प्राकृतिक तथा मानवीय गतिविधियों में तेजी के कारण उपजाऊ जमीन का मरुस्थल में बदलाव तथा इसकी वजह से पैदावार में कमी पर्यावरण सम्बन्धी एक प्रमुख समस्या बनती जा रही है। इस लेख में समस्या के कारणों का विश्लेषण करने के साथ-साथ इसके समाधान के कुछ सम्भावित उपाय भी सुझाए गए हैं।
मरुस्थलीकरण की परिभाषा के अनुसार यह जमीन के खराब होकर अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिवधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और निर्जल अर्ध-नम इलाकों की जमीन रेगिस्तान में बदल जाती है। इससे जमीन की उत्पादन क्षमता में कमी और ह्रास होता है। एशियाई देशों में मरुस्थलीकरण पर्यावरण सम्बन्धी एक प्रमुख समस्या है। भारत में निर्जल भूमि के अन्तर्गत गर्म जलवायु वाले शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और अर्द्ध-नम क्षेत्र शामिल हैं। इनका कुल क्षेत्रफल 20.3 करोड़ हेक्टेयर यानी कुल भौगोलिक क्षेत्र का 61.9 प्रतिशत है। एक विचित्र बात यह है कि इन क्षेत्रों की जनसंख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। सीमित भूमि तथा जल संसाधनों के बावजूद जमीन की मांग बढ़ रही है। कई नए उद्योग यहाँ खुल रहे हैं जिनसे वातावरण में, जमीन पर और पानी में जहरीले पदार्थ छोड़े जा रहे हैं। इन सब का कुल नतीजा यह हुआ है कि मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया लगातार जारी है। इतना ही नहीं, मौसम की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र में जमीन की उत्पादन क्षमता घट रही है। भारत सरकार के हाल के एक अनुमान के अनुसार देश के कुल भू-क्षेत्र के 32.7 प्रतिशत (करीब 10.74 करोड़ हेक्टेयर) पर जमीन के खराब होने की विभिन्न प्रक्रियाओं का असर पड़ा है। इस पर कारगर नियन्त्रण के लिए गम्भीरतापूर्वक विचार करना आवश्यक हो गया है।
भारत के सन्दर्भ में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया समझने के लिए प्राकृतिक परिवर्तनों तथा मानवीय हस्तक्षेप के कारण मरुस्थलीकरण में आई तेजी के बारे में जानना जरूरी है। केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर ने इस प्रक्रिया को समझने के लिए कुछ अध्ययन किए हैं। दूर-संवेदन तथा क्षेत्रीय अध्ययनों से प्राप्त सूचनाओं से पश्चिमी भारत में मरुस्थल के प्रसार की प्रक्रिया को समझने में मदद मिली है। (फरोडा सिंह, 1997)। यह क्षेत्र दो प्रकार की प्रक्रियाओं से प्रभावित रहा है जिन्हें फ्लूवियल और एइओलियन के नाम से जाना जाता है। लेकिन कुछ अन्य प्रक्रियाओं जैसे समुद्र तटवर्ती इलाकों में फ्लूवियो-मैराइन और व्हेदरिंग का भी यहाँ के भौगोलिक स्वरूप के निर्धारण में हाथ रहा है। कई अन्य छोटी-मोटी भौगोलिक संरचनाओं के निर्माण में भी ये प्रक्रिया भूमिका निभाती रही है। कुछ छोटी तथा हाल में बनी संरचनाएँ मरुस्थलीकरण प्रक्रिया की अच्छी संकेतक हैं।
पानी से कटाव
