविक खेती सबसे महत्वपूर्ण है। किसान जैविक खेती के जरिए जहां गुणवत्तापरक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं वहीं मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ा सकते हैं।
जैव उर्वरकों का प्रयोग करने से पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व मिल जाते हैं। मिट्टी में मौजूद लाभकारी जीवाणुओं की बढ़त होती है। मिट्टी में पड़ने वाली रासायनिक खाद की घुलनशीलता बढ़ती है।
जैविक खेती की महत्ता को देखते हुए केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से इसे विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए बढ़ावा दिया जा रहा है। इतना ही नहीं अब तो जैविक उत्पादन का मूल्य भी अन्य उत्पादों की अपेक्षा अधिक मिल रहा है। ऐसे में किसान जैविक खादों का प्रयोग कर दोहरा फायदा प्राप्त कर सकते हैं।
जैविक खेती में सक्रिय किसानों को जैविक खाद तैयार करने के लिए विभिन्न योजनाओं के जरिए अनुदान की भी व्यवस्था की गई है। जैव उर्वरकों का प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस वक्त जैव उर्वरक का प्रयोग हो रहा है, उस वक्त मिट्टी को कितनी जरूरत है। मुख्य रूप से राइजोबिनयम, एजोस्पीरिलम, नीलहरित शैवाल आदि का प्रयोग किया जा सकता है।
वर्मी कम्पोस्ट- यह प्राचीनकाल से ही किसानों का सबसे हितकर प्रयोग रहा है। क्योंकि यह पूरी तरह से केंचुए पर आधारित है। केंचुए को किसानों का मित्र कहा जाता है। लेकिन अब खेतों में केंचुआ पैदा करने के वैज्ञानिक तरीके भी उपलब्ध हैं।
ये केंचुए मिट्टी में मौजूद घासफूस और अन्य खरपतवार को खाकर उन्हें खाद तो बनाते ही हैं, साथ ही मिट्टी को मुलायम और उपजाऊ बना देते हैं। यही वजह है कि अब केंचुए तैयार करने के लिए सरकारी स्तर पर भी उपक्रम स्थापित किए जा रहे हैं। कृषि वैज्ञानिक गांव-गांव जाकर किसानों को वर्मी कंपोस्ट के प्रति जागरूक कर रहे हैं।
फसल चक्र- खेत में उचित फसल चक्र अपनाया जाए। क्योंकि कई बार खेत में जिस खाद का प्रयोग किया जाता है वह संबंधित फसल के तहत पौधा ग्रहण नहीं कर पाता है। किसी एक खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके उगाया जाए तो मृदा की उर्वरता बरकरार रहती है।
इससे किसी एक प्रकार के खरपतवार, बीमारी और कीड़ों को बढ़ावा भी नहीं मिलता है। मृदा कार्बन बढ़ाने के मामले में भी फसल चक्र लाभकारी साबित होता है।
हालांकि मृदा कार्बन बढ़ाने में सबसे ज्यादा प्रभावकारी अरहर, कपास आदि गहरी जड़ों वाली फसलें मानी जाती हैं। फसल चक्र में जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाली दलहनी फसलों के समावेश से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भी कम करना पड़ता है।
समेकित पोषक तत्व प्रबंधन- इस पद्धति को विकसित करके मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों को बरकरार रखते हुए अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसका मूल उद्देश्य है लंबे समय तक टिकाऊ फसल उत्पादन के लिए मिट्टी की उर्वरता ही नहीं बनाए रखना बल्कि उसे और अधिक उपजाऊ बना देना।
गोबर खाद, वर्मी कंपोस्ट, आदि के जरिए मिट्टी की उर्वरता को बिना किसी नुकसान के बढ़ाया जा सकता है। इसके जरिए वैज्ञानिक तरीके से यह निर्धारित किया जाता है कि किस फसल के लिए कितने उर्वरक की जरूरत है।
