मंगल तुझमें कितना पानी

मंगल पर पानी
मंगल पर पानी

प्रख्यात विज्ञान शोध पत्रिका ‘नेचर जिओसाइंस’ में जब 28 सितम्बर 2015 को 'Spectral evidence for hydrated salts in recurring slope lineae on Mars' शीर्षक शोध पत्र प्रकाशित हुआ तो विज्ञान जगत के साथ-साथ मीडिया जगत में भी हलचल मच गई। तरह-तरह के अनुमान लगाए जाने लगे- ‘अब मंगल पर बसेंगी मानव बस्तियाँ’, ‘पानी है तो मंगल पर जीवन भी अवश्य होगा-बस खोजना भर बाकी है’, इत्यादि, इत्यादि।

निश्चय ही यह एक क्रान्तिकारी खोज है। इस शोध आलेख के प्रथम लेखक पड़ोसी देश नेपाल के एक युवा वैज्ञानिक लुजेंद्र ओझा हैं जिनके सहित सात अन्य वैज्ञानिक थे। लुजेंद्र ओझा अमेरिका के जार्जिया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, अटलांटा में शोध-छात्र हैं।

सरल भाषा और संक्षेप में कहें तो इस शोध में नासा के मार्स रिकॉनिसन्स ऑर्बिटर अभियान के मंगल के कुछ क्षेत्रों के वर्णक्रममापी (स्पेक्ट्रोमीटर) द्वारा प्राप्त परिणामों और उनके विश्लेषण से निकले निष्कर्ष की व्याख्या की गई है। मार्स रिकॉनिसन्स ऑर्बिटर का प्रमोचन 12 अगस्त 2005 को किया गया था तथा यह 10 मार्च 2006 को मंगल की कक्षा में स्थापित हो गया था और नवम्बर 2006 में जाकर इसने अपना वैज्ञानिक अभियान आरम्भ किया।

उन्हें मंगल के कुछ गर्तों की ढलान पर पाई जाने वाली-पानी के बहने से बनने वाली सी संरचनाओं पर पहले से सन्देह था। ये संरचनाएँ आकार-प्रकार में मंगल के मौसम परिवर्तन के साथ-साथ बनती बिगड़ती रहती हैं। इससे पानी के होने की धारणा को और भी ज्यादा बल मिला।

वैज्ञानिकों को चार चुने गए स्थलों पर ढलानों पर जलयुक्त लवणों के होने का वर्णक्रममापी द्वारा किये गए अध्ययन से पता चला। ये लवण थे मैग्नीशियम परक्लोरेट, मैग्नीशियम क्लोरेट। प्रबल धारणा यह बन रही है कि समय-समय पर ये जलयुक्त लवण ढलानों पर पानी के साथ बहकर नीचे जमा हो जाते हैं।

मैं ये पंक्तियाँ आपकी प्रिय इस विज्ञान पत्रिका के लिये लिख ही रहा था कि 9 अक्टूबर को एक समाचार आया- नासा के वैज्ञानिकों ने इसी दिन मंगल पर एक सूख गई झील का पता लगाया जिससे यह साबित हुआ कि कई अरब वर्ष पूर्व मंगल में भी हमारी पृथ्वी की तरह की झीलें हुआ करती थीं जिनमें जल संग्रहीत रहता था। यह नवीन अध्ययन नासा के क्यूरिओसिटी नामक अभियान के भेजे आँकड़ों द्वारा किया गया था। इस खोज की जानकारी साइंस नामक प्रतिष्ठित विज्ञान शोध पत्रिका द्वारा हुई और इसके लेखकों में एक भारतीय मूल के वैज्ञानिक-आश्विन वासवादा का नाम भी अग्रणी है जो हमारे लिये अत्यन्त हर्ष का विषय है।

