सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुत सी जगह श्रम और निर्माण सामग्री के साठ-चालीस के अनुपात के हिसाब से काम नहीं हुआ। इसमें सीएजी को गड़बड़ी नजर आती है। लेकिन एक सच यह भी है कि साठ-चालीस का अनुपात कुछ गड़बड़ियों को जन्म देता है। दरअसल मनरेगा के तहत आम तौर पर कच्चे काम ही करवाए जाते हैं। लिहाजा सौ रुपए के काम में साठ रुपए मानव श्रम के और चालीस रुपए निर्माण सामग्री के लिए रखे जाते हैं। आजकल परिसंपत्तियां बनाने यानी उपयोगी संपदा बनाने के कामों पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। सीएजी की मनरेगा पर रिपोर्ट आ गई है। कुल मिलाकर फरवरी 2006 से अब तक केंद्र सरकार मनरेगा के लिए डेढ़ लाख करोड़ रुपए दे चुकी है लेकिन सीएजी कहती है कि तीस प्रतिशत ही काम पूरे होते हैं। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री काम की सफलता को 54 फीसद ज़रूर बताते हैं लेकिन वो भी मानते हैं कि गड़बड़ियाँ चौतरफा हो रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर मनरेगा में भ्रष्टाचार को किस तरह रोका जा सकता है। कुल तेरह हजार करोड़ रुपए तो सीधे बेकार जाने के आरोप सीएजी में लगाए गए हैं। मनरेगा का अगर साल में दो बार सामाजिक ऑडिट हो तो घपलों पर रोक लगाई जा सकती है। यह ऑडिट स्थानीय स्वयंसेवी संगठन की मदद से होनी चाहिए। जब मनरेगा के तहत काम करने वाले लोगों की मौजूदगी में हर छठे महीने में ग्राम सभा होगी, जहां विकास कामों का हिसाब-किताब सामने रखा जाएगा तो सारा सच और सारा झूठ सामने आ जाएगा।
राजस्थान में पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी ने अपने चुनाव क्षेत्र भीलवाड़ा में अरुणा राय के संगठन की मदद से सामाजिक ऑडिट करवाया था। इसमें करोड़ों के घपले सामने आए। एक गांव में तो पता चला कि साइकिल के पंक्चर लगाने वाली दुकान चलाने वाले के नाम पर चालीस लाख रुपए का भुगतान दिखाया गया। यह पैसा सड़क पर रोड़ी डालने का था। दुकान चलाने वाले के नाम पर फर्जी कंपनी बनी, बैंक में खाता खुलवाया गया, भुगतान जमा करवाया गया, पैसा निकाला गया। इसके बाद खाता और कंपनी दोनों ही बंद करवा दिए गए। राज्य सरकार ने जांच करवाई। नतीजा यह रहा कि कई सरपंचों ने घोटाले के पैसे लौटा दिए। कुछ पटवारियों, जूनियर इंजीनियरों पर भी पैसा खाने के आरोप लगे तो नौकरी जाने के डर से उन्होंने भी घपले का पैसा सरकारी ख़ज़ाने में जमा करवा दिया।
अब इसके बाद की कहानी दिलचस्प है। भीलवाड़ा की सफलता को देखते हुए अन्य सांसदों ने अपने चुनाव क्षेत्र में सामाजिक ऑडिट करवाने का फैसला लिया। अलवर से सांसद और मंत्री भंवर जितेन्द्र सिंह ने ऐसा फैसला किया तो सरपंच सड़कों पर उतर आए। सड़कें जाम कर दी गईं। जयपुर तक में सरपंचों ने बड़ी रैली की। इस रैली में ज्यादातर सरपंच बोलेरो गाड़ी में आए। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बोलेरो सरपंच कह कर चुटकी भी ली। सरपंचों का सामाजिक ऑडिट बाहरी संस्थाओं से ऑडिट नहीं कराने की मांग सरकार ने ठुकरा दी तो वो राजस्थान हाईकोर्ट की शरण में चले गए। दलील दी गई कि सरकारी खर्चे का हिसाब सरकारी नुमाइंदें करें। कोई स्वयंसेवी संगठन ऐसा कैसे कर सकता है। हाईकोर्ट से सरपंचों को स्टे मिल गया। राज्य सरकार भी सरपंचों के दबाव में आ गई। ऐसा ही कुछ मध्यप्रदेश में भी हुआ, जहां विधानसभा में बाकायदा सामाजिक ऑडिट सरकारी बाबुओं से ही कराए जाने का प्रस्ताव पारित हुआ। यह दो उदाहरण बताते हैं कि सामाजिक ऑडिट के जरिए घपलों पर रोक लगाई जा सकती है लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है। जाहिर है कि जब घपलों में लिप्त या आरोपी ही खुद सामाजिक अंकेक्षण करेंगे तो सच्चाई किस तरह सामने आ पाएगी।
सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुत सी जगह श्रम और निर्माण सामग्री के साठ-चालीस के अनुपात के हिसाब से काम नहीं हुआ। इसमें सीएजी को गड़बड़ी नजर आती है। लेकिन एक सच यह भी है कि साठ-चालीस का अनुपात कुछ गड़बड़ियों को जन्म देता है। दरअसल मनरेगा के तहत आम तौर पर कच्चे काम ही करवाए जाते हैं। लिहाजा सौ रुपए के काम में साठ रुपए मानव श्रम के और चालीस रुपए निर्माण सामग्री के लिए रखे जाते हैं। आजकल परिसंपत्तियां बनाने यानी उपयोगी संपदा बनाने के कामों पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। जैसे कि मनरेगा के तहत प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परियोजना के तहत संपर्क सड़क बनाना, स्कूल की दीवार या महिला शौचालय या दलित के कुएँ को पक्का करवाना आदि। अब ऐसे कामों में पत्थर, सीमेंट, ईंटें, बजरी, रोड़ी आदि का इस्तेमाल होता है जिसके दाम बहुत बढ़े हुए हैं। ऐसे में अगर कोई सरपंच ईमानदारी के साथ भी काम करना चाहे तो भी साठ-चालीस के अनुपात का अनुसरण करते हुए पक्का काम नहीं करवा सकता। लिहाजा, वो निर्माण सामग्री का पैसा निकालने के लिए मज़दूरों की संख्या कागज़ों में बढ़ा देता है। यह काम सीएजी की नजर में घपला है, कानून की नजर में भी गड़बड़ी है लेकिन यह एक ज़मीनी हकीक़त भी है। अब जब सीएजी का भी कहना है कि मनरेगा के तहत करीब छह हजार करोड़ रुपए की परिसंपत्तियों का निर्माण नहीं हुआ तो इसकी वजह यही अनुपात की मजबूरी है। अगर इस औसत में फेरबदल हो तो मनरेगा के तहत परिसंपत्तियां भी बन सकती हैं और भ्रष्टाचार पर भी कुछ हद तक रोक लगाई जा सकती है।
जयराम रमेश का कहना है कि केंद्र के हाथ में कुछ नहीं है। हम ज्यादा से ज्यादा पैसा रोक सकते हैं लेकिन हम ऐसा करना नहीं चाहते क्योंकि इससे गरीब लोगों का ही नुकसान होगा, जिन्हें मनरेगा की सबसे ज्यादा जरूरत है। किसी विपक्षी दल की राज्य सरकार का पैसा रोका गया तो यह सियासी मुद्दा बनेगा। बात सही है। मनरेगा कलेक्टर के माध्यम से लागू होता है और पूरा दारोमदार सरपंचों पर होता है। (वैसे देखा गया है कि जब से मनरेगा में पक्के काम करवाने पर जोर दिया जाने लगा है तब से निर्माण सामग्री के ठेकों पर विधायकों और मंत्रियों की नजर पडऩे लगी है।) लेकिन अगर जनप्रतिनिधि ईमानदार हैं तो वो लगातार मनरेगा के कामों की समीक्षा कर सकते हैं, दौरे कर सकते हैं। इससे भी घपलों को कम किया जा सकता है। सीएजी ने कुछ राज्यों में वित्तीय गड़बड़ियों की जांच करवाने और दोषियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने की सिफारिश की है। जयराम रमेश कम से कम राज्यों से यह जांच करवाने का तो आग्रह कर ही सकते हैं। इसके अलावा कांग्रेस शासित राज्यों में मनरेगा पूरी ईमानदारी के साथ लागू हो, इसकी व्यवस्था तो जयराम रमेश करवा ही सकते हैं।
