जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में 2007 में अन्तर सरकारी पैनल ने तो यह तक कह दिया था कि हिमालय के कई इलाकों में 2035 तक बर्फ पूरी तरह विलुप्त हो जाएगी। बाद में इस भ्रामक दावे के परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिकों को माफी तक माँगनी पड़ी थी। हकीकत तो यह है कि हिमखण्डों और हिमनदों पर वैज्ञानिक शोध-अध्ययन कम ही हुए हैं। बावजूद यह सच है कि औद्योगिक क्रान्ति के बाद से अब तक वातावरण में कार्बन उत्सर्जन बेतहाशा बढ़ा है। अब तक हिमखण्डों के सन्दर्भ में टूटने व पिघलने की जानकारियाँ आती रही हैं। इस कारण प्रलय तक की आशंका जताई जाती रही हैं। किन्तु अब एक नए शोध से पता चला है कि हिमालय के कुछ क्षेत्रों में हिमखण्ड मोटे हो रहे हैं। इन विरोधाभासी अध्ययनों में किसे सही माने, किसे गलत, यह तो हिमखण्ड विज्ञानियों और पर्यावरणविदों के अनुसन्धान व परिक्षण का विषय है, हमारा मकसद तो यहाँ प्रचलित धारणाओं के विरुद्ध एशिया के कुछ हिमखण्डों के मोटे होने की जानकारी देना है। यदि वाकई हिमखण्डों के मोटे होने के अध्ययन सही हैं, तो यह दुनिया के लिये एक सुखद आश्चर्य है।
यह विरोधाभासी स्थिति कराकोरम की पहाड़ियों के हिमखण्डों में देखने में आई है। फ्रांस के वैज्ञानिकों ने उपग्रह के जरिए जो चित्र व जानकारियाँ इकट्ठी की हैं, उनसे सुखद संकेत मिले हैं।
फ्रांस के नेशनल सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च तथा ग्रेनोबल विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों ने कराकोरम पहाड़ियों की सतह के उभार के 10 साल के अन्तराल में लिये गए चित्रों का जब तुलनात्मक अध्ययन किया तो पाया कि पहले की तुलना में आज ये हिमखण्ड ज्यादा मोटे हो गए हैं। जबकि अभी तक हम यही सुनते आये हैं कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है और हिमखण्ड पिघल रहे हैं अर्थात पतले हो रहे हैं। हिमखण्डों के पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है।
फलस्वरूप धरती के तटवर्ती इलाके जलमग्न हो जाने की आशंकाएँ भी जताई जाती रही हैं। इस डूब में मालदीव और बांग्लादेश के आने की आशंका भी प्रकट की गई है। क्योंकि इनकी सतह अन्य देशों की तुलना में बहुत नीचे है।
हिमखण्ड पिघलने की रफ्तार से सम्बन्धित एक अन्य अध्ययन के मुताबिक तिब्बत क्षेत्र के ग्लेशियर बहुत तेजी से एक तो पिघल नहीं रहे और पिघल भी रहे हैं, तो उनके पिघलने की गति, जो गति बताई जा रही है, उससे 10 गुना कम है। बीजिंग के तिब्बती शोध संस्थान के हिमखण्ड विषेशज्ञ याओ तांडोंग ने अपने शोध के निष्कर्ष हाल ही में ‘नेचर क्लाइमेट चेंज नामक शोध पत्रिका में छपे हैं।
तिब्बत का पठार और उसके आस-पास की पर्वत शृंखलाओं को मिलाकर करीब 1 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को तीसरा ध्रुव कहा जाता है। इसमें कराकोरम, पामीर और किलियाँ भी शामिल हैं। यहाँ की बर्फ एशिया के लगभग डेढ़ अरब लोगों को पानी उपलब्ध कराती हैं। यहाँ के हिमखण्डों के पिघलने अथवा उनकी वृद्धि की गणना पर काफी विवाद रहा है।
2012 की शुरुआत में ‘ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट उपग्रह से प्राप्त सात वर्षों के आकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया था कि ऊँचे पर्वतों पर स्थित एशियाई ग्लेशियर बहुत तेजी से नहीं पिघल रहे हैं। कहा गया था कि इनके पिघलने की गति पूर्व में अनुमानित गति से 10 गुना कम है। इस रिपोर्ट में यहाँ तक निष्कर्ष निकाले गए कि तिब्बत के ग्लेशियर में तो वृद्धि हो रही हैं।
याओ तांडोंग के दल ने 7100 हिमखण्डों के क्षेत्रफल में हो रहे परिवर्तनों का विश्लेषण किया है। उनका निष्कर्ष है कि कारकोराम और पामीर के हिमखण्डों की अपेक्षा हिमालय के हिमखण्ड ज्यादा तेजी से संकुचित हो रहे हैं।
इन निष्कर्षों से पता चलता है कि हिमखण्डों पर जलवायु परिवर्तन का असर एक रूप में न होकर भिन्न रूपों में हो रहा है। ऐसा इसलिये है, क्योंकि कुछ हिमालयी हिमखण्ड भारतीय मानसून के प्रभाव क्षेत्र में हैं, तो कुछ यूरोप से आने वाली पछुआ हवाओं से प्रभावित होते हैं। पछुआ हवाओं के प्रभाव क्षेत्र में आने वाले कराकोराम और पामीर में अधिकतम बर्फ जाड़े के दिनों में गिरती है।
