मोनेक्स कार्यक्रम में पृथ्वी की ओर जाने वाले सौर विकिरणों तथा पृथ्वी से परावर्तित होने वाले विकिरणों के बीच के संतुलन के बारे में अनेक नई जानकारियाँ प्राप्त हुई। इनके अनुसार भारत के पश्चिमी तट पर मानसून पवनों की प्रबलता और दक्षिणी गोलार्ध में मेस्कारने उच्च दाब की घट-बढ़ के बीच घनिष्ठ संबंध है। जब मेस्कारने उच्च दाब में वृद्धि हो जाती है तब बंगाल की खाड़ी में दाब कम हो जाता है तथा मध्य भारत में मानसून अधिक सक्रिय हो जाता है। मेस्कारने क्षेत्र में दाब कम हो जाने से भारतीय मानसून कमजोर पड़ने लगता है।
मोनेक्स तीन चरणों में आयोजित किया गया (1) शीत मोनेक्स- पहली दिसंबर, 1978 से 5 मार्च, 1979 तक, जिसमें पूर्वी हिंद और प्रशांत महासागरों तथा मलेशिया और इंडोनेशिया के ऊपरी वायुमंडल के अध्ययन किए गए। (2) ग्रीष्म मोनक्स- पहली मई से 31 अगस्त 1979 तक, जिसका क्षेत्र अफ्रीका के पूर्वी तट से बंगाल की खाड़ी तक था। इसमें अरब सागर तथा आसपास के थलीय क्षेत्रों के तथा हिंद महासागर की, 10 (डिग्री) दक्षिण 10 डिग्री उत्तर अक्षांशों के बीच की पट्टी के ऊपर के वायुमंडल के अध्ययन किए गए और (3) पश्चिमी अफ्रीकी मानसून प्रयोग- (डब्ल्यू ए.एम.ई.एक्स.वेमैक्स) पहली मई से 12 अगस्त, 1979 तक। इसके अंतर्गत अफ्रीका के पश्चिमी और मध्य भागों के वायुमंडल के अध्ययन किए गए। इस अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम में अनेक देशों के वैज्ञानिकों, अनुसंधान पोतों और अनुसंधान वायुयानों ने भाग लिया था।उसमें अपसोंडे, डाउनसोंडे और ओमेगासोंडे-जैसे आधुनिकतम उपकरणों तथा दो भूतुल्यकालिक उपग्रहों, ‘गोज इडियन ओशन’ और मेटेओसैट का भरपूर उपयोग किया गया। इसमें भारत के चार अनुसंधान पोतों और एक वायुयान ने भाग लिया था।
भारतीय अनुसंधान पोतों का मुख्य कार्यक्षेत्र भारत भारत के निकटवर्ती इलाकों तक ही सीमित था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत भारतीय वैज्ञानिकों ने ऊपरी वायुमंडल के पवनों के बारे में अध्ययन किए। इन अध्ययनों में गुब्बारों की मदद से ओमेगासोंडे छोड़े गए और नई नौचालन तकनीकों से उनके उड़ान के प्रेक्षण किए गए।
मौसम वैज्ञानिक प्रेक्षणों की रिकार्डिंग के लिए एक भारतीय वायुयान (एवरो-747) का भी उपयोग किया गया।
मोनेक्स कार्यक्रम के दौरान भारतीय मौसम विभाग ने न केवल नए प्रेक्षण केंद्र स्थापित किए वरन उन्हें आधुनिकतम उपकरणों से लैस भी किया। गुब्बारों में छोड़े गए उपकरणों से प्राप्त होने वाले संकेतों को ग्रहण करने हेतु आठ प्रेक्षण केंद्रों का एक नेटवर्क स्थापित किया गया। इसके साथ ही मौसम विज्ञान विभाग, अंतरिक्ष विभाग और राष्ट्रीय दूरसंवेदन एजेंसी ने अनेक उपकरणों का निर्माण भी किया।
इस कार्यक्रम के दौरान अनुसंधान पोतों ने सागर की जलधाराओं और अन्य तत्वों के अध्ययन किए। इनसे मौसम वैज्ञानिकों को सागर और वायुमंडल की अंतःक्रियाओं के बारे में अधिक सही अनुमान लगाने में मदद मिली।
