मनरेगा का मखौल क्यों

लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा करते हुए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना यानी मनरेगा का मखौल उड़ाया, उससे उनकी मजदूर-किसान विरोधी मानसिकता ही उजागर हुई है। प्रधानमन्त्री को लगता है कि यह योजना गड्ढे खोदने और गड्ढे भरने से ज्यादा और कुछ नहीं है। योजना से देश और देश के लोगों को कोई फायदा नहीं। योजना पूरी तरह से अनुपयोगी है। योजना कांग्रेस की विफलताओं का स्मारक है।

एक तरफ मनरेगा के प्रति प्रधानमन्त्री का यह नकारात्मक रवैया है, तो दूसरी तरफ उनके मन में एक दुविधा भी है कि यदि सरकार ने अचानक यह योजना बन्द कर दी तो पार्टी को भविष्य में कहीं इसका नुकसान न उठाना पड़े। लोग उनकी सरकार को गरीब विरोधी न ठहरा दें। यही वजह है कि वित्त मन्त्री अरुण जेटली को न चाहते हुए भी बजट में मनरेगा को बजट आवंटन करना ही पड़ा। यह बात अलग है कि योजना को जिस अनुपात में रकम आवंटित की जानी चाहिए थी, वह उसे इस बार भी नहीं मिली।

पिछले बजट के मुकाबले इस बजट में मनरेगा को सिर्फ 699 करोड़ रुपए की रकम ही ज्यादा मिली, जो कि बदलते समय के मुताबिक ज्यादा बड़ी राशि नहीं है। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना जैसा कि नाम से जाहिर है, ग्रामीण बेरोजगारों के लिए सरकार द्वारा सामाजिक सुरक्षा भुगतान देने की योजना है। योजना के तहत सरकार, गरीब परिवारों को साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार देती है। यही नहीं योजना में यह भी प्रावधान है कि, जिन लोगों को काम नहीं मिल पाता, उन्हें बेरोजगारी भत्ता मिले। यह योजना साल 2006 से जब देश में अमल में आई तो ग्रामीण भारत में कई अहमतरीन बदलाव देखने को मिले। मसलन गाँव से शहर की ओर बड़े पैमाने पर होने वाला किसान-मजदूरों का पलायन रुका, गाँवों में ही नए-नए रोजगार सृजित हुए और इससे गाँवों के अन्दर बुनियादी ढाँचा मजबूत हुआ।

योजना की वजह से जहाँ ग्रामीण भारत को बार-बार आने वाली परेशानियों और प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करने में मदद मिली, तो वहीं विस्तारित कृषि उत्पादन और निर्माण श्रमिकों की माँग से श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में भी वृद्धि हुई। यहाँ तक कि उस वक्त जब कई विकसित यूरोपीय देश अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक मन्दी से जूझ रहे थे, तब मनरेगा ही थी, जिसने हमारे देश को आर्थिक मन्दी से बचाया। यानी मनरेगा जब से शुरू हुई, तब से लेकर अब तक उसके खाते में कई उपलब्धियाँ और सफलताएँ हैं।

मनरेगा की इन उपलब्धियों और कामयाबियों के बावजूद देश में हमेशा एक ऐसा वर्ग रहा है, जो मनरेगा के मौजूदा प्रारूप से जरा भी इत्तेफाक नहीं रखता। मनरेगा की अमलदारी में पेश खामियों और गड़बड़ियों के मद्देनजर यह वर्ग चाहता है कि योजना में बदलाव हो। जाहिर है, यदि बदलाव योजना की बेहतरी के लिए हो तो उससे कौन इनकार कर सकता है? लेकिन बदलाव के नाम पर अगर योजना के दायरे को सीमित करने या उसका वास्तविक स्वरूप बदलने की बात हो तो इस बदलाव के लिए आतुर सरकार की नीयत पर शक की गुंजाईश बनती ही है।

