अर्थशास्त्रियों और जल विशेषज्ञों के अनुसार, महाराष्ट्र में जल संकट सरकार की नीति की विफलता है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर यही हाल रहा है भविष्य में मराठवाड़ा पूरी तरह से बंजर हो जाएगा। प्रो एच.एम. देसार्दा जो अर्थशास्त्री और महाराष्ट्र राज्य योजना बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं। उनका कहना है, यह नीति-निर्माताओं की पारिस्थितिक विफलता है। मराठवाड़ा में किसानों को एक फसल पैटर्न अपनाने के लिए कुछ बड़े वर्ग अपना हित साध रहे हैं। जबकि ऐसा करना इस इलाके के अनुरूप् नहीं है। उन्होंने कहा कि लगातार सरकारों द्वारा जल संसाधनों के बुरे प्रबंधन से पिछले चार दशकों से जल को खनन के साथ जोड़ा गया है। जिसकी वजह से पूरे मराठवाड़ा में ग्राउंड वाटर के स्तर में गिरावट आई है।
प्रो. एच.एम. देसार्दा कहते हैं, मराठवाड़ा के आठ जिलों के 76 तालुकाओं में से 50 में पिछले साल लगभग 300 मिमी. वर्षा हुई। यह प्रति हेक्टेयर तीन मिलियन लीटर पानी में बदल जाता है। यह देखते हुए कि मराठवाड़ा में औसत जनसंख्या घनत्व 300 प्रति वर्ग किमी. है। यह पूरी आबादी के बुनियादी पीने के पानी और घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है लेकिन इसके अलावा सबसे ज्यादा पानी खेती लिए लगता है। जो मराठवाड़ा में खेती के लिए पर्याप्त नहीं है।
इस इलाके में बहुत कम बारिश होती है। जो निश्चित रूप से गंभीर जल संकट की स्थिति को पैदा नहीं करता है। भूजल सर्वेक्षण और विकास एजेंसी के आंकड़ों के अनुसार, मराठवाड़ा के 76 तालुकाओं में से 70 में पानी का स्तर बहुत तेजी से नीचे गिर गया है। इन इलाकों में 25 से भी तालुकाओं में दो मीटर से अधिक की गिरावट दर्ज की गई थी।
शुष्क जलवायु
प्रो. देसर्दा ने बताया कि पिछले कई दशकों में इस इलाके में फसल का पैटर्न काफी बदल गया है। उन्होंने बताया, पहले यहां खेती की जाने वाली मुख्य फसलें अनाज और तिलहन हुआ करती थीं। ये फसलें मराठवाड़ा की शुष्क जलवायु के लिए सिर्फ अनुकूल ही नहीं थीं, बल्कि सूखे की विरोधी थीं और नमी को बनाये रखती थीं। लेकिन अब यहां की प्रमुख फसलें सोयाबीन और कपास हैं, जो मराठवाड़ा की 50 लाख हेक्टेयर खेती करने योग्य भूमि 80 फीसदी से अधिक पर हावी हैं।
जल विशेषज्ञ प्रदीप पुरंदरे ने भविष्य में मराठवाड़ा के लिए एक भयावह परिदृश्य चित्रित किया है जिसमें कहा गया था कि मराठवाड़ा में बंजर होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। औरंगाबाद के जल और भूमि प्रबंधन संस्थान के पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर प्रदीप पुरंदरे ने बताया कि इस इस बुरी स्थिति से बाहर निकलने का एक ही तरीका है, गन्ने की खेती को रोकना। उन्होंने कहा कि 1976 के महाराष्ट्र सिंचाई अधिनियम में एक प्रावधान हैं। जिसमें सरकार लोगों को पानी की ज्यादा खपत वाली फसलों पर रोक लगा सकती है। जिससे पानी की कमी को रोका जा सके।
लाभ के चक्कर में तैयार की गई गन्ने जैसी फसलों ने किसानों और लोगों को इस समय पानी और बिजली के संकट पर लाकर खड़ा कर दिया है। प्रोफेसर देसार्दा ने बताया कि खेती करने योग्य कुल भूमि पर गन्ने की फसल को केवल 4 प्रतिशत भूमि पर उगाया जाता है। गन्ने की ये फसल 80 प्रतिशत पानी पर आधारित है। इसका नतीजा ये है कि आज के मौसम चक्र में थोड़ा सा बदलाव यहां पूरी तरह से जल संकट पैदा हो जाता है।