नदियों से होने वाले जमीन के कटाव ने सौराष्ट्र और कच्छ के ऊपरी इलाकों में काफी बड़े क्षेत्र को प्रभावित किया है। इसी तरह थार मरुस्थल के पूर्वी छोर में जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 350 मि.मी. से 500 मि.मी. तक है, भूमि का काफी कटाव हुआ है। मगर थार के पश्चिमी क्षेत्र में 250 मि.मी. औसत वार्षिक वर्षा वाले इलाकों में इसके बहुत कम उदाहरण देखने को मिलते हैं। (कौर, 1996)। जमीन के कटाव को कई तरीकों जैसे ‘शीट’, ‘दिल’ और ‘गली’ के रूप में देखा जा सकता है। जमीन की अधिक जुताई-बुवाई, पशु-चराने और ईंधन के लिए पेड़ काटने से हाल के दशकों में भूमि का क्षरण तेज हुआ है। लेकिन स्पष्ट आँकड़े न होने से यह कहना कठिन है कि मिट्टी का कटाव मानवीय गतिविधियों से कितना हुआ है और प्राकृतिक कारणों से कितना। कच्छ में कई शताब्दियों से प्राकृतिक कारणों से भू-क्षेत्र ऊपर उठ रहा है। जिससे जमीन की सतह में कई तरह के बदलाव आए हैं और भू-क्षरण बढ़ा है।
हवा से मिट्टी का कटाव
हवा से मिट्टी के कटाव का सबसे बुरा असर थार के रेतीले टीलों और रेत की अन्य संरचनाओं पर पड़ा है। मगर ध्यान से देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पूर्व की रेतीली संरचनाएँ पश्चिम में पाई जाने वाली इसी तरह की संरचनाओं से कहीं अधिक स्थिर हैं। नई रेतीली संरचनाओं की आकृति हवा की रफ्तार और वर्षा की बूँदों के झुकाव पर निर्भर करती है।
पशुओं से खींचे जाने वाले परम्परागत हलों की जगह गहरी जुताई के लिए ट्रैक्टरों के इस्तेमाल से थार मरुस्थल के काफी बड़े भाग में एइओलियन प्रक्रिया कई गुना बढ़ गई है। इससे रेत की गतिशीलता तेज हो जाती है। ईंधन, चारे और चारागाहों में जानवरों को चराने तथा कृषि के लिए कम उपयुक्त रेतीले इलाकों में खेती से भी इसमें वृद्धि हुई है। अरावली पहाड़ियों की तलहटी में मरुस्थल के आर्द्रता वाले पूर्वी इलाके में इस तरह की गतिविधियों से जल से होने वाला भू-क्षरण बढ़ गया है। किसानों को पूर्वी भाग में ‘गली’ संरचनाओं के ऊपर की ओर बढ़ने की तो जानकारी है, मगर वे इस बात पर विश्वास नहीं करते कि उनकी कृषि सम्बन्धी गतिविधियों से यह प्रक्रिया तेज हो जाती है। कई किसानों का मानना है कि फसल काटने के बाद जो अपशिष्ट पदार्थ वे खतों में छोड़ देते हैं उनसे रेत को बाँधे रखने में मदद मिलती है। वे यह भी मानते हैं कि भू-क्षरण से जमीन का जो नुकसान हो रहा है वह धीमी रफ्तार वाली प्राकृतिक प्रक्रिया है।
मरुस्थल के अन्य भागों में किसान यह बात स्वीकार करते हैं कि ट्रैक्टरों के जरिए गहरी जुताई, रेतीले पहाड़ी ढलानों में खेती, काफी समय तक जमीन को खाली छोड़ने और अन्य परम्परागत कृषि प्रणालियों से रेत का प्रसार और जमीन के बिगड़ने की प्रक्रिया तेज होती है। मगर उनके पास बहुत कम विकल्प उपलब्ध हैं। जनसंख्या के दबाव और आर्थिक कारणों से पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।
एक अन्य समस्या
पर्यावरणी सम्बन्धी एक अन्य प्रमुख खतरनाक समस्या जमीन में पानी जमा होने और जमीन में लवणता और क्षारता बढ़ जाने की है। कछारी मैदानों में खारे भूमिगत जल से सिंचाई की वजह से लवणता और क्षारता की जबर्दस्त समस्या उत्पन्न हो गई है। कच्छ और सौराष्ट्र के कछारी तटवर्ती इलाकों में बहुत अधिक मात्रा में भूमिगत जल निकालने से कई स्थानों पर समुद्र का खारा पानी जल स्रोतों में भर गया है। किसानों के पास सिंचाई का और कोई विकल्प मौजूद न होने