मीथेन की प्राप्ति जैविक प्रक्रियाओं से अधिक तथा अजैविक प्रक्रियाओं से कम होती है। मीथेन का बहुत छोटा सा भाग जमीन में दबे हुए या अपघटित पौधों के ऐसे अविलय हिस्सों से भी निकलता है जो केरोजन नामक पदार्थ में तब्दील हो जाते हैं, यही केरोजन जब उष्णता के कारण टूट जाते हैं तो मीथेन गैस पैदा करते हैं, इसके साथ अन्य हाइड्रोकार्बन जैसे-इथेन (C₂H₆), प्रोपेन (C₃H₈,) तथा ब्यूटेन (C₄H₁₀) भी पैदा होते हैं। काफी मीथेन 'अवायवीय जीवाणुओं (Anaerobic microbes) से भी निकलती है, जिसे 'मीथेनाजंस' कहते हैं। कुछ मीथेनाजंस को 'एक्सट्रीमोफाइल्स' भी कहते हैं क्योंकि यह तभी विकसित होती है जब अति अम्लीयता, क्षारियता या लवणता की स्थितियां हो, जो कि किसी भी प्रकार के जीवन के लिए खतरनाक ढंग से असहय मानी जाती है।
मंगल पर मीथेन की उपस्थिति पिछले कुछ वर्षों के दौरान वैज्ञानिकों द्वारा किये गये अध्ययनों में मंगल ग्रह पर मीथेन गैस के कुछ प्रमाण मिले हैं, मगर अभी यह पता लगाना बाकी है कि मंगल पर मीथेन कितनी मात्रा में है और वह किन स्रोतों से तथा कैसे उत्पन्न होती है? नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा मीथेन की खोज लाल ग्रह पर जीवन की संभावनाओं की कड़ी को जोड़ती है। नासा तथा यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा मंगल पर भेजे गये स्पिरिट, अपॉरच्युनिटी, फोनिक्स, एमआओ तथा क्यूरिओसिटी मिशनों द्वारा भेजे गये आंकड़ों के विश्लेषण के बाद वैज्ञानिकों ने मंगल पर मीथेन की उपस्थिति की पुष्टि की है। गौरतलब है कि पृथ्वी पर मौजूद मीथेन 90% जीवधारियों से तथा शेष भू-रासायनिक रूप से प्राप्त होती है, मगर मंगल पर जीवधारियों की उपस्थिति को अभी वैज्ञानिक नकारते आ रहे हैं तो सवाल यह उठता है कि वहां मीथेन गैस की उत्पत्ति का स्रोत क्या है? यद्यपि मीथेन के अणु सूर्य की पराबैंगनी किरणों के कारण गायब हो जाते हैं मगर मंगल पर मीथेन होने का अर्थ है कि वहां मीथेन की उत्पत्ति ताजा-ताजा ही हुई है। दरअसल खगोल जीव विज्ञानियों की मीथेन में इसलिए भी ज्यादा दिलचस्पी है क्योंकि पृथ्वी पर जीवधारी पोषक पदार्थों को पचाकर ज्यादातर मीथेन मुक्त करते हैं। ज्वालामुखी तथा सूक्ष्मजीवों द्वारा भी मीथेन पैदा की जाती है। हाइड्रोजन (H2) कार्बनडाई आक्साइड (CO2) से मीथेन (CH) बनाने वाले सूक्ष्म जीव प्रारंभिक जीवधारियों में से हैं। इसके अलावा कुछ भू-वैज्ञानिक प्रक्रियाओं (जैसे-लोहे का ऑक्सीकरण) से भी मीथेन गैस बनती है अतः मंगल पर उक्त प्रक्रियाओं में से किसी एक या किसी अन्य प्रक्रिया द्वारा मीथेन की उत्पत्ति की संभावनाएं जतायी जाती रही हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि मीथेन की प्राप्ति जैविक प्रक्रियाओं से अधिक तथा अजैविक प्रक्रियाओं से कम होती है। मीथेन का बहुत छोटा साभाग जमीन में दबे हुए या अपघटित