काम शुरू करने से पहले इन लोगों ने गाँव की महिलाओं का एक संगठन बनाया। इन लोगों को पता था कि इस कठिन चुनौती को अकेले पार नहीं पाया जा सकता है। नहर खोदने वाली महिलाओं के इस संगठन का नेतृत्व राजकली नाम की एक महिला ने किया। सबसे पहले आम बैठक कर सभी सदस्यों को गाँव की समस्या और उसके निदान के बारे में जानकारी देकर उत्साहित किया गया। काम के बारे में सभी महिलाओं को पहले से ही पता था। योजना के मुताबिक मेहनत मजदूरी करने के बाद जो भी वक्त मिलता था महिलाएँ नहर की खुदाई के काम में लग जाती थीं।
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में लालगंज क्षेत्र की आदिवासी महिलाओं ने जिले के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है।दरअसल यहाँ पर इन महिलाओं ने तीन किलोमीटर लम्बी नहर खोदकर गाँव-घर और खेतों तक पानी पहुँचा दिया है। जंगलों में बेकार बह रहे पानी की धारा का रूख बदलने से यहाँ ना केवल पेयजल की समस्या से निजात मिली है बल्कि इलाके का जलस्तर भी बढ़ चला है।
भूजल स्तर ऊपर आने से बंजर पड़ी जमीनों में जान लौट आई है और इससे खेतों में खड़ी फसलें लहलहाने लगी हैं। महिलाओं की इन नायाब कोशिशों के बदौलत क्षेत्र के किसानों में मुस्कान लौट आई है और वे खुशी के गीत गाने लगे हैं।
सूखे से बेहाल जिन्दगी में पानी की फुहार
जिला मुख्यालय से महज 30 किलोमीटर की दूरी पर है लालगंज ब्लाॅक, विन्ध्याचल की तलहटी में बसा होने के नाते यहाँ पर साल भर जलस्तर सामान्य से नीचे ही रहता है।
सूखा प्रभावित क्षेत्र होने की वजह से हर साल यहाँ गर्मी का मौसम एक आफत बनकर आता है और लोग बूँद-बूँद पानी के लिये तरस जाते हैं।
सूखे से सबसे ज्यादा त्रस्त आदिवासी बाहुल्य गाँव सेमरा आराजी की महिलाओं ने यह कारनामा कर दिखाया है।
बेकार बह रहे पानी को गाँव तक पहुँचाया
महिलाओं ने पहाड़ की तलहटी से निकल रही पानी की धारा को गाँव तक पहुँचाने में सफलता पाई है। तीन किलोमीटर लम्बी नहर खोदकर जंगल में बेकार बह रहे पानी की धारा का रूख उन्होंने गाँव की ओर मोड़ दिया है।
नहर के जरिए खेतों और गाँव को पानी मिलने से लोगों को पानी की समस्या से पूरी तरह से निजात मिल गई है। पर्याप्त मात्रा में पानी मिलने से लोग खेती के अलावा दैनिक कार्यों को भी अंजाम देने लगे हैं।
बेहतर खेती होने से लोगों को भले दिन लौट आने की उम्मीद है। इलाके में हरियाली और खुशहाली लौटाने का श्रेय यहाँ की मेहनत मजदूरी कर दिन गुजारने वाली महिलाओं को जाता है जिन्होंने पिछले तीन सालों से अथक प्रयास कर सफलता की इस कहानी को गढ़ने में कामयाबी हासिल की है।
यही वजह है आज यहाँ के मर्द अपनी जीवन संगिनियों की मिसाल देते नहीं थकते हैं। इलाके में जारी गुनगान से महिलाओं के हौसले बुलन्द हैं।
बंजर जमीनों में हरियाली लौटाने की चाहत
बंजर पड़ी जमीनों में हरियाली लौटाने की चाहत इन लोगों के मन में शुरू से ही थी। क्योंकि पानी की मार का सबसे ज्यादा सामना यहाँ की महिलाओं को ही करना पड़ता था।
वैसे भी पारम्परिक तौर पर जल संग्रह करने का जिम्मा इन्हीं लोगों के सिर पर होता था। मर्दों की बेरूखी और रोज-रोज के झंझट से महिलाएँ परेशान हो चुकी थीं इसलिये महिलाएँ इस समस्या का स्थायी हल चाहती थीं।
महिलाओं को पहाड़ की तलहटी से निकलने वाली इस अमृत जलधारा के बारे में पहले से ही पता था।
महिलाएँ चाहती थीं कि अगर पानी का रूख गाँव की ओर मोड़ दिया जाये तो गाँव की तस्वीर ही बदल सकती है और इस समस्या से हमेशा के लिये छुटकारा पाया जा सकता है और हुआ भी ऐसा ही।
हालांकि इन लोगों को पता था कि यह चुनौती भरा कार्य होगा पर इन लोगों ने अपनी जिद के सामने हार नहीं मानी और खुदाई के काम में लग गईं।