उपलब्धियाँ-मोनेक्स कार्यक्रम में किए गए अध्ययनों और प्रयोगों से अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिली। इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार है।
केन्या (अफ्रीका) के पूर्वी तट पर धरती की सतह के नज़दीक एक, प्रबल जेट प्रवाह बहता है जो भूमध्यरेखा के उत्तर और दक्षिण, दोनों ओर, स्थित है। इसकी तीव्रता में दैनिक परिवर्तन होते रहते हैं। संवहन क्रियाओं के कारण यह रात की अपेक्षा दिन में क्षीण हो जाता है। अध्ययनों में पाया गया है कि इस जेट प्रवाह की तीव्रता में परिवर्तन मोंजाबिक चैनल के महोर्मि (सर्ज) से संबंधित होते हैं। कुछ महोर्मि निम्न दाब प्रणालियों से संबंध होते हैं।
साथ ही उक्त जेट प्रवाह सोमाली, जलधारा और सोमाली तट पर, सागर में होने वाले उत्स्रवण से भी, घनिष्ठ रूप से संबंधित होता है। मानसून (गर्मी की मानसून) की प्रगति के साथ उत्स्रवण का क्षेत्र भी, थोड़ा-सा उत्तर की ओर सरक जाता है।
सोमाली जलधारा के मुख्य प्रवाह में छोटे-छोटे भंवर उपस्थित है। इन भंवरों की गतिविधियों तथा जलधारा पर उनके प्रभावों के अध्ययनों से सागर की सतह पर पवनों के प्रतिबलों को समझने में बहुत सहायता मिली है।
मोनेक्स कार्यक्रम के दौरान पता चला कि जब कभी अरब सागर के उत्तरी भाग में कोई बड़ा प्रतिचक्रवात उपस्थित होता है तब गर्मी मानसूनों के आने से देर हो जाती है।
दक्षिण गोलार्ध की पवन प्रणालियों के फलस्वरूप अफ्रीका के पूर्वी तट के निकट प्रबल वायु प्रवाह उत्पन्न हो जाते हैं। भूमध्यरेखा से उत्तर की ओर जाने वाले ये प्रवाह मानसून को प्रारंभ करते हैं। किसी-किसी वर्ष मानसून के आरंभ होते ही अरब सागर के दक्षिण-पूर्वी भाग में अनेक प्रकार के बड़े भंवर उत्पन्न हो जाते हैं। इन भंवरों के निर्माण के साथ ही वायुमंडल की गतिज ऊर्जा में वृद्धि हो जाती है। यद्यपि हर वर्ष भंवर उत्पन्न नहीं होते पर मानसून के बहना आरंभ करने पर वायुमंडल की गतिज ऊर्जा में अवश्य वृद्धि हो जाती है।
भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र और पश्चिमी एशियाई देशों के सूखे और अर्धसूखे क्षेत्रों के वायुमंडल में धूल की काफी अधिक मात्रा मौजूद रहती है। प्रयोगों में यह पाया गया कि उत्तर भारत के वायुमंडल के एक वर्गमील क्षेत्र में औसतन 5.5 टन बारीक धूल कण छितराए रहते हैं।
मोनेक्स कार्यक्रम में पृथ्वी की ओर जाने वाले सौर विकिरणों तथा पृथ्वी से परावर्तित होने वाले विकिरणों के बीच के संतुलन के बारे में अनेक नई जानकारियाँ प्राप्त हुई। इनके अनुसार भारत के पश्चिमी तट पर मानसून पवनों की प्रबलता और दक्षिणी गोलार्ध में मेस्कारने उच्च दाब की घट-बढ़ के बीच घनिष्ठ संबंध है। जब मेस्कारने उच्च दाब में वृद्धि हो जाती है तब बंगाल की खाड़ी में दाब कम हो जाता है तथा मध्य भारत में मानसून अधिक सक्रिय हो जाता है। मेस्कारने क्षेत्र में दाब कम हो जाने से भारतीय मानसून कमजोर पड़ने लगता है।
Path Alias
/articles/maonaekasa-kaarayakarama
Post By: admin