इस वैज्ञानिक दल ने यह पाया कि मंगल के गेल नामक गर्त के बीच में जो पर्वत जैसी संरचना है- जहाँ लगभग तीन वर्ष पूर्व क्यूरिओसिटी उतरा था कि तली पर इस तरह की मिट्टी मौजूद है जो पानी के सूख जाने पर तलछट के रूप में बचती है। इस तरह की मिट्टी की कई सतहें एक के ऊपर एक चढ़ी हुई हैं। वैज्ञानिकों ने दावा किया है 3.8 से 3.3 अरब वर्ष पूर्व मंगल की झीलों में पास से आकर मिल रहे पानी में उपस्थित मिट्टी धीरे-धीरे नीचे जमती चली गई।

इस खोज पर टिप्पणी करते हुए मंगल अभियान कार्यक्रम के एक प्रमुख वैज्ञानिक माइकल मेयर ने कहा ‘मंगल पर जल की उपस्थिति की हमारी अवधारणा को सदैव चुनौती मिलती रही है। पर अब जाकर यह स्पष्ट हुआ है कि अरबों वर्ष पूर्व के मंगल और हमारी आज की धरती में बहुत साम्य था। हमारे लिये नई चुनौती अब यह है कि इतना लुभावन वातावरण मंगल पर तब भूतकाल में कैसे सम्भव हो पाया था और उस जल-द्रवमय मंगल को बाद में क्या हो गया?’

वर्ष 2012 में क्यूरिओसिटी के अवतरण के बाद बहुत से वैज्ञानिक यही मानने लगे थे कि मिट्टी की ये परतें शायद उस पर निरन्तर चलने वाली धूल भरी आँधियों के कारण जमा हुई होंगी। पर इस खोज ने पूरा परिदृश्य बदल दिया है। सुदूर अतीत का मंगल जल से कैसा ओतप्रोत रहा होगा? अनुमान यह भी लगाया गया है कि झीलों की तली में इतनी मिट्टी के आ जमने में 50 करोड़ वर्ष तक का समय लगा होगा।

भारतीय मूल के वैज्ञानिक आश्विन वासवादा कहते हैं, ‘गेल नामक गर्त के अध्ययन में हमने यह पाया कि तेज बहती जलधाराएँ अतीत में वहाँ तालाबों में मिट्टी और कंकड़ जमा करती गई होंगी।

इस पर आधारित भविष्यवाणी यह थी कि यदि ऐसा सच है तो हमें जमी हुई मिट्टी की तहों के अलावा ऐसे पत्थर भी मिलने चाहिए जो धीरे-धीरे पानी द्वारा लाये गए अति सूक्ष्ण कणों के परस्पर चिपकने से बने हों और उस सूखी झील की तलहटी में हमें यही सब मिल रहा है। इस तरह के पत्थरों का निर्माण तभी सम्भव हो पाता है जब पानी को बहुत लम्बे समय के लिये वहाँ स्तम्भित रहने का अवसर मिला हो। लम्बे यानी करोड़ों वर्षों का समय।’


कैसा विरोधाभास है कि जो कभी झील की तलहटी हुआ करती थी आज उसके मध्य में एक पर्वत विद्यमान है। वैज्ञानिकों को प्रमाण मिले हैं कि पानी के बहाव से उत्पन्न यह तलछट 200 मीटर तक गहरी हो सकती है। इस बात की सम्भावना से वैज्ञानिक इनकार नहीं करते कि इस जमाव में थोड़ा बहुत वायु संचलन से जमा धूल भी समाविष्ट हो। पर एक समस्या है-एक अनुत्तरित प्रश्न है-यदि कभी मंगल पर इतना सारा पानी था- जो झीलों के रूप में तथा बहती नदियों के रूप में था तो तब मंगल पर आज से बहुत अधिक सघन वायुमण्डल और कहीं अधिक उष्ण आबोहवा रही होगी-पर इस बात के अब तक कोई प्रमाण नहीं मिल पाये हैं। यह सुझाव दिया गया है कि ‘गेल’ गर्त में पानी की आपूर्ति को हम आस-पास की पर्वत शृंखलाओं पर हो रही वृष्टि और हिमपात से जोड़कर भी समझ सकते हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने यह भी सुझाया है कि इस गर्त के उत्तर में शायद एक विशालकाय समुद्र कभी रहा होगा। पर समस्या फिर वहीं-की-वहीं आन खड़ी होती है कि इतना सारा पानी इतने लम्बे समय के लिये मंगल के झीने वायुमण्डल में बना कैसे रहा होगा।

