मनरेगा की अहमियत

Manrega
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देश की वित्तीय राजधानी कही जाने वाली मुम्बई से बमुश्किल सौ किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल पालघर जिले में कुपोषण से हुई छह सौ से अधिक बच्चों की मौत बहस का मुद्दा नहीं बन सकी। महाराष्ट्र में आदिवासी विकास मन्त्री विष्णु सवारा के मतदाता संघ में हुई इन मौतों को लेकर मीडिया में काफी कुछ छुपा, अलबत्ता राज्य सरकार किसी भी किस्म की कार्रवाई से आँखें मूँद रही और न ही केन्द्र सरकार ने उसे कुछ करने के निर्देश दिए। गनीमत समझी जाएगी कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मीडिया में प्रकाशित रिपोर्टों का स्वतः संज्ञान लिया और कुपोषण से होने वाली मौतों पर राज्य सरकार से रिपोर्ट माँगी। पता चला है कि ऐसी मौतें इस जिले के लिये अजूबा नहीं हैं, हर साल औसतन चार पाँच सौ बच्चे मर ही जाते हैं। ऐसी मौतों का प्रमुख कारण बताया जाता है कि भले ही जनता के कल्याण के लिये सरकारी योजनाएँ बनी हों, मगर उनका कागज पर ही अमल होता है। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) के लिये लगातार की जा रही फण्ड की कटौती ने स्थिति को अधिक चिन्ताजनक बनाया है।

हम कल्पना ही कर सकते हैं कि इससे हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिये कितनी दिक्कतें बढ़ जाएँगी। पिछले दिनों एक अग्रणी बिजनेस अखबार ने इस सिलसिले में एक विचलित करने वाली खबर छापी। रिपोर्ट के मुताबिक, इस वर्ष जबकि ग्रामीण इलाकों में मनरेगा के तहत काम की माँग बढ़ी है। लेकिन ग्रामीण विकास मन्त्रालय ने एक ‘व्हाट्सएप चैट ग्रुप’ का इस्तेमाल राज्यों को यह बताने के लिये किया कि वह इस अहम योजना के नाम पर गरीबों के लिये अधिक काम निर्माण करने से बचें। अगस्त में भेजे अपने इस सन्देश में राज्य सरकारों के अधिकारियों को बताया गया कि मनरेगा के तहत रोजगार निर्माण की ‘अंधी दौड़’ जारी नहीं रह सकती। केन्द्रीय ग्रामीण मन्त्रालय ने अधिकारियों को यह चेतावनी भी दी कि इसके लिये अधिक फंड उपलब्ध नहीं किए जाएँगे और राज्य सरकारों को इस मद में जितनी धनराशि पहले से मिली है, उसे ही उन्हें अधिक ‘सन्तुलित’ ढंग से इस्तेमाल करना होगा।

रिपोर्ट के मुताबिक हर साल केन्द्र सरकार साल की शुरुआत में लेबर बजट तैयार करती है। इसमें इस बात का अनुमान होता है कि आगामी वित्तीय वर्ष में वह कितने दिनों का काम कितने व्यक्तियों के लिये निर्माण करेगी। इसे राज्यों के साथ मिलकर तय किया जाता है, अलबत्ता केन्द्र को इसमें अन्तिम निर्णय लेना होता है। इस साल केन्द्र सरकार ने 217 करोड़ व्यक्ति दिनों के काम के निर्माण की बात की थी, जो राज्यों द्वारा सलाह दिए गए दिनों से 98 करोड़ दिन कम था। उसने राज्यों को यह निर्देश भी दिया था कि उसके द्वारा तय इस सीमा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। बिजनेस अखबार की यही रिपोर्ट आगे स्पष्ट करती है कि सरकार की तरफ से भेजे गए निर्देश मनरेगा अधिनियम के खिलाफ हैं, जिसके तहत सरकारों के लिये यह अनिवार्य बनाया गया है कि ग्रामीण गरीबों की तरफ से काम की जैसी माँग हो, उसी के हिसाब से उनके लिये पैसे उपलब्ध किए जाएँगे और इस योजना के बजटीय निर्णयों को लेकर कार्यक्रम में कटौती नहीं होगी।