आवर्ती फसलों को बढ़ावा- मिट्टी में कम से कम रासायनिक खाद का प्रयोग करना पड़े अथवा हम खेत में जो भी रासायनिक खाद डाले उसका पूरा का पूरा उपयोग पौधे अपनी खुराक के रूप में कर लें, इसके लिए आवर्ती फसल चक्र को अपनाया जा सकता है।
आवर्ती फसल चक्र को अपनाने से फसलों में रिक्त पड़े स्थान पर न तो खरपतवार उगते हैं और न ही उन्हें नष्ट करने के लिए रसायन का प्रयोग करना पड़ता है। जैसे मक्के के खेत में लोबिया की खेती करके दो फसली उत्पादन प्राप्त किए जा सकते हैं और मिट्टी में कम उर्वरक का भी प्रयोग करना पड़ता है। इसी तरह अरहर के साथ ज्वार उगाने से उसमें उकठा रोग नहीं लगता।
इस तरह देखा जाए तो मृदा संरक्षण के लिए तत्पर रहने की जिम्मेदारी हर किसान की है। जब तक हम तकनीकी रूप से मृदा संरक्षण को लेकर गंभीर नहीं होंगे, तब तक मिट्टी की उर्वरता प्रभावित होती रहेगी। मिट्टी में अपार संभावनाएं हैं।
हम इसके जरिए हर तरह की फसल प्राप्त कर सकते हैं। विभिन्न राज्यों में मिट्टी की प्रकृति के अनुरूप फसल उगाने के लिए सरकार की अोर से भी प्रयास किया जा रहा है। कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि विभाग की अोर से उचित फसल चक्र अपनाने, मिट्टी जांच कराने और किस तरह से मिट्टी की उर्वरता को बचाया जाए, आदि कार्यक्रम ग्राम पंचायत स्तर पर चलाए जा रहे हैं।
निश्चित रूप से ये सभी कार्यक्रम मृदा संरक्षण की दिशा में मील का पत्थर साबित होंगे। बस जरूरत है, इसमें किसानों और आम लोगों की सहभागिता बढ़ाए जाने की। क्योंकि कोई भी अभियान तभी पूर्ण रूप से सफल हो सकता है, जब इसमें सभी की बराबर की भागीदारी हो।
(लेखक अधिवक्ता हैं और शैक्षणिक संस्था से जुड़े हैं)
ई-मेल:umarfaruqi@gmail.com
वैज्ञानिकोें की अोर से दी गई विभिन्न सिफारिशों में मृदा संरक्षण पर जोर दिया गया है। यही वजह है कि केंद्र सरकार की अोर से कृषि विभाग के जरिए किसानों को मृदा संरक्षण के प्रति जागरूक किया जा रहा है। मृदा संरक्षण संबंधी अन्य अभियान भी चलाए जा रहे हैं। आज मृदा संरक्षण के प्रति तत्पर रहने की जिम्मेदारी हर किसान की है तभी ये अभियान सफल हो सकते हैं।कृषि वैज्ञानिक डा. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिवर्ष क्षरण के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव को बचा लिया जाए तो हर साल करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत बचेगी और इससे हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा भी बचेगी।
आंकड़े बताते हैं कि अनुकूल परिस्थितियों में मिट्टी की एक इंच मोटी परत जमने में करीब आठ सौ साल लगते हैं, जबकि एक इंच मिट्टी को उड़ाने में आंधी और पानी को चंद पल लगते हैं। एक हेक्टेयर भूमि की ऊपरी परत में नाइट्रोजन की मात्रा कम होने से किसान को औसतन तीन से पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रति वर्ष 27 अरब टन मिट्टी का क्षरण जलभराव, क्षारीकरण के कारण हो रहा है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के बराबर है।
खेती योग्य जमीन के बीच काफी भू- भाग ऐसा है, जो लवणीय एवं क्षारीय है। इसका कुल क्षेत्रफल करीब सात मिलियन हेक्टेयर बताया जाता है। मिट्टी में सल्फेट एवं क्लोराइड के घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है।
