मनरेगा पर नहीं रहा मेहरबान बजट

जब 2009 के आम चुनावों में जीत हासिल कर संप्रग दोबारा सत्ता में लौटी तो कई राजनीतिक विश्लेषकों ने इस गठबंधन की जीत का बड़ा कारण राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लागू किया जाना माना था।

इसके तुरंत बाद जो बजट प्रणब मुखर्जी ने पेश किया था, उसमें इस योजना का आवंटन 16,000 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 30,100 करोड़ रुपए कर दिया था। इसके बाद बीते साल यानी 2010-11 में इस योजना पर आवंटन बढ़ाकर 40,100 रुपए कर दिया गया।

इस बार भी उम्मीद की जा रही थी कि समाज कल्याण की इस योजना का दायरा बढ़ाने और इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसके लिए आवंटन बढ़ाया जाएगा पर ऐसा चाहने वाले लोगों को वित्त मंत्री ने इस बार के बजट में निराश किया। इस योजना के लिए आवंटन बढ़ाना तो दूर, उल्टे पिछले साल के आवंटन के एवज में100 करोड़ रुपए की कटौती कर दी गयी। नए बजट में इस योजना के लिए 40,000 करोड़ रुपए आवंटित करने का प्रस्ताव किया गया है।

ऐसे में इस योजना के प्रति कांग्रेस और इस सरकार की गंभीरता को लेकर संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। हालांकि, 2004 में कांग्रेस की अगुआई में बनी संप्रग सरकार रोजगार गारंटी योजना को अपनी बड़ी कामयाबी बताती रही है। बजट में उम्मीद की जा रही थी कि इस योजना के लिए आवंटन बढ़ाकर इसका सही क्रियान्वयन सुनिश्चित करने की दिशा में बढ़ा जाएगा। पर ऐसा हो नहीं पाया। ऐसा नहीं होने से इस योजना के क्रियान्वयन में और सुधार आने की अपेक्षा गड़बडि़यां पैदा होने का अंदेशा बढ़ जाता है।

दरअसल, तमाम खासियत के बावजूद इस योजना की सबसे बड़ी खामी क्रियान्वयन के स्तर पर हो रही गड़बड़ी है और इसे सुधारने की दिशा में सरकार कोशिश करती नहीं दिखती। इसके लिए सरकारी स्तर पर जिस इच्छाशक्ति की जरूरत है, उसी का स्पष्ट अभाव दिखता है। इस तरह के कई मामले सामने आ रहे हैं जिनसे पता चल रहा है कि इस योजना में भ्रष्टाचार का घुन लग चुका है और अफसरशाही ने तो जैसे इसे असफल बनाने की ही ठान ली है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजी पाने वालों की अब तक की डगर काफी कठिन रही है।

ऐसे में इस योजना की उपयोगिता से जुड़े कई सवाल उठने लगे हैं। वह तबका जो शुरुआत से ही इस योजना का विरोध करता रहा है, अब और मुखर हो गया है। इसका मानना है कि यह योजना भी भ्रष्टाचार और अफसरशाही की शिकार हो गई है, इसलिए इसकी कोई उपयोगिता नहीं है। वैसे इस तबके के अपने स्वार्थ हैं और इनकी प्राथमिकता में आम लोग नहीं हैं लेकिन रोजगार गारंटी योजना के बंटाधार को लेकर किसी को भी कोई संदेह नहीं होना चाहिए। कॉरपोरेट जगत हमेशा से इसका विरोध करता आया है। इस बजट में भी वित्त मंत्री ने कॉरपोरेट घरानों के लिए कई राहतों की घोषणा की है और रोजगार गारंटी योजना का आवंटन घटाकर इस क्षेत्र में एक तरह से उनके एजेंडे को ही लागू करने का काम किया है।

जरूरत इस बात की है कि योजना का आवंटन बढ़ाकर क्रियान्यवन की खामियों को दूर किया जाए। योजना के तहत बनने वाले ज्यादातर जॉब कार्ड अपूर्ण हैं। कई कार्डों पर या तो फोटो नहीं है और कई पर तो किसी अधिकारी के हस्ताक्षर भी नहीं हैं। कुछ अध्ययनों में तो यह भी बताया गया है कि पूर्ण जॉब कार्ड बनवाने के लिए लोगों से घूस ली जा रही है। महिलाओं को जॉब कार्ड बनवाने के लिए तो और भी मशक्कत करनी पड़ रही है।

दरअसल, घपलेबाजों ने इस योजना में धांधली की कई तरकीबें ईजाद कर ली हैं। जाली जॉब कार्ड बनवाकर भुगतान लेना सबसे आसान तरीका बन गया है। इसके अलावा मस्टर रोल में भी बड़े पैमाने पर हेर-फेर किया जा रहा है और कई स्थानों से तो खबरें यहां तक आई हैं कि इस योजना के तहत होने वाले कार्य जमीन की बजाए सिर्फ कागजों पर ही हुए। इस योजना के तहत काम आवंटित करते वक्त जरूरतमंद की तुलना में अपनी पसंद को वरीयता दी जा रही है।

इस बात में किसी को भी संदेह नहीं होना चाहिए कि यह योजना भारत की तासीर के हिसाब से बेहद प्रभावी साबित हो सकती है। लेकिन योजना के क्रियान्वयन में पारदर्शिता सुनिश्चित किया जाना बेहद जरूरी है। तभी चुनिंदा लोगों का बैंक बैलेंस बढ़ने की बजाए सही अर्थों मे फायदा उन तक पहुंच पाएगा, जिनके लिए ऐसे कानून बनते हैं। पर इसके लिए व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा और इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और अधिक पैसे की जरूरत पड़ेगी। इन दोनों मोर्चों पर सुधार के लिए वित्त मंत्री ने इस बजट में कुछ नहीं किया।
 

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