पौधों के ऐसे अविलय हिस्सों से भी निकलता है जो केरोजन नामक पदार्थ में तब्दील हो जाते हैं, यही केरोजन जब उष्णता के कारण टूट जाते हैं तो मीथेन गैस पैदा करते हैं, इसके साथ अन्य हाइड्रोकार्बन जैसे-इथेन (C₂H₆ ), प्रोपेन (C₃H₈ ) तथा ब्यूटेन (C₄H₁₀.) भी पैदा होते हैं। काफी मीथेन 'अवायवीय जीवाणुओं (Anaerobic microbes) से भी निकलती है, जिसे 'मीथेनाजंस' कहते हैं। कुछ मीथेनाजंस को 'एक्सट्रीमोफाइल्स' भी कहते हैं क्योंकि यह तभी विकसित होती है जब अति अम्लीयता, क्षारियता या लवणता की स्थितियां हों, जो कि किसी भी प्रकारके जीवन के लिए खतरनाक ढंग से असहय मानी जाती है। ये मीथेनाजंस उच्च तथा निम्न तापों पर भी जीवित रह सकते हैं उदाहरण के लिए 'मीथेनाजंस कांडलेरी 80 से 100 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी जीवित रह सकते हैं वहीं कुछ प्रकार के मीथेनाजंस ऐसे भी हैं जो शून्य डिग्री सेल्सियस से भी कहीं नीचे के तापमान पर भी जीवित रह सकते हैं। 'कॉरनेल यूनिवर्सिटी' (न्यूयॉर्क) के अणु जीवविज्ञानी 'स्टीफन जिंडर' के अनुसार पृथ्वी पर मीथेनाजंस की बहुतायत है, ऐसी कोई भी जगह जहां ऑक्सीजन कम होती है वहां इनके पाए जाने की सर्वाधिक संभावना होती है, यहां तक कि हमारे शरीर की जठरांत्र ग्रोथ, मिट्टी या गहरे अंधेरे स्थानों में भी ये पाये जाते हैं, गीली जमीन में रहने वाले मीथेनाजंस पृथ्वी पर करीब 20% मीथेन पैदा करते हैं, इसी प्रकार गाय, भैंस सहित तमाम जुगाली करने वाले पशुओं की आतों में रहने वाले मिथेनाजंस भी तकरीबन 20% मीथेन का उत्सर्जन करते हैं,इसी प्रकार गाय, भैंस सहित तमाम जुगाली करने वाले पशुओं की आतों में रहने वाले मिथेनाजंस भी तकरीबन 20% मीथेन का उत्सर्जन करते हैं, दीमकों के जीवाणु तथा इसी प्रकार के सूक्ष्मजीव तकरीबन 15% मीथेन तथा धान के खेत करीब 10% मीथेन पैदा करते हैं। मीथेन के अन्य स्रोत प्राकृतिक गैस तथा जैव ईंधन का जलना भी है।
पृथ्वी पर बर्फ से जमी हुई भूमि के नीचे भी मीथेन का काफी बड़ा भंडार मौजूद है, पृथ्वी पर मिलने वाला इस प्रकार का 'मीथेन हाइड्रेट' के भंडार को 'मीथेन क्लेथरेट कहा जाता है। सवाल यह उठता है कि क्या मंगल पर भी इस प्रकार के 'मीथेन हाइड्रेट' ( मीथेन कलेथरेट) या मीथेनाजंस जैसे जीवाणु हो सकते हैं? नासा के 'एमेस रिसर्च सेंटर में कार्यरत विज्ञानी 'कैरॉल स्टोकर' व 'लैरी लेम्के' ने वर्ष 2006 में दावा किया था कि मंगल की सतह के नीचे मीथेन गैस का सक्रिय बायोस्फीयर हो सकता है, कुछ अन्य विज्ञानियों द्वारा भी मंगल पर मीथेन तथा फॉर्मल्डिहाइड की उपस्थिति की संभावना जतायी जा चुकी है। इसी प्रकार 2009 में 'माइकल जे. मम्मा' के नेतृत्व में नासा और कुछ विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों के दल ने वायुमंडल में बड़ी मात्रा में मीथेन गैस के फैलाव का पता लगाया