मखाना उत्पादन पूरी तरह से मछुआरा समुदाय की महिलाओं के हाथों में है। पुरुष इस पूरी प्रक्रिया में बस सहयोग करते हैं। उनका काम केवल तालाब से मखाने के तैयार बीजों को तोड़ना होता है। दरअसल मखाने की पत्तियों, तनों और जड़ों में हजारों नुकीले काँटे होते हैं। ये काँटे बीज तोड़ते वक्त बहुत तेज चुभते हैं। बीज तोड़ने में पूरा हाथ जख्मी हो जाता है। इस काम मे पुरुषों का सहयोग केवल यही तक रहता है। इन बीजों को तोड़ने में तकलीफ ना हो, इसके लिए तकनीक सुविधा लेने का विचार हो रहा है।
मिथिलांचल में पान और तालाब के बाद अगर कोई पहचान है तो वह है ‘मखाना’। मखाना मिनरल और न्यूट्रियंस से भरपूर होता है। इसके सेवन से कई फायदे मिलते हैं। मिथिला में पैदा होने वाला मखाना एक और लाभ पहुँचा रहा है। वह लाभ है महिलाओं को सशक्त करने का। मछुआरा समुदाय से ताल्लुक रखने वाली महिलाएँ मखाना का उत्पादन कर आधी आबादी की मेहनत, लगन का उदाहरण पेश कर रही हैं।संस्था से मिलती है मदद
महिला सशक्तिकरण को लेकर जागरूक रहने वाली संस्था ‘सखी बिहार’ इस काम में मदद करती है। संस्था की प्रमुख सुमन सिंह बताती हैं कि इन क्षेत्रों की महिलाओं की मेहनत पर सन्देह नहीं किया जा सकता है। इसी प्रवृत्ति को देखकर हमने मदद की।हालाँकि हमारी उम्मीदों का सुफल परिणाम मिलना इतना आसान नहीं था। मखाना उत्पादन की शुरुआत कब और कैसे हुई? इसके बारे में वह कहती हैं कि सन् 1992 में करीब इसकी शुरुआत की गई। पूरे मिथिलांचल में तालाबों की भरमार है। इन तालाबों में मखाना का उत्पादन पहले से भी होता रहा है लेकिन मेहनत के हिसाब से ना तो उत्पादन होता था और ना ही पैसे मिलते थे। संस्था ने इन महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण को लेकर ही उनकी सहायता करने की बात सोची। नतीजा आज सामने है।
मकड़जाल में फँसी थी पूरी व्यवस्था
काम कैसे शुरू हुआ? वह कहती हैं, मखाना उत्पादन को लेकर जब पहल की गई तब कई तरह की परेशानियाँ सामने आ गई। सबसे बड़ी परेशानी थी दबंगो, दलालों के चंगुल से इस पूरी व्यवस्था को मुक्त कराना। दबंग तालाबों पर कब्जा किए हुए थे। वह किसी कीमत पर इसे अपने कब्जे से अलग नहीं करना चाहते थे। कई बार बातचीत की गई। मामला अदालत तक चला आया। इन सबके बीच में ही महिलाओं से भी सम्पर्क रखा गया। वह इन बातों से घबरा कर हमारी बात नहीं सुनती थी। पुरुषों, महिलाओं में असमंजस की हालत थी। इससे पहले इन सभी ने कभी सिलसिलेवार तरीके से काम नहीं किया था। धीरे-धीरे इसमें सुधार होना शुरू हुआ। हमारे समझाने का असर हुआ और करीब 20 महिलाओं ने इस काम के लिए अपनी हामी भरी।
कठोर मेहनत का परिणाम
मधुबनी, दरभंगा जिले के कई गाँवों के साथ झंझारपुर इलाके में बड़ी मात्रा में मखाना का उत्पादन किया जाता है। झंझारपुर क्षेत्र के नवानी, सुरखेब, दीपगोधनपुर, ठाढ़ी, जसरार, झंझारपुर मच्छटा और दरभंगा जिले के मनिगाछी में महिलाएँ मखाना उत्पादन कर रही हैं। तालाब से मखाने के बीज को गरम करने से लेकर लकड़ी के हथौड़े से मार कर मखाना महिलाएँ ही निकालती हैं। बीज पर जितनी जोर से चोट लगती है, उसके अन्दर से उतना ही बड़ा मखाना निकलता है। यह प्रक्रिया परम्परागत है।
