विभिन्न प्रकार के पौधे विभिन्नता लिये हुए भिन्न-भिन्न वातावरण में उत्पन्न होते हैं। किसी भी क्षेत्र विशेष में पाए जाने वाले पादप उस क्षेत्र के अनुकूल अपने को स्थापित कर लेते हैं। पौधों में वातावरण व परिवेश के अनुसार निरूपित अनुकूलन लक्षणों को पादप अनुकूलन कहते हैं। कुछ अनुकूलन लक्षण आनुवंशिक व कुछ लक्षण वातावरण के कारण भी दिखाई देते हैं। विषम आवासीय क्षेत्रों में भी पादप अपना जीवन निर्वाह करते हैं। जल की आवश्यकता एवं उपलब्धता के आधार पर पादपों को तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं :
1. जलोद्भिद (Hydrophytes) - वे पौधे जो जल की अधिकता या जलीय आवासों में पाए जाते हैं।
2. समोद्भिद (Mesophytes) - ऐसे पादप जो उन आवासों में उगते हैं जहाँ जल की सामान्य मात्रा उपलब्ध होती है।
3. मरूद्भिद (Xerophytes) - अत्यधिक शुष्क व मरुस्थलीय आवासों में पाए जाने वाले पादम इनमें जलाभाव को सहन करने की क्षमता होती है।
मरूद्भिद पादप
शुष्क परिस्थितियों में उगने वाले पादपों को मरूद्भिद पादप कहते हैं। जीरोफाइट (Xerophytes) शब्द दो ग्रीक शब्दों से मिलकर बना है ‘Xeric’ का अर्थ है शुष्क तथा ‘Phytus’ का अर्थ है आवास। जीवन-चक्र की अवधि, आकारकीय एवं कार्यिकी अनुकूलन के आधार पर मरूद्भिद पादपों को वैज्ञानिकों ने तीन श्रेणियों में विभेदित किया है।
अल्पकालिक पादप
इस प्रकार के पौधे, जलाभाव या शुष्कता की परिस्थितियों को टालने वाले या जलाभाव से दूर रहने वाले (drought escaping) होते हैं। इस प्रकार के पादप शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों में बहुतायत से पाए जाते हैं। जलाभाव की परिस्थितियों से स्वयं को दूर रखने के लिये इनका जीवन-चक्र बहुत छोटा या अल्पकालिक अर्थात केवल कुछ सप्ताहों से लेकर कुछ महीनों में ही पूरा हो जाता है। ऐसे पौधे वर्षा ऋतु में बरसात के होते ही अपने बीजों द्वारा अंकुरित हो जाते हैं एवं शीघ्र वृद्धि, पुष्पन एवं निषेचन के द्वारा बीज उत्पन्न कर जलाभाव की स्थिति आने से पहले ही मृत हो जाते हैं। ये अल्पकालिक मरूद्भिद प्रायः छोटे आकार के शाकीय पौधे होते हैं, जैसे- मोल्यूगो सरवियाना (Mollugo cerviana), केसिया टोरा (Cassia tora), सोलेनम जेन्थोकार्पम (Solanum xanthocarpum)।
गूदेदार या मांसल पादप
इस वर्ग के पादपों में अपने शरीर में जल संचय करने की अनूठी क्षमता होती है। इन पादपों की कोशिकाओं में पेन्टोसन रसायन (pentosans) की अधिकता होती है, जिस कारण इनकी जल के अणुओं को परिबद्ध करने की क्षमता बढ़ जाती है। प्रायः इन गूदेदार पौधों को मांसल मरूद्भिद भी कहा जाता है। इस श्रेणी में दो प्रकार के पौधे पाए जाते हैं, एक तो वे जिनका स्तम्भ गूदेदार होता है, जैसे- कैक्टस (Cactii), नागफनी (Opuntia) तथा थोर (Euphorbia) इत्यादि तथा दूसरे वे जिनकी पत्तियाँ मांसल (leaf succulents) होती हैं जैसे- एलो (Aloe), ब्रायोफिल्लम (Bryophyllum) एगेव (Agave), युक्का (Yucca) इत्यादि।
अमांसल मरूद्भिद
इस श्रेणी के पौधे ही वास्तविक या सत्य मरूद्भिद पौधे होते हैं जोकि शुष्कता या जलाभाव प्रतिरोधी (drought resistant) कहे जाते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि इनके पादप शरीर में अनेक आकारिकीय एवं कार्यिकीय विशिष्ट अनुकूलन पाए जाते हैं जिस कारण ये दीर्घकाल तक जलाभाव की अवस्था में जीवन-यापन कर सकते हैं। ऐसे पादप प्रायः काष्ठीय एवं बहुवर्षीय, झाड़ियों अथवा वृक्ष स्वभाव के होते हैं। इनमें जड़ें अत्यधिक गहरी, कोशिकाओं में उच्च परासरण दाब तथा वाष्पोत्सर्जन की गति धीमी होती है, जैसे - खीप (Leptadenia pyrotechnica) कैर (Capparis decidua) आक (Calotropic procera), बबूल (Acacia nilotica) एवं बेर (Ziziphus zuzuba) इत्यादि।
