वास्तव में भूमि एवं जल के वैज्ञानिक प्रबंध से व्यर्थ बहने वाली मिट्टी और पानी का संरक्षण संभव है। इससे न केवल कृषि एवं बागवानी उत्पादन में वृृद्धि सम्भव है बल्कि बाढ़ के प्रकोप को भी नियंत्रित किया जा सकता है। यही नहीं बल्कि कृषि के लिये भगवान के भरोसे रहकर कुछ न कर पाने की स्थिति भी समाप्त हो जाती है। इन तमाम उपायों से प्राकृतिक स्रोतों से वर्ष भर पानी की उपलब्धता भी बनी रहती है।
भारत का करीब 25 प्रतिशत क्षेत्र पर्वत शृंखलाओं से घिरा हुआ है। इसमें पश्चिमी घाट, सतपुड़ा, विन्ध्यांचल, अरावली हिमालय और शिवालिक पर्वत की शृंखलाएं आती हैं। हिमालय और शिवालिक पर्वत शृंखलाएं भौगोलिक रूप से स्थिर नहीं हैं और 500 से लेकर 9 हजार मीटर तक की ऊँचाई सहित उत्तर-पश्चिम से लेकर उत्तर-पूर्व तक फैली हुई हैं। हिमालय क्षेत्र में औसतन हर दस कि.मी. की दूरी पर भूमि कटाव पाये जाते हैं।हमारे देश में करीब 80 प्रतिशत कृषि क्षेत्र असिंचित है हालाँकि यही वह क्षेत्र है जिसमें सर्वाधिक वर्षा होती है। इसमें से 20 प्रतिशत बरसाती पानी व्यर्थ में ही बह जाता है और उसका कोई उपयोग नहीं होता बल्कि वह आगे जाकर बाढ़ के रूप में विनाश करता है। प्रबंध तकनीक के माध्यम से इस पानी का उपयोग न किये जाने के कारण ही यह दुष्परिणाम सामने आता है। जबकि जल संसाधनों का वैज्ञानिक उपयोग करने से ग्रामीण क्षेत्रों में उसका अधिकाधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। बरसाती पानी के बहने से खनन वाले क्षेत्रों में भू-स्खलन की गति असामान्य रूप से बढ़ जाती है और फसलों का उत्पादन भी प्रभावित होता है। अनेक क्षेत्रों में 1600-1700 मिलीमीटर वर्षा होने के बावजूद किसान वर्ष भर में एक ही फसल ले पाते हैं क्योंकि उन्हें पूरी तरह वर्षा के पानी पर निर्भर रहना पड़ता है।
भारत में प्राकृतिक संसाधनों का गलत ढंग से दोहन करने के कारण पहाड़ नंगे हो गये, इससे मिट्टी का क्षरण होने लगा। इस सबसे पारिस्थितिकी असंतुलन पैदा हो गया। लगभग दस वर्ष पूर्व किये गये एक अध्ययन के अनुसार प्रतिवर्ष 126-35 टन प्रति हेक्टेयर मिट्टी बह जाती है जोकि पूरे देश में प्रतिवर्ष 53,340 लाख टन है। नदी घाटी क्षेत्रों और झूम खेती वाले क्षेत्रों में प्रति वर्ष 40 टन मिट्टी प्रति हेक्टेयर के अनुपात में बह जाती है, शुष्क मरुस्थली क्षेत्रों में यह करीब 80 टन प्रति हेकटेयर के हिसाब से बह जाती है। इससे धरती बंजर होती चली जाती है और धरती पर रहने वाले समूचे जीव जगत के लिये संकट बनती जा रही है। वनस्पतियों, पेड़-पौधों और जानवरों आदि की अनेक प्रजातियों इसके कारण या तो विलुप्त होती जा रही हैं या फिर विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन सबको बचाने के लिये पानी एवं मिट्टी, दोनों के ही वैज्ञानिक ढंग से संरक्षण की आवश्यकता है आबादी के बढ़ते हुए दबाव को देखते हुए यह और भी अधिक आवश्यक हो गया है।