यदि तापमान में मामूली वृद्धि हो भी रही है, तो भी ठंड में तापमान इन क्षेत्रों में शून्य से नीचे ही रहता है। नतीजतन इन क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि का बहुत ज्यादा असर बर्फ की मात्रा पर नहीं पड़ता है। दूसरी ओर, हिमालय में बर्फबारी मुख्य रूप से ग्रीष्मकालीन मानसून के दौरान होती है। इस दौरान तापमान में थोड़ी सी वृद्धि बर्फबारी को प्रभावित करती है।
पिछले कुछ वर्षों से जहाँ भारतीय मानसून कमजोर हुआ है, वहीं पछुआ हवाएँ तेज हुई हैं। इस कारण यह आकलन सम्भव है कि कराकोरम और पामीर के हिमखण्ड या तो स्थिर बने हुए हैं, अथवा फैल रहे हैं। इस लिहाज से फ्रांस के नेशनल सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च तथा ग्रेनोबल विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों ने जो कराकोरम पहाड़ियों की सतह पर उपलब्ध हिमखण्डों का अध्ययन कर इनके मोटे होने का आकलन किया है, वह विश्वसनीय है।
इस विपरीत शोध के सामने आने से वैज्ञानिकों के अनुसन्धानों पर भरोसा करना शंका के दायरे में आ गया है। दरअसल जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में 2007 में अन्तर सरकारी पैनल ने तो यह तक कह दिया था कि हिमालय के कई इलाकों में 2035 तक बर्फ पूरी तरह विलुप्त हो जाएगी। बाद में इस भ्रामक दावे के परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिकों को माफी तक माँगनी पड़ी थी।
हकीकत तो यह है कि हिमखण्डों और हिमनदों पर वैज्ञानिक शोध-अध्ययन कम ही हुए हैं। बावजूद यह सच है कि औद्योगिक क्रान्ति के बाद से अब तक वातावरण में कार्बन उत्सर्जन बेतहाशा बढ़ा है। इस कारण कनाडा के पास एल्समीयर द्वीप पर 21वीं सदी के शुरू होने से पहले तक 9000 वर्ग किमी क्षेत्र में बर्फ फैली थी, जो सिमटकर वर्तमान में मात्र 1000 किमी क्षेत्र में रह गई हैं।
इन सब कारणों के चलते वैज्ञानिक अनुभव करने लगे हैं कि हम आधुनिक विकास के जिस रास्ते पर चल रहे हैं, वह हमारे विनाश का कारण भी बन सकता है। आज हमारे पास साँस लेने के लिये न शुद्ध हवा है और न ही निर्मल पेयजल है। आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन से जूझते हुए कम कार्बन पैदा करने वाली अर्थव्यवस्था को खड़ा करने में वैश्विक जीडीपी का मात्र आठ फीसदी खर्चा होगा। 20 विकासशील देशों की ओर से कराए एक अध्ययन के मुताबिक 2030 की बेहद भयावह तस्वीर खींची गई है।
विकासशील देशों की इस रिपोर्ट में 2010 और 2030 में 184 देशों पर जलवायु परिवर्तन के आर्थिक असर का आकलन किया गया है। भारत समेत पूरी दुनिया का तापमान यदि 6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया तो ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत की मानसून प्रणाली बहुत कमजोर पड़ जाएगी। बारिश और जल की कमी होगी सामान्य बारिश की तुलना में 40 से 70 प्रतिशत तक ही बारिश होगी।
दुनिया में 10 करोड़ लोग सिर्फ गर्माती धरती की वजह से मौत के मुँह में समा जाएँगे। वायु प्रदूषण, भूख और बीमारी से हर साल 60 लाख लोगों की मौत होगी। 9 करोड़ लोग परिवर्तित जलवायु की गिरफ्त में आकर प्राण गँवा देंगे। इस भयावह त्रासदी का 90 प्रतिशत संकट विकासशील देशों के गरीब लोगों को झेलना होगा।
बहरहाल हिमखण्ड के पिघलने से प्रलय के जो संकेत दिये जा रहे हैं, उसका खण्डन इस ताजा अध्ययन से होता है। लिहाजा, यदि वाकई हिमालय के कराकोरम क्षेत्र के हिमखण्ड मोटे हो रहे हैं तो न तो भविष्य में एशिया की नदियों की अविरल धारा टूटने वाली है और न ही हिमखण्डों के पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ने की जो आशंकाए जताई जा रही हैं, वैसी स्थिति निर्मित होने वाली है।
ऐसा होता है तो समुद्र की डूब में मालदीव और बांग्लादेश नहीं आएँगे। साथ ही दुनिया के समुद्र तटीय शहर, कस्बे व गाँव भी नहीं डूबेंगे। साफ है विस्थापन की समस्या से लोगों को जूझना नहीं पड़ेगा। इस परिप्रेक्ष्य में अब जरूरत यह है कि फ्रांस के नेशनल सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च तथा ग्रेनोबल विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों ने कराकोरम पहाड़ियों को लेकर जो अध्ययन किया है, उसका और गहराई से अध्ययन करने की आवश्यकता है। यदि नए अध्ययनों से हिमखण्डों के मोटे व विस्तारित होने की पुष्टि होती है तो फिर दुनिया इस भय से मुक्त हो सकती है कि हिमखण्डों के पिघलने व टूटने से दुनिया प्रलय की चपेट में है।
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Post By: RuralWater