से वे भूमिगत जल का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं, हालाँकि समुद्र के पानी के मिल जाने से इसकी गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ा है। थार मरुस्थल में इंदिरा गाँधी नहर के कमान क्षेत्र में जमीन में पानी जमा होने और लवणता-क्षारता जैसी समस्याएँ बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं। इंदिरा गाँधी नहर परियोजना के पहले चरण में शामिल इलाके में पानी के जमाव वाला क्षेत्र 1981 में 742 वर्ग कि.मी. था जो 1990 में बढ़कर 1980 वर्ग कि.मी. हो गया। इसका मुख्य कारण यह है कि जमीन के अंदर कुछ गहराई तक रेतीली मिट्टी के बाद जिप्सम और कैल्शियम की अधिकता वाली संरचनाएँ अवरोध की तरह बन जाती हैं। इस तरह की लवणता वाली स्थिति मरुस्थल के दक्षिण-मध्य में छोटे सिंचाई जलाशयों के कमान क्षेत्रों तथा ऐसे क्षेत्रों में भी पाई जाती हैं जहाँ नहरें लवणता की अधिकता वाली प्राचीनकाल की नहरों को काटते हुए गुजरती हैं। वर्षा के पानी के निकासी की गलत व्यवस्था से भी जमीन के खराब होने की प्रक्रिया तेज हुई है। उदाहरण के लिए गंगानगर जिले की नहरों की अधिकता वाली घघ्घर (सरस्वती) नदी की शुष्क घाटी में जमीन में पानी के जमाव की गम्भीर समस्या से निपटने के लिए एक डाइवरजन नहर बनाकर जाखरांवाली और सूरतगढ़ के बीच के आठ उपजाऊ मैदानों को जोड़ा गया। ऐसा इस आशा से किया गया कि एइओलियन रेत फालतू पानी को सोख लेगी। मगर इससे जमीन में पानी के जमाव तथा क्षारता-लवणता की अत्यन्त गम्भीर समस्या पैदा हो गई। आखिरकार उस जमीन और बस्ती को छोड़ना पड़ा जिससे वहाँ रहने वालों को भारी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा।
औद्योगिक कचरा
हाल के वर्षा में राजस्थान के औद्योगिक कचरे से भूमि और जल प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गई है। जोधपुर, पाली और बलोत्रा कस्बों में कपड़ा रंगाई और छपाई उद्योगों से निकले कचरे को नदियों में छोड़े जाने से भू-तलीय और भूमिगत जल प्रदूषित हो गया है। इस तरह के प्रदूषित जल का सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाने से जमीन भी खराब हो गई है। ताजा अनुमानों के अनुसार खराब हुई 34,500 हेक्टेयर भूमि में से 34 प्रतिशत कुछ कम खराब हुई है जबकि 44 प्रतिशत बुरी तरह प्रभावित हुई है। (सिंह और राम, 1997)। उद्योगों से छोड़े गए प्रदूषित पानी का उपचार करके उसे फिर से इस्तेमाल योग्य बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
खनन
पश्चिमी राजस्थान में करीब 20 प्रमुख खनिजों और नौ अन्य खनिजों को निकाला जा रहा है। नब्बे प्रतिशत से अधिक खान मालिकों द्वारा खुली खदान प्रणाली के जरिए खनन कार्य किया जा रहा है। बाकी भूमिगत खानें हैं। खान क्षेत्रों का विस्तार हो रहा है। सन 2000 तक जैसलमेर जिले में 0.05 प्रतिशत और झुंझनू में 1.15 प्रतिशत क्षेत्र खानों के अन्तर्गत आ जाएगा।