कृषि में पानी के अधिक प्रयोग एवं जलजमाव के कारण मिट्टी उपजाऊ होने के बजाय लवणीय मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है। वास्तव में मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पड़ता है।
यदि फसलों की वृद्धि के लिए आवश्यक नाइट्रोजन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, गंधक, पोटाश सहित अन्य तत्वों को बचाकर उनका समुचित उपयोग पौधे को ताकतवर बनाने में किया जाए तो एक तरफ हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा और दूसरी तरफ मृदा संरक्षण की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण पहल होगी।
हालांकि केंद्र सरकार की अोर से भूमि सुधार कार्यक्रम, बंजर भूमि सुधार कार्यक्रम सहित कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। फिर भी आज दुनिया के सामने मरुस्थलीयकरण को रोकना भी एक बड़ी चुनौती है। हम मिट्टी की प्रवृत्ति पर गौर करें तो मिट्टी कुछ सेंटीमीटर गहरी होती है जबकि औसत रूप में कृषि योग्य उपजाऊ मिट्टी की गहराई 30 सेंटीमीटर तक मानी जाती है।
मृदा की चार परतें होती हैं। पहली अथवा सबसे ऊपरी सतह छोटे-छोटे मिट्टी के कणों और गले हुए पौधों और जीवों के अवशेष से बनी होती है। यह परत फसलों की पैदावार के लिए महत्वपूर्ण होती है। दूसरी परत महीन कणों जैसे चिकनी मिट्टी की होती है और तीसरी परत मूल विखंडित चट्टानी सामग्री और मिट्टी का मिश्रण होती है तथा चौथी परत में अविखंडित सख्त चट्टानें होती हैं।
मिट्टी की जांच पर सरकार का जोर
भारत सरकार की ओर से इन दिनों मिट्टी की जांच पर विशेष जोर दिया जा रहा है। जिला स्तर पर स्थापित प्रयोगशालाओं में गांवों की मिट्टी पहुंचाने के लिए किसान मित्रों का भी चयन किया गया है। ये किसान मित्र अपने-अपने गांव के किसानों की मिट्टी को लेकर प्रयोगशाला तक पहुंचा रहे हैं और प्रयोगशाला की रिपोर्ट के आधार पर किसानों को रासायनिक खाद एवं अन्य पोषक तत्वों का प्रयोग करने की सलाह दी जा रही है।
इसके अलावा अब गांवों में शिविर आयोजित कर किसानों को प्रशिक्षित भी किया जा रहा है। क्योंकि उर्वरक संबंधी आवश्यकताओं के बारे में प्रबंधन संबंधी निर्णय लेने के लिए मृदा जांच इसका आधार है।
जांच के बाद उर्वरता मैप तैयार किया जाता है जिसमें उपलब्ध नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम का कितना प्रयोग किया जाना चाहिए, इसका विस्तृत ब्यौरा तैयार किया जाता है। मृदा की उर्वरता बढ़ाने के लिए उर्वरक जैसे एनपीके, चूना अथवा जिप्सम का उचित प्रयोग किया जाता है यानी जितनी जरूरत हो, उतना ही प्रयोग किया जाना चाहिए।
जांच के आधार पर उर्वरक की मात्रा का प्रयोग किए जाने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि मिट्टी की ताकत घटने के बजाय बढ़ती जाती है। इससे एक तरफ उत्पादन अधिक होता है तो दूूसरी तरफ मिट्टी की उर्वरता भी बरकरार रहती है।
उपलब्ध हैं प्रयोगशालाएं
भारत में कर्नाटक, असम, केरल, तमिलनाडु, हरियाणा और उड़ीसा में केंद्रीय प्रयोगशाला की स्थापना की गई है। इसके अलावा विभिन्न राज्यों में अलग से प्रयोगशालाएं चल रही हैं।
मिट्टी उर्वरता में खनिजों जैसे नाइट्रोजन, पोटैशियम और फॉस्फोरस की उपस्थिति को विचार में लिया जाता है। यह सही उर्वरकों के प्राप्ति तथा बीज के उपयुक्त प्रकार को चुनने में सहायता देती है, ताकि अधिकतम संभव फसल प्राप्त की जा सके।
