यह सर्व ज्ञात सत्य है कि जमीन पर तापमान में अन्तर के चलते मानसूनी हवाएं चलती हैं। इस विचारधारा के अनुसार यदि पृथ्वी पर या उसके सम्पूर्ण धरातल पर जल का या केवल स्थल का ही वितरण होता तो मानसून की उत्पत्ति न होती, किन्तु यह युक्ति ठीक वैसी ही है जैसे ``न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। ´´ अत: जमीन पर तापमान के अंतर के चलते मानसूनी हवाएं चलती हैं। वायुमण्डलीय ताप और दाब से गति उत्पन्न होती है। वायु भी द्रव के समान ही व्यवहार करती है, अर्थात उच्च वायुभार से निम्न वायुभार की ओर बहना, प्रकृति के इस नियम को वाइस वैल्टस ला कहते हैं।
उत्तरी - पूर्वी भारत में कम वायुभार होने के कारण हवाएं विषुवत रेखा की ओर चलना प्रारम्भ कर देती हैं। प्रकृति को जैसे खाली जगह से चिढ़ हो वह उसे भरने के लिए झटपट तैयार हो जाती है। मानसून शुद्ध जलवायु वैज्ञानिक घटना है, जिसका जन्म सात समुन्दर पार नहीं बल्कि हिन्द महासागर में होता है, आगे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से भी इन मानसूनी हवाओं में नमी ग्रहण करने की क्षमता होती है और ये नमी ग्रहण भी करती हैं।
मानसून का अर्थ वर्षा ऋतु से होता है यानी जिस प्रदेश में ऋतु बदलते हवाओं की प्रकृति और दिशा बदल जाती है, ये सारे प्रदेश मानसूनी जलवायु के प्रदेश कहे जाते हैं। दक्षिण-पूर्व एवं दक्षिण-एशिया के देशों में मानसूनी जलवायु पायी जाती है। मानसून शब्द वास्तव में अरबी भाषा के ``मौसिम´´ तथा मलाया के ``मौन्सीन´´ शब्द का ही हिन्दी रूपान्तरण है। इनका प्रयोग ऋतुओं के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। इसका प्रयोग सर्व प्रथम अरब सागर में चलने वाली हवाओं के लिये किया गया था,जो 6``छह`` माह उत्तर पूर्व से तथा छह माह दक्षिण-पश्चिम से चला करती हैं। इन हवाओं का मतलब होता है हवाओं के नियमित व स्थायी मार्ग में अस्थायी परिवर्तन यानी Permanent route पर चलने वाली खास गाड़ियों की जगह Special Train की व्यवस्था होना। यह व्यवस्था प्रकृति द्वारा की जाती है, लेकिन यह व्यवस्था सभी स्थानों पर समान नहीं, बल्कि जरूरत के मुताबिक कभी-कभी, कहीं-कहीं होती है अर्थात् यह व्यवस्था कुछ स्थानों तक ही सीमित है। महाद्वीपों के पूर्वी भाग में भूमध्य रेखा से 50 से 400 अक्षांशों के मध्य इनका विस्तार पाया जाता है। मानसूनी पवनों के प्रभाव के कारण इन क्षेत्रों को मानसूनी प्रदेश की संज्ञा दी जाती है। इन प्रदेशों का प्रतिशत कुल क्षेत्रफल के 5 प्रतिशत के बराबर है, किन्तु इन क्षेत्रों में विश्व की लगभग 25 प्रतिशत जनसंख्या पायी जाती है। भारत की गणना भी मानसूनी प्रदेश में ही होती है, विश्व के या पृथ्वी के पांचों महाद्वीपों में इनका विस्तार पाया जाता है