आखिर यही योजना कांग्रेस को 2009 में सत्ता में दोबारा लाई थी। त्रिपुरा में तो माणिक सरकार की सरकार मनरेगा को सफलतापूर्वक लागू करके ही तीसरी बार सत्ता में आई है। यानी, अगर कोई मनरेगा को पूरी ईमानदारी के साथ लागू करवाने की कोशिश करे तो चुनावी फायदा आज भी उठाया जा सकता है। लेकिन अगर आप सिर्फ मनरेगा का श्रेय लेने में ही लगे रहें, खुद का गुणगान करते रहें तो आपको बार बार सियासी फायदा मिलने वाला नहीं है।
राजस्थान में पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी ने अपने चुनाव क्षेत्र भीलवाड़ा में अरुणा राय के संगठन की मदद से सामाजिक ऑडिट करवाया था। इसमें करोड़ों के घपले सामने आए। एक गांव में तो पता चला कि साइकिल के पंक्चर लगाने वाली दुकान चलाने वाले के नाम पर चालीस लाख रुपए का भुगतान दिखाया गया। यह पैसा सड़क पर रोड़ी डालने का था। दुकान चलाने वाले के नाम पर फर्जी कंपनी बनी, बैंक में खाता खुलवाया गया, भुगतान जमा करवाया गया, पैसा निकाला गया। इसके बाद खाता और कंपनी दोनों ही बंद करवा दिए गए। राज्य सरकार ने जांच करवाई। नतीजा यह रहा कि कई सरपंचों ने घोटाले के पैसे लौटा दिए। कुछ पटवारियों, जूनियर इंजीनियरों पर भी पैसा खाने के आरोप लगे तो नौकरी जाने के डर से उन्होंने भी घपले का पैसा सरकारी ख़ज़ाने में जमा करवा दिया।
अब इसके बाद की कहानी दिलचस्प है। भीलवाड़ा की सफलता को देखते हुए अन्य सांसदों ने अपने चुनाव क्षेत्र में सामाजिक ऑडिट करवाने का फैसला लिया। अलवर से सांसद और मंत्री भंवर जितेन्द्र सिंह ने ऐसा फैसला किया तो सरपंच सड़कों पर उतर आए। सड़कें जाम कर दी गईं। जयपुर तक में सरपंचों ने बड़ी रैली की। इस रैली में ज्यादातर सरपंच बोलेरो गाड़ी में आए। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बोलेरो सरपंच कह कर चुटकी भी ली। सरपंचों का सामाजिक ऑडिट बाहरी संस्थाओं से ऑडिट नहीं कराने की मांग सरकार ने ठुकरा दी तो वो राजस्थान हाईकोर्ट की शरण में चले गए। दलील दी गई कि सरकारी खर्चे का हिसाब सरकारी नुमाइंदें करें। कोई स्वयंसेवी संगठन ऐसा कैसे कर सकता है। हाईकोर्ट से सरपंचों को स्टे मिल गया। राज्य सरकार भी सरपंचों के दबाव में आ गई। ऐसा ही कुछ मध्यप्रदेश में भी हुआ, जहां विधानसभा में बाकायदा सामाजिक ऑडिट सरकारी बाबुओं से ही कराए जाने का प्रस्ताव पारित हुआ। यह दो उदाहरण बताते हैं कि सामाजिक ऑडिट के जरिए घपलों पर रोक लगाई जा सकती है लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है। जाहिर है कि जब घपलों में लिप्त या आरोपी ही खुद सामाजिक अंकेक्षण करेंगे तो सच्चाई किस तरह सामने आ पाएगी।
सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुत सी जगह श्रम और निर्माण सामग्री के साठ-चालीस के अनुपात के हिसाब से काम नहीं हुआ। इसमें सीएजी को गड़बड़ी नजर आती है। लेकिन एक सच यह भी है कि साठ-चालीस का अनुपात कुछ गड़बड़ियों को जन्म देता है। दरअसल मनरेगा के तहत आम तौर पर कच्चे काम ही करवाए जाते हैं। लिहाजा सौ रुपए के काम में साठ रुपए मानव श्रम के और चालीस रुपए निर्माण सामग्री के लिए रखे जाते हैं। आजकल परिसंपत्तियां बनाने यानी उपयोगी संपदा बनाने के कामों पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। जैसे कि मनरेगा के तहत प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परियोजना के तहत संपर्क सड़क बनाना, स्कूल की दीवार या महिला शौचालय या दलित के कुएँ को पक्का करवाना आदि। अब ऐसे कामों में पत्थर, सीमेंट, ईंटें, बजरी, रोड़ी आदि का इस्तेमाल होता है जिसके दाम बहुत बढ़े हुए हैं। ऐसे में अगर कोई सरपंच ईमानदारी के साथ भी काम करना चाहे तो भी साठ-चालीस के अनुपात का अनुसरण करते हुए पक्का काम नहीं करवा सकता। लिहाजा, वो निर्माण सामग्री का पैसा निकालने के लिए मज़दूरों की संख्या कागज़ों में बढ़ा देता है। यह काम सीएजी की नजर में घपला है, कानून की नजर में भी गड़बड़ी है लेकिन यह एक ज़मीनी हकीक़त भी है। अब जब सीएजी का भी कहना है कि मनरेगा के तहत करीब छह हजार करोड़ रुपए की परिसंपत्तियों का निर्माण नहीं हुआ तो इसकी वजह यही अनुपात की मजबूरी है। अगर इस औसत में फेरबदल हो तो मनरेगा के तहत परिसंपत्तियां भी बन सकती हैं और भ्रष्टाचार पर भी कुछ हद तक रोक लगाई जा सकती है।
जयराम रमेश का कहना है कि केंद्र के हाथ में कुछ नहीं है। हम ज्यादा से ज्यादा पैसा रोक सकते हैं लेकिन हम ऐसा करना नहीं चाहते क्योंकि इससे गरीब लोगों का ही नुकसान होगा, जिन्हें मनरेगा की सबसे ज्यादा जरूरत है। किसी विपक्षी दल की राज्य सरकार का पैसा रोका गया तो यह सियासी मुद्दा बनेगा। बात सही है। मनरेगा कलेक्टर के माध्यम से लागू होता है और पूरा दारोमदार सरपंचों पर होता है। (वैसे देखा गया है कि जब से मनरेगा में पक्के काम करवाने पर जोर दिया जाने लगा है तब से निर्माण सामग्री के ठेकों पर विधायकों और मंत्रियों की नजर पडऩे लगी है।) लेकिन अगर जनप्रतिनिधि ईमानदार हैं तो वो लगातार मनरेगा के कामों की समीक्षा कर सकते हैं, दौरे कर सकते हैं। इससे भी घपलों को कम किया जा सकता है। सीएजी ने कुछ राज्यों में वित्तीय गड़बड़ियों की जांच करवाने और दोषियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने की सिफारिश की है। जयराम रमेश कम से कम राज्यों से यह जांच करवाने का तो आग्रह कर ही सकते हैं। इसके अलावा कांग्रेस शासित राज्यों में मनरेगा पूरी ईमानदारी के साथ लागू हो, इसकी व्यवस्था तो जयराम रमेश करवा ही सकते हैं।
आखिर यही योजना कांग्रेस को 2009 में सत्ता में दोबारा लाई थी। त्रिपुरा में तो माणिक सरकार की सरकार मनरेगा को सफलतापूर्वक लागू करके ही तीसरी बार सत्ता में आई है। यानी, अगर कोई मनरेगा को पूरी ईमानदारी के साथ लागू करवाने की कोशिश करे तो चुनावी फायदा आज भी उठाया जा सकता है। लेकिन अगर आप सिर्फ मनरेगा का श्रेय लेने में ही लगे रहें, खुद का गुणगान करते रहें तो आपको बार बार सियासी फायदा मिलने वाला नहीं है।
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