उर्वरक भूमि पौधे के मूलभूत पोषण के लिए इसमें पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होना अनिवार्य है। इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम शामिल हैं। इसके अलावा खनिज तत्वों जैसे बोरॉन, क्लोरीन, कोबाल्ट, तांबा, लौह, मैग्नीज, मैग्नीशियम, मोल्बिडिनम, सल्फर और जस्ता का होना भी जरूरी है क्योंकि ये खनिज पौधों का पोषण बढ़ाते हैं।
इसी तरह इसमें कार्बनिक पदार्थ होते हैं जो मिट्टी की संरचना में सुधार लाते हैं। इससे मिट्टी को और अधिक नमी धारण करने की क्षमता मिलती है। इसका पीएच 6.0 से 6.8 होना चाहिए।
जल प्रबंधन की जरूरत
भारत में सिंचाई कुप्रबंधन के कारण करीब छह-सात मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता से प्रभावित है। यह स्थिति पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में ज्यादा है। इसी तरह करीब छह मिलियन हेक्टेयर भूमि जलजमाव से प्रभावित है।
देश में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में जलजमाव की समस्या है। असमतल भू-क्षेत्र वर्षा जल से काफी समय तक भरा रहता है। इसी तरह गर्मी के दिन में यह अधिक कठोर हो जाती है। ऐसे में इसकी अम्लता बढ़ जाती है और इसमें खेती नहीं हो पाती है।
यदि इस समस्या का निराकरण कर दिया जाए तो खाद्य उत्पादन में आशातीत बढ़ोतरी होगी। इसी तरह रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण अम्लीय भूमि भी हमारे देश की उत्पादन क्षमता को प्रभावित कर रही है। अम्लीय मृदा में विभिन्न पोषक तत्वों का अभाव हो जाता है। इससे मृदा अपरदन की संभावना बढ़ने लगती है।
रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण अम्लीय भूमि भी हमारे देश की उत्पादन क्षमता को प्रभावित कर रही है। अम्लीय मृदा में विभिन्न पोषक तत्वों का अभाव हो जाता है। इससे मृदा अपरदन की संभावना बढ़ने लगती है। बाढ़ के कारण कृषि योग्य भूमि प्रभावित होती है। बाढ़ के पानी के बहाव के साथ मिट्टी की ऊपरी परत भी बह जाती है। इसे जल अपरदन कहते हैं। भारत में करीब 60 फीसदी कृषि भूमि वर्षा पर आधारित है। बदलते परिवेश में मानसून की सक्रियता कहीं कम तो कहीं ज्यादा होने से बाढ़ व सूखे के हालात रहते हैं। बाढ़ के कारण कृषि योग्य भूमि प्रभावित होती है। बाढ़ के पानी के बहाव के साथ मिट्टी की ऊपरी परत भी बह जाती है। इसे जल अपरदन कहते हैं।
पारिस्थितिकीविदों की मानें तो भारत में हर साल करीब छह हजार टन उपजाऊ ऊपरी मिट्टी का कटाव होता है। पानी के साथ बहने वाली इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैग्नीशियम के साथ ही अन्य सूक्ष्य तत्व भी बह जाते हैं। इससे किसानों का खेत अनुपजाऊ हो जाता है।
मध्य एवं पूर्वी भारत जलजनित क्षरण की चपेट में ज्यादा आता है। इसका एक बड़ा कारण यहां की मिट्टी की स्थिति भी है। ऐसे में इस मिट्टी को बचाने के लिए सबसे उपयुक्त उपाय है मिट्टी के अनुकूल फसल चक्र का अपनाया जाना।
जलजनित क्षरण से बचने के लिए जड़युक्त फसलों की खेती ज्यादा से ज्यादा कराई जाए। बाढ़ प्रभावित इलाके में पानी के तीव्र गति से होने वाले बहाव को रोकने के लिए जगह-जगह बाड़बंदी कराई जाए। पट्टीदार खेती करने वाले किसानों को मेड़बंदी में विशेष सहयोग किया जाए।
कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि पौधे का प्रथम भोजन पानी माना गया है। पौधे को तैयार होने में करीब 90 फीसदी जल की आवश्यकता होती है। यह मिट्टी में उपस्थित तत्वों काे भोजन के रूप में पौधे तक पहुंचाता है।
मिट्टी में समुचित आर्द्रता होना भी जरूरी होता है। मिट्टी में पानी का कम होना और अधिक होना दोनों ही बात पौधे को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती हैं। इसलिए जल प्रबंधन बेहद जरूरी है।
खनिज तत्वों को बचाना जरूरी
इसमें कोई संदेह नहीं कि हरितक्रांति के बाद उत्पादन क्षमता में करीब तीन से चार गुना बढ़ोतरी हुई है। इसके प्रमुख कारण रहे उन्नत किस्म के बीज का चयन, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई आदि। लेकिन इसका एक दुष्परिणाम भी सामने आया, जो हमारे सामने है। अधिक उत्पादन की लालसा में तमाम किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खाद का प्रयोग करना शुरू कर दिया।
इससे कुछ समय के लिए उत्पादन तो बढ़ गया, लेकिन मिट्टी की उर्वराशक्ति कमजोर हुई, जो भविष्य के लिए गंभीर चुनौती बन सकती है। क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति का क्षीण होने का सीधा-सा मतलब है भविष्य में उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ऩा।
जब मिट्टी में पोषक तत्व-नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, गंधक मैग्नीशियम एवं सूक्ष्म तत्वों में तांबा, लौह, जस्ता, बोरॉन आदि नहीं होंगे तो पौधे का पूर्ण रूप से विकास नहीं होगा। इसके तहत पोषण प्रबंधन पद्धति, एकीकृत जल प्रबंधन, एकीकृत बीज प्रबंधन, एकीकृत कीट प्रबंधन आदि पर विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है।
नैनो तकनीक का प्रयोग
तमिलनाडु विश्वविद्यालय की अोर से अतिसूक्ष्म शाकनाशी विकास परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। उम्मीद है कि भविष्य में खरपतवारनाशी के लिए रासायनिक छिड़काव के बजाय नैनो हर्बीसाइड्स अति सूक्ष्म मात्रा में प्रयोग किया जाएगा। इसके जरिए कीड़ों के नियंत्रण में कम से कम रसायन का प्रयोग होगा और फसल उत्पादन प्राप्त किया जा सकेगा।
इसके अलावा कृषि विविधिकरण एवं फसल विविधिकरण की तकनीक भी अपनाए जाने की जरूरत है। एक ही तरह की फसलों को बार-बार लेने से भी मिट्टी की स्थिति प्रभावित होती है। ऐसे में यदि हम अलग-अलग फसल चक्र अपनाएं तो मृदा संरक्षण के साथ ही उत्पादन भी अधिक प्राप्त कर सकते हैं।
लवणीयता व क्षारीयता कम करने की जरूरत
लवणीय मिट्टी में सोडियम और पोटैशियम कार्बोनेट की मात्रा अधिक होने के कारण पौधों की वृद्धि नहीं हो पाती है। ऐसे में पौधे या तो अविकसित ही रहते हैं अथवा वे सूख कर नष्ट हो जाते हैं। इसी तरह क्षारीय मिट्टी में पानी भरने पर काफी दिनों तक रूका रहता है और जब पानी सूखता है तो मिट्टी एकदम सख्त हो जाती है और बीच-बीच में दरारें दिखाई पड़ती हैं।
ऐसी मिट्टी में बोया जाने वाला बीज अंकुरित बहुत मुश्किल से होता है। क्षारीय भूमि को भी लवणीय भूमि की तरह निक्षालन क्रिया से शोधित किया जा सकता है। इसके अलावा जिप्सम का प्रयोग करके हानिकारक सोडियम तत्वों को नष्ट किया जा सकता है। इसके अलावा गोबर खाद, हरी खाद, वर्मी कंपोस्ट, नीलहरित शैवाल आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग करने के कारण कैल्शियम निचली सतह पर चला जाता है।
