केंद्र की नई सरकार को मनरेगा, फूटी आंख नहीं सुहा रही है। उद्योग और सेवा क्षेत्र को बढ़ावा देने के चक्कर में ऐसी नीतियां बन रही हैं, जो कृषि और स्वरोजगार के लिए घातक हैं। आज भारत का तकरीबन प्रत्येक प्रदेश उद्योगपतियों को अपने यहां उद्योग लगाने के एवज में सस्ती लेबर का लालच दे रहा है। राजस्थान के बाद मध्य प्रदेश सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किए गए अमानवीय परिवर्तन इस प्रवृत्ति पर मोहर लगा रहे हैं।महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना अर्थात ‘मनरेगा’ में व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। प्रारंभिक वर्षों में बेहतर अमल के बावजूद ‘मनरेगा’ के विरुद्ध शिकायतों का विस्तार होता गया। भ्रष्टाचार एवं भाई-भतीजावाद के हुड़दंग ने इस अति महत्त्वाकांक्षी और पवित्र कार्यक्रम को गंदगी का शिकार बना दिया। शिकायत यह भी रही है कि इस कार्यक्रम में जितनी धनराशि खर्च हो रही है, उस अनुपात में निर्माण नहीं हो रहा। ‘मनरेगा’ के अंतर्गत संपन्न हुए कार्यों की गुणवत्ता पर कैग तक सवाल उठा चुका है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि ‘मनरेगा’ में व्यापक संशोधन किए जाएं। इसे व्यावहारिक और पारदर्शी बनाया जाए, किंतु इसे बंद कर देने का विचार उचित नहीं कहा जा सकता। आखिर पूर्वाग्रहयुक्त होकर भी मनरेगा को समाप्त कर देने की हठधर्मिता क्यों होनी चाहिए?
‘मनरेगा’ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए ने शुरू की। सूचना का अधिकार तथा ‘मनरेगा’ जैसी योजनाओं के कारण ही मनमोहन सिंह दूसरे कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री बन सके थे। यही नहीं योजना से सभी राजनीतिक दलों ने अपनी सहमति जताई थी। ‘मनरेगा’ का मकसद यही था कि गरीब और साधनहीन ग्रामीण परिवारों को साल में कम से कम सौ दिन रोजगार उपलब्ध करवाया जाए, ताकि पलायन एवं उनकी कठिनाइयों को कम किया जा सके। सचमुच ऐसा ही कुछ हुआ? तब इस योजना के अंतर्गत नए प्रस्तावों को क्यों स्वीकृति नहीं दी जा रही है?
यूपीए सरकार के कार्यकाल में भी इस योजना के असली हकदार और दावेदार सौ दिन के कामकाज को तरसते रहे। आंकड़ों के अनुसार ‘मनरेगा’ के तहत गरीबों को मिलने वाले रोजगार कार्य दिवसों की औसत संख्या 2012-13 में सिर्फ 43 दिन और 2013-14 में 46 दिन तक ही सिमटकर रह गई। बिचौलियों, ठेकेदारों और कमीशनखोरों ने सरकार को नाकों चने चबा दिए। गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों ने फर्जी कागजात बनाए या बनवाए और अवास्तविक और अवांछित लोगों को लाभ पहुंचाया गया। वास्तविक और वांछित गरीब मजदूरों को भुगतान तक नहीं किया गया। धोखाधड़ी और बेईमानी की शिकायतें बेहद आम हो गईं। b‘मनरेगा’ में असंगठित और अकुशल श्रमिक काम करते हैं, क्या इसीलिए मोदी सरकार को ‘मनरेगा’ समाप्त कर देने की हठधर्मिता दिखानी चाहिए?
