पिछले कुछ सालों से महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या के मामले में अग्रणी राज्यों में से एक रहा है। इस वर्ष भीषण सूखे के दौर से गुजर रहे किसान अपनी जान देने मजबूर हैं। विदर्भ के बाद अब मराठवाड़ा में किसान खुदकुशी कर रहे हैं। पिछले दो सालों से गम्भीर अकाल से जूझ रहे किसानों की इस वर्ष सूखे ने कमर तोड़ दी है। चारा-पानी के अभाव में मवेशी भी कम हो रहे हैं। गाय, बैल, भैसों की संख्या कम हो रही है।
महाराष्ट्र के मराठवाड़ा का एक गाँव है झरी। यह गाँव पाथरी के पास है। यहाँ एक छोटे घर में चटाई पर महिलाएँ बैठी हैं। वे यहाँ अपने गाँव में चल रहे देशी बीजों के बारे में बताने आई थी।घर के कोने में मिट्टी के छोटे-छोटे मटकों में कई किस्म के रंग-बिरंगी बालियों वाले देशी बीज रखे थे। हालांकि भीषण सूखे के दौर से गुजर रहे इस इलाके में ठीक से फसलें नहीं हो पा रही हैं। फिर भी बीज संरक्षण का काम जितना सम्भव हो किया जा रहा है।
फरवरी के पहले हफ्ते में मैंने मराठवाड़ा के कुछ गाँवों का दौरा किया। वहाँ मैंने नकदी फसलों का भी अवलोकन किया, किसान और खासतौर से महिला किसानों से बातचीत की। परम्परागत खेती के कुछ प्रयासों को भी देखा।
परभणी जिले में देशी बीजों के संरक्षण में लगे बालासाहेब गायकवाड़ ने बताया कि झरी, रेनाखाली, बांदरबाड़ा, इटाली, खोने पीपली आदि गाँव में बीज बैंक बनाए हैं। गायकवाड़ जी ने ही मुझे गाँव घुमाए। यहाँ कई तरह के देशी बीजों का संग्रह किया गया है। इन बीजों का किसानों के बीच आदान-प्रदान किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि उनके संग्रह में ज्वारी की 17, बाजरी की 4, मूंग की 5, सब्जियों की 22 और गेहूँ की 4 किस्में हैं।
पाथरी के झरी गाँव की रंजना धरमी, सुमन भिसे, चन्द्रकला, शान्ताबाई, लता, पारो, शान्ताबाई आदि ने बताया कि ज्वार-मूँग, बाजरी, उड़द, तिल, करड़, अरहर, मटकी के बीज संग्रह में है।
इसके अलावा, गेहूँ, चना, राजगिरी का देशी बीज भी है। इनकी एक से अधिक किस्में भी है।
विटा गाँव की वनमाला काड़वदे ने अपने छोटे खेत में विविध प्रकार की फसलें लगाई हैं। उन्होंने अपने खेत में गेहूँ के साथ कई प्रकार की सब्जियाँ, मुनगा और आम जैसे फलदार पेड़ लगाए हैं।
उनका कहना है कि हम अपने खेत में थोड़ा-थोड़ा सब कुछ उगाते हैं जिससे हमारी भोजन की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। खेती की लागत भी कम होती है, कर्ज भी नहीं लेना पड़ता।
पिछले कुछ सालों से महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या के मामले में अग्रणी राज्यों में से एक रहा है। इस वर्ष भीषण सूखे के दौर से गुजर रहे किसान अपनी जान देने मजबूर हैं। विदर्भ के बाद अब मराठवाड़ा में किसान खुदकुशी कर रहे हैं।
पिछले दो सालों से गम्भीर अकाल से जूझ रहे किसानों की इस वर्ष सूखे ने कमर तोड़ दी है। चारा-पानी के अभाव में मवेशी भी कम हो रहे हैं। गाय, बैल, भैसों की संख्या कम हो रही है।
बीटी कपास, अंगूरए सन्तरे, केले, गन्ना जैसी नकदी फसलों के किसान प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहे हैं। लेकिन साथ ही उन्हें मानव निर्मित आपदा का सामना करना पड़ रहा है।
खेती की लगातार बढ़ती लागतें, खाद बीज की समस्या और नई आर्थिक नीतियों के कारण किसानों का संकट बढ़ते जा रहा है।
किसानों का संकट सिर्फ उसी समय नहीं होता है जब प्राकृतिक आपदा से उनकी फसल चौपट हो जाती है। उनका संकट तब भी होता है जब उनकी फसल अच्छी आती है।
जब किसान की फसल आती है तब उसके दाम कम हो जाते हैं और जब वह बाजार में आ जाती है तो उसके दाम बढ़ जाते हैं। लेकिन इसका लाभ किसान को न मिलकर बिचौलियों को मिलता है।
यह भी देखने में आ रहा है कि जो किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं उनमें सबसे ज्यादा वे हैं जिन्होंने हरित क्रान्ति के साथ आई नकदी फसलों की खेती अपनाई है। परम्परागत और सूखी खेती से आत्महत्या की खबरें कम आती हैं।
किसानों की बढ़ते संकट के मद्देनज़र परम्परागत खेती को बढ़ावा देने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। इसका एक कारण मौसम बदलाव है।
बालासाहेब गायकवाड़ का कहना है कि अब जून में बारिश नहीं होती, जुलाई में होती है। अगर कम बारिश हुई तो बीज अंकुरण नहीं होता। फिर दुबारा से बोउनी करनी होती है। और ज्यादा बारिश हुई तो फसल सड़ जाती है।
लेकिन परम्परागत बीजों में प्रतिकूल मौसम झेलने की क्षमता होती है। देशी बीज ऋतु के प्रभाव से पक कर तैयार हो जाते हैं। पहले कई प्रकार की फसलें एक साथ लगाते थे। इसके साथ पारम्परिक खेती में खाद्य सुरक्षा तो होती थी, मवेशियों को भूसा और चारा भी मिलता था।
विविधता और मिश्रित खेती में खाद्य सुरक्षा के साथ पोषक तत्वों की पूर्ति भी जरूरी है। यानी खाद्य सुरक्षा के साथ पोषण सुरक्षा भी जरूरी है। कम खर्च और कम कर्ज वाली खेती जरूरी है। इन सभी दृष्टियों से उपयोगी और सार्थक देशी बीजों की टिकाऊ खेती है, जो सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं।
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Post By: RuralWater