ऐसे में सोडियम भूमि की क्षारीय प्रकृति को बढ़ाकर मिट्टी की स्थिति को प्रभावित करता है। ऐसे में किसानोें को अनुमान के अनुरूप उत्पादन नहीं मिल पाता है।
मृदा संरक्षण के तहत उठाए जाने वाले अन्य प्रमुख उपाय हरी एवं जैविक खाद का प्रयोग- खेत में हरी खाद का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए। परंपरागत रूप में प्रचलित सनई, ठैंचा, मूंग, लोबिया, ग्वार आदि को खेत में बोया जाए और खड़ी फसल के बीच खेत की जुताई की जाए। इससे खेत में विभिन्न प्रकार के जैविक तत्वों का समावेश होता है।
मिट्टी की ताकत बढ़ती है और उत्पादन भी अधिक मिलता है। क्योंकि इन फसलों की जड़, डंठल एवं पत्तियां सभी मिट्टी के संपर्क में आते ही पूरी तरह से सड़ जाते हैं और मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के साथ ही जिंक, आयरन, कॉपर, मैग्नीशियम आदि भी प्रदान करते हैं।
इस प्रणाली का प्रयोग सिंचित क्षेत्र में अधिक प्रचलित है। हालांकि हरी खाद के प्रयोग का चलन विभिन्न राज्यों में कम होता जा रहा है। यही वजह है कि अब एक बार फिर सरकारी स्तर पर किसानों को हरी खाद के प्रति जागरूक किया जा रहा है।
जैव उर्वरकों का प्रयोग करने से पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व मिल जाते हैं। मिट्टी में मौजूद लाभकारी जीवाणुओं की बढ़त होती है। मिट्टी में पड़ने वाली रासायनिक खाद की घुलनशीलता बढ़ती है। भारत में मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, झारखंड में हरी खाद का प्रचलन है। इसी तरह मृदा संरक्षण की दिशा में जैविक खेती सबसे महत्वपूर्ण है। किसान जैविक खेती के जरिए जहां गुणवत्तापरक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं वहीं मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ा सकते हैं।
जैव उर्वरकों का प्रयोग करने से पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व मिल जाते हैं। मिट्टी में मौजूद लाभकारी जीवाणुओं की बढ़त होती है। मिट्टी में पड़ने वाली रासायनिक खाद की घुलनशीलता बढ़ती है।
जैविक खेती की महत्ता को देखते हुए केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से इसे विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए बढ़ावा दिया जा रहा है। इतना ही नहीं अब तो जैविक उत्पादन का मूल्य भी अन्य उत्पादों की अपेक्षा अधिक मिल रहा है। ऐसे में किसान जैविक खादों का प्रयोग कर दोहरा फायदा प्राप्त कर सकते हैं।
जैविक खेती में सक्रिय किसानों को जैविक खाद तैयार करने के लिए विभिन्न योजनाओं के जरिए अनुदान की भी व्यवस्था की गई है। जैव उर्वरकों का प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस वक्त जैव उर्वरक का प्रयोग हो रहा है, उस वक्त मिट्टी को कितनी जरूरत है। मुख्य रूप से राइजोबिनयम, एजोस्पीरिलम, नीलहरित शैवाल आदि का प्रयोग किया जा सकता है।
वर्मी कम्पोस्ट- यह प्राचीनकाल से ही किसानों का सबसे हितकर प्रयोग रहा है। क्योंकि यह पूरी तरह से केंचुए पर आधारित है। केंचुए को किसानों का मित्र कहा जाता है। लेकिन अब खेतों में केंचुआ पैदा करने के वैज्ञानिक तरीके भी उपलब्ध हैं।
ये केंचुए मिट्टी में मौजूद घासफूस और अन्य खरपतवार को खाकर उन्हें खाद तो बनाते ही हैं, साथ ही मिट्टी को मुलायम और उपजाऊ बना देते हैं। यही वजह है कि अब केंचुए तैयार करने के लिए सरकारी स्तर पर भी उपक्रम स्थापित किए जा रहे हैं। कृषि वैज्ञानिक गांव-गांव जाकर किसानों को वर्मी कंपोस्ट के प्रति जागरूक कर रहे हैं।