1 -एशिया मे भारत, पाकिस्तान , वियतनाम , बर्मा, थाईलेण्ड, कम्बोडिया तथा चीन का दक्षिणी भाग।
2 - उत्तरी अमेरिका में-संयुक्त राज्य अमेरिका का फ़लोरिडा, मैक्सिको तथा मध्य अमेरिकी देश।
3 - दक्षिणी अमेरिका में-वेनेजुएला व कोलिम्बया का उत्तरी तट, ब्राजील के दक्षिणी पूर्वी तट।
4 - आस्ट्रेलिया में- क्वींसलैण्ड तथा उत्तरी आस्ट्रेलिया का तटीय प्रदेश।
5 - अफ्रीका में-पूर्वी अफ्रीका के मोजाम्बिक तटीय प्रदेश में यह जलवायु पायी जाती है।
मौसम वैज्ञानिक मानसून को इस तरह परिभाषित करते हैं कि वे ऐसी सामयिक हवाएं हैं, जिनकी दिशाएं साल में दो बार उलट-पलट हो जाती हैं। उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम में मानसूनी हवाओं की दिशा में बदलाव वैज्ञानिक भाषा में कोरियालिस बल के कारण होता है। यह बल गतिशील पिण्डों पर असर डालता है। हमारी पृथ्वी गतिशील पिण्ड है, जिसकी दो गतियां हैं-दैनिक गति और वार्षिक गति। परिणामस्वरूप उत्तरी गोलार्ध्ं में मानसूनी हवाएं दायीं और दक्षिणी गोलार्ध्द में बायीं ओर मुड़ जाती हैं। वायु की इस गति की खोज पहले फेरल नामक वैज्ञानिक ने की थी। इस कारण इस नियम को फेरल का नियम कहते हैं। मानसून का अध्ययन प्राचीन काल से जारी है। सिकन्दर, अरस्तू वास्कोडिगामा और एडमण्ड हेली समेत कई अनुसंधानकर्ताओं ने मानसूनी हवाओं के बारे में विस्तार से लिखा। अब अत्याधुनिक कृत्रिम उपग्रहों के द्वारा तुरन्त मानसूनी तथ्यों का अध्ययन कर लिया जाता है। भारतीय क्षेत्र से 70 मिनट में कृत्रि उपग्रह एक चक्कर पूरा करता है, उसी समय सम्पूर्ण वायुमण्डलीय गतिविधियों की जानकारी ब्वउचनजमत में संग्रहीत कर ली जाती है। मानसून के बारे में अब तक किये गये अध्ययनों को ऐतिहासिक संदर्भ में देखने से तीन विचारधाराएं बनती हैं, कि मानसून की उत्पत्ति कहां और कैसे होती है। सबसे पहला मत पुराना है, जिसे चिरसम्मत विचारधारा या क्लासिकल स्कूल कहा जाता है।
जाड़े की ऋतु में उत्तरी भारत तथा आसपास का क्षेत्र काफी ठण्डा हो जाता है, जिससे यहां वायुदाब बढ़ जाता है। इस क्षेत्र की स्थिति उच्च रक्तचाप में मरीज के समान होती है जिसे कम करने को हवाएं दक्षिण की ओर चलना प्रारम्भ कर देती हैं, जबकि दक्षिण में फैले हिन्द महासागर एवं प्रशान्त महासागर अपेक्षाकृत बहुत गरम होते हैं। परिणामस्वरूप यहां कम वायुदाब रहता है। वायुदाब की ऐसी व्यवस्था के कारण इस ऋतु में हवाएं भारतीय उपमहाद्वीप से उत्तर से दक्षिण की ओर अर्थात भारत से हिन्द महासागर की ओर चलने लगती है। स्थल से चलने वाली इन हवाओं को ``जाड़े का मानसून´´ कहते हैं। इन हवाओं के स्थलीय भाग से चलने के कारण वर्षा नहीं होती है।
