![मोडिस तकनीक से जाना जा सकेगा हिमालय पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/himalaya_1_3.jpg?itok=RjTauRe7)
पृथ्वी पर जीवन के लिए हिमालय अहम है। यहां से निकलने वाली सदानीरा नदियां भूमि को सींचती हैं, जिससे लोगों को अन्न प्राप्त होता है। साथ ही रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं। वहीं मौसम चक्र को बनाए रखने में भी हिमालय का अहम योगदान है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है। ग्लेशियरों और हिमालय की बर्फ तो तेजी से पिघल ही रही है, साथ ही हिमालय में उथल-पुथल भी बढ़ गई है। इससे विश्वभर के वैज्ञानिक और पर्यावरणविद काफी चिंतित हैं तथा समाधान खोजने में लगे हैं, किंतु अभी तक कोई उपयुक्त और सटीक तकनीक न होने के कारण हिमालय क्षेत्र का अध्ययन करने के लिए पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं हो पाते थे। इससेे हिमालय की हर हलचल (ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव, बर्फ पिघलने की दर, जल वाष्प, पारिस्थितिकी आदि) का सटी अनुमान लगाना संभव नहीं हो पाता था, लेकिन ‘मोडिस’ तकनीक से अब ये सब संभव हो सकेगा और शोधकर्ताओं को भी हिमालयी क्षेत्र में होने वाली उथल-पुथल को जानने के लिए मौसम केंद्रों के आंकड़ों पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
हिमालय पर्वतमाला का पश्चिमार्द्ध कश्मीर घाटी से उत्तराखंड तक फैला है, जो कई नदियों का उद्गम स्थल है, लेकिन पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में होने वाली हलचल का अध्ययन करने के लिए मुक्तेश्वर और जोशीमठ स्थित भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के केंद्र पर ही निर्भर रहता पड़ता है। यहां सौ वर्षों का आंकड़ा ही उपलब्ध है, लेकिन मुश्किल परिस्थितियों केंद्रों से आंकड़ें प्राप्त करने में कठिनाई होती है, जबकि अन्य मौसम केंद्र 40 से 50 साल ही पुराने हैं। आंकड़ें समय पर, पर्याप्त या सटीक मिलने पर शोधकर्ताओं को अध्ययन करने में परेशानी का सामना करना पड़ता है। सबसे ज्यादा समस्या तो आर्कटिक जैसे स्थानों के आंकड़ों में आती हैं, जहां परिस्थितियां काफी विषम हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुरा विज्ञान संस्थान (बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पेलिओसाइंसेज, बीएसआइपी) के वैज्ञानिक मयंक शेखर ने स्वीडन विश्वविद्यालय के साथ मिलकर ‘मोडिस’ तकनीक विकसित की है। ‘मोडिस’ (सेटेलाइट माॅडरेट रिजाॅल्यूशन इमेजिनिंग स्पेक्ट्राडायोमीटर) तकनीक की मद्द से हिमालय क्षेत्र की हर हलचल का सटीक अनुमान लगाया जा सकेगा
शोधकर्ता मयंक शेखर ने दैनिक जागरण को बताया कि क्लाउड फ्री डेटा के बिना हिमालयी क्षेत्र का अध्ययन करना संभव नहीं है, इसलिए अध्ययन के लिए क्लाउड फ्री डेटा की जरूरत पड़ती है। इसलिए हमने अपने शोध के लिए काल्पा, काजा, नामगिया, सहित मौसम विभाग के 11 केंद्रों से सात जुलाई वर्ष 2002 से 31 दिसंबर 2009 और 13 दिंसबर 2015 से 30 सितंबर 2019 के बीच का संग्रहित आंकड़ा जुटाकर ‘मोडिस’ के माध्यम से उपग्रहों के आंकड़ों से इसकी तुलना की। शोध में सामने आया कि हिमालय मे हवा और भू-सतह के तापमान में मतबूत संबंध हैं। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि हिमालयी क्षेत्र में होने वाली उथल पुथल को जानने के लिए केवल मौसम विज्ञान केंद्रों के आंकड़ों पर निर्भर रहती की जरूरत नहीं है। साथ ही आर्कटिक जैसे इलाको की भी सटीक जानकारी हासिल की जा सकेगी, जो अध्ययन में लाभकारी सिद्ध होगी।
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