सुमन बताती हैं कि जब दबंगों के चंगुल से तालाबों को मुक्त कराया तब इन्हीं महिलाओं के नाम पर को-ऑपरेटिव से तालाबों का पट्टा कराया गया। महज् 20 महिलाओं के साथ शुरू किया यह काम अब विस्तृत हो गया है। आज करीब तीन हजार महिलाएँ लगभग एक सौ तालाबों में मखाना उत्पादन कर रही हैं। वह कहती हैं कि अपने मेहनत का नतीजा देखते हुए अब निजी तालाबों को भी पट्टे पर ले रही हैं। मखाना को फाक्सनर या प्रिकली लिली कहा जाता है। इसके पत्ती के डण्ठल एवं फलों पर छोटे-छोटे काँटे होते हैं। वनस्पति शास्त्र में नाम यूरेल फरोक्स है। मखाना में जड़कन्द होता है।
इसकी बड़ी-बड़ी गोल पत्तियाँ पानी की सतह पर तैरती रहती हैं। कृषक मो. शहाबुल के अनुसार मखाना का फल व बीज दोनों खाया जाता है। एक फल में 15 से 20 संख्या में बीज लगते हैं। बीज मटर के दाने के बराबर किन्तु कठोर होता है। अप्रैल के महीने में पौधों में फूल लगते हैं। फूल पौधों पर 3-4 दिन तक टिके रहते हैं और इस बीच पौधों में बीज बनते रहते हैं। 1-2 महीनों में बीज फलों में बदलने लगते हैं। फल जून-जुलाई में 24 से 48 घण्टे तक पानी की सतह पर तैरते हैं और फिर नीचे जा बैठते हैं। फल काँटेदार होते हैं। 1-2 महीने का समय काँटों को गलने में लग जाता है, सितम्बर-अक्टूबर महीने में पानी की निचली सतह से किसान उन्हें इकट्ठा करते हैं, फिर उनकी प्रोसेसिन्ग का काम शुरू किया जाता है।
प्राथमिक पहल भी महिलाओं के ही हाथ
तालाब में मखाने के पौधे को लगाना महिलाओं के ही जिम्मे है। बकौल सुमन, तालाब में एक बार मखाना का पौधा डाल देने से वैसे तो हर साल फसल की प्राप्ति होती है लेकिन पहली फसल के बाद उसकी उत्पादन क्षमता घटने लगती है। तालाब के पानी का स्तर भी तीन से चार फीट ही रहना चाहिए। सभी बातों का यही ख्याल रखती हैं। साथ ही फसल में कीड़े ना लगे, इसलिए वक्त-वक्त पर इन फसलों की जाँच करती रहती हैं।
इनकी मेहनत के हिसाब से फसल की प्राप्ति हो, इसके लिए हमने उन्नत तरीके से पौधे लगाने की बात सोची। इलाके के ही कुछ लोगों को बताया गया कि जैसे धान के बिचड़े होते हैं, वैसे ही मखाना के पौधे तैयार किए जाते हैं। अब लोग मखाने के पौधों का विचड़ा लगाकर पैसे कमा रहे हैं। महिलाओं को भी आसानी से पौधे मिल जाते हैं। इन्हें प्रशिक्षण भी दिलाया जा रहा है।
मेहनत का मिलता है भरपूर नतीजा
मार्च में प्लांटिंग करने के बाद जुलाई-अगस्त तक एक एकड़ क्षेत्रफल वाले तालाब से करीब 10 क्विण्टल मखाने के बीज की प्राप्ति होती है। कई प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद इन बीजों में से तकरीबन सात क्विण्टल तैयार मखाना मिलता है। 180 रुपए प्रति किलो की दर से लगभग सवा लाख रुपए की फसल की प्राप्ति होती है। इस राशि पर इनका ही अधिकार होता है।
