मनरेगा के तहत काम प्राप्त करने के लिये जॉब कार्ड हासिल करने वाले परिवारों की संख्या भी वित्तीय वर्ष 2015 तक बढ़ी। उसके बाद इस संख्या में मामूली कमी आई। वित्तीय वर्ष 2014 में जॉब कार्ड धारकों की संख्या सर्वाधिक 13.15 करोड़ थी। यह जानकारी भी पीएचडी रिसर्च ब्यूरो की मनरेगा वेबसाइट पर उपलब्ध है। हालांकि ऐसी तमाम रिपोर्टें मिलती रही हैं जिनमें इस योजना के तहत उपयोग में लाये जाने वाले संसाधनों के छीजन या नुकसान किये जाने जैसी बातों का उल्लेख रहा है।देश में महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम महात्मा गाँधी नेशनल रूरल इम्पलॉयमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) 2005 में तैयार किया गया था। यह मजबूत सामाजिक सुरक्षा तंत्र प्रस्तुत करता है, जिसके माध्यम से सम्पत्ति के पुनर्वितरण और सार्थक रोजगार सृजन को भारतीय नीति-निर्माण एजेंडा का अभिन्न हिस्सा बनाए रखने के मद्देनजर प्रयास किये जाते हैं।
यूपीए सरकार ने इसे पहले पहल 2006 में देश के दो सौ पिछड़े जिलों में आरम्भ किया था। वर्ष 2007-08 में इसका समूचे में विस्तार कर दिया गया। आज यह कार्यक्रम ग्रामीण भारत में जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। एक औसत के मुताबिक, इस योजना के तहत करीब 25 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को रोजगार मिलता है।
यह एक्ट उस समय बनाया गया जब 1980 और 1990 के दशकों के दौरान एक दशक से ज्यादा समय तक जीडीपी में वृद्धि की दर सतत उच्च बनी रही। लेकिन इसके बावजूद लगा कि ग्रामीण भारत में गरीबी को कम करने में जीडीपी में इतनी ऊँची वृद्धि दर भी पर्याप्त नहीं रही।
योजना के बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है, लेकिन तय यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था, जहाँ लोग आजीविका के लिये मुख्यत: कृषि पर ही निर्भर हैं, के लिये मनरेगा जीवनदायिनी है। यह सर्वविदित तय है कि भारत में कृषि मानसूनी अनिश्चितता पर आश्रित है। इस कारण से यह योजना सर्वाधिक जरूरत के समय अपनी उपयोगिता साबित करती है।
हाल के वर्षों में अनेक शोधार्थियों ने निष्कर्ष निकाले हैं कि इस योजना के चलते ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर लोगों के जाने की प्रवृत्ति या विवशता कमजोर पड़ी है। ग्रामीण श्रम की मोल-भाव की ताकत में इजाफा हुआ है। ग्रामीण परिवारों की खाद्य सुरक्षा में सुधार हुआ है। ‘हरित रोजगार’ का सृजन हुआ है और जलवायु स्वच्छ रखने वाली कृषि को बढ़ावा मिला है।
कार्यक्रम आरम्भ होने के बाद से ही सरकार 3,13,844.55 करोड़ रुपए व्यय कर चुकी है। इसमें से 71 प्रतिशत हिस्सा कामगारों को मजदूरी देने की मद पर व्यय किया गया। कार्यक्रम के तहत कुल 1,980.01 श्रम दिवसों का सृजन हुआ है। साथ ही, महिला कामगारों की भागीदारी कानूनी रूप से न्यूनतम 33 प्रतिशत से कहीं ज्यादा रही है।
इस योजना से ग्रामीण जनसंख्या के अनेक हिस्से लाभान्वित हुए हैं। इनमें बड़ा हिस्सा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों का है, जिन्हें इस योजना का खासा लाभ मिला है। सालाना सृजित कुल श्रम दिवसों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों की भागीदारी 40-60 प्रतिशत के बीच रही। इसके साथ ही महिलाएँ इस योजना की प्रमुख हितग्राही रहीं। इस तय की पुष्टि एनएसएसओ के 66वें चक्र के सर्वेक्षण से भी होती है।
महिलाएँ फायदे में
वित्तीय वर्ष 2011-12 में महिला श्रम दिवसों का अनुपात 49 प्रतिशत (दिसम्बर, 2011 तक) था, जो 2012-13 में बढ़कर 53 प्रतिशत (दिसम्बर, 2012 तक) हो गया। इस प्रकार यह आँकड़ा वास्तविक बढ़ोत्तरी दर्शा रहा है। कुल मिलाकर देखें तो शोधों से संकेत मिलता है कि महिलाओं को रोजगार मुहैया कराने में मनरेगा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
