दक्षिण भारत में खेतों की सिंचाई पारम्परिक रूप में पानी के छोटे-छोटे स्रोतों से की जाती थी। सिंचाई के संसाधनों के संचालन में मन्दिरों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता था। हालांकि चोल (9वीं से 12वीं सदी) और विजयनगर दोनों ही साम्राज्यों ने कृषि को बढ़ावा दिया, फिर भी इनमें से किसी ने भी सिंचाई और सार्वजनिक कार्यों के लिये अलग से विभाग नहीं बनाया। इन कार्यों को सामान्य लोगों, गाँवों के संगठनों और मन्दिरों पर छोड़ दिया गया था, क्योंकि ये भी जरूरी संसाधनों को राज्य की तरह ही आसानी से जुटा सकते थे। उदाहरण के तौर पर, आन्ध्र प्रदेश के तिरुपति के पास स्थित शहर कालहस्ती में बना शैव मन्दिर चढ़ावों का उपयोग सिंचाई के लिये नहरों की खुदाई और मन्दिरों की अधिकृत जमीनों पर फिर अधिकार प्राप्त करने के लिये करता था। सन 1540 के कालहस्ती अभिलेख के अनुसार “वीराप्पनार अय्यर ने भगवान के खजाने में 1306 पोन (मुद्रा) जमा किये, जिसका उपयोग मुत्तयामान-समुद्रम के पास के नए क्षेत्रों को खरीदने में किया जाना था, जिससे इस जमीन को खेती के काम में लाया जा सके। इसके अलावा लक्कुसेतिपुरम झील से पानी निकालने का भी प्रयोजन था। इस झील की मरम्मत और रख-रखाव के लिये जमा किये गए धन में से 1006 पोन खर्च किये जाने थे।”
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Post By: Editorial Team