सरकारी नौकरी और स्थायी किस्म के काम करने वाले लोग भी होते हैं। उनका आना-जाना दिवाली, छठ अपने गाँव में मनाने के आकर्षण में होता है। पर मजदूरों का दिल्ली-पंजाब जाना आमतौर पर छठ के बाद होता है जब पंजाब में धान की कटाई में रोजगार मिलने की पक्की सम्भावना होती है। लेकिन इस साल दिवाली के पहले दशहरा के तुरन्त बाद भीड़ उमड़ पड़ी। इसका सम्बन्ध बाढ़ में सर्वस्व गँवा देने से है। गाँव में खाने के लाले पड़े हैं और बाढ़ की वजह से कामकाज मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं बची। ऐसे में घर रहने का कोई उपाय नहीं है सिवाय पलायन मजबूरी के। बिहार में बाढ़ के प्रभाव और फैलाव को आँकने का एक पैमाना सहरसा रेलवे स्टेशन पर बना अस्थायी यात्री शेड है जो दिल्ली-पंजाब कमाने जाने वाले यात्रियों की भीड़ को सम्भालने में छठ पूजा के अगले दिन से कार्यरत है। बाहर कमाने वाले मजदूरों की भीड़ हर साल दिवाली-छठ के बाद उमड़ती है, इस साल खास यह है कि भीड़ महीने भर पहले से ही आने लगी और इस तादाद में आने लगी कि अक्टूबर महीने के आरम्भ से ही सहरसा स्टेशन पर मजदूर यात्रियों का जमघट लग गया।
अमृतसर जाने वाली नियमित ट्रेन जनसेवा एक्सप्रेस में चढ़ने की आपाधापी में स्टेशन पर मारपीट, हंगामा और सबके बाद ट्रेनों का चक्काजाम कर दिया गया। सात अक्टूबर की इस घटना को सम्भालने में रेलवे ने अम्बाला तक स्पेशल ट्रेन चलाने की घोषणा की। भीड़ इतनी थी कि स्पेशल ट्रेन के चलने के बाद भी स्टेशन पर दसियों हजार यात्री फँसे रहे। प्लेटफार्म से लेकर वाशिंग पिट तक लोग-ही-लोग थे।
सहरसा कोषी क्षेत्र में छह-सात जिलों के बीच स्थित ऐसा रेलवे स्टेशन है जहाँ से लम्बी दूरी की ट्रेनें चलती हैं। यहाँ से अमृतसर के लिये जनसेवा एक्सप्रेस और दिल्ली के लिये जन साधारण एक्सप्रेस रोज चलती हैं और दोनों ट्रेनें पूरी तरह अनारक्षित हैं, उनमें आरक्षण नहीं होता। इन ट्रेनों में बिहार के दूसरे स्टेशनों पर भी यात्री सवार होते हैं और पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपने विभिन्न गंतव्यों तक जाते हैं। इस प्रकार दोनों ट्रेनों को मजदूरों को ढोने वाली गाड़ी कहा जा सकता है। सहरसा से लम्बी दूरी की कुछ दूसरी ट्रेनें भी हैं, पर उन्हें यह संज्ञा नहीं दी जा सकती।
सात अक्टूबर को स्टेशन पर हुई मारपीट और महीने के आरम्भ से ही लगातार बढ़ती भीड़ को देखते हुए छठ के बाद आमतौर पर उमड़ने वाली भीड़ को सम्भालने के लिये रेल प्रशासन पहले से सतर्क रहा और यात्री शेड बनाकर यात्रियों के बेतरतीब ढंग से वाशिंग पिट में जाकर ट्रेन में चढ़ने जैसी घटनाओं को नियंत्रित करने का इन्तजाम किया। उस अप्रत्याशित भीड़ के एकत्र होने के दौरान सहरसा स्टेशन के आसपास फैली गन्दगी से अलग समस्या उत्पन्न हो गई थी।