पहले थी ‘मजदूर’ अब हैं ‘मालकिन’
इतने बड़े पैमाने पर मखाने की खेती कर रही ये महिलाएँ पहले मजदूरों की तरह काम करती थी। बिचौलिए उनसे दैनिक मजदूरी देकर काम कराते थे। थोड़ी मात्रा का मखाना बड़ी जगह लेता है। तैयार मखाना रखने के लिए इनके पास जगह की कमी होती थी जिसका फायदा बिचौलिए उठाते थे। वह औने-पौने दाम में खरीद कर उसे अच्छे दाम पर बेच देते थे। संस्था ने इस बात को समझा और एक स्टोर का निर्माण कराया। इससे इनको फायदा हुआ। अब महिलाएँ अपनी फसल को इसमें रखती हैं और बाजार एवं माँग के हिसाब से अपनी फसलों को बेचती हैं।
देश के दिल ने भी सराहा
सुमन कहती हैं कि इन महिलाओं की मेहनत को तब और परवान और पहचान मिली जब राजधानी दिल्ली के ट्रेड फेयर में लोगों ने इसकी प्रशंसा की। सन् 1998 में इस फेयर में तब पटना से ट्रेन द्वारा करीब दो टन मखाना ले जाया गया था। वहाँ का अनुभव बहुत शानदार रहा। वहाँ मखाने के पकवान को लोगों के सामने पेश किया गया। जिसने भी खाया, खुलकर इसके स्वाद की तारीफ की। मखाने की माँग हमेशा बनी रहती है। सूबे में बड़ी मात्रा में इसकी खपत तो है ही साथ ही दिल्ली, कोलकाता जैसे बड़े शहरों के अलावा पूरे देश के साथ विदेशों में भी इसकी आपूर्ति होती है।
बड़े व्यापारी खुद सम्पर्क करते हैं। मखाने की आपूर्ति के लिए व्यापारियों से मोलभाव भी यही करती हैं। सुमन बताती हैं कि मिथिलांचल के मखाने का सबसे बड़ा केन्द्र वाराणसी है। यहाँ से हमेशा माँग बनी रहती है। वाराणसी से ही इन मखानों को पैक कर विदेशों में भेचा जाता है। इसके अलावा पर्व-त्योहारों में लगातार माँग बनी रहती है। नवरात्र जैसे पर्व में मखाने की माँग दुगुनी हो जाती है। मिथिला में शादी की एक रस्म होती है जिसे ‘कोजगरा’ कहते हैं। इसमें मखाने से बने पकवान का उपयोग अनिवार्य रहता है। इसमें बड़ी मात्रा में मखाने का उपयोग होता है।
आयुर्वेदिक औषधि
यह मखाने का फूल दिखने में कमल की तरह ही लगता है, फूलों के अन्दर ही मखाने के बीज पाए जाते है, जिन्हें भून कर मखाना का लावा तैयार किया जाता है। इसके बीजों में प्रोटीन 10 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 75 प्रतिशत के अलावा, आयरन, फास्फोरस और केरोटीन भी पाए जाते हैं। मखाने में वसा की मात्रा बहुत कम होती है इसलिए यह हाई ब्लड प्रेशर और शुगर के मरीजों के लिए अमृत माना जाता है। मखाना यज्ञ का भी महत्वपूर्ण भाग है।
मख का मतलब ही यज्ञ होता है। मखाने की खीर, मखाने के आटे का हलवा आदि भी बनाया जाता है। मखाने के भुने हुए बीज प्रसूताओं को ताकत के लिए खिलाए जाते हैं। यह बीज लड्डू, खीर आदि किसी भी चीज में मिलाकर खिलाए जा सकते हैं। जोड़ों के दर्द और एक्जीमा वाली खुजली में मखाने के पत्तों को पीस कर लगाने से काफी फायदा मिलता है।
