अथाह समुद्र के खारे पानी में और धरती पर बहने रुकने वाले मीठे पानी में रहने वाली मछलियों का अपना एक अद्भुत संसार है। यह संसार हमारे संसार के लिए कितना जरूरी है, अभी इसका भी कोई ठीक अंदाज नहीं लग पाया है। सागर से लेकर एक छोटे-से पोखरे तक की मछली केवल मछली होने के नाते भी संरक्षणीय है, पर जब वह समाज के एक हिस्से के जीवन, उनकी थाली का भी अंग हो तो उसकी चिंता करने का दृष्टिकोण बिलकुल दूसरा हो जाता है। मछली बहुल बंगाल जैसे क्षेत्रों में मछली ब्राह्मण समाज के लिए ‘तोरी’ की तरह ‘जल तोरी’ हो जाती है और सुहाग का मंगल चिन्ह भी। मछली न खाने वाले समाजों ने भी इसे मंगलमय माना है। भगवान के श्रृंगार में उनके काम का कुंडल मछली के आकार का ही बनाया जाता है। उत्तर प्रदेश कोई तटवर्ती राज्य नहीं है, आबादी का बड़ा हिस्सा मछली नहीं खाता, फिर भी राज्य शासन की मुद्रा में दो मछलियां सुशोभित हैं, क्योंकि ये मंगल चिन्ह हैं।
मछली के मामले में हमारा देश दुनिया में सातवें और नौवें स्थान के बीच झूलता रहता है। देश के कोई 10 करोड़ लोग मछली खाते हैं। 53.8 लाख मछली पकड़ने और पालने के पेशे में हैं, जिनमें 32.8 लाख लोग तटवर्ती के 30 प्रतिशत केरल में हैं, उसके बाद तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र का स्थान है।
समुद्र के खारे पानी के अलावा मीठे पानी में मछली पालन के मामले में हम दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध माने जाते हैं। देश की प्रमुख नदियां, सहायक नदियां, नहरें आदि लगभग 140,000 किमी क्षेत्र में फैली हुई हैं। झील और दूसरे जलाशय 29 लाख हेक्टेयर जमीन में हैं। इनके अलावा मछली पालन के योग्य कृषि भूमि लगभग 16 लाख हेक्टेयर के क्षेत्र में है जिसमें से 38 प्रतिशत में या 6 लाख हेक्टेयर में मछली पाली जा रही हैं।
देश में मछली का कुल उत्पादन लगभग 26 लाख टन होता है मांग तो इससे कहीं ज्यादा, लगभग 1 करोड़ टन की होगी मीठे पानी में मछली उत्पादन 1971 में 6 लाख 90 हजार टन थी जो 1981 में बढ़कर 9 लाख 50 हजार टन हुआ। इस बढ़ोतरी का श्रेय मछली पालन केंद्रों को जाता है। मछलीपालन केंद्रों और मीठे पानी के मछली उत्पादन के विकास की एक योजना केंद्र सरकार ने विश्व बैंक की मदद से चलाई थी। देश के 111 जिलों में ‘मत्स्य विकास केंद्र’ बनाए गए हैं। इस परियोजना के अंतर्गत मछली का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1973-74 में 50 किलोग्राम से बढ़कर 1978-79 में 582 किलोग्राम और 1981-82 में 730 किलोग्राम हो गया। लेकिन इस उल्लेखनीय बढ़ोतरी के कारण नदियों और बांधों में मछली उत्पादन के कम होने के तथ्य पर परदा पड़ा हुआ है। नदियों में बढ़ते जलप्रदूषण और बांधों के कारण मछलियों की दुर्गति बेहद बढ़ रही है। वहां मछली उत्पादन जरूर ही घट रहा होगा, पर सरकार के पास उसका कोई आंकड़ा नहीं है।
मछली के मामले में हमारा देश दुनिया में सातवें और नौवें स्थान के बीच झूलता रहता है। देश के कोई 10 करोड़ लोग मछली खाते हैं। 53.8 लाख मछली पकड़ने और पालने के पेशे में हैं, जिनमें 32.8 लाख लोग तटवर्ती के 30 प्रतिशत केरल में हैं, उसके बाद तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र का स्थान है।
समुद्र के खारे पानी के अलावा मीठे पानी में मछली पालन के मामले में हम दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध माने जाते हैं। देश की प्रमुख नदियां, सहायक नदियां, नहरें आदि लगभग 140,000 किमी क्षेत्र में फैली हुई हैं। झील और दूसरे जलाशय 29 लाख हेक्टेयर जमीन में हैं। इनके अलावा मछली पालन के योग्य कृषि भूमि लगभग 16 लाख हेक्टेयर के क्षेत्र में है जिसमें से 38 प्रतिशत में या 6 लाख हेक्टेयर में मछली पाली जा रही हैं।
देश में मछली का कुल उत्पादन लगभग 26 लाख टन होता है मांग तो इससे कहीं ज्यादा, लगभग 1 करोड़ टन की होगी मीठे पानी में मछली उत्पादन 1971 में 6 लाख 90 हजार टन थी जो 1981 में बढ़कर 9 लाख 50 हजार टन हुआ। इस बढ़ोतरी का श्रेय मछली पालन केंद्रों को जाता है। मछलीपालन केंद्रों और मीठे पानी के मछली उत्पादन के विकास की एक योजना केंद्र सरकार ने विश्व बैंक की मदद से चलाई थी। देश के 111 जिलों में ‘मत्स्य विकास केंद्र’ बनाए गए हैं। इस परियोजना के अंतर्गत मछली का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1973-74 में 50 किलोग्राम से बढ़कर 1978-79 में 582 किलोग्राम और 1981-82 में 730 किलोग्राम हो गया। लेकिन इस उल्लेखनीय बढ़ोतरी के कारण नदियों और बांधों में मछली उत्पादन के कम होने के तथ्य पर परदा पड़ा हुआ है। नदियों में बढ़ते जलप्रदूषण और बांधों के कारण मछलियों की दुर्गति बेहद बढ़ रही है। वहां मछली उत्पादन जरूर ही घट रहा होगा, पर सरकार के पास उसका कोई आंकड़ा नहीं है।
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