बाहर काम करने वाले बिहारियों का दिवाली और छठ में घर आना और पूजा के बाद वापस काम पर जाना हर साल होने वाली घटना है। इन आने-जाने वालों में हर तरह के कामगर होते हैं। सरकारी नौकरी और स्थायी किस्म के काम करने वाले लोग भी होते हैं। उनका आना-जाना दिवाली, छठ अपने गाँव में मनाने के आकर्षण में होता है। पर मजदूरों का दिल्ली-पंजाब जाना आमतौर पर छठ के बाद होता है जब पंजाब में धान की कटाई में रोजगार मिलने की पक्की सम्भावना होती है। लेकिन इस साल दिवाली के पहले दशहरा के तुरन्त बाद भीड़ उमड़ पड़ी। इसका सम्बन्ध बाढ़ में सर्वस्व गँवा देने से है। गाँव में खाने के लाले पड़े हैं और बाढ़ की वजह से कामकाज मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं बची। ऐसे में घर रहने का कोई उपाय नहीं है सिवाय पलायन मजबूरी के।
बिहार के पूर्वी जिले मजदूरों के पलायन के लिये ऐसे भी बदनाम रहा है। इसका एक सूचक यहाँ से चलने वाली ट्रेनों का नामकरण जनसेवा,जन साधारण होना भी है। मजदूरों के पलायन के अलावा यह क्षेत्र बालक और बालिकाओं की ट्रैफिकिंग के लिये भी जाना जाता है। नेपाल और बांग्लादेश की सीमा निकट होने की वजह से सहरसा और कटिहार स्टेशन इन धंधेबाजों के माकूल पड़ता है।
इस बार तो बाढ़ की वजह से पूर्वी बिहार के अधिकतर जिलों में धान की फसल पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। स्थानीय स्तर पर धनकटनी में रोजगार मिलना कठिन है। बाढ़ के बाद बँटने वाली सरकारी राहत एक तो बहुत सारे लोगों को मिली ही नहीं, जिन्हें मिली उन्हें भी इतना कम कि दो जून से अधिक राहत नहीं दे सकती। मुआवजा आदि घोषित सुविधाओं को लेने के लिये सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाना, विभिन्न कागजातों की माँग को पूरा करना और दलालों के माध्यम से घूस देना, हजारों झंझट हैं, उनमें पड़ने से अच्छा मजदूरों के लिये पंजाब जाना है जहाँ धनकटनी उनका इन्तजार कर रही है।
सहरसा स्टेशन के सूत्रों के अनुसार अक्टूबर के आरम्भ से ही जनसेवा एक्सप्रेस में क्षमता से पाँच गुना अधिक यात्री पंजाब जा रहे हैं। रोजाना का औसत आँकड़ा देखें तो रोज 13 से 17 हजार यात्रियों का आँकड़ा होता है। यह बाढ़ की तीव्रता और प्रभाव को नापने का एक पैमाना है। सहरसा से अमृतसर जाने वाली जनसेवा एक्सप्रेस में आरक्षित डब्बे नहीं होते। सभी बोगियाँ जन साधारण के लिये खुली होती हैं। यही स्थिति दिल्ली जाने वाली जनसाधारण एक्सप्रेस की है। इस लिहाज से इन्हें मजदूरों को ढोने वाली ट्रेन कहा जा सकता है।
मजदूर यात्री रास्ते में उतरकर अमृतसर या दिल्ली के अतिरिक्त दूसरे गन्तव्यों की ओर जाते हैं। इन दो ट्रेनों से इस महीने के पहले पखवाड़े में ही केवल सहरसा स्टेशन से लगभग 82 हजार मजदूर दिल्ली-पंजाब जा चुके हैं। ऐसी ट्रेनें सहरसा के बाद खगड़िया, बरौनी जैसे स्टेशनों पर भी रुकती हैं और वहाँ भी मजदूर यात्री इस पर सवार होते हैं। सहरसा के अलावा कटिहार स्टेशन से भी लम्बी दूरी की ट्रेनें चलती हैं। इसलिये मजदूरों केे पलायन का सही आँकड़ा निकालना आसान नहीं हैं। उसका केवल अनुमान किया जा सकता है। रेलवे सूत्रों का अनुमान है कि केवल सहरसा से रोजाना दो से तीन हजार के बीच यात्री पंजाब व हरियाणा के विभिन्न स्टेशनों के लिये ट्रेन पर सवार हुए हैं।
