मनरेगा लौटायेगा खेतों की हरियाली ?


सरकार अब महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत पर्वतीय क्षेत्रों में बंजर पड़ी कृषि भूमि को सुधारने का प्रयास कर रही है। पौड़ी जिले में 37 हजार 829 हेक्टेयर ऐसी भूमि बंजर पड़ी है, जो कभी हरी-भरी हुआ करती थी। प्राकृतिक स्रोतों के धीरे-धीरे सूखने, कम वर्षा और उस पर जंगली जीवों द्वारा खेतों में मचाये आतंक के चलते ग्रामीणों को यह घाटे का सौदा लगने लगा। दुर्गम चट्टानों को काट कर बनाये गये इन सीढ़ीनुमा खेतों को पूर्वजों ने पानी की अपेक्षा अपने पसीने से ज्यादा सींचा था, लेकिन आजीविका का मुख्य आधार रहे इन खेतों की मौजूदा तस्वीर ग्रामीणों के खेती से मुँह मोड़ते ही बदल गयी।

पौड़ी जिले के स्पेशल एग्रीकल्चर जोन माने जाने वाले यमकेश्वर व पोखड़ा ब्लाक में मनरेगा के तहत पहले चरण में 3,000 हेक्टेयर भूमि को कृषि योग्य बनाने की कवायद शुरू की जा चुकी है। इसके अन्तर्गत खेतों की झाड़ियों को काटने, टूटे पुश्तों को ठीक करने और नहरों की मरम्मत जैसे कार्य किये जायेंगे।

मनरेगा रोजगार गारंटी का अपना लक्ष्य तो शायद पूरा हो जाये, लेकिन इससे खेतों की हरियाली लौट पायेगी इसकी कोई गारंटी नहीं। पर्वतीय क्षेत्रों में सबसे बड़ी समस्या पेयजल की है। जिले का कोई भी हिस्सा पानी की समस्या से अछूता नहीं है। कोट ब्लॉक के दर्जनों गाँवो के लिये गर्मियों के तीन महीने बिताना नर्क भोगने से कम नहीं। 13 किमी. दूर डड़ोवी प्राकृतिक स्रोत में इतना पानी नहीं बचा कि इन सब गाँवो की जरूरत पूरी कर सके। कल्जीखाल खण्ड के भरे-पूरे बलूनी गाँव में 2010 की जनगणना के दौरान मात्र एक परिवार मिला। कारण ? गाँव के निकट बासा कोली प्राकृतिक स्रोत का सूख जाना। डोबरी पेयजल योजना भी खिर्सू ब्लॉक की प्यास बुझाने के लिये नाकाफी है। यही तस्वीर जिले के लगभग हर क्षेत्र की है। गला तर करने को तो पूरा नहीं, फिर खेत सींचने को कहाँ से हो ?

सिंचाई विभाग चाहे हर वर्ष सिंचित भूमि के अपने आँकड़ों में 200 हेक्टेयर की वृद्धि दर्शाता रहे, लेकिन सत्यता यह है कि जिले की कृषि योग्य भूमि में से मात्र 10 प्रतिशत भूमि में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। ऐसे में खेतों को ठीक-ठाक कर भी लिया जाये तो कितने प्रतिशत लोग कृषि के प्रति पुनः आकर्षित होंगे।

यह योजना जिले के खेतों में कितना हरा रंग भर पायेगी, यह तो वक्त ही बतायेगा। लेकिन मनरेगा को कृषि की तरफ मोड़ने का एक सीधा सा लाभ यह होगा कि कम से कम पहाड़ों की खाल उधेड़ कर बनायी खालें तो बननी कम हो जायेंगी, जिन्हे सूखा देख सूखेपन का एहसास ज्यादा होता है। बरसात का पानी बह कर नदियों में मिल जाता है, लेकिन यह खालें नहीं भरतीं क्योंकि अधिकांशतः खालों को उन स्थानों पर खानापूर्ति के लिये बना दिया गया, जहाँ न तो खाल के लिये सही चाल है और न ही चाल के लिये सही ढाल।

इस योजना से बेशक कुछ लोगों का तो भला ज़रूर होगा, चाहे उसके लिये कितनी भी कीमत चुकायी गयी हो। लेकिन बेहतर होगा कि खेतों में दुबारा जान फूँकने के लिये नाक के नीचे से बह कर व्यर्थ जाते लाखों लीटर बरसात के पानी को संचित किया जाये। शायद यही आने वाले कल की जरूरत भी है।
 
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