महिलाओं को मनरेगा के तहत अवसर नहीं मिलने की सूरत में या तो उन्हें बेरोजगार रहना पड़ता या प्रछन्न बेरोजगारी का सामना करना पड़ता। मनरेगा महिला रोजगार की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य कर पा रहा है, तो इसलिये कि इस बाबत एक्ट में ही लैंगिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं है। इसमें सुनिश्चित किया गया है कि कार्य कामगार के रहने के स्थान के पाँच किलोमीटर के दायरे में मिलना चाहिए। साथ ही, यह मजदूरी में समानता भी सुनिश्चित करता है।
रोजगार पाने वाले परिवारों में बढ़ोत्तरी हुई है। बीते दस वर्षों के दौरान इनमें 90 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। वित्तीय वर्ष 2011 में इनकी संख्या सर्वाधिक ऊँची 5.49 करोड़ थी। उसके बाद से इस संख्या में तेजी से गिरावट आई। यह जानकारी पीएचडी रिसर्च ब्यूरो की मनरेगा वेबसाइट से हमें मिलती है।
मनरेगा के तहत काम प्राप्त करने के लिये जॉब कार्ड हासिल करने वाले परिवारों की संख्या भी वित्तीय वर्ष 2015 तक बढ़ी। उसके बाद इस संख्या में मामूली कमी आई। वित्तीय वर्ष 2014 में जॉब कार्ड धारकों की संख्या सर्वाधिक 13.15 करोड़ थी। यह जानकारी भी पीएचडी रिसर्च ब्यूरो की मनरेगा वेबसाइट पर उपलब्ध है। हालांकि ऐसी तमाम रिपोर्टें मिलती रही हैं जिनमें इस योजना के तहत उपयोग में लाये जाने वाले संसाधनों के छीजन या नुकसान किये जाने जैसी बातों का उल्लेख रहा है।
लेकिन स्वतंत्र संगठनों द्वारा पूर्व किये गए आकलनों से पता चलता है कि कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में मनरेगा परियोजनाओं के चलते भूजल के स्तर के साथ पेयजल की उपलब्धि में वास्तव में सुधार हुआ है। एसबीआई के हाल में जारी आँकड़े के मुताबिक, उत्तर प्रदेश ऐसा प्रमुख राज्य है, जहाँ अपने कष्टों से उभरने की खातिर पहले से कहीं ज्यादा लोगों ने मनरेगा का अवलम्बन लिया है।
ये लोग कम बारिश होने से परेशान थे। राज्य में उम्मीद से 45 प्रतिशत कम बारिश होने से उनकी परेशानियाँ बढ़ गई थीं। इस करके मनरेगा मजदूरी में प्रति-व्यक्ति 32 प्रतिशत वृद्धि हुई। सौ दिनों के लिये काम करने वालों की संख्या में इजाफा हुआ। यह पिछले साल 22,500 थी, जो इस वर्ष दोगुना बढ़कर 47,600 हो गई।
महसूस किया जा रहा है कि इस योजना को अपने रुख में बदलाव करते हुए पूरी सक्रियता के साथ छोटे और सीमान्त किसानों की छोटी जोतों में सुधार की दिशा में बढ़ना चाहिए। इस कार्य को मनरेगा के तहत सामुदायिक कार्य के साथ-साथ टिकाऊ सम्पत्तियों के विकास/निर्माण के जरिए सिरे चढ़ाया जा सकता है।
ऐसा हो सका तो आने वाले समय में इससे कृषि की उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिल सकेगी। यह उपाय छोटे, मझौले तथा सीमान्त किसानों की आजीविका का ढर्रा ही बदल देने वाला साबित हो सकता है। और मनरेगा के कार्यकलाप को भी व्यापकता मिल सकेगी। कृषि और कृषि से जुड़ी गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित किया जा सका तो निश्चित ही यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। ग्रामीण तथा कृषि से जुड़े लोगों की आय में इजाफा करने की गरज से यह एक बड़ी आर्थिक गतिविधि बन सकती है।
संक्षेप में कह सकते हैं कि यह योजना ग्रामीण भू-क्षेत्र के लिये किसी वरदान से कम नहीं है। भले ही इसके खिलाफ कुछ बातों को पेश किया जाये। कहा जाये कि इसमें भ्रष्टाचार ने पाँव पसार लिये हैं, लेकिन यह कोई बड़ा मसला नहीं है। थोड़ी निगरानी से ही भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है। योजना को व्यापक बनाए जाये तो यह किसानों और ग्रामीण परिवारों के लिये बेहद लाभकारी रहेगी।
डॉ. एसपी शर्मा प्रमुख अर्थशास्त्री पीएचडी चेम्बर हैं।
मेघा कौल सीनियर फैलो पीएचडी चेम्बर हैं।
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Post By: RuralWater