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21वीं सदी में विकट चुनौती बनकर उभरे जल संकट के एक रूप भूजल स्तर में गिरावट ने भारत की कृषि और किसानों पर गंभीर चोट करना आरम्भ कर दिया है। देश के कुछ राज्यों की हरित क्रान्ति की सफलता को दोहराने के लिये अन्य राज्यों के किसानों द्वारा भूजल से सिंचाई की व्यवस्था उन्हें तीन दशक में ही किसान से मजदूर बनाने लगी है। यह सब दिनों-दिन भूजल स्तर के नीचे जाने के फलस्वरूप नलकूपों की गहराई बढ़ाने में हो रहे खर्च एवं सिंचाई के लिये पानी की कमी के चलते फसलों के सूखने से किसानों के समक्ष उत्पन्न भुखमरी की स्थिति के कारण हो रहा है।
ऊपर वर्णित परिस्थितियों की बारंबारता में 21वीं सदी के पहले दशक में आई तेज़ी के कारण झारखण्ड राज्य के किसानों में मजदूरी से पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। यहाँ हम गंगा के उपजाऊ मैदान में शुमार किये जाने वाले झारखण्ड राज्य के साहिबगंज जिले के 6500 हेक्टेयर क्षेत्रफल में सदियों से खेती बाड़ी से खुशहाल जीवन बिताते आ रहे उन हजारों किसानों की स्थितियों की कहानी बयाँ कर रहे हैं, जिनके द्वारा 1990 के दशक में सिंचाई के लिये अपनाई गई भूजल प्रणाली के बढ़ते खर्च से तंग आकर, वे स्वयं खेती छोड़कर मजदूरी करने पर मजबूर हो गये।
दरअसल सदियों से राजमहल पहाड़ियों से निकलने वाले पहाड़ी झरनों, तालाबों, कुँओं तथा मानसून की वर्षा के पानी से सिंचाई करते आ रहे स्थानीय किसानों को वर्ष 1990 से सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर पंजाब, हरियाणा की तरह ही खेती करने के लिये प्रोत्साहित किया जाने लगा। नलकूप, विद्युत और डीजल मोटर, उर्वरक, उन्नत बीज आदि सुविधाओं के लिये किये जाने वाले निवेश के लिये लगभग शून्य ब्याज दर पर सहकारी और ग्रामीण बैंकों ने किसानों को लोन दिया। एक तरह से मुफ्त में मिली इन सुविधाओं की बदौलत साहिबगंज जिले के किसानों ने पहली बार धरती के पानी से सिंचाई की शुरूआत की। सरकार द्वारा प्रायोजित इस कृषि के लिये 1992 तक किसानों को प्रोत्साहित किया गया, फिर सरकार ने किसानों को अपने पैरों पर खड़ा होने के गुर बताये।
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वर्ष 2000 आते-आते किसानों के समक्ष 5 साल पुरानी समस्या अधिक भयावह रूप में प्रकट हुई। इसका भी समाधान किसानों ने 10 फुट गहराई और बढ़ाकर 2000 रूपये अतिरिक्त लगाकर किया। वर्ष 2005 आते-आते स्थिति यह हो गई कि 50 फुट गहरे नलकूप भी खेतों को पानी उपलब्ध कराने में अक्षम हो गये। इधर साल दर साल सिंचाई के लिये नलकूपों को उखाड़ने और अधिक गहरा गाड़ने से बढ़े खर्च एवं इस दौरान पानी की कमी से नष्ट हुई फसलों के परिणामस्वरूप सैकड़ों किसान भुखमरी की कगार पर पहुँच गए। हाजीपुर, कोदरजन्ना, महादेवगंज, सकरीगली, रामपुर, राजमहल, उधवा क्षेत्र के सैकड़ों किसानों ने खेती छोड़ मजदूरी करना आरम्भ कर दिया। वहीं नलकूपों की गहराई बढ़ाने में सक्षम किसानों ने वर्ष 2000 की तुलना में 1500 अतिरिक्त यानी 4,500 रूपये खर्च कर नलकूपों की गहराई 60 फुट कर दी। वर्ष 2010 में नलकूपों को 70 फुट गहरा करने में किसानों को 2005 की तुलना में 2500 रूपये अधिक खर्च करने पड़े।
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तालिका – 1 | ||||||
वर्ष | नलकूपों की संख्या | नलकूपों की गहराई | नलकूप लगाने का खर्च | 5 वर्ष उपरांत उखाड़ कर गाड़ने में लगा अतिरिक्त खर्च | समस्त नलकूपों को गड़वाने में आया खर्च | गहराई बढ़ाने में प्रत्येक 5 साल पर किसानों द्वारा किया गया खर्च |
1990 | 4000 | 30 फीट | 1000 रु. सरकारी अनुदान | शून्य | 4000000 रु. सरकारी अनुदान | शून्य |
1995 | 3800 | 40 फीट | 1000 | 1000 | 3800000 | 3800000 |
2000 | 3500 | 50 फीट | 3000 | 2000 | 10500000 | 7000000 |
2005 | 3100 | 60 फीट | 4500 | 1500 | 13950000 | 4650000 |
2010 | 2800 | 70 फीट | 7000 | 2500 | 19600000 | 7000000 |
कुल योग |
| 22450000/- | ||||
नोट : लघु सिंचाई विभाग एवं किसानों से ज्ञात जानकारी के आधार पर तैयार की गई |
आँकड़ों से स्पष्ट है कि 1995 से 2010 के बीच अपनी कमाई के दो करोड़ चौबीस लाख पचास हजार रूपये नलकूपों की गहराई बढ़ाने में खर्च करने के बावजूद सिंचाई के लायक मनमाफिक पानी न मिलने से 1000 से ज्यादा नलकूप बेकार हो गए जिसके चलते सैकड़ों किसान खेती छोड़ मजदूरी करने चले गए।
एक तरफ जहाँ भूजल के गिरते स्तर के कारण किसान खेती छोड़ मजदूरी करने लगे हैं। वहीं जिले में होने वाली सालाना 1200 मि.मी. वर्षाजल को बड़े छोटे तालाबों एवं बाँधों के जरिये रोक कर किसानों को सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध कराने का कोई सार्थक प्रयास नहीं हो रहा है और स्वयं किसान भी इस दिशा में कोई पहल नहीं कर रहे हैं। यदि इस दिशा में कार्य किया जाए तो खेती किसानी की बदहाली दूर हो सकती है। संपर्क विपिन कुमार, शोध छात्र, स्नातकोत्तर अर्थशास्त्र विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर बिहार। मो.: 09006570551
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