बढती आबादी का भूमि और पानी दोनों पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है। इसके साथ ही पशुओं की आबादी भी बढ़ रही है। सन 1951 में प्रति व्यक्ति कृषि-भूमि 8.32 हेक्टेयर थी जो 1991 में घटकर 0.17 हेक्टेयर रह गयी हालाँकि सिंचित क्षेत्र इस अवधि में 119 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 140 मिलियन हेक्टेयर हो गया। कुल भौगोलिक क्षेत्र 329 मिलियन हेक्टेयर में से 173.7 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र अनुपयोगी होने की प्रक्रिया में है। यह सब पानी और हवा से कटाव, झूम खेती से कटाव और परती भूमि से कटाव के कारण हो रहा है। इसका प्रभाव कृषि के उत्पादन पर पड़ रहा है।
केन्द्रीय भूमि, जल संरक्षण एवं अनुसंधान तथा प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना भारतीय अनुसंधान परिषद के अंतर्गत 1954 में हुई। संस्थान ने देश में 128 मिलियन हेक्टेयर अर्द्ध शुष्क भूमि क्षेत्र, जोकि कुल भौगोलिक क्षेत्र का 38.8 प्रतिशत है, अपने कार्य क्षेत्र में शामिल किया। उत्तरी भारत के मैदानों, मध्य क्षेत्र की ऊँची भूमि और दक्षिण पठार की काली भूमि में भू-संरक्षण पर अनुसंधान कार्य शुरू किया। इसके साथ ही पश्चिम हिमालय और उत्तर के मैदानी क्षेत्रों, शिवालिक क्षेत्र तथा नीलगिरी और पश्चिम घाट क्षेत्र को भी अपने अनुसंधान में शामिल कर लिया। इसके लिये देहरादून, चंडीगढ़ और ऊंटी में केन्द्र स्थापित किये गये। चौथा केन्द्र झूम खेती से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के हल के लिये कोरापुट (उड़ीसा) में स्थापित किया गया है।
पर्वतीय क्षेत्र में संस्थान के सहस्र धारा स्थित चूना पत्थर की खुदाई के कारण बिगड़े पर्वतीय जलग्रहण क्षेत्र की पुनर्स्थापना हेतु 1983 में एक परियोजना प्रारम्भ की थी। परियोजना से पूर्व यह क्षेत्र वीरान और भयानक दिखायी देता था और प्रति 550 टन मिट्टी प्रति हेक्टेयर की गति से बह जाती थी। मलबा पूरी सड़क पर रुकावट बनता रहता है। पी.डब्ल्यू.डी. को हर वर्ष करीब एक लाख रुपए इस मलबे को हटाने में खर्च करने पड़ते थे। संस्थान ने करीब एक लाख रुपये वार्षिक के बजट में दस वर्ष में पूरे क्षेत्र की तस्वीर ही बदल दी है। 64 हेक्टेयर का यह क्षेत्र आज हरा-भरा हो गया है और मिट्टी के बहाव की मात्रा 8 टन प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर रह गयी है। सहस्रधारा के सैकड़ों बंद स्रोत फिर से बहने लगे हैं।
दून घाटी के जल प्रवाहों को व्यवस्थित करने का भी संस्थान ने कार्य किया और इसमें उसे अच्छी सफलता मिली। सेलाकुई के निकट बांयखाला जल प्रवाह के तटों को व्यवस्थित करने और उनके कटाव को रोकने के लिये घास, द्रुम तथा वृक्ष प्रजातियों को सन 1987 में लगाया गया था। मसूरी पर्वतीय क्षेत्र में नलोता नाला व सहस्रधारा स्थित सीढ़ीदार खेतों के आकार व उनकी वर्तमान दशा का सर्वेक्षण किया गया। यदि इन खेतों पर उचित मृदा, जल व फसल प्रबंध किया जाए तो इनकी उत्पादन क्षमता दो तीन गुनी तक बढ़ सकती है।