मार्स क्यूरिओसिटी रोवर द्वारा चित्रित एक स्थल जहाँ अतीत में जल के होने की पुष्टि हुई हैझीना है कि उसका वायुदाब पृथ्वी की तुलना में 166वाँ हिस्सा है। ऐसे में पानी को वाष्पित होने में देरी नहीं लगेगी-एक महासागर भी कुछ ही वर्षों में वाष्पीभूत हो अन्तरिक्ष में जा विलीन हो जाएगा।

पौराणिक रूप से भारत में मंगल को भौम भी कहा जाता था-यानी भूमि से जन्मा। इसीलिये इसे भूमिपुत्र की संज्ञा भी दी गई है। पर आधुनिक वैज्ञानिक मत इससे भिन्न है-सभी ग्रह उसी विशाल धूल और गैस के बादल से संकुचन से बने थे जिससे पहले सूर्य और फिर बचे-खुचे पदार्थ से ग्रहों का निर्माण हुआ। इस दृष्टि से तो मंगल पृथ्वी का भाई ही ठहरा। पृथ्वी के सबसे निकटवर्ती बाहरी ग्रह पर जब अभी हाल में पानी के पाये जाने की पुष्टि हुई तो प्रसन्नता सभी को हुई पर शायद आश्चर्य किसी को भी न हुआ होगा। पर सच यह है कि मंगल और पृथ्वी में कुछ भी समानताएँ नहीं हैं- केवल असमानताएँ ही हैं। उनमें से एक-वायुदाब-की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।

दूसरी विसंगति है तापमान-जहाँ पूरी पृथ्वी को लें तो इसका औसत तापमान 14 डिग्री सेल्सियस माना जाता है- इसकी तुलना में मंगल कड़कड़ाते -63 डिग्री सेल्सियस का है। गुरुत्व भी बहुत कम है। इसे यूँ समझिए कि यदि पृथ्वी पर आपका भार 100 किलोग्राम है तो मंगल पर जाने पर आपको अनुभव होगा कि आप मात्र 38 किलोग्राम वजन के हैं। वायुमण्डल को अपने से बाँधे-अपने से समेटे-रखने के लिये-गुरुत्व बल की आवश्यकता पड़ती है। शायद कभी मंगल और पृथ्वी में एक जैसा पानी रहा होगा-पर कम गुरुत्व और कम वायुदाब के कारण मंगल ने इसे खो दिया होगा।

अब वहाँ बचे-खुचे पानी को बनाए रखने में उसकी एक विषमता ही उसकी सहायता कर रही है- अति कम तापमान-जिसके कारण पानी बिना वाष्पित हुए हिम के रूप में अपना अस्तित्व लम्बे समय तक बनाए रख सकता है। मंगल के गुरुत्व के कम होने का दारोमदार उसकी संहति और त्रिज्या से है। मंगल की संहति जहाँ पृथ्वी की 11 प्रतिशत है वहीं इसकी त्रिज्या पृथ्वी की लगभग आधी है। इस कारण मंगल का आयतन पृथ्वी के आयतन का 15 प्रतिशत और घनत्व 71 प्रतिशत है। पृथ्वी और मंगल में एक और बड़ी असमानता है दोनों का वायुमण्डल।