इसके विपरीत ग्रीष्मकाल में जब सूर्य कर्क रेखा पर प्रचण्ड रूप से तपता है तो भारत सहित समस्त तमाम एशिया गरम हो उठता है, जिससे यहां वायुदाब घट जाता है किन्तु दक्षिण में स्थित हिन्द महासागर अपेक्षाकृत शीतल रहता है जिसके कारण यहां वायुदाब अधिक रहता है। ऐसी दशा में हवाएं हिन्द महासागर से भारतीय स्थली क्षेत्र की ओर चलना प्रारम्भ कर देती हैं।इन पवनों को ग्रीष्मकालीन मानसून कहा जाता है। ये हवाएं भारत तथा समीपवर्ती क्षेत्रों में खूब वर्षा का कारक होती हैं। मानसून की उत्पत्ति की यह प्राचीन अवधारणा है।
मानसून की उत्पत्ति के बारे में दूसरी विचारधारा सनातन ``स्थायी`` वायु प्रणालियों के प्रसार एवं संकुचन से उत्पन्न होता है।सूर्य की स्थिति के साथ स्थायी वायु की पेटियों की स्थिति में परिवर्तन होता रहता है। इस विचारधारा को वायुराशि विचारधारा भी कहते हैं। जर्मन वैज्ञानिक फ़लोन के अनुसार-पृथ्वी पर सूर्य की किरणें साल भर एक स्थान पर लम्बवत् नहीं पड़ती। कर्क रेखा पर सूर्य के लम्बवत् चमकने पर वायुदाब की पेटियॉ 5 अंश उत्तर की ओर खिसक जाती हैं और मकर रेखा पर दक्षिणायन में सूर्य के चमकने पर पेटियां 5 अंश दक्षिण गोलार्द्घ में खिसक जाती है। जून जुलाई के महीने में उष्ण कटिबंधीय सीमान्त खिसक कर उत्तरी भारत के उपर आ जाता है।नतीजतन इस सीमान्त के मध्य भाग में चलने वाली भूमध्यरेखीय पछुआ हवाएं भी भारत तक पहुंचाने लगती हैं। चूंकि ये हवाएं समुद्र से आती हैं, परिणामस्वरूप ये नमी से युक्त होती हैं। भारत में पहुंच कर ये वर्षा करती हैं। इस विचारधारा के अनुसार भारत में सर्दी के मौसम में उत्तरी व्यापारिक हवाएं चलती हैं और ग्रीष्म ऋतु में यहां विषवत रेखीय पछुआ हवाएं चलती हैं।
आधुनिक विचारधारा के समर्थक एस रत्ना एवं रामनाथन जैसे जाने-माने मौसम विशेषज्ञ है। जिनकी मान्यता है कि भारतीय मानसून दक्षिण गोलार्द्घ में बहने वाली व्यापारिक हवाएं हैं जो जेट वायुधारा के विक्षोभ से नियंत्रित होती हैं।हिमालय के उपर वायुमण्डल की उपरी पर्तो पर यह वायुधारा बहती है। जेट स्ट्रीम सौ मील चौड़ी नदी के समान है जो 5.7 मील की उंचाई पर संसार का चक्कर लगाती है। इसकी गति ग्रीष्म ऋतु में 60 मीटर घण्टा तथा शीत ऋतु में 120 मीटर घण्टा होती है। पर्वतराज हिमालय ने ही भारत को रेगिस्तान होने से बचा लिया। यदि वे न होते तो मानसून की भरपूर वर्षा भारत में न हो पाती। हिमालय केवल भौतिक अवरोध की दीवार मात्र नहीं खड़ी करता बल्कि दो भिन्न जलवायु वाले भागों को भी अलग करता है। हिमालय में वायुधारा के दो भाग हैं, पूर्वी जेट स्ट्रीम तथा पश्चिमी जेट स्ट्रीम, इस वायुराशि का वेग बहुत तेज है। इसका नामकरण का इतिहास दुखद घटना के साथ जुड़ा हुआ है। जब अमेरिकी पायलट नागासाकी और हिरोशिमा पर एटम बम गिराने जा रहे थे तो हिमालय के उपर से गुजरते वक्त उनके विमान की गति एकदम धीमी हो गयी और बम डालकर वापस होते समय उनकी गति तीव्र हो गयी, लेकिन वायुधारा के बाहर निकलते ही फिर जेट विमान अपनी पूर्व स्थिति में हो गया। इसी के बाद वैज्ञानिकोंने इस वायुधारा का नाम दे दिया यही जेट वायुधारा मानसून की अगली चाभी है।