ध्यान रहे कि अनौपचारिक स्तर पर लगाए गए इस प्रतिबन्ध को लेकर कई सारे राज्यों ने केन्द्रीय ग्रामीण मन्त्रालय के साथ बात करने की कोशिश की और उस पर यह जोर डाला कि वह पहले से बकाया सैकड़ों करोड़ रुपयों की राशि को तत्काल जारी कर दे, मगर इस बात को देखते हुए कि केन्द्र सरकार ने ऑफ द रिकॉर्ड निर्देश जारी किए हैं, विभिन्न राज्यों द्वारा इसी योजना के तहत दिए जा रहे काम में अगस्त एवं सितम्बर में जबरदस्त गिरावट देखी गई। मनरेगा को लेकर कटौती की अनाधिकारिक खबरें तब आई हैं जब देश के अच्छे खासे हिस्से में अकाल की संभावना बनती दिख रही है और खुद आला अदालत केन्द्र सरकार के रुख को लेकर चिन्तित नजर आ रही है।

दरअसल, आला अदालत की दो सदस्यीय जस्टिस मदन बी. लोकुर और एन.वी. रमणा की पीठ ने सरकार से साफ कहा कि वह सरकार के रुख को लेकर चिन्तित है और उसे अपनी राय बदलने की आवश्यकता है। शीर्ष कोर्ट ने केन्द्र को साफ चेताया कि वह ‘आग लगने पर कुआँ खोदने जैसा उद्यम न करें।’ बता दें कि अदालत ‘स्वराज अभियान’ की ओर से दायर वकील प्रशान्त भूषण की याचिका को लेकर अपनी प्रतिक्रिया दे रही थी। याचिका में मौसम विभाग के हवाले से जारी उन आँकड़ों की तरफ इशारा किया गया था जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि देश के कई जिलों में पर्याप्त बरसात नहीं हुई है। इन आँकड़ों के मुताबिक बिहार के 12 जिले, उत्तर प्रदेश के 32 जिले, पंजाब के 11 जिले और गुजरात के 11 जिलों में कम बरसात हुई है। इन तथ्यों को रेखांकित करते हुए उसने मोदी सरकार से यह जानना चाहा कि क्या उसने इस सम्बन्ध में राज्यों को कोई परामर्श जारी की है। वैसे जानकार बता सकते हैं कि मनरेगा को लेकर मौजूदा सरकार के इस रुख को लेकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं है। वे इस बात का विवरण दे सकते हैं कि 2014 में वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद ही मनरेगा को अन्दर से खत्म किया जा रहा है। पिछले साल प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने यह ऐलान भी किया था कि यह योजना ‘कांग्रेस की विफलताओं का जीता जागता स्मारक है।’ निश्चित ही इस सच्चाई को भुला दिया गया था कि कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग सरकार के दिनों में कायम मनरेगा ने ग्रामीण आबादी की क्रयशक्ति बढ़ाने में अहम योगदान दिया था। इसके चलते गाँवों से शहर की तरफ पलायन पर भी थोड़ा असर पड़ा था, यहाँ तक कि ग्रामीण इलाकों में मजदूरी की दरें भी बढ़ी थीं।

एनडीए सरकार ने मनरेगा पर अपने आधिकारिक रुख को लेकर तब यू टर्न लिया, जब इस योजना को दस साल पूरे हुए। मगर जमीनी स्तर पर कुछ भी नहीं बदला। सुप्रीम कोर्ट द्वारा फूड कमिश्नर के दफ्तर के लिये प्रमुख सलाहकार के तौर पर नियुक्त किए गए बिराज पटनाईक का साक्षात्कार इस मामले में आँखें खोलने वाला है। इनका कहना है कि आला अदालत के सख्त निर्देश के बावजूद सूखाग्रस्त इलाकों में जमीनी स्तर पर कुछ भी नहीं हुआ था और मनरेगा के बजट में कटौती जारी है। एक तरफ सरकार ने कहा कि हमने इस साल इस योजना के लिये 43,000 करोड़ रुपए आवंटित किए, मगर वह इस सच्चाई को छिपाती है कि उसमें से 12,000 करोड़ रुपए पिछले साल की मनरेगा मजदूरी का बकाया ही था। इस वर्ष सूखे की त्रासदी यह है कि बीते सालों की तुलना में 2.20 करोड़ मनरेगा दिनों का आवंटन घटा दिया गया है। जहाँ भुखमरी की कगार पर खड़े लोगों के लिये खजाने के दरवाजे खोलने में सरकार सकुचाती दिखती है, वहीं दूसरी तरफ उसे कोई गम नहीं कि वह बैड डेब्ट्स यानी खराब कर्जे के नाम पर पूँजीपतियों द्वारा सरकारी बैंकों से लिया गया लाखों करोड़ रुपयों का कर्जा माफ कर दे। उससे सरकारी बैंकों का दीवाला पीटने की नौबत आए, भले ही वहाँ जमा पैसे का अधिकतर हिस्सा आम लोगों की गाढ़ी कमाई से आता हो।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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