प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने जब से केन्द्र की सत्ता सम्भाली है, मनरेगा के बजट में लगातार कटौती हुई है। मोदी सरकार ने अपने पहले ही बजट में यह संकेत दे दिया था कि वह मनरेगा के स्वरूप में बदलाव करना चाहती है। वित्त वर्ष 2014-15 के बजट में सरकार ने मनरेगा के मद में महज 34,000 करोड़ रुपए की रकम जारी की, जो कि राज्यों द्वारा इस मद में माँगी गई रकम से 45 फीसदी कम थी। जबकि वित्त वर्ष 2015-016 के बजट में मनरेगा को 34,699 करोड़ रुपए की रकम जारी की गई है। एक योजना जो कि गरीब ग्रामीणों की आर्थिक सफलता से जुड़ी हुई है, उसको सीमित करना या उसके बजट में कटौती करना गरीबों के प्रति सरकार की ‘नेक’ नीयत को दर्शाता है।

यह बात सही है कि मनरेगा में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। मनरेगा के लिए आवंटित राशि का तीस फीसदी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। पर भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों से निपटने का तरीका यह नहीं हो सकता कि इस योजना में बिना सोचे-समझे बदलाव कर दिया जाए या योजना का दायरा सीमित कर दिया जाए। अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद मनरेगा देश की एक बड़ी ग्रामीण आबादी को रोजगार और सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराती है। अगर यह योजना सीमित या बन्द हो जाती है, तो उसके सामने जीवन-यापन का बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा।

मनरेगा की महज इसलिए आलोचना नहीं की जानी चाहिए कि यह योजना पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने शुरू की थी। योजना के गुण-दोष के आधार पर ही इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। मनरेगा का मखौल उड़ाने के बजाय अच्छी बात यह होती कि मोदी सरकार, मनरेगा कार्यक्रम को आगे भी भली-भाँति जारी रखने के लिए अपनी ओर से हर मुमकिन मदद देती।

मनरेगा के अलावा फिलहाल देश में ऐसी कोई योजना नहीं, जो उन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान करे। यदि सरकार फिर भी मनरेगा को खत्म करना चाहती है तो उसे सबसे पहले देश के सामने गरीबों के लिए काम की गारण्टी देने वाली कोई नई इससे बेहतर योजना पेश करनी चाहिए। केंद्र की सत्ता में आए नौ महीने से ज्यादा हो गए, लेकिन मोदी सरकार जुबानी जमा खर्च के अलावा अभी तलक कोई ऐसी योजना नहीं ला पाई है, जिससे देश के गरीबों का भला हो। गरीबों को गाँव में ही रोजगार मिल पाए। ले-देकर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजना ‘मेक इन इण्डिया’ का देश में शोर तो खूब सुनाई देता है, लेकिन धरातल पर कुछ भी नहीं है।

मनरेगा की महज इसलिए आलोचना नहीं की जानी चाहिए कि यह योजना पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने शुरू की थी। योजना के गुण-दोष के आधार पर ही इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। मनरेगा का मखौल उड़ाने के बजाय अच्छी बात यह होती कि मोदी सरकार, मनरेगा कार्यक्रम को आगे भी भली-भाँति जारी रखने के लिए अपनी ओर से हर मुमकिन मदद देती। योजना की पहुँच कम करने की बजाय इसे और अधिक व्यावहारिक एवं पारदर्शी बनाने की कोशिश की जाती।

मसलन किस तरह ठेकेदारों और बिचौलियों के चंगुल से श्रमिकों को मुक्त कराया जाए और उन्हें उनके श्रम का वाजिब भुगतान मिले। किस तरह इस योजना के तहत होने वाले कार्यों पर कड़ी नजर रखी जाए। किस तरह से मजदूरों को ज्यादा उत्पादक कार्यों में लगाया जाए। किस तरह से अच्छी परिसंपत्तियों का निर्माण किया जाए। जाहिर है यह सब सही तरह से हो पाया तो योजना के नतीजे भी देश में बेहतर दिखाई देंगे और सरकार को मनरेगा का विकल्प ढूँढ़ने की भी जरूरत महसूस नहीं होगी।

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