है, वैज्ञानिकों के दल ने मंगल पर मीथेन तथा जलवाष्प का साथ-साथ अध्ययन करने के बाद यह बात बतायी है, यह 'अध्ययन 'हवाई द्वीप' के 'मौनाके' पर स्थित नासा के इंफ्रारेड टेलीस्कोप "फैसिलिटी" तथा डब्ल्यू. एम. कीक टेलीस्कोप के जरिये किया गया, इन टेलिस्कोपों में 'हाइ'डिस्पर्सन' इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटरों को इस्तेमाल किया गया है, उक्त शोधकर्ताओं को मंगल के विस्तृत बादलों में मीथेन गैस की उपस्थिति के संकेत मिले हैं।
सवाल यह है कि अगर मंगल पर अति सूक्ष्म जीव ( मीथेनाजंस या अन्य ) मीथेन गैस बना रहे हैं तो इस बात की अधिक संभावना है कि वे इस ग्रह की सतह से बहुत नीचे गहराईयों में पाये जाते होंगे, जहां अब भी इतनी गर्मी है। कि पानी द्रव अवस्था में रह सके। कम गुरुत्वाकर्षण के कारण मंगल पर वायुमंडल इतना पतला है कि वहां सतह पर पानी या अन्य कोई यौगिक तरल अवस्था में टिक ही नहीं सकता। जीवन के अभी तक ज्ञात सभी रूपों में द्रव रूप में जल, ऊर्जा के स्रोतों, लवणों तथा कार्बन की आवश्यकता होती है, पृथ्वी पर सतह से नीचे 3 किमी. की गहराई तक सूक्ष्म जीवों के पनपने का पता चला है, इतनी गहराई पर प्राकृतिक रेडियोएक्टिवता की वजह से जल के अणु आणविक हाइड्रोजन का इस्तेमाल करते हैं, कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसे सूक्ष्म जीवाणु मंगल की बर्फीली चादरों (परमाफ्रॉस्ट) के 2-3 किमी. नीचे (जहां बर्फ पानी का द्रव रूप ले लेती है) भी लाखों-करोड़ों वर्षों से मौजूद हो सकते हैं। 27 मार्च 2009 को 'नेचर पत्रिका' में प्रकाशित एक रिर्पोर्ट के मुताबिक मंगल पर एक 'सर्पेटाइन' नामक मीथेन उत्पादक खनिज का पता चला है, यह पता 'ब्राउन विश्वविद्यालय के शोध छात्र 'बेथानी एल्मान' ने लगाया है, उन्होंने इस शोधकार्य के लिए 10 अगस्त 2005 में प्रक्षेपित 'मार्स रिकोनेंजेस ऑर्बिटर' (MRO) के स्पेक्ट्रोमीटर से प्राप्त आंकड़ों का अध्ययन किया और सपेंटाइन खनिज के दो छोटे नमूनों की पहचान की। गौरतलब है कि सर्पेटाइन खनिज 'मोलिवाइन' नामक एक अन्य खनिज से एक जलतापीय प्रक्रिया के जरिये प्राप्त होता है, इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन गैस भी निकलती
दरअसल हाइड्रोजन सूक्ष्म जीवाणुओं के लिए ऊर्जा प्राप्ति का पॉवर हाउस माना जाता है, ये जीवाणु हाइड्रोजन ऊर्जा ग्रहण करने के बाद मीथेन उत्सर्जित करते हैं। इसी प्रकार ओलिवाइन के सर्पेटाइन में बदलने से भी मीथेन उत्पादित होती है मगर इस प्रक्रिया में किसी जीवधारी का शामिल होना आवश्यक नहीं है। इसी आधार पर ग्रहों पर सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी की संभावनाओं पर काम कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि मंगल पर सिर्फ सर्पेटाइन की उपस्थिति से ही सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व की पुष्टि नहीं की जा सकती, बल्कि इसके लिए यह पता लगाना जरूरी है कि सर्पेटाइन का लाल ग्रह से मीथेन उत्पादन में किस तरह की भूमिका है।
