आज विकसित समाज पानी की समस्या के लिये जब भी नदियों को आपस में जोड़ने की बात चले या फिर बड़े बाँधों की पैरवी हो या अन्य कोई बड़ी संरचना पर विचार किया जा रहा हो, तब बरसों पुराने इन परम्परागत तरीकों पर गौर किया जाए तो ये छोटी-छोटी बंधियाएँ किसी भी बड़े बाँध से ज्यादा वजनदार और ज्यादा कारगर नजर आती हैं।
....रीवा-सीधी मार्ग पर छुहिया घाट के मोड़ से नीचे अद्भुत दृश्य....!सड़क के एक ओर कुछ झोपड़ियाँ, दूर तक फैले हरे-भरे मैदान और इन मैदानों में जहाँ-तहाँ बिखरी नीली-नीली बुंदकियाँ.......!
घाट से नीचे उतरकर बधवार से सीधी जिले में प्रवेश करते ही सड़क के दोनों ओर खेतों में पानी भरा नजर आता है। लगभग हर खेत पानी में डूबा हुआ। यही पानी के खेत घाट से नीली बुंदकियों के रूप में दिखायी पड़ते हैं। बधवार से रामपुर नैकीन पहुँचते-पहुँचते पानी से भरे इन खेतों को देखकर मन में सहज ही सवाल उठता है कि जहाँ-तहाँ इन खेतों में पानी भरकर क्यों रखा गया है? क्या यहाँ पानी की खेती का प्रचलन है? इस सवाल का जवाब देते हैं रामपुर में बाजार करने आये खैरागाँव के लालमन कुशवाह, जो खेतों में पानी दिखायी पड़ रहा है, यह ‘बंधवा’ है।
दो से दस एकड़ ‘अराजी’ (रकबा) में मिट्टी की मेड़ बनाकर पानी रोकने को ‘बंधवा’ कहते हैं। बंधवा के ऊपरी हिस्से में जहाँ चारा उगता है- उसे बोलचाल की भाषा में ‘पाखर’ कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि खेत में क्वार के महीने तक पानी भरा रहेगा तो जमीन के नीचे नमी बनी रहेगी और खेत की मिट्टी सड़ जायेगी, जिससे गेहूँ-चने की फसल अच्छी होगी। क्वार के महीने में खेत में भरे हुए पानी को निकालने के लिए ढलान वाली दिशा से ‘बंधवा’ की मेड़ को फोड़ दिया जाता है, जिसे यहाँ की भाषा में ‘मोघा’ कहा जाता है। ‘मोघा’ से बहकर खेत का पानी बाहर निकल जाता है और बाद में इस खाली खेत में गेहूँ-चने की पैदावार लेते हैं।
सीधी जिले में जल संरक्षण की यह मोघा पद्धति कब विकसित हुई, इसके बारे में ठीक-ठीक बता पाना मुश्किल है। रामपुर नैकिन के सुकीर्ति कुमार नैकीन कहते हैं, “यह तरीका तो हमारे यहाँ पीढ़ियों से चला आ रहा है। तत्कालीन समाज ने अच्छी खेती के लिये पानी खेत में रोककर रखने की यह तकनीक विकसित की थी।” इस इलाके में परम्परागत रूप से प्रचलन में ‘मोघा पद्धति’ सतना जिले में प्रचलित बाँध और बंधिया संरचना के ही समान है। फर्क सिर्फ इतना है कि सतना में बनाये जाने वाले बाँध तुलनात्मक रूप से बड़े होते हैं।
सतना के समान ही यहाँ भी बंधिया बनायी जाती है। बंधिया में दो फसल ली जाती है- धान और गेहूँ की पैदावार। बंधिया से पानी निकालने के लिये यहाँ लकड़ी का एक विशेष यन्त्र बनाया जाता है, जिसे ‘चकवार’ कहते हैं। चकवार की आवश्यकता इसलिए है कि जिस समय पाल काटकर पानी निकालने की आवश्यकता होती है, उस समय पाल की मिट्टी गीली और चिकनी होती है जो कि गेंती-फावड़े या अन्य किसी उपकरण से कट नहीं पाती, इसलिए कुदाली के आकार का लकड़ी का एक यन्त्र चकवार बनाया जाता है।
यहाँ यह भी देखने में आया है कि किसान एक ही अराजी (रकबे) में एकाध बंधवा और छोटी-छोटी बंधिया साथ-साथ बनाते हैं। ऐसा करने का कारण यह है कि क्वार के महीने में जब धान में सिंचाई की जरूरत हो तो बंधवा से पानी छोड़कर सिंचाई की जा सकती है।
‘मोघा’ पद्धति में निर्मित ‘बंधवा’ और ‘बंधिया’ संरचना की पाल को मजबूती प्रदान करने के लिये दो-तीन वर्ष तक अरहर की फसल बोयी जाती है।
बंधवा में मोघा बनाने की तकनीक को देखें तो इसमें मेड़ पर ढलान वाली दिशा में पत्थर या ईंटों को चूने के साथ जोड़कर एक विशेष संरचना निर्मित की जाती है, जिसमें दो या तीन स्तर पर पानी निकालने के लिये गेट बनाये जाते हैं। इन निकासी-द्वारों को पहले पत्थर से बंद किया जाता था, लेकिन आजकल इस निकासी को लकड़ी या लोहे की चद्दर के दरवाजे से बंद किया जाता है।
पूरे महाकौशल और विन्ध्य इलाके में हवेली, बाँध, बंधिया, मोघा अलग-अलग नामों से बनायी जाने वाली ये सभी छोटी-बड़ी जलग्रहण संरचनाएँ सदियों पुराने समाज के ‘जीवित’ होने का प्रमाण है। आज विकसित समाज पानी की समस्या के लिये जब भी नदियों को आपस में जोड़ने की बात चले या फिर बड़े बाँधों की पैरवी हो या अन्य कोई बड़ी संरचना पर विचार किया जा रहा हो, तब बरसों पुराने इन परम्परागत तरीकों पर गौर किया जाए तो ये छोटी-छोटी बंधियाएँ किसी भी बड़े बाँध से ज्यादा वजनदार और ज्यादा कारगर नजर आती हैं। पता नहीं, तेज रफ्तार से भागता यह समाज अपनी पानी की समस्या के हल के लिए इन छोटी-छोटी संरचनाओं को कब स्वीकार कर पायेगा।?
.....शायद आज नहीं तो कल...!!
मध्य प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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