दून क्षेत्र में विभिन्न किस्म के फलदार पौधे, चारे व ईंधन के वृक्ष, विभिन्न किस्म की चारा घास तथा कृषि उत्पादन के लिये संस्थान ने जो प्रयास किये, उनके सकारात्मक परिणाम दिखायी देने लगे हैं। इसमें अनुसंधान के अलावा अभियांत्रिकी को भी संस्थान ने एक साथ जोड़ा है जिससे प्रभावी ढंग से विभिन्न किस्म की मिट्टी को उपजाऊ बनाया जा सके। भूमि में निवेश के बिना संरक्षण उपाय संभव नहीं है और यह सब किसानों के संसाधनों पर निर्भर करता है। इससे पहाड़ी क्षेत्रों में भी उत्पादकता में शत-प्रतिशत वृद्धि संभव है।
संस्थान ने हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के बजाड़ गनियार एवं सीहा नामक गाँवों में जल-ग्रहण क्षेत्र प्रबन्ध के आधार पर एक ऑपरेशन अनुसंधान परियोजना 1983 में शुरू की। इसके अंतर्गत वैज्ञानिकों एवं तकनीशियनों ने थोड़े समय में उल्लेखनीय कार्य किये। इसमें भूमि एवं जल संरक्षण कार्य, कृषि अनुपयुक्त पंचायत भूमि पर वृक्षारोपण, कृषि विकास एवं सस्य क्रियाएं आदि के माध्यम से जो कदम उठाये गये उससे वनस्पति-विहीन इस नग्न क्षेत्र को हरा-भरा और उपजाऊ बनाने में बहुत मदद मिली है। इसके साथ ही रबी और खरीफ की उपज में भी वृद्धि हुई है। दोनों गाँवों की करीब 8,800 आबादी के जीवन में इस परियोजना से एक नयी शुरुआत हुई है।
ऊटकमंड केन्द्र के अंतर्गत कर्नाटक राज्य के 175 स्थानों में बासड़ और दतिया की 49 मिलियन हेक्टेयर अर्द्ध-शुष्क जमीन को दतिया केन्द्र के अंतर्गत अनुसंधान परियोजना में शामिल किया गया है।
उन्नत तकनीक प्रसार के अंतर्गत प्रसार परिचालित अनुसंधान परियोजनाएँ फकोट (टिहरी गढ़वाल), सुखोमाजरी (चण्डीगढ़), उना (हि.प्र.), एतमादपुर (आगरा), छजवा (राजस्थान), बजाड़-गनियार तथा सीहा (हरियाणा), नवामोता व रिबाड़ी (गुजरात), जी.आर. अल्सी व जोलादरासी (कर्नाटक) और चिन्नाटेकुर (आन्ध्र प्रदेश) में चल रही है। इनमें लघु एवं सीमांत किसानों को शामिल किया जाता है। उन्नत तकनीक के हस्तांतरण से किसानों को कृषि उपज बढ़ाने में भी मदद मिली जिससे उनके जीवन स्तर में भी पर्याप्त सुधार संभव हुआ।
वास्तव में भूमि एवं जल के वैज्ञानिक प्रबंध से व्यर्थ बहने वाली मिट्टी और पानी का संरक्षण संभव है। इससे न केवल कृषि एवं बागवानी उत्पादन में वृृद्धि सम्भव है बल्कि बाढ़ के प्रकोप को भी नियंत्रित किया जा सकता है। यही नहीं बल्कि कृषि के लिये भगवान के भरोसे रहकर कुछ न कर पाने की स्थिति भी समाप्त हो जाती है। इन तमाम उपायों से प्राकृतिक स्रोतों से वर्ष भर पानी की उपलब्धता भी बनी रहती है।
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