सतह की खुली खानों से जमीन के खराब होने का तात्कालिक खतरा उत्पन्न होता है। खनन का कार्य पूरा हो जाने के बाद खान क्षेत्र को वैसे ही छोड़ दिया जाता है। इसे फिर से सही करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए जाते। खेती की जमीन में खनन सम्बन्धी गतिविधियों से उत्पादकता कम हो जाती है। खानें चाहे भूमिगत हों या जमीन के ऊपर, खुदाई और मलबा फेंकने से कृषि योग्य भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है। खनिज प्रसंस्करण सम्बन्धी कार्यों जैसे सीमेंट उद्योग के लिए चूना-पत्थर और चीनी मिट्टी उद्योग के लिए कैल्साइट और खड़िया पत्थर की पिसाई से तीन तरह से दुष्प्रभाव पड़ता है। इससे पैदा हुई धूल वातावरण में फैल जाती है और इसके आस-पास की जमीन में बैठने से पपड़ियाँ बन जाती हैं। नतीजा यह होता है कि पानी का जमीन में अवशोषण कम हो जाता है। और बहाव बढ़ जाता है।
खनन सम्बन्धी गतिविधियों से सतही पानी के बहाव में बाधा उत्पन्न होती है। वनस्पतियाँ समाप्त होने से पेड़-पौधों के जरिए वाष्पीकरण की दर कम हो जाती है जिससे क्षेत्र का जल वैज्ञानिक संतुलन गड़बड़ा जाता है। जल-स्तर में परिवर्तन से लवणता भी बढ़ जाती है। जब जिप्सम, बेन्टोनाइट, फुलर्स अर्थ, चीनी मिट्टी आदि की खानों से निकला मलबा रेतीले मैदान में छोड़ा जाता है तो अर्द्धपारगम्य परत बन जाती है। बरसात में इन इलाकों में बाढ़ आने पर लवणता धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। सोडियम खनिजों की खुदाई सम्बन्धी गतिविधियों से जमीन की सतह पर लवणों की मात्रा बढ़ जाती है जिससे पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ पूरी तरह उजड़ जाते हैं।
वनस्पतियों का विनाश
मरुस्थलीयकरण का सबसे पहला शिकार पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ होती हैं। प्राकृतिक वनस्पतियों का नाश मरुस्थलों के प्रसार का प्रमुख कारण है। जमीन पर बढ़ते दबाव से पेड़-पौधों और वनस्पतियों के ह्रास में खतरनाक वृद्धि हो रही है। गाँवों के आस-पास चरागाहों की जमीन बुरी तरह प्रभावित हुई है क्योंकि उसकी सबसे अधिक उपेक्षा और सबसे ज्यादा दोहन हुआ है। चरागाह वाली बहुत सी अच्छी जमीन को हथिया कर उस पर खेती की जाने लगी है। राजस्थान के मरुस्थलीय इलाके में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि 300 मि.मी. से कम औसत वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छे किस्म की घास तथा वनस्पतियों का ह्रास हो रहा है और यह 7 प्रतिशत से घटकर एक प्रतिशत रह गया है। दूसरी ओर, 300 मि.मी. से अधिक औसत वार्षिक वर्षा वाले इलाकों में वनस्पतियाँ 8 प्रतिशत से घटकर 1-2 प्रतिशत रह गई हैं। अच्छी किस्म के पेड़-पौधों और वनस्पतियों का चुन-चुनकर दोहन किया जाता है जिससे धीरे-धीरे उनका स्थान खराब, बेकार या बहुत धीमी बढ़वार वाली वनस्पतियाँ ले लेती हैं। इससे बायोमास यानी ईंधन, चारे और लकड़ी आदि का उत्पादन काफी घट जाता है। नतीजा यह हुआ है कि चरागाह पशुओं को चराने के लिए पर्याप्त चारा उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं।
इन अध्ययनों तथा बड़े पैमाने पर लिए गए उपग्रह चित्रों और जमीन से ही प्राप्त सूचनाओं के अनुसार राजस्थान में 32 प्रतिशत इलाके पर मरुस्थलीकरण का मामूली असर पड़ा है। 40 प्रतिशत पर इसका थोड़ा बहुत असर पड़ा है जबकि 21 प्रतिशत पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। यह सूचना मरुस्थलीकरण रोकने के तौर तरीके तैयार करने के लिए खास तौर पर एकत्र की गई है।