पृथ्वी के वायुमण्डल का 78.08 प्रतिशत नाइट्रोजन, 20.95 प्रतिशत ऑक्सीजन और शेष लगभग 1 प्रतिशत में है अधिकांश जलवाष्प एवं अल्प मात्राओं में अन्य गैसें जैसे ऑर्गन, कार्बन डाइऑक्साइड, निओन, हीलियम, मिथेन, क्रिप्टन और हाइड्रोजन। पर मंगल का वायुमंडल एकदम भिन्न है, वहाँ कार्बन डाइऑक्साइड 95.3 प्रतिशत या नाइट्रोजन 2.7 प्रतिशत, ऑर्गन 1.6 प्रतिशत, ऑक्सीजन 0.13 प्रतिशत तथा कार्बन मोनोऑक्साइड 0.08 प्रतिशत उपस्थित है। पृथ्वी की ही तरह मंगल पर भी ध्रुवीय बर्फ दिखाई देती है पर वो हिमीकृत जल नहीं बल्कि जमी हुई कार्बन डाइऑक्साइड है जिसका वहाँ बाहुल्य है। जलवाष्प का प्रतिशत मंगल पर पृथ्वी के 1 प्रतिशत की तुलना में बहुत नगण्य है दस लाख में बस 210 अणु (210 पी.पी.एम.)।

मार्स क्यूरिओसिटी रोवर द्वारा चित्रित एक अन्य स्थल जहाँ अतीत में जल के होने की पुष्टि हुई हैमार्स रिकॉनिसन्स ऑर्बिटर और क्यूरिओसिटी से अभी हाल में प्राप्त पानी के मिलने की जानकारी की हमने चर्चा की-पर हम इस नव उत्साह में शायद यह भूल गए हैं कि मंगल पर जल के पाये जाने की अटकलें उतनी ही पुरानी हैं जितना कि इस लाल ग्रह की ओर भेजे गए अभियानों का इतिहास। कुछ ही वर्ष पूर्व सन 2010 में मार्स आपर्चुनिटी रोवर द्वारा वैज्ञानिकों को लगभग 45 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में मंगल की जमीन पर क्लोराइड लवणों की परतें मिलीं- ये किसी ऊँचे स्थल पर मिलते तो इन्हें मंगल की मूल बनावट माना जा सकता था-पर ये लवण पाये गए मात्र निचले स्थानों पर। पृथ्वी पर जब कोई तालाब सूखता है तो उसकी तलहटी के सबसे निचले हिस्से पर हमें क्लोराइड लवणों का जमाव मिलता है। इन दोनों बातों की तुलना कर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कभी मंगल पर विशाल जलाशय रहा होगा जो अब सूख चुका है।

सवाल यह उठता है कि लवण भण्डार कब बना होगा इसका आकलन कैसे किया जाये? इस समय हम मंगल पर 600 से अधिक लवण भण्डार खोज चुके हैं। इसके लिये वैज्ञानिक एक विलक्षण तरीका अपनाते हैं जो हमने चन्द्रमा पर जाने के बाद सीखा।

अपोलो अभियानों के चंद्रयात्री अपने साथ ढेर सारे चंद्र पत्थर लाये थे- जिनका विविध रूप से विश्लेषण किया गया था। रासायनिक संरचना जानने के साथ-साथ यह भी खोजा गया कि कौन सा पत्थर कितनी आयु का है। वह पत्थर चन्द्रमा के किस हिस्से से लाया गया था और उस क्षेत्र पर प्रति इकाई क्षेत्र में कितने (उल्कापात से बने) गर्त थे। जब इन बातों में सम्बन्ध खोजा गया तो पता चला कि जहाँ जितने ज्यादा गर्त मिलते हैं वहाँ की चट्टानों की आयु भी उतनी अधिक होती है।

आमतौर पर अब उल्कापात के कारण पृथ्वी पर गर्त नहीं बनते क्योंकि हमारे चौतरफा एक घना वायुमण्डल है जिसका पाँचवाँ हिस्सा ऑक्सीजन है- इसलिये अधिकांश उल्काएँ पृथ्वी पर आ टकराने से पहले ही वायुमण्डल में ही भस्म हो जाती हैं। पर चन्द्रमा पर ऐसा नहीं है। वहाँ वायुमण्डल नहीं है और मंगल पर वायुमण्डल बहुत झीना है और उसमें भस्म करने की क्षमता वाला अवयव-ऑक्सीजन लगभग लुप्त सा है। इस कारण हम कह सकते हैं कि उल्कापात के कारण मंगल पर प्रति वर्ग क्षेत्र में उतने ही गर्त बनते होंगे जितने कि चन्द्रमा पर।