मंगल पर पानी की कहानी
04 अगस्त 2007 को प्रमोचित तथा 26 मई 2008 को मंगल के उत्तरी ध्रुव पर उतरे नासा के मार्स फीनिक्स रोवर (वग्धी) ने लाल ग्रह पर पानी की उपस्थिति के संदर्भ में काफी महत्वपूर्ण जानकारियां प्रेषित की। फरवरी 2009 में नासा के वैज्ञानिकों ने दावा किया कि फीनिक्स ने संभवतः मंगल के उत्तरी ध्रुव पर पानी ढूंढ निकाला है, वैज्ञानिकों ने यह दावा दरअसल काले सफेद चित्रों की उस श्रृंखला के आधार पर किया, जो छाया में लैंडर के पायों से लटकती हुई पानी की जमीं बूदें सी प्रतीत होती थी, वैज्ञानिकों का अनुमान था कि संभवतः रॉकेट द्वारा फीनिक्स को मंगल की सतह पर उतारते वक्त ये बूंदें छिटककर वहां लगी होंगी, रोचक तथ्य यह है कि फीनिक्स द्वारा मंगल पर एक माह की समयावधि में ऐसा लगता था कि पानी के ये बूंदें आकार में बढ़ती हैं, परस्पर मिलकर एक हो जाती है और फिर लैंडर के पाये पर टपक जाती है। मगर जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है मंगल की सतह पर गुरुत्व बल की कमी होने से कोई भी तरल तुरंत वाष्प में बदल जाता है, दूसरा मंगल पर ग्रीष्म काल का ताममान -20 डिग्री सेल्सियस - 80डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है अतः इतने कम तापमान में पानी के द्रव अवस्था में रहने का सवाल ही पैदा नहीं होता। मगर वैज्ञानिकों ने इस समस्या का समाधान 'परक्लोरेट' के नाम से जाने वाले लवणों के रूप में ढूंढ निकाला है, यद्यपि मंगल की मिट्टी में परक्लारेटों की उपस्थिति की खोज फीनिक्स टीम द्वारा अगस्त 2008 में ही कर दी गयी थी, परंतु उस समय पानी को द्रव रूप में बनाये रखने संबंधी इसकी भूमिका पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया था, मगर बाद में पता चला कि ये लवण पानी को द्रव अवस्था में बनाये रख सकते है।
7 नवंबर 1996 को नासा द्वारा प्रमोचित 'मार्स ग्लोबल सर्वेयर मिशन' के साथ भेजे गये उपकरण 'तापीय उत्सर्जन स्पेक्ट्रोमीटर' (TES) ने मंगल की सतह पर खनिज संयोजन का संसूचन करके पानी के अस्तित्व के संदर्भ में महत्वपूर्ण संकेत दिये थे। टीईएस ने लगभग 3000 वर्ग किमी. क्षेत्रफल वाले 'नीली फौंसे' क्षेत्र को चिन्हित किया था जिसमें खनिज पदार्थ के रूप में 'ओलिविन' मौजूद था। इस प्रकार की धारणा बनी है कि प्राचीन काल में उस आघात ने, जिसने मंगल ग्रह के 'इसीडिस वेसिन' का निर्माण किया था, ओलिविन को एक्सपोज किया।