नियन्त्रण के उपाय
रेतीले टीलों का स्थिरीकरण: राजस्थान के 58 प्रतिशत क्षेत्र में अलग-अलग तरह के रेतीले टीले पाए जाते हैं। इन्हें पुरानी और नई दो श्रेणियों के अन्तर्गत रखा जाता है। बारचन और श्रब कापिस टीले नए टीलों की श्रेणी में आते हैं और सबसे अधिक समस्या वाले हैं। अन्य रेतीले टीले पुरानी श्रेणी के हैं और फिर से सक्रिय होने के विभिन्न चरणों में हैं। केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान ने अब रेतीले टीलों को स्थिर बनाने के लिए उपयुक्त टेक्नोलॉजी विकसित की है जिसमें ये बातें शामिल हैं: (1) जैव-हस्तक्षेप से रेतीले टीलों का संरक्षण; (2) टीलों के आधार से शीर्ष तक समानांतर या शतरंज की बिसात के नमूने पर वायु अवरोधकों का विकास; (3) वायु-अवरोधकों के बीच घास और बेल आदि के बीजों का रोपण तथा 5×5 मीटर के अंतर से नर्सरी में उगाए पौधों का रोपण। इसके लिए सबसे उपयुक्त पेड़ और घास की प्रजातियों में इस्राइली बबूल (प्रासोफिस जूलीफ्लोरा), फोग (कैलीगोनम पोलीगोनोइड्स), मोपने (कोलोफोस्पर्नम मोपने), गुंडी (कोर्डिया मायक्सा), सेवान (लासिउरस सिंडिकस), घामन (सेंक्रस सेटिजेरस) और तुम्बा (साइट्रलस कोलोसिंथिस) शामिल हैं।
रेतीले टीलों वाला 80 प्रतिशत क्षेत्र किसानों के स्वामित्व में है और उस पर बरसात में खेती की जाती है। इस तरह के रेतीले टीलों को स्थिर बनाने की तकनीक एक जैसी है मगर समूचे टीले को पेड़ों से नहीं ढका जाना चाहिए। पेड़ों को पट्टियों की शक्ल में लगाया जाना चाहिए। दो पट्टियों के बीच फसल/घास उगाई जा सकती है। इस विधि को अपनाकर किसान अनाज उगाने के साथ-साथ रेतीले टीलों वाली जमीन को स्थिर बना सकते हैं।
रक्षक पट्टी वृक्षारोपण: रेतीली जमीन और हवा की तेज रफ्तार (जो गर्मियों में 70-80 कि.मी. प्रतिघंटा तक पहुँच जाती है) की वजह से खेती वाले समतल इलाकों में काफी मिट्टी का कटाव होता है। कई बार तो मिट्टी का क्षरण 5 टन प्रति हेक्टेयर तक पहुँच जाता है। अगर हवा के बहाव की दिशा में 3 से 5 कतारों में पेड़ लगाकर रक्षक पट्टियाँ बना दी जाएँ तो मिट्टी का कटाव काफी कम किया जा सकता है।
रक्षक पट्टियों से हवा की रफ्तार 20 से 46 प्रतिशत कम हो जाती है। इससे मिट्टी का कटाव 184 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो जाता है जबकि बिना रक्षक पट्टियों वाले इलाकों में यह 546 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होता है। (गुप्ता, 1997)। बिना रक्षक पट्टियों वाले क्षेत्र के मुकाबले रक्षक पट्टियों वाले क्षेत्र में जमीन में नमी 14 प्रतिशत अधिक होती है और बाजरे का उत्पादन भी 70 प्रतिशत अधिक होता है। ईंधन और चारे की जरूरत रक्षक पट्टियों में लगाए गए पेड़ों की टहनियों को काटकर पूरी की जाती है। इससे पेड़ों के बीच हवा के आने-जाने के लिए रास्ता भी बना रहता है।
विमानों से बीजों की बुवाई