जल विशेषज्ञ प्रदीप पुरंदरे ने भविष्य में मराठवाड़ा के लिए एक भयावह परिदृश्य चित्रित किया है जिसमें कहा गया था कि मराठवाड़ा में बंजर होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। औरंगाबाद के जल और भूमि प्रबंधन संस्थान के पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर प्रदीप पुरंदरे ने बताया कि इस इस बुरी स्थिति से बाहर निकलने का एक ही तरीका है, गन्ने की खेती को रोकना। उन्होंने कहा कि 1976 के महाराष्ट्र सिंचाई अधिनियम में एक प्रावधान हैं। जिसमें सरकार लोगों को पानी की ज्यादा खपत वाली फसलों पर रोक लगा सकती है। जिससे पानी की कमी को रोका जा सके।
प्रदीर पुरंदरे बताते हैं, किसानों को गन्ने की खेती से दूर करने और सूखे के दौरान अच्छी फसलें जैसे कि तेल और दलहन जैसी की ओर लोगों को जागरूक करने के लिए सरकार कही तरफ से अब तक कोई पहल नहीं की गई है। अक्टूबर में पानी की स्थिति स्पष्ट होने के बावजूद, सरकार की तरफ से उद्योगों के लिए पानी की आपूर्ति को कम करने के लिए भी कोई कदम नहीं उठाया गया है।
सरकार को उनकी जिम्मेदारी और जल संसाधनों के लोगों के लिए अक्टूबर 2014 में प्रदीप पुरंदरे ने महाराष्ट्र राज्य जल संसाधन विनियामक प्राधिकरण अधिनियम की कानूनी रूपरेखा के एकीकृत राज्य जल योजना के काम के बारे में बॉम्बे उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ के समक्ष एक जनहित याचिका दायर की थी। इसके बावजूद अधिकारियों ने कानून को मजबूत करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। इसके अलावा, कटाई के पानी पर भी कोई महत्वपूर्ण प्रयास नहीं किया गया है और न ही भूजल स्तर के बारे में कुछ सोचा गया है।
राजनैतिक फसल
प्रो. देसर्दा के अनुसार, गन्ना एक ‘राजनीतिक फसल’ थी और महाराष्ट्र में एक राजनेता बनने के लिए एक आजमाई हुई विधि थी। यशवंत राव चव्हाण से लेकर शरद पवार तक जैसे बड़े राजनेताओं ने खेती को आधार बनाकर वोट बनाये और उसे बरकरार रखने के लिए गन्ने की फसल को एक शक्तिशाली साधन के रूप में इस्तेमाल किया है। राज्य में 200 से अधिक चीनी कारखाने हैं, जिसमें लगभग 50 मराठवाड़ा में स्थित हैं।
प्रदीप पुरंदरे ने बताया कि मराठवाड़ा में जल संकट होने के बावजूद 46 चीनी कारखाने चालू थे। 1 किलो चीनी का उत्पादन करने के लिए 2,500 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। राजनीतिक वर्ग के लिए तो चीनी फैक्ट्रियों को बनाए रखने के लिए इंसानों और पशुओं के नाम पर पानी निकालने का तरीका है। इन मिलों ने बांधों को पूरी तरह से सूखा दिया है।
तेज पानी की कमी ने जनवरी में ही लातूर जिले के कई हिस्सों को सूखा दिया था। आज भी वही हालात बनी हुई है। 12 दिनों में एक बार लातूर से पानी की आपूर्ति होती है। लातूर की प्यास को कम करने के लिए अधिकारियों और सरकार, मंझारा बांध से संसाधनों को परिवर्तित करते हुए अन्य क्षेत्रों से पानी लाते हैं। जिले का प्रमुख जल स्रोत, जिले की चीनी मिलों के लिए। यह कैसा क्रूर मजाक है? प्रदीप पुरंदर ने कहा कि ये सब लोगों के गुस्से से पहले हुआ जब इस क्षेत्र में लोगों में असंतोष था।
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