फसल चक्र- खेत में उचित फसल चक्र अपनाया जाए। क्योंकि कई बार खेत में जिस खाद का प्रयोग किया जाता है वह संबंधित फसल के तहत पौधा ग्रहण नहीं कर पाता है। किसी एक खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके उगाया जाए तो मृदा की उर्वरता बरकरार रहती है।
इससे किसी एक प्रकार के खरपतवार, बीमारी और कीड़ों को बढ़ावा भी नहीं मिलता है। मृदा कार्बन बढ़ाने के मामले में भी फसल चक्र लाभकारी साबित होता है।
हालांकि मृदा कार्बन बढ़ाने में सबसे ज्यादा प्रभावकारी अरहर, कपास आदि गहरी जड़ों वाली फसलें मानी जाती हैं। फसल चक्र में जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाली दलहनी फसलों के समावेश से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भी कम करना पड़ता है।
समेकित पोषक तत्व प्रबंधन- इस पद्धति को विकसित करके मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों को बरकरार रखते हुए अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसका मूल उद्देश्य है लंबे समय तक टिकाऊ फसल उत्पादन के लिए मिट्टी की उर्वरता ही नहीं बनाए रखना बल्कि उसे और अधिक उपजाऊ बना देना।
गोबर खाद, वर्मी कंपोस्ट, आदि के जरिए मिट्टी की उर्वरता को बिना किसी नुकसान के बढ़ाया जा सकता है। इसके जरिए वैज्ञानिक तरीके से यह निर्धारित किया जाता है कि किस फसल के लिए कितने उर्वरक की जरूरत है।
आवर्ती फसलों को बढ़ावा- मिट्टी में कम से कम रासायनिक खाद का प्रयोग करना पड़े अथवा हम खेत में जो भी रासायनिक खाद डाले उसका पूरा का पूरा उपयोग पौधे अपनी खुराक के रूप में कर लें, इसके लिए आवर्ती फसल चक्र को अपनाया जा सकता है।
आवर्ती फसल चक्र को अपनाने से फसलों में रिक्त पड़े स्थान पर न तो खरपतवार उगते हैं और न ही उन्हें नष्ट करने के लिए रसायन का प्रयोग करना पड़ता है। जैसे मक्के के खेत में लोबिया की खेती करके दो फसली उत्पादन प्राप्त किए जा सकते हैं और मिट्टी में कम उर्वरक का भी प्रयोग करना पड़ता है। इसी तरह अरहर के साथ ज्वार उगाने से उसमें उकठा रोग नहीं लगता।
इस तरह देखा जाए तो मृदा संरक्षण के लिए तत्पर रहने की जिम्मेदारी हर किसान की है। जब तक हम तकनीकी रूप से मृदा संरक्षण को लेकर गंभीर नहीं होंगे, तब तक मिट्टी की उर्वरता प्रभावित होती रहेगी। मिट्टी में अपार संभावनाएं हैं।
हम इसके जरिए हर तरह की फसल प्राप्त कर सकते हैं। विभिन्न राज्यों में मिट्टी की प्रकृति के अनुरूप फसल उगाने के लिए सरकार की अोर से भी प्रयास किया जा रहा है। कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि विभाग की अोर से उचित फसल चक्र अपनाने, मिट्टी जांच कराने और किस तरह से मिट्टी की उर्वरता को बचाया जाए, आदि कार्यक्रम ग्राम पंचायत स्तर पर चलाए जा रहे हैं।
निश्चित रूप से ये सभी कार्यक्रम मृदा संरक्षण की दिशा में मील का पत्थर साबित होंगे। बस जरूरत है, इसमें किसानों और आम लोगों की सहभागिता बढ़ाए जाने की। क्योंकि कोई भी अभियान तभी पूर्ण रूप से सफल हो सकता है, जब इसमें सभी की बराबर की भागीदारी हो।
(लेखक अधिवक्ता हैं और शैक्षणिक संस्था से जुड़े हैं)
ई-मेल:umarfaruqi@gmail.com
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Post By: pankajbagwan