जमीन की रेतीली प्रकृति के कारण उसमें पानी को रोककर रखने की क्षमता बहुत कम होती है। परिणामस्वरूप बीजों की बुवाई दो-तीन दिन में पूरी करना आवश्यक है ताकि उनका अंकुरण हो सके। विशाल दुर्गम इलाकों में नमी की कमी, वर्षा की अनिश्चितता और रेतीली जमीन की अस्थिरता की वजह से वनीकरण की परम्परागत विधियाँ अपर्याप्त हैं। इसलिए विमानों से बीज गिराकर वन लगाने की विधि अपनाई जा सकती है।
यह टेक्नोलाॅजी गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे सूखे की आशंका वाले इलाकों में उपयोग में लाई गई है। विभिन्न पेड़ों और घासों के बीजों को आपस में मिलाकर बरसात से पहले या बरसात के बाद विमानों से गिराकर बो दिया जाता है। मिट्टी और गोबर की खाद के साथ बीजों की गोलियाँ बना ली जाती हैं इस विधि से घास और वृक्षों के बीजों का अंकुरण करीब 70-80 प्रतिशत होता है मगर पशुओं को चराने और नमी की अधिकता के कारण अंकुरित बीजों के मुरझाने की दर काफी अधिक हाती है। एक अध्ययन के अनुसार इन परिस्थितियों में सिर्फ 1-2 प्रतिशत पेड़ जीवित रह पाते हैं। इस विधि को अपनाने से काफी घास उगाने में कामयाबी मिली, मगर बाद के वर्षों में पशुओं को चराने से घास उजड़ गई। इसलिए यह प्रक्रिया 4-5 साल तक लगातार दोहराई जानी चाहिए। इससे अच्छी वर्षा वाले सालों में अच्छी घास उग सकेगी। जैव हस्तक्षेप से भी इलाके की सुरक्षा आवश्यक है।
सिल्विपाश्चर प्रणाली
ईंधन और चारे की जरूरत पूरी करने के लिए पेड़-पौधों तथा वनस्पतियों की अंधाधुंध कटाई से भी मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है। इस पर नियन्त्रण के लिए सिल्विपाश्चर प्रणाली वाला दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है। इससे धूप और हवा से जमीन के कटाव को कम करने तथा उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलती है। इसके अलावा इससे संसाधनों का संरक्षण करके आर्थिक स्थायित्व भी लाया जा सकता है। अगर अकेसिया टार्टिलिस जैसे पेड़ों से 60 कुंतल प्रति हेक्टेयर ईंधन और सी. सिलिआरिस जैसी घास से 46 कुंतल प्रति हेक्टेयर चारा प्राप्त हो सकता है तो दोनों को एक साथ लगाकर 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर ईंधन और 55.8 कुंतल प्रति हेक्टेयर घास प्राप्त की जा सकती है। विभिन्न पारिस्थितिकीय प्रणालियों के लिए अलग-अलग तरह की घास और पेड़ लगाए जा सकते हैं। कुछ उपयोगी पेड़ और झाड़ियाँ इस प्रकार हैं: इस्राइली बबूल (अकेसिया टार्टिलिस), नुबिका (ए.नुबिका), कुंबल (ए. सेनेगल), अंग्रेजी बबूल (प्रोसोफिस जूलीफ्लोरा), अंजन (सेंक्रस सिलिआरिस), मोपने (कोलोफोस्पर्नम मोपने) नूतन (डाइक्रोस्टेचिस नूतन) और लाना (हेलोक्सिलोन सेलिकोमिकम)। ये सभी प्रजातियाँ शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में आसानी से उगाई जा सकती हैं।
कृषि-वैज्ञानिक उपाय
न्यूनतम खुदाई: क्यारियाँ और खेत तैयार करने, जमीन में नमी बनाए रखने तथा खरपतवार पर नियन्त्रण के लिए खेती वाली जमीन की जुताई बहुत जरूरी है लेकिन शुष्क जलवायु वाले इलाकों में ज्यादा जुताई करने से हवा से होने वाले मिट्टी के कटाव का खतरा बढ़ जाता है। इस क्षेत्र के किसान 3-4 साल तक फसल लेने के बाद खेतों की मिट्टी पलट देते हैं ताकि नीचे की उपजाऊ मिट्टी ऊपर आ जाए और अधिक उपज ली जा सके। जिन स्थानों में खेती में उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं होता वहाँ यह तरीका आमतौर पर इस्तेमाल किया जाता है मगर इससे हवा से होने वाले मिट्टी के कटाव को बढ़ावा मिलता है। एक अध्ययन (गुप्ता, 1993) से पता चला है कि मानसून से पहले जमीन की ज्यादा जुताई करने से 5 मि.