इस बात को संभवतः रसायन विज्ञान का कोई भी छात्र बता देगा कि पानी में लवणों के घुलने से उसका हिमांक कम हो जाता है नासा के वैज्ञानिकों की मानें तो यदि परक्लोरेट लवण एक निश्चित मात्रा में पानी में घुले या मिश्रित हो तो पानी - 70C जैसे न्यूनतम ताप पर भी द्रव अवस्था में मौजूद रह सकता है, इसलिए यह हो सकता है कि घुला हुआ परक्लोरेट लवण मंगल पर पानी को द्रव्य रूप में बनाए रखने के लिए एंटी-फ्रीज' की भांति कार्य कर रहा हो। संभवतः यह 'सोडियम परक्लोरेट' तथा 'सोडियम परक्लोरेट' के साथ पानी के मिश्रण के कारण होता हो क्योंकि फीनिक्स ने लालग्रह पर मैग्नीशियम तथा सोडियम आयनों की बहुलता का पता लगाया था। मिशिगन यूनिवर्सिटी तथा फीनिक्स टीम के सदस्य 'मिल्टन रेनो ' के मुताबिक लैंडर जब मंगल की सतह पर उतरा होगा, तो इसके प्रणोदकों (थ्रस्टर) ने मंगल की सतह पर बर्फ की ऊपरी सतह की कुछ मिमी मोटी परत को पिघला दिया होगा, इसके परिणामस्वरूप बनी पानी की बूंदें उछलकर लैंडर के पहियों पर लग गयी होगी और उस दौरान मिट्टी में परक्लोरेट लवणों की अधिकता रही होगी, तो मंगल पर दिन के समय भी पानी द्रव अवस्था में बना रह सकता है, मगर इसके बावजूद जीव विज्ञानी पानी तथा परक्लोरेटों में जीवों की संभावना को कम ही मानते हैं, इसका प्रमुख कारण यह है कि परक्लोरेट वास्तव में अत्यंत विषैले योगिक हैं और जिस जीवन को हम जानते हैं ये उसके विकास में बाधक हैं। 31 जुलाई 2008 को फीनिक्स से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर एरिजोना यूनिवर्सिटी के तापीय व गैस शोधकर्ता 'विलियम 'वायंटन' ने पानी की मौजूदगी की बात कही, उन्होंने पाया कि फीनिक्स की रोबोटिक भुजा द्वारा लिये गये नमूने मंगल पर दिन की शुरूआत होने पर ताप बढ़ने के साथ ही वाष्प में बदले गये। फीनिक्स मिशन ने मंगल पर क्ले होने का भी पता लगाया जिसका निर्माण अन्य खनिजों से पानी की उपस्थिति में होता है, वैज्ञानिकों का विश्वास है कि मंगल पर काफी पानी खनिजों के रसायनिक संरचना में फंसा हो सकता है जैसे 'क्ले' एवं 'सल्फेट्स'। इससे पूर्व जुलाई 2003 में नासा के ओडिसी मिशन के अंतर्गत 'गामा रेज स्पेक्ट्रोमीटर' (GRS) यंत्र ने मंगल के दोनों ध्रुवों में सतह के नीचे बर्फ दबी होने के संकेत दिये थे, ओडिशी से प्राप्त आंकड़ों का अध्ययन करने पर वैज्ञानिकों ने बताया कि मंगल के दोनों गोलाद्धों 55° अक्षांश से ध्रुवों तक बर्फ का उच्च घनत्व है तथा 1 किग्रा मृदा में 400-500 ग्राम तक बर्फ है, परंतु भूमध्यरेखीय स्थानों की मृदा में 2-10% तक लवणीय पानी है। मार्स ग्लोबल सर्वेयर, मार्स ओडिसी तथा मार्स एमआरओ आदि मिशनों ने भी मंगल पर पानी के संदर्भ में महत्वपूर्ण जानकारियां भेजी हैं।
7 नवंबर 1996 को नासा द्वारा प्रमोचित मार्स ग्लोबल सर्वेयर मिशन' के साथ भेजे गये उपकरण तापीय उत्सर्जन स्पेक्ट्रोमीटर' (TES) ने मंगल की सतह पर खनिज संयोजन का संसूचन करके पानी के अस्तित्व के संदर्भ में महत्वपूर्ण संकेत दिये थे। टीईएस ने लगभग 3000 वर्ग किमी. क्षेत्रफल वाले 'नीली फसे' क्षेत्र को चिन्हित किया था जिसमें खनिज पदार्थ के रूप में 'ओलिविन' मौजूद था। इस प्रकार की