यूँ ही बनता गया कारवाँ
काम शुरू करने से पहले इन लोगों ने गाँव की महिलाओं का एक संगठन बनाया। इन लोगों को पता था कि इस कठिन चुनौती को अकेले पार नहीं पाया जा सकता है। नहर खोदने वाली महिलाओं के इस संगठन का नेतृत्व राजकली नाम की एक महिला ने किया। सबसे पहले आम बैठक कर सभी सदस्यों को गाँव की समस्या और उसके निदान के बारे में जानकारी देकर उत्साहित किया गया। काम के बारे में सभी महिलाओं को पहले से ही पता था। योजना के मुताबिक मेहनत मजदूरी करने के बाद जो भी वक्त मिलता था महिलाएँ नहर की खुदाई के काम में लग जाती थीं। यहाँ पर खुदाई के दौरान किसी भी सदस्य पर दबाव नहीं होता था। जो जब चाहे और जैसे चाहे काम कर सकती थी। बस ध्यान इस बात पर था कि नहर का रूख गाँव की ओर ही होना चाहिए।
3 साल में 3 किलोमीटर का शानदार सफर
झाड़-झंकार, चट्टान व पत्थर तोड़कर नहर निकालने का यह सिलसिला करीब तीन वर्षों तक यूँ ही चलता रहा। दिनों-दिन राहें आसान होती गईं और नहर निर्माण का कार्य पूरा होता गया। आखिरकार नतीजा यही हुआ कि जलधारा भी जंगल छोड़कर नहर के जरिए गाँव तक पहुँच गई। गाँव में नहर का प्रवेश होते ही लोगों में उम्मीद की एक किरण जगने लगी। नतीजतन मर्दों ने भी महिलाओं के इस काम में हाथ बँटाना शुरू कर दिया। मर्दों का साथ मिलने से महिलाएँ उत्साहित थीं और इसी उत्साह के साथ नहर खुदाई का काम जल्द-से-जल्द पूरा कर लिया गया।
बहती धारा से सीखा जल प्रबन्धन का तरीका
महिलाओं के इस प्रयास की बदौलत गाँव और खेतों तक किसी-ना-किसी तरह से पानी तो पहुँच गया। लेकिन ठोस प्रबन्धन के अभाव में पानी बर्बाद होने लगा। इससे इन लोगों को गहरा आघात लगा। लेकिन इस समस्या का भी इन लोगों ने हल ढूँढ निकाला। पानी को पहले सूखे पड़े कुएँ में डाला गया। इससे कुएँ का जलस्तर बढ़ने लगा। जब कुआँ भी भर गया तो इसे बावड़ियों में छोड़ा गया। तालाबों के जलमग्न होने से मवेशियों को पीने का पानी पर्याप्त मात्रा में मिलने लगा और बच्चों को पानी में खेलने का बहाना भी मिल गया।
इसके अलावा जल का संचयन होने से खेतों में पानी पहुँचाने में आसानी भी हुई। इन बावड़ियों के बाद पानी को सूखे खेतों में डाला गया। इससे खेतों में नमी लौटने लगी और घास उगने लगी। इससे मवेशियों को भरपेट चारा भी मिलने लगा।
धीरे-धीरे यहाँ पर पशुपालन का दौर लौट आया। कुएँ और बावड़ियों में पानी भरने के बाद इन लोगों ने सिंचाई कार्य के लिये फाटक प्रणाली को अपनाया। खेतों में सिंचाई के लिये लोग विवेकानुसार फाटक खोलते थे और सिंचाई होते ही फाटक को बन्द कर देते थे।
इस तरह जल की बर्बादी पर पूरी तरह से अंकुश लग गया।
जज़्बे को सबका सलाम
इन महिलाओं के अथक प्रयासों की बदौलत तीन किलोमीटर लम्बी नहर की खुदाई के बाद गाँव तक पानी पहुँच ही गया। महिलाओं की इस कामयाबी से ख़ुश होकर जिला प्रशासन ने भी भरपूर मदद का आश्वासन दिया और नहर के पक्कीकरण के लिये आर्थिक मदद भी दी।
अब इस नहर में बह रहे पानी की धारा के साथ मेहनत और खुशहाली की गाथा गूँजने लगी है। इन महिलाओं के चेहरे पर अब मुस्कान लौट आई है। बेहतर खेती होने से इनके भी सपने अब सच होने लगेंगे।
इन आदिवासी महिलाओं ने कामयाबी की जो मिसाल पेश की है वो वाकई काबिल-ए-तारीफ है। उनके जज़्बे को हम सलाम करते हैं। उम्मीद करते हैं कि देश का हर नागरिक खुद के विकास में अगर इतना योगदान दे तो गाँवों का विकास वाकई सम्भव है तभी इन गाँवों में गाँधी जी के ग्राम स्वराज्य के सपने साकार होने लगेंगे।
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