अधिकांशतःताकत के लिए दवाएँ मखाने से बनाई जाती हैं। केवल मखाना दवा के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसलिए इसे सहयोगी आयुर्वेदिक औषधि भी कहते हैं। मखाना की खेती को उचित प्रश्रय मिले किसानों के लिए यह वरदान साबित हो सकता है। वैसे मखाना औषधीय गुणों से भरपूर है। कई मर्ज की कारगर दवा के रूप मखाना का इस्तेमाल हो सकता है। आयुर्वेदिक चिकित्सकों के अनुसार मखाना ‘आर्गेनिक हर्बल’ भी कहलाता है। जीर्ण, अतिसार, ल्यूकोरिया, शुक्राणुओं की कमी आदि में यह उपयोगी है।
यह एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर है। इसलिए श्वसनतन्त्र, मूत्राशय एवं जननतन्त्र से सम्बन्धित बीमारियों में यह लाभप्रद होता है। मखाना का नियमित सेवन करने से ब्लडप्रेशर, कमर और घुटने का दर्द नियन्त्रित रहता है। प्रसवपूर्व एवं महिलाओं में आई कमजोरी को दूर करने के लिए दूध में पकाकर यह दिया जाता है। आचार्य भाव मिश्र द्वारा रचित भाव प्रकाश निघंटु में इसका उल्लेख है। मखाना में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, कैल्शियम, फॉस्फोरस के अलावा लौह, अम्ल तथा विटामिन-बी भी पाया जाता है।
उत्पादन की समस्याएँ
मखाने को पानी से निकालने में किसानों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अधिक गहराई वाले तालाबों से मखाना निकालने में डूबने का डर रहता है। तालाबों में पानी के भीतर बगैर साँस लिए अधिक-से-अधिक 2 मिनट रहा जा सकता है। ऐसे में किसानों को बार-बार गोता लगाना पड़ता है। समय, शक्ति और मजदूरी पर अधिक पैसा खर्च होता है।
पानी के जीवों में कई जहरीले भी होते हैं। और कई ऐसे विषाणु भी होते हैं, जो गम्भीर बामारियाँ पैदा कर सकते हैं। किसी तरह के लोशन की व्यवस्था नहीं होने से नुकसान होने का खतरा बना रहता है। मखाना काँटेदार छिलकों से घिरा होता है, जिससे किसानों को और भी कठिनाई होती है। पानी से मखाना निकालने में 25 फीसदी मखाना छूट जाता है और 25 फीसदी मखाना छिलका उतारते समय खराब हो जाता है।
मखाना की खेती आमतौर पर मल्लाह जाति के लोग करते हैं। और उनके अपने तालाब नहीं होते हैं। दूसरी जाति के लोगों में मखाने की खेती की रुचि होने के बावजूद पानी में काम करने की कला नहीं आने के कारण वे सफल नहीं हो पाते। वे पुराने बीजों का इस्तेमाल करते हैं और पोखरों को पट्टे पर व्यापारी को दे देते है, जिसके कारण लाभ कम होता है।
मखाने में उत्पादन की समस्याओं का आधुनिक समाधान खोजना, किसान अधिक-से-अधिक देर तक पानी के अन्दर रहे, इसके लिए उन्हें ऑक्सीजन सिलेण्डर मुहैया कराना होगा। तालाबों की सफाई, जहरीले जीवों से रक्षा, उपचार सुविधा और सुरक्षा दस्ताने का इन्तजाम करना होगा, तैरने की ट्रेनिंग दिलानी होगी।
पानी की सतह से सौ फीसदी मखाने के बीज निकाले जाएँ और छिलके उतारने के दौरान वे बरबाद न हों, इसके लिए वैज्ञानिक तरकीब निकालनी होगी। अपने बाजार तलाशने होंगे। रूरल मार्ट बनाकर किसानों को जोड़ना होगा। हाईब्रिड बीज तैयार करने होंगे, ताकि उपज बढ़ सके।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
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Post By: Shivendra