इस तरह मंगल के लवण भण्डारों पर गर्तों की गिनती कर उनकी आयु का आकलन किया जाता है। थोड़ी समस्या उत्पन्न होती है क्योंकि इन लवण वाले क्षेत्रों के बहुसंख्यक होते हुए भी उनके आकार छोटे हैं। इससे आयु के सही आकलन में बाधा आती है। पर वैज्ञानिक कहाँ हार मानने वाले! उन्होंने भूविज्ञान के एक चिर सिद्धान्त का सहारा लिया जिसके अनुसार यदि दो सतही संरचनाएँ (जैसे कोई घाटी और नदी के बहाव से उत्पन्न कटाव) परस्पर काटती हों तो नदी से बना कटाव आयु में कनिष्ठ अथवा घाटी की आयु के तुल्य होगा। इस प्रकार तुलना द्वारा पहले उस कटाव की आयु ज्ञात की गई और फिर उस सूखे जलाशय की जिसे जल धारा ने खाली कर दिया था। इस प्रकार यह पाया गया कि उक्त सूखा जलाशय जहाँ मार्स आपर्चुनिटी रोवर उतरा था 3.6 अरब वर्ष से कम पुराना होगा। इसमें दुविधा यह आती है कि बहते पानी के होने के लिये तापमान अधिक होना चाहिए।

मार्स रिकॉनिसन्स ऑर्बिटरआज मंगल का औसत तापमान -63 डिग्री सेल्सियस पर अपने निर्माण के बाद धीरे-धीरे ठंडे होने की प्रक्रियानुसार आकलन किया जा सकता है कि पहले यह आज की तुलना में बहुत गर्म रहा होगा। पर 3.6 अरब वर्ष कुछ कम पीछे ले जाता है। ऐसा अनुकूल तापमान तो उसके लगभग एक करोड़ वर्ष पहले हुआ करता होगा। पर सार्वभौमिक (सार्वमंगल) रूप से ऐसा होना अत्यावश्यक नहीं है। बहुत सी बातें केवल स्थानीय भी हो सकती हैं। उदाहरणस्वरूप, किसी क्षेत्र में ज्वालामुखी के विस्फोट से केवल विशुद्ध स्थानीय रूप से तापमान शेष ग्रह की तुलना में अधिक भी तो रह सकता है जो जल को द्रव रूप में वहाँ रख सके।

लवणों की परत की मोटाई को माप कर यह अनुमान लगाया गया कि इतने लवण से युक्त झील का पानी कितना नमकीन रहा होगा। पता चला कि उसमें नमक की सान्द्रता मात्र उतनी थी जितनी कि पृथ्वी की झीलों में आज पाई जाती है।

हाँ, एक बात तो हम बताना भूल ही गए- ये क्लोराइड लवण वही हैं जिनमें से एक हमारे आहार का हिस्सा है- सोडियम क्लोराइड- यानी साधारण नमक। दूसरा है पोटैशियम क्लोराइड जिसे भी आजकल ‘लो सोडियम सॉल्ट’ में साधारण नमक के साथ अल्प मात्रा में मिलाया जाता है।

अब हम एक अटकल और लगा सकते हैं- यदि बहुत-बहुत पहले मंगल में तापमान अधिक था और वहाँ की झीलों में लवणों की सान्द्रता ठीक वैसी थी जैसी कि पृथ्वी पर आज है तो क्यों न समान रासायनिक गुणों वाले उस जल में भी पृथ्वी की ही तरह बैक्टीरिया पनपे हों। पर पानी का नमकीन होना जीवन के पनपने के लिये एकमात्र शर्त नहीं है।

बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि उस पानी की अम्लता (एसिडिटी) कैसी थी। पर इन शोधों में इस पर विशेष कार्य नहीं हुआ था- पर यह भी सच है कि झील की तलहटी में केवल ऐसे अवयव मिले जो पानी को अम्लीय तो नहीं बल्कि हल्का क्षारीय बना सकते थे। इसलिये सुरक्षित रूप से कहा जा सकता है कि इन झीलों में सम्भवतः जीवन पनपा हो। खोज का अगला विषय होगा मंगल पर ऐसे क्षेत्रों के नमूने पृथ्वी पर लाना और देखना कि उनमें कोई पुरा-जीवावशेष मिलते हैं अपितु नहीं। आज हमें यह नहीं पता पर हम जान गए हैं कि वह दिन भी बहुत दूर नहीं है।

अब अपने यक्ष प्रश्न पर आते हैं-कि मंगल पर आखिर कुल कितना पानी है?

सन 1971 में भेजे गए मैरिनर -9 अभियान से लेकर विगत वर्ष के ‘मावेन’ अभियान तक-कुल एक दर्जन प्रमुख अभियान मंगल पर भेजे गए-जिनमें से वाइकिंग, मार्स पाथफाइंडर अधिक प्रसिद्धि पाये। सभी ने अपने-अपने तौर पर मंगल में अतीत में हुए जल प्रवाह के संकेत हमें दिये। कुल कितना जल है- इसका उत्तर एकदम सरल नहीं है। द्रव रूप में तो अब शायद कहीं भी नहीं- जितना भी पानी है वो हिम के रूप में है या स्थायी-तुषार (पर्माफ्रॉस्ट) यानी पाले के रूप में।

मार्स क्यूरिओसिटी रोवरमंगल की दो ध्रुवीय टोपियों में से उत्तर वाली की जमी हुई कार्बन डाइऑक्साइड में भी पानी की बर्फ मिश्रित पाई गई है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि बहुत सा पानी मंगल में उसकी सतह के नीचे भी छिपा होगा। कुल मिलाकर यह आँका गया है कि लाल ग्रह पर 50 लाख घन किलोमीटर जल (हिम) होगा। यदि इसे समान रूप से मंगल पर फैला दिया जाये तो ग्रह पर 35 मीटर मोटी बर्फ की चादर बन जाएगी! एक शिक्षा भी इन खोजों से मिलती है। पृथ्वी मंगल जैसी नहीं है पर जीवन से ओतप्रोत है। हम अपनी हरकतों से पर्यावरण के साथ निरन्तर छेड़-छाड़ कर कहीं उसे मंगल न बना दें- इसमें सबका अमंगल ही निहित है।

मंगल पर शोध में सन्नद्ध एक प्रमुख वैज्ञानिक जॉन ग्रोत्जिन्गर ने इस सब पर एक दार्शनिक वक्तव्य अभी हाल में दिया- हम यह समझते आये थे कि मंगल बहुत सरल संसार है- ठीक वैसे ही जैसे हम एक समय पृथ्वी के लिये सोचते थे। पर अब जब हम अपनी गहन दृष्टि मंगल पर डाल रहे हैं तो नए-नए प्रश्न उठ खड़े हो रहे हैं-क्योंकि अब जाकर हमने मंगल की वास्तविक जटिलताओं को समझने की बस शुरुआत भर की है। शायद यही वह ठीक समय है हम अपनी पुरानी मान्यताओं का पुनर्मूल्यांकन करें। कहीं तो कुछ गड़बड़ अवश्य है।

पीयूष पाण्डेय (पूर्व में प्रशासक, आनन्द भवन, इलाहाबाद; निदेशक, नेहरू प्लैनेटेरियम, मुम्बई) ई 3-401, प्रोविडेंट वेल्वर्थ सिटी, मारासान्ड्रा, बंगलुरु-562163

ई-मेल: bokia@yahoo.com



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