आकारिकीय अनुकूलन
1. इनका मूल तंत्र अधिकाधिक जल का अवशोषण करने के लिये अत्यधिक विकसित एवं गहरा होता है।
2. कुछ मरूद्भिदों के तने भूमिगत होते हैं जैसे- ऐलॉय (Aloe), एगेव (Agave) एवं सैकेरम (Saccarum) इत्यादि।
3. कुछ पौधों जैसे-कोकोलोबा एवं रसकस तथा नागफनी में तना रूपान्तरित होकर पत्ती के समान चपटा व हरा हो जाता है, इसे ‘पर्णाभस्तंभ’ (phylloclade) कहते हैं।
4. अनेक पौधों में प्रारम्भ से ही पत्तियाँ विलुप्त हो जाती हैं, बहुत थोड़े समय के लिये दिखाई देती हैं। इस प्रकार के मरूद्भिद पौधों को आशुपाती (Caducous) कहा जाता है, जैसे- लेप्टाडीनिया पाइरोटिक्निका (leptadenia pyrotechnica)। कुछ पौधों जैसे कैर (Capparis decidua) में पत्तियाँ पूर्णतः अनुपस्थित होती हैं। कुछ पौधों जैसे नागफनी में पत्तियाँ रूपान्तरित होकर कुटकों में बदल जाती हैं। उपर्युक्त सभी रूपान्तरण संरचनाएँ इन पौधों में वाष्पोत्सर्जन दर को कम करती हैं।
5. अनेक पौधों की पत्तियों पर मोम व सिलिका का आवरण पाया जाता है, जैसे- कैलोट्रोपिस में। इनकी बाह्य त्वचा कोशिकाओं में यदा-कदा टेनिन एवं गोंद भी पाए जाते हैं।
6. मरूद्भिद पौधों में सामान्यतया पर्ण फलक (Lamina) का आकार छोटा हो जाता है जैसे- खेजड़ी (Prosopis) एवं बबूल (Acacia) में तथा पर्णशिराओं का एक गहरा जाल फैला रहता है। कुछ पौधों जैसे पारकिन्सोनिया (Parkinsonia) के पर्णक अत्यधिक लघु आकृति के होते हैं, लेकिन इनका प्राक्ष (Rachis) चपटा और मोटा होता है। यह पर्णकों को तेज धूप से सुरक्षित रखने का कार्य करता है।
6. कुछ मरूद्भिद पौधों में पत्तियाँ काँटों में रूपान्तरित हो जाती हैं जैसे- यूफोर्बिया की कुछ प्रजातियाँ बेर (Ziziphus), केपेरिस डेसीडुआ (Capparis decidua) एवं खेजड़ी (Prosopis cineraria) इत्यादि।
मरूद्भिद पादपों का पारिस्थितिकीय महत्त्व
रेगिस्तान व शुष्क क्षेत्रों में पादप बहुत कम मात्रा में पाए जाते हैं। यही विरल पादप वहाँ ऑक्सीजन का स्रोत होते हैं। शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले अल्पकालिक पादप वहाँ के मानव व जन्तुओं का जीवन आधार हैं। गूदेदार माँसल पादपों में एकत्रित जल शुष्क क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जानवरों के लिये जल व भोजन का अच्छा स्रोत है। रेतीली भूमि पर लगने वाले वृक्ष खेजड़ी, पीलू, बबूल, बेर की पंक्तियाँ तेज हवाओं को रोकने में सक्षम होती है। खेजड़ी व पीलू की पत्तियाँ ऊँट व भेड़ों का भोजन हैं व इन वृक्षों की छाया आरामगाह होती है। खेजड़ी की गहरी जड़ें व पीलू की फैली पार्श्वीय जड़ें मिट्टी को जोड़े रखने का काम भी करती हैं। बबूल व प्रोसोपिस की जड़ों में पाए जाने वाले राइजोबियम बैक्टीरिया वातावरण की नाइट्रोजन को अवशोषित कर रेतीली भूमि को उपजाऊ बनाने में सहायक होते हैं।
पादप मानव जीवन के लिये उपयोगी मरूद्भिद
1. कैपेरिस (कैर), प्रोसोपिस (खेजड़ी) दोनों को मिलाकर कैर सांगरी का साग राजस्थानी भोजन का हिस्सा है।
2. बबूल, खेजड़ी का गोंद शारीरिक क्षमता के लिये पुष्टिवर्धक के रूप में खाने में काम आता है।
3. एफिड्रा से एफिड्रीन नामक एल्कोलॉइड प्राप्त किये जाते हैं।
4. खेजड़ी, बबूल, बेर, ठण्डाथोर (Eupharbia) सूखे क्षेत्र के आदिवासियों की औषधियों में बहुत उपयोगी होते हैं।
5. लम्बी घास (Sacchram munja) का उपयोग झाड़, कई घरेलू सामान बनाने में किया जाता है।
6. कैक्टस जोकि मरूद्भिद पादपों का अहम हिस्सा है यह सुन्दर आकृति व रंगीन पुष्पों वाले होते हैं जिनका सुन्दर गार्डन बनाने में बहुत योगदान होता है।
सम्पर्क सूत्र :
डॉ. सुलेखा जोशी, राजकीय पीजी कॉलेज, नयापुरा, कोटा 324 007 (राजस्थान)
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