वैसे भी देखा जाए तो मोदी सरकार की प्राथमिकताएं व्यापार जगत और खासतौर से कारपोरेटजगत के लिए ही हैं। सांसद आदर्श ग्राम योजना तो पोस्टर है, असल फिल्म तो स्मार्ट सिटी है। ग्रामीण भारत को सड़कों से जोड़ने की जगह हाई-वे और सुपर कॉरिडोर किसके लिए बनाए जा रहे हैं? ग्रामीण भारत और खेती-किसानी के लिए इस सरकार के पास क्या है? अहमदाबाद मुंबई रेल मार्ग पर बुलेट ट्रेन के लिए सत्तर हजार करोड़, जबकि देश की साठ फीसदी असिंचित भूमि के लिए सिर्फ एक हजार करोड़ का बजट आखिर क्या दर्शाता है।
अभी हाल ही में सेंधवा (म.प्र.) जनपद पंचायत की ग्राम पंचायतों के फर्जी बैंक खाते खोलकर मनरेगा योजना की राशि गबन करने के मामले में ग्राम पंचायतों के दो सरपंच और छह सचिवों को जेल भेजा गया है। उन पर फर्जी खातों से पांच करोड़ रुपये से ज्यादा का गबन करने के आरोप हैं। देश में ऐसे अनेकों प्रकरणों की सुनवाई अदालतों में चल रही है। अदालतों द्वारा कई धोखेबाजों को सजा भी सुनाई गई है। देखने वाली खास बात यही रही कि बिचौलियों और ठेकेदारों की पहुंच से दूर रखने के मकसद से ‘मनरेगा’ के अंतर्गत मिलने वाली मजदूरी सीधे श्रमिकों के बैंक खातों में भेजे जाने जैसे प्रावधान किए गए, मगर मक्कार लोगों ने उसमें भी फर्जीवाड़ा कर डाला।
नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले बजट भाषण में ही संकेत दे दिया था कि वह ‘मनरेगा’ के स्वरूप में बदलाव करते हुए उसे अधिक व्यावहारिक और पारदर्शी बनाने का प्रयास करेगी। मगर, पिछले दिनों जिस तरह से इसमें बदलाव की कोशिश की गई, उससे सामाजिक कार्यकर्ताओं में नाराजगी है। उनका आरोप है कि ‘मनरेगा’ में ऐसे परिवर्तन संभावी हैं, जिनसे योजना की मूल भावना पर ही चोट पड़ेगी। इस बदलाव को इस तरह से समझा जा सकता है कि अभी मजदूरी और सामान का जो अनुपात 60-40 फीसदी है, उसे बदलकर 51-49 कर दिए जाने की सरकारी मंशा है। यानी मजदूरी पर 51 फीसदी और सामान खरीददारी पर 49 फीसदी धनराशि खर्च की जाए। हमारे ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी तो ‘मनरेगा’ को समाप्त कर देने तक का संकेत दे रहे हैं। वे चाहते हैं कि ‘मनरेगा’ को हर जगह लागू करने के बजाय सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों में लागू किया जाए, जहां इसकी जरूरत है और राज्य सरकारों को यह अधिकार भी दे दिया जाए कि वे राज्य सरकारें ‘मनरेगा’ के अंतर्गत अन्य कार्यों को जोड़ व घटा सकें। अगर ऐसा होता है तो करोड़ों परिवार प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकेंगे। ‘मनरेगा’ से होने जा रही इस तथाकथित छेड़-छाड़ के विरोध में देश के कई नामचीन नागरिकों ने प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा है। वैसे तो अभी प्रतीक्षा ही करनी होगी कि सरकार की तरफ से, इस नागरिक-विरोध पर क्या प्रतिक्रिया आती है।
यह सही है कि ‘मनरेगा’ में सुधार की जरूरत तो अरसे से महसूस की जाती रही है। लेकिन, भ्रष्टाचार को समाप्त करने का यह तरीका नहीं हो सकता है कि ‘मनरेगा’ को ही समाप्त कर दिया जाए। कोशिश तो यह होनी चाहिए कि एक समुचित जनाधार वाला स्वच्छता अभियान ‘मनरेगा’ के लिए भी चलाया जाए व बिचौलियों और ठेकेदारों के चंगुल से ‘मनरेगा’ के मज़दूरों को मुक्त करवाया जाए। मोदी सरकार अगर ‘मनरेगा’ को पूर्वाग्रह रहित होकर पारदर्शी बनाने का प्रयास करती है तो इसमें किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है? ग्रामीण गरीब की दशा और दिशा बदलने से ही देश की दशा और दिशा भी बदल सकती है।
(लेखक वरिष्ठ कवि एवं विचारक हैं), ईमेल- indoresps@gmail.com
‘मनरेगा’ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए ने शुरू की। सूचना का अधिकार तथा ‘मनरेगा’ जैसी योजनाओं के कारण ही मनमोहन सिंह दूसरे कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री बन सके थे। यही नहीं योजना से सभी राजनीतिक दलों ने अपनी सहमति जताई थी। ‘मनरेगा’ का मकसद यही था कि गरीब और साधनहीन ग्रामीण परिवारों को साल में कम से कम सौ दिन रोजगार उपलब्ध करवाया जाए, ताकि पलायन एवं उनकी कठिनाइयों को कम किया जा सके। सचमुच ऐसा ही कुछ हुआ? तब इस योजना के अंतर्गत नए प्रस्तावों को क्यों स्वीकृति नहीं दी जा रही है?
यूपीए सरकार के कार्यकाल में भी इस योजना के असली हकदार और दावेदार सौ दिन के कामकाज को तरसते रहे। आंकड़ों के अनुसार ‘मनरेगा’ के तहत गरीबों को मिलने वाले रोजगार कार्य दिवसों की औसत संख्या 2012-13 में सिर्फ 43 दिन और 2013-14 में 46 दिन तक ही सिमटकर रह गई। बिचौलियों, ठेकेदारों और कमीशनखोरों ने सरकार को नाकों चने चबा दिए। गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों ने फर्जी कागजात बनाए या बनवाए और अवास्तविक और अवांछित लोगों को लाभ पहुंचाया गया। वास्तविक और वांछित गरीब मजदूरों को भुगतान तक नहीं किया गया। धोखाधड़ी और बेईमानी की शिकायतें बेहद आम हो गईं। b‘मनरेगा’ में असंगठित और अकुशल श्रमिक काम करते हैं, क्या इसीलिए मोदी सरकार को ‘मनरेगा’ समाप्त कर देने की हठधर्मिता दिखानी चाहिए?