धारणा बनी है कि प्राचीन काल में उस आघात ने, जिसने मंगल ग्रह के 'इसीडिस वेसिन' का निर्माण किया था, ओलिविन को एक्सपोज किया। दरअसल ओलिविन अनेक ज्वालामुखी चट्टानों में पानी की उपस्थिति में मौजूद रहा है। लाल ग्रह पर ओलिविन का पाया जाना इस बात का पक्का सुबूत है कि मंगल ग्रह का कुछ भाग काफी लंबे समय तक शुष्क रहा होगा। बाद के अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि मंगल की सतह पर 113000 वर्ग किमी. विशाल क्षेत्र की चट्टानों में ओलिविन मौजूद है। वर्ष 2003 में नासा द्वारा मंगल पर भेजे गये रोवर (मंगल वग्धी) 'स्पिरिट' तथा 'अपॉरच्युनिटी' ने मंगल पर 3 साल से अधिक का समय बिताकर पानी की मौजूदगी के बारे में काफी प्रमाण दिये थे 5 मार्च 2004 को नासा ने घोषित किया कि स्पिरिट रोवर ने मंगल ग्रह की एक चट्टान 'हम्फ्री' में पानी होने के इतिहास के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण साक्ष्य दिये हैं, मंगल की अन्य चट्टानों की तुलना में यह चट्टान मैग्मा से बनी थी जिसने बाद में अपनी छोटी-छोटी दरारों में चमकीला द्रव्य भर लिया, इस क्रिस्टलीय खनिज की पहचान खनिज लवणों के रूप में की गयी थी और इस बात की काफी संभावना है कि उक्त खनिज लवणों में पानी की भी द्रव रूप में उपस्थिति की संभावना है। मार्स अपॉरच्यूनिटी द्वारा भेजे गये आंकड़ों से यह पता चला है कि कभी मंगल की सतह का एक बड़ा भाग पानी से भीगा हुआ था।
05 अगस्त 2011 को प्रतिष्ठित 'सांइस जर्नल' में एमआरओ (मार्स रिकोनेंसस ऑर्बिटर ) मिशन के 'हाई रिजोल्यूशन इमेजिंग सांइस एक्सपेरिमेंट' के मुख्य शोधकर्ता 'अल्फ्रेड मैकइवेन' ने मंगल पर लवण प्रवाह के संदर्भ में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। दरअसल एमआरओ (जो वर्ष 2006 से मंगल की कक्षा में है) के हाई रिजोल्यूशन कैमरे द्वारा लिये गये फोटोग्राफ्स में लाल ग्रह पर 5 मी. चौड़ी अंगुली जैसी धारियां देखी गयी थी, ये धारियां मंगल के क्रेटर के कुछ भीतरी तीखे ढलानों पर देर बंसतकाल में दिखायी देती है ये धारियां सैकड़ों मीटर लंबी है तथा सर्दियों में कुछ धुंधली पड़ जाती हैं मैकेइवन की रिपोर्ट के अनुसार एमआरओ द्वारा 3-4 वर्षों मेंकई बार लिये गये प्रक्षेणों से ग्रह के दक्षिणी अर्द्ध गोलार्द्ध में मध्यवर्ती अक्षांशों के 7 स्थानों के कई तीखे ढलानों पर फिर-फिर होने वाले इन मौसमी परिवर्तनों (मौसमी प्रक्रम) का पता लगा था, ये प्रेक्षण दर्शाते हैं कि ग्रीष्म ऋतु में ये धारियां ढलानों पर और अधिक दूर तक नीचे की ओर बढ़ती जाती हैं।