सहरसा के स्थानीय पत्रकार संजय सोनी बताते हैं कि अक्टूबर के पहले सप्ताह में स्थिति यह थी कि प्लेटफार्म पर जो भी ट्रेन लगती, उसे पंजाब वाली ट्रेन समझकर यात्री सवार हो जाते, बार बार घोषणा करके ट्रेन को खाली कराया जाता। जनसेवा और जन साधारणा एक्सप्रेस की हालत यह थी कि वाशिंग पिट में ट्रेनों की धुलाई भी नहीं हो पाती तब तक यात्री सवार हो जाते। यह हालत केवल सहरसा की ही नहीं है। बरौनी और पटना की स्थिति भी दूसरी नहीं है। हालांकि बरौनी से कई स्पेशल ट्रेनें चल रही हैं और पटना में रेलवे का पूरा महकमा लगा है। लेकिन स्टेशनों पर छठ पूजा के बाद वाली भीड़ है, सहरसा की तरह दिवाली के पहले ही भीड़ नहीं उमड़ी।
रेलवे ने इस वर्ष पूजा स्पेशल नामक पचास जोड़ी ट्रेनें चलाई हैं। रेलवे का अनुमान है कि छठ और दिवाली में लगभग 30 लाख यात्री रेलवे की सवारी करते हैं। हालांकि ज्यादातर स्पेशल ट्रेनें साप्ताहिक या सप्ताह में दो बार चलने वाली हैं। रेलवे ने इधर से गुजरने वाली कई दूसरी ट्रेनों का ठहराव भी बढ़ाया है। इन ट्रेनों को बिहार के विभिन्न स्टेशनों से चलाया जा रहा है।
सबसे अधिक स्पेशल ट्रेनें बरौनी स्टेशन से चल रही है। लेकिन पटना और दक्षिण बिहार के दूसरे स्टेशनों से भी ट्रेनें चली हैं। छठ के बाद तो पटना स्टेशन पर इतनी भीड़ आ गई थी कि डीआरएम स्वयं यात्रियों की सुविधाजनक यात्रा के इन्तजामों की देखरेख करते देखे गए। लेकिन इस भीड़ का सम्बन्ध पर्व-त्यौहार से है जबकि सहरसा में उमड़ी भीड़ का सम्बन्ध बाढ़ में हुई बर्बादी से हैं और वह भीड़ लगातार आ रही है।
उल्लेखनीय है कि प्रवासी मजदूरों को बुनियादी सुविधाएँ दिलाने की घोषणा बिहार सरकार ने कई बार की है। लेकिन इस बार जब मजदूरों की अराजक भीड़ ने रेलवे को परेशान कर दिया तब भी राज्य सरकार के अमले को पलायन करने वाले मजदूरों का पंजीकरण करने की सुध नहीं रही। अगर इनका कोई रिकार्ड ही राज्य सरकार के पास नहीं होगा तो कार्यस्थल पर सुविधाएँ दिलाने का काम कैसे होगा, यह सोच प्रशासन के पास नहीं है।
पिछले दिनों ‘बिहारी मजदूरों की पीड़ा’ नामक पुस्तक का विमोचन करते हुए मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने बाहर कमाने जाने वाले मजदूरों का रिकॉर्ड रखने की आवश्यकता को स्वीकार किया और इसके लिये जरूरी इन्तजाम करने का आश्वासन दिया था। पर मजदूर पलायन के लिये बदनाम मौसम में इसका कोई इन्तजाम नहीं है। याद रहे कि अन्तरराज्य प्रवासी मजदूर अधिनियम के अन्तर्गत मिलने वाली सुविधाएँ बिहारी मजदूरों को शायद ही कभी मिल पाती है। अपने नागरिकों को इसके अन्तर्गत सुविधाएँ दिलाने में राज्य प्रशासन ने कभी दिलचस्पी नहीं ली।
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