महुआ फूले सारा गाँव

खजुराहो के मंदिरों के सामने झाड़ू से महुआ बटोरता नंदलाल
खजुराहो के मंदिरों के सामने झाड़ू से महुआ बटोरता नंदलाल

सरस मूर्तियों के लिए मशहूर खजुराहो के आसपास महुआ के फूलों को झड़ते देखना एक अलग तरह का अनुभव है। ये फूल आदिवासी समाज के लिए रोजी-रोटी का जरिया भी है। इन फूलों की मादकता और सामाजिक सरोकार खजुराहो के आसपास के गाँवों में महसूस किया जा सकता है। मध्य प्रदेश का मशहूर पर्यटन स्थल खजुराहो आज भी एक गाँव जैसा नजर आता है। खजुराहो से बहार निकलते ही महुआ के फूलों की मादकता महसूस की जा सकती है। अप्रैल से मई के शुरुआती दिनों तक यह अंचल महुआ के फूलों से गुलजार नजर आता है। खजुराहो से टीकमगढ़ या पन्ना किसी तरफ निकले महुआ के पेड़ों की कतार मिलती है जिनके पेड़ों से महुआ का फूल झरता नजर आता है। पेड़ पर महुआ का जो फूल सफेद नजर आता है जमीन पर गिरते ही गुलाबी हो जाता है जिसे हाथ में लेते ही उसकी खुश्बू भीतर तक समां जाती है। सुबह के समय जब खजुराहो के मंदिरों के सामने खड़े महुआ के पेड़ों के नीचे एक व्यक्ती को झाड़ू से इन फूलों का इकठ्ठा करते देखा तो वहा आए विदेशी सैलानी भी खड़े हो गए और उन्होंने भी महुआ के फूलों को हाथ में लेकर अपने गाइड से इनका बोटनिकल नाम पूछना शुरू किया। उत्सुकता बढ़ी तो हरी घास से लेकर सीमेंट की सड़क से महुआ के फूल इकठ्ठा करने वाले नंदलाल से बात की। जिसके मुताबिक खजुराहो के मंदिर परिसर में महुआ के जितने भी पेड़ है फूलो के आने से पहले उनका ठेका दे दिया जाता है। नंदलाल ने यह ठेका लिया था और रोज करीब तीस चालीस किलो वह फूल बटोर कर ले जाता है जिसे सुखाने के बाद करीब बारह रुपए किलों के भाव बेच दिया जाता है।

खजुराहो के बाद जब किशनगढ़ के आदिवासी इलाकों में आगे बढ़े तो गांव-गांव में महुआ के फूलों से लदे पेड़ तो नजर आए ही हर घर की छत पर सूखते हुए महुआ के फूल भी दिखे। बुंदेलखंड में किशनगढ़ का पहाड़ी रास्ता जंगलों से होकर जाता है पर उत्तर प्रदेश के हिस्से में पड़ने वाले बुंदेलखंड के कई जिलों के मुकाबले यह हरा-भरा और ताल तालाब वाला अंचल है। शायद इसलिए यह बचा हुआ है क्योंकि इस तरफ प्राकृतिक संसाधनों की उस तरह लूट नहीं हुई है जैसे उत्तर प्रदेश के हिस्से में पड़ने वाले बुंदेलखंड की हुई है। इस तरफ के रास्तों के किनारे नीम, इमली, पीपल, आम और महुआ जैसे पेड़ है तो छतरपुर पार कर महोबा से आगे बढ़ते ही बबूल ही बबूल नजर आते हैं। खैर इन पेड़ों में भी महुआ का स्थान आदिवासी समाज में सबसे ऊपर है। यह पेड़ बच्चों, बूढ़ों से लेकर मवेशियों तक को भाता है। पिपरिया गांव से बाहर लगे महुआ के पेड़ के नीचे गाय से लेकर बकरियों के झुंड महुआ के फूल चबाते नजर आए। गांव के भीतर पहुँचने पर नंग धडंग एक छोटा बच्चा एक कटोरे में महुआ के सूखे फूलों के बदले सौदागर से तरबूज का टुकड़ा लेता नजर आया। यह ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का दूसरा पहलू देखने को मिला। बचपन में गांव में सेर की माप वाले बर्तन से हाट बाजार में तरकारी से लेकर लकठा, बताशा खरीदते देखा था। पिपरिया गांव में बच्चे से लेकर बूढ़े तक मोटर साइकिल पर आए इस सौदागर को घेरे हुए थे। वह तरबूज साथ लिए था जिसके चलते गांव भर के बच्चे अपने-अपने घर से कटोरे और भगोने में सूखा महुआ लेकर सौदा कर रहे थे। कोई मोलभाव नहीं जितना महुआ उतने वजन का तरबूज काट कर वह सौदागर दे देता था।

यह सब देख कर हैरानी भी हुई और जिज्ञासा भी। इस गांव में पानी का कोई श्रोत नहीं था और एक फसल मुश्किल से हो पाती थी। करीब सत्तर अस्सी परिवार वाले इस गांव के लोगों की आमदनी का जरिया बरसात के जरिए हो जाने वाली एक फसल और नरेगा, मनरेगा योजना में काम के बदले होने वाली आमदनी के साथ महुआ के फुल भी थे। चार पांच सदस्यों एक परिवार के मुखिया और औरत को मजदूरी से साल भर में पांच छह हजार रुपए मिल जाते हैं। इन्द्र देवता मेहरबान हुए चार पांच बोरा अन्न भी हो जाता है पर अप्रैल-मई के दौरान समूचा घर आसपास के महुआ के फूलों को इकठ्ठा करके सुखाता है जिससे चार पांच हजार की अतिरिक्त आमदनी हो जाती है। इस अर्थ व्यवस्था में ऐसे गांव वालों के लिए महुआ कितना उपयोगी है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। गांव के किनारे से लेकर जंगल में लगे महुआ के पेड़ों का गांव के समाज ने बंटवारा भी कर रखा है। जिसका पेड़ पर हक़ है वाही उस पेड़ से फूल भी बटोरेगा। दिन में बारह बजे से तीन चार बजे शाम तक महुआ के फूल बिने जाते हैं क्योंकि शाम ढलते ही जंगली जानवरों का खतरा बढ़ जाता है। आसपास के जिलों में भी महुआ किसानों की अर्थ व्यवस्था का अभिन्न अंग बना हुआ है। पर इस दिशा में न तो कोई वैज्ञानिक पहल हुई है और न ही बाजार के लिए कोई सरकारी प्रयास, छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में इमली ठीक इसी तरह आदिवासी समाज की अर्थ व्यवस्था मजबूत किए हुए है। पर वहां इमली को लेकर सरकार ने कई महत्वपूर्ण योजनायें बनाकर आदिवासियों को वाजिब दाम दिलाने का प्रयास किया था। बस्तर की इमली दक्षिण भारत के चारों राज्यों में पसंद की जाती है। अगर महुआ को लेकर बागवानी विशेषज्ञ और सरकार कुछ नई पहल कर नए उत्पाद के साथ बाजार की व्यवस्था कर दे तो सूखे और भूखे बुंदेलखंड में महुआ आदिवासियों का जीवन भी बदल सकता है।
 

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