मी. से अधिक बड़े मिट्टी के ढेलों का प्रतिशत कम हो जाता है जिससे हवा से मिट्टी के कटाव की आशंका काफी बढ़ जाती है। इसके विपरीत कम जुताई करने से ढेलों का आकार सही बना रहता है जिससे हवा से होने वाला कटाव कम हो जाता है। इसलिए संवेदनशील इलाकों में किसानों को गर्मियों के मौसम में खेतों की जुताई न करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पहली वर्षा के बाद जब जमीन में नमी उचित मात्रा में हो, कम जुताई करने से मिट्टी के ढेले बनने में मदद मिलती है। इससे खेत की सतह सपाट नहीं हो पाती और इस तरह हवा से होने वाला मिट्टी का कटाव कम होता है।
विकसित देशों में आजकल ईंधन की किफायत तथा जमीन और नमी के संरक्षण को ध्यान में रखते हुए जुताई की जाने लगी है। लेकिन जुताई किस प्रकार की हो, यह बात जमीन, मौसम और उगाई जाने वाली फसल पर निर्भर करती है। करीब 300 मि.मी. औसत वर्षा वाले रेतीले असिंचित क्षेत्रों में एक डिस्क की जुताई के साथ बुवाई से मूंग, ज्वार और लोबिया की पैदावार बढ़ाई जा सकती है। रेतीली जमीन में जिसमें हवा से होने वाले क्षरण की बहुत अधिक आशंका रहती है, और भी कम जुताई पर्याप्त होगी। (गुप्ता,1993)।
दो फसलों के बीच की अवधि में कटी फसलों की जड़ें और तने हवा से होने वाले मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। अगर इस विधि का ठीक से उपयोग किया जाए तो भू-क्षरण रोकने का यह शानदार उपाय है। उत्तरी अमेरिका में 1910 से कटी फसलों के तनों और जड़ों से भू-क्षरण नियन्त्रण किया जा रहा है। अगर फसलों के कटे तनों को जड़ों समेत खेत में खड़ा रहने दिया जाए तो वे अधिक उपयोगी साबित होते हैं। इसलिए उन्हें जमीन पर गिराया या जानवरों से चराया नहीं जाना चाहिए। 2 से 5 टन प्रति हेक्टेयर फसलों के अवशिष्ट और 45 सेमी. ऊँचाई के बाजरे के डंठल रेतीली जमीन से रेत का उड़ना रोकने में काफी कारगर साबित हुए। इसलिए फसल कटने के बाद खेत में 30-45 सेमी. ऊँचाई के तने छोड़ दिए जाने चाहिए। मोटे अनाज की फसलों की लम्बी ठूँठ उसी मात्रा में छोटी ठूँठ के मुकाबले कहीं अधिक उपयोगी साबित हुई है। जहाँ कटाव का खतरा अधिक हो वहाँ अपेक्षाकृत अधिक अपशिष्ट देने वाली फसलें उगाई जानी चाहिए। मगर शुष्क क्षेत्रों में इस कार्य के लिए फसलों के अपशिष्ट की उपलब्धता आमतौर पर कम ही रहती है। ऐसी स्थिति में बारहमासी खरपतवार को उखाड़ कर उसे खेतों में छोड़ दिया जाना चाहिए।
हवा से मिट्टी का कटाव रोकने के लिए पट्टियाँ बनाकर खेती करना उपयोगी है। इसके अलावा भू-क्षरण के प्रति संवेदनशील तथा इसे रोकने में सक्षम फसलें अदला-बदली करके बोई जानी चाहिए। फसल की पट्टियों को हवा की दिशा के लम्बवत बनाया जाना चाहिए। इस प्रणाली का खास फायदा यह है कि इसमें भू-क्षरण रोकने में सक्षम पट्टियाँ हवा की रफ्तार कम कर देती हैं। वे गतिशील रेत के कणों को रोककर मिट्टी का कटाव नियंत्रित करती हैं। इसलिए