मानसून की अनिश्चितता और अनियमितता का कारण जेट स्ट्रीम ही है। जिस वर्ष मध्य जून तक जेट स्ट्रीम खिसककर उत्तर की ओर तिब्बत के पठार पर पहुंच जाता है, उस वर्ष मानसून भारतीय उपमहाद्वीप पर सामान्यतया सही समय पर आ जाता है। जेट स्ट्रीम के उत्तर की ओर खिसकने में विलम्ब की स्थिति में मानसून भी विलम्ब से भारत पहुंचता है। जब तक धरातलीय निम्न दाब के उपर जेट स्ट्रीम की स्थिति बनी रहती है, तब तक वर्षा नहीं हो पाती, क्योंकि जेट स्ट्रीम निम्न वायुदाब को उपर उठने से रोकती है।अत: मौसम शुष्क और गर्म बना रहता है। मध्य जून से जेट स्ट्रीम की स्थिति तिब्बत के पठार के उत्तर में हो जाती है और प्रवाह दिशा शीतकालीन मार्ग के विपरीत हो जाती है। ईरान के उत्तरी भाग एवं अफगानिस्तान के उपर इस जेट का प्रवाह मार्ग चक्रवातीय क्रम क्तड़ी के विपरीत दिशा में होता है। फलस्वरूप वायु के उत्तरी भाग में चक्रवातीय दशा उत्पन्न हो जाती है। इस चक्रवात की स्थिति उत्तरी-पूर्वी भारत-पाकिस्तान तक हो जाती है, जिसके निचले धरातल पर पहले ही तापीय निम्न वायुदाब बन चुका है, जिसके कारण नीचे की हवा उपर उठती हैं,साथ ही उपर स्थित चक्रवातीय दिशा ``निम्न दाब`` नीचे से उपर उठने वाली हवाओं को और अधिक उपर खींचता है,जिसके दक्षिण पूर्वी मानसून का तेजी से आगमन होता है। इसे मानसून विस्फोट कहा जाता है।
बादल बिना बरसे क्यों चले जाते हैं
मानसून विलम्ब से क्यों आते हैं
आदि प्रश्नों के उत्तर कई बातों पर निर्भर करते हैं। जब हिमालय पर्वत पर बर्फ की अधिकता होती है और मई तक वर्षा होती है तो मानसून निर्बल पड़ जाता है। जेट स्ट्रीम जब मध्य जून तक तिब्बत के पठार तक पहुंच जाता है तो मानसून का प्रवेश निर्धारित समय में होता है। मानसून आने से पूर्व अरब सागर की सतह का तापमान जितना अधिक गिरता जाता है, मानसूनी हवाएं उतनी अधिक शक्तिशाली होती जाती हैं। मार्च, अप्रैल एवं मई में चिली और दक्षिणी अमेरिका में वायुभार यदि अधिक होता है, तो मानसून शीघ्र आरम्भ हो जाता है। अप्रैल के महीने में जंजीवार के निकट अधिक वर्षा होती है, तो भारतीय मानसून निर्बल पड़ जाता है। इन क्षेत्रों में अधिक वर्षा का अर्थ है, अधिक तेज संवाहन धाराओं का उत्पन्न होना। ये धाराएं दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी हवाओं को उत्तर की ओर रुकने नहीं देती हैं। इसके फलस्वरूप भारतीय मानसून कमज़ोर पड़ जाता है तथा देर से प्रारम्भ होता है। ये ऐसे कारक हैं जो मानसून को प्रभावित कर उसे मनमौजी बना देते हैं।
- डॉ बृजेन्द्र कुमार शर्मा -
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