वैसे भी देखा जाए तो मोदी सरकार की प्राथमिकताएं व्यापार जगत और खासतौर से कारपोरेटजगत के लिए ही हैं। सांसद आदर्श ग्राम योजना तो पोस्टर है, असल फिल्म तो स्मार्ट सिटी है। ग्रामीण भारत को सड़कों से जोड़ने की जगह हाई-वे और सुपर कॉरिडोर किसके लिए बनाए जा रहे हैं? ग्रामीण भारत और खेती-किसानी के लिए इस सरकार के पास क्या है? अहमदाबाद मुंबई रेल मार्ग पर बुलेट ट्रेन के लिए सत्तर हजार करोड़, जबकि देश की साठ फीसदी असिंचित भूमि के लिए सिर्फ एक हजार करोड़ का बजट आखिर क्या दर्शाता है।
अभी हाल ही में सेंधवा (म.प्र.) जनपद पंचायत की ग्राम पंचायतों के फर्जी बैंक खाते खोलकर मनरेगा योजना की राशि गबन करने के मामले में ग्राम पंचायतों के दो सरपंच और छह सचिवों को जेल भेजा गया है। उन पर फर्जी खातों से पांच करोड़ रुपये से ज्यादा का गबन करने के आरोप हैं। देश में ऐसे अनेकों प्रकरणों की सुनवाई अदालतों में चल रही है। अदालतों द्वारा कई धोखेबाजों को सजा भी सुनाई गई है। देखने वाली खास बात यही रही कि बिचौलियों और ठेकेदारों की पहुंच से दूर रखने के मकसद से ‘मनरेगा’ के अंतर्गत मिलने वाली मजदूरी सीधे श्रमिकों के बैंक खातों में भेजे जाने जैसे प्रावधान किए गए, मगर मक्कार लोगों ने उसमें भी फर्जीवाड़ा कर डाला।
नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले बजट भाषण में ही संकेत दे दिया था कि वह ‘मनरेगा’ के स्वरूप में बदलाव करते हुए उसे अधिक व्यावहारिक और पारदर्शी बनाने का प्रयास करेगी। मगर, पिछले दिनों जिस तरह से इसमें बदलाव की कोशिश की गई, उससे सामाजिक कार्यकर्ताओं में नाराजगी है। उनका आरोप है कि ‘मनरेगा’ में ऐसे परिवर्तन संभावी हैं, जिनसे योजना की मूल भावना पर ही चोट पड़ेगी। इस बदलाव को इस तरह से समझा जा सकता है कि अभी मजदूरी और सामान का जो अनुपात 60-40 फीसदी है, उसे बदलकर 51-49 कर दिए जाने की सरकारी मंशा है। यानी मजदूरी पर 51 फीसदी और सामान खरीददारी पर 49 फीसदी धनराशि खर्च की जाए। हमारे ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी तो ‘मनरेगा’ को समाप्त कर देने तक का संकेत दे रहे हैं। वे चाहते हैं कि ‘मनरेगा’ को हर जगह लागू करने के बजाय सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों में लागू किया जाए, जहां इसकी जरूरत है और राज्य सरकारों को यह अधिकार भी दे दिया जाए कि वे राज्य सरकारें ‘मनरेगा’ के अंतर्गत अन्य कार्यों को जोड़ व घटा सकें। अगर ऐसा होता है तो करोड़ों परिवार प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकेंगे। ‘मनरेगा’ से होने जा रही इस तथाकथित छेड़-छाड़ के विरोध में देश के कई नामचीन नागरिकों ने प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा है। वैसे तो अभी प्रतीक्षा ही करनी होगी कि सरकार की तरफ से, इस नागरिक-विरोध पर क्या प्रतिक्रिया आती है।
यह सही है कि ‘मनरेगा’ में सुधार की जरूरत तो अरसे से महसूस की जाती रही है। लेकिन, भ्रष्टाचार को समाप्त करने का यह तरीका नहीं हो सकता है कि ‘मनरेगा’ को ही समाप्त कर दिया जाए। कोशिश तो यह होनी चाहिए कि एक समुचित जनाधार वाला स्वच्छता अभियान ‘मनरेगा’ के लिए भी चलाया जाए व बिचौलियों और ठेकेदारों के चंगुल से ‘मनरेगा’ के मज़दूरों को मुक्त करवाया जाए। मोदी सरकार अगर ‘मनरेगा’ को पूर्वाग्रह रहित होकर पारदर्शी बनाने का प्रयास करती है तो इसमें किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है? ग्रामीण गरीब की दशा और दिशा बदलने से ही देश की दशा और दिशा भी बदल सकती है।
(लेखक वरिष्ठ कवि एवं विचारक हैं), ईमेल- indoresps@gmail.com
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