हल्की मिट्टी वाली भूमि में कम चौड़ी पट्टियाँ बनाई जानी चाहिए। पट्टियों की चौड़ाई मिट्टी और फसल की किस्म पर निर्भर करती है। अलग-अलग तरह की जमीन के हिसाब से यह 5 मीटर से 30 मीटर तक हो सकती हैं। जोधपुर में केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान के फार्म में लेस्यूरस सिंडिकस और रिसिनस कम्यूनिस जैसी बारहमासी घासों की पट्टियाँ हवा के बहाव की दिशा से समकोण बनाते हुए लगाई गई। इनसे हवा की रफ्तार तथा उसका असर कम करने में मदद मिली। इस तरह मिट्टी का कटाव भी रुक गया। नतीजा यह हुआ कि रक्षक पट्टियों के बीच की जमीन में फसलों के उत्पादन में वृद्धि हुई। बीकानेर में एक अन्य अध्ययन से यह पता चला कि लेस्यूरस सिंडिकस, सेंकस बाइफ्लोरस और पेनिकम टर्गिडम जैसी बारहमासी घास के 18-20 साल तक लगे रहने से रेत का उड़ना पूरी तरह थम गया। घास की वजह से जहाँ हवा की रफ्तार और मिट्टी का कटाव कम हुआ, वहीं जमीन की ऊपरी परत के निर्माण और रेत के कणों को आपस में बाँधने में भी मदद मिली। इस तरह पट्टियाँ बनाकर खेती की जमीन को कटाव से बचाया जा सकता है और बंजर जमीन पर घास उगाई जा सकती है।
सिंचाई के पानी का सही इस्तेमाल: मरुस्थलीकरण को रोकने में सिंचाई की महत्त्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ लगाने तथा उनके विकास में सिंचाई बड़ी उपयोगी साबित होती है। अत्यधिक रेतीले और टीले वाले इलाकों में फसल और पेड़-पौधे तथा वनस्पतियाँ उगाने में सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर प्रणाली का कारगर इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे जहाँ पानी की बचत हुई है वहीं राजस्थान के धुर पश्चिमी इलाकों में लेस्यूरस सिंडिकस घास की पैदावार भी काफी बढ़ गई है। मगर पानी के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से भूमिगत जल-स्तर में वृद्धि होती है और फसलों का उत्पादन घट जाता है।
उत्तरी राजस्थान के नहर वाले कमान क्षेत्र में भूमिगत जल-स्तर में 0.3 से 3.0 मीटर की दर से वृद्धि होने की खबर है। इसका औसत एक मीटर वार्षिक है। दूसरी ओर भूमिगत जल की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। निकट भविष्य में लवणता की गम्भीर समस्या पैदा हो सकती है क्योंकि इस क्षेत्र में जमीन के नीचे अलग-अलग गहराई में बड़ी मात्रा में लवण विद्यमान हैं।
खनन गतिविधियों में नियन्त्रण
इस समय बंद हो चुकी खानें या तो बंजर पड़ी हैं या उन पर बहुत कम वनस्पतियाँ (5 से 8 प्रतिशत) हैं। इन्हें फिर से हरा-भरा करने की जरूरत है। शुष्क जलवायु में होने वाले पेड़-पौधों और वनस्पतियों की कुछ प्रजातियाँ जैसे प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, अकेसिया टार्टिलिस, कोलोफास्पर्नम और डिस्क्रोस्टैचिस इन स्थानों में काफी अच्छी तरह उग सकती हैं। इन्हें बंद हो चुकी खानों की बंजर भूमि को हरा-भरा करने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।
(प्रथम दो लेखक केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर में कार्यरत हैं, डाॅ. ए.एस. फरोडा इस संस्थान के निदेशक हैं।)
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