मैकइवेन के अनुसार ये धारियां लवण जलप्रवाह के संकेत हो सकते हैं, इस बात की अधिक संभावना बनती है कि मंगल के पृष्ठ पर विस्तृत रूप से फैला लवण, पानी के हिमांक को कम कर देता है जिससे पानी शून्य डिग्री से भी काफी कम तापमान पर भी द्रव अवस्था में रह सकता है। यही नहीं लवण, पानी के गुणों को भी परिवर्तित कर देता है जिससे मंगल की सतह पर विद्यमान लवण-जल, शुद्ध पानी की अपेक्षा कहीं अधिक सहजता से इस ग्रह की अत्यंत शुष्क परिस्थितियों में भी विद्यमान रह सकता है। एमआरओ की एक और बड़ी खोज थी- 'हॉट स्प्रिंग' का पता लगाना, इस बात की संभावना जतायी जाती है कि पहले इनमें जीवन का अंश रहा होगा और अब इनमें संरक्षित जीवन के अवशेष (फॉसिल्स) मौजूद हों। मार्स ग्लोबल सब्रेयर, ओडिसी तथा अन्य आर्बिटर द्वारा प्रेषित डाटा के विश्लेषणों के आधार पर वैज्ञानिकों ने लाल ग्रह पर 'डाइक्लोरेट तथा 'क्लोरीन' के विशाल भंडारों का भी पता लगाया है, आखिर खनिज के रूप में अधिकतर खनिजों में क्लोराइड होते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मंगल पर अधिकांश चट्टानें परतों के रूप में होती हैं, जिन्हें 'स्ट्रैटा' कहते हैं, लाल ग्रह का 'कोलम्बस क्रेटर' उन चुनिंदा क्रेटरों में शामिल है जो कई परतों से बना हुआ है, ये परतें अधिकांशतः ज्वालामुखी, मैग्मा, हवा, पानी तथा खनिजों द्वारा संयुक्त अवस्था में बनायी जाती हैं और सौभाग्यवश लाल ग्रह पर अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें चट्टानों तथा क्रेटरर्स आदि परतों के रूप में नियोजित तथा संयोजित ढंग से बनी हुई है, वैज्ञानिक समुदाय इन परतों की उपस्थिति से काफी खुश है क्योंकि इन परतों में न सिर्फ मंगल का अतीत दफन है बल्कि इस पर शोध करके मंगल की वर्तमान स्थिति तथा भावी परिस्थितियो या संभावनाओं का भी पता लगाया जा सकता है, मंगल की इन चट्टानों या क्रेटर में लवणीय पानी, बर्फ तथा मीथेन जैसे कार्बनिक यौगिकों के साथ-साथ जीवन की संभावनाओं से भी संबंधित महत्वपूर्ण सुराग हाथ लग सकते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि मंगल पर पानी की अधिकांश मात्रा बर्फ के रूप में ही मौजूद है, विभिन्न वैज्ञानिक विश्लेषणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि अधिकांश बर्फ मंगल पर अब भी ग्लेशियरों के रूप में मौजूद है जिसके ऊपर इन्सुलेटिंग चट्टान का कवर है, कुछ ग्लेशियरों की सतह दबी हुई बर्फ के उर्ध्वपातन के कारण खुदरे आकार वाली है, अधिकांश बर्फ की मात्रा ध्रुवीय तथा उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में पायी जाती है, ये ग्लेशियर शुद्ध बर्फ ही नहीं बल्कि इसमें चट्टानें धूल तथा खनिज पदार्थ भी मिश्रित पाये जाते हैं। 28 जुलाई 2005 में यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बताया कि उसके द्वारा भेजे गये मंगलयान 'मार्स एक्सप्रेस' के 'हाई रिजोल्यूशन स्टीरियो कैमरे के प्रतिबिम्ब से यह पता चलता है कि मंगल के एक बड़े क्रेटर में बर्फ की चौड़ी शीट मौजूद हैं, 35 कि.मी. चौड़ा तथा 2 कि.मी. गहरा यह क्रेटर 'बैटीटस बोरियालिस' नामक क्षेत्र में पाया गया। मंगल के उत्तरी ध्रुव आवरण ( प्लेनम आएस्ट्रल) दोनों के संबंध में यह कहा जाता है कि वे मोटाई में शरद ऋतु में बढ़ जाते हैं मगर ग्रीष्मकाल में इनका आंशिक रूप से उर्ध्वपातन (सब्लीमेशन) हो जाता है।
मार्स एक्सप्रेस द्वारा भेजे गये डाटा के आधार पर वर्ष 2004 में यह पुष्टि हुई कि मंगल के दक्षिणी ध्रुव में औसतन 3 कि.मी. मोटा बर्फ का स्लैब है, इनमें जमे हुए पानी की अलग-अलग मात्रायें हैं जो अक्षांशों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। ध्रुवीय आवरण बर्फ में 85% जमी हुई CO2 की बर्फ है तथा 15% जल बर्फ है, इसके अलावा मंगल ग्रह पर सतह के नीचे भी काफी मात्रा में बर्फ होने की संभावना जतायी जा रही है, इसके कारण हैं मंगल के - भू-भागों का मुलायम गुण, लैण्डस्केप फीचर, ओडिसी के गामा रेंज स्पेक्ट्रोमीटर से प्राप्त डाटा, संकल्पनात्मक गणनायें तथा फीनिक्स लैंडर द्वारा सीधे किये गये मापन । मंगल पर कुछ क्षेत्र सीप के आकार वाले निम्न स्तर वाले भूखण्ड दर्शाते हैं। अनुमान लगाया गया है कि इनका निर्माण संभवतः जमी हुई मिट्टी से बर्फ के उर्ध्वपातन से हुआ होगा। इसके अलावा लाल ग्रह पर अनेक झीलों के बेसिन भी पाये गये हैं, इनमें से कुछ इतने बड़े हैं कि इनकी तुलना पृथ्वी की विशालतम झीलों-कैस्पियनसागर, ब्लैक सी तथा बैकाल झील से की जा सकती है, यहीं नहीं मंगल पर कुछ स्थान ऐसे भी पाये गये हैं जो बहुत निम्न स्तर (विशाल गड्ढों की तरह) वाले हैं तथा इनके साथ नदी घाटियां संलग्न हैं, इन क्षेत्रों के विषय में ऐसा माना जाता है कि कभी इनमें झीलों का अस्तित्व रहा होगा।
वैज्ञानिकों द्वारा मंगल ग्रह पर अतीत में समुद्र होने की संभावना भी व्यक्त की जाती रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार प्रारंभिक भू-गर्भीय इतिहास (2-3 अरब वर्ष पूर्व) में मंगल की एक तिहाई सतह द्रव पानी से ढकी रही होगी। जाहिर तौर पर प्रारंभिक काल में मंगल का मौसम गर्म रहा होगा जिससे द्रव पानी की सतह में ठहर सका होगा। भौगोलिक रूप से भी मंगल ग्रह के अनेक ऐसे फीचर हैं जो वहां पर समुद्र के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। घाटियों का नेटवर्क जो संयुक्त एक बड़ा चैनल बनाता है वह एक द्रव पदार्थ द्वारा अपघर्षण का परिणाम बताता है तथा पृथ्वी की नदियों की प्राचीन तलहटियों से मिलता-जुलता है। लाल ग्रह केविशालकाय चेनल ( 25-30 कि.मी. चौड़े तथा सैकड़ों मीटर गहरे ) यह दर्शाते हैं कि दक्षिणी उभार वाली सतह से उत्तरी मैदानों की ओर पानी का प्रवाह रहा होगा।
संर्पक करें:-
शंकर प्रसाद तिवारी (विनय)
Clo फ्रैण्डस बुक डिपो ( यूनिवर्सिटी गेट के सामने) श्रीनगर गढ़वाल, जनपद पौड़ी पिन कोड 246 174, उत्तराखंड मो. न. 9756918227,
ईमेल:- shankarprasadtiwarivinay@ gmail.com
सोर्स : जल चेतना खण्ड 8 अंक 1 जनवरी 2019
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