कृषि प्रधान आजाद भारत के 70 साल बीत चुके हैं। कृषि को ‘निर्माण रूपी व्यवस्था’ के रूप में स्थापित करने वाले किसान वर्ग का अहम हिस्सा ‘महिला किसान’, आज भी अपनी पहचान और अपने अस्तित्व के लिये अंतिम हाशिये पर इंतजार में हैं। 21वीं सदी में भी कृषि क्षेत्र लिंग असमानता के मानसिक रोग से जूझ रहा है। बावजूद इसके कि महिलाओं की मेहनत कृषि में केंद्रीय भूमिका निभाती है। उनकी पहचान या तो श्रमिक या फिर पुरुष किसान के सहयोगी तक ही सीमित समझी जाती है।

विडम्बना है कि इन घरेलू कार्यों को आय की श्रेणी में रखना तो दूर आज हम यह भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि किसान की परिभाषा सही मायने में क्या है? उन्हें ही किसान कहते हैं, जिनकी अपनी जमीन होती है, या जो हल जोतते हैं। कृषि जनगणना (2010-11) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मौजूदा स्थिति में केवल 12.78 प्रतिशत कृषि जोतें महिलाओं के नाम पर हैं। पर सवाल यह है कि क्या यह संख्या अपने आप में अपूर्ण नहीं क्योंकि यह तो सीधे पितृ-सत्तात्मक सोच की अभिव्यक्ति है। विडम्बना ही है कि जहाँ एक ही खेत पर दो पुरुष किसान कहलाते हैं, और वहीं उसी खेत पर काम करती हुई चार महिलाएँ मजदूर।
इसे थोड़ा और गहराई में समझने की आवश्यकता है। जमीन पर स्वामित्व न सिर्फ आर्थिक अपितु सामाजिक परिप्रेक्ष्य से भी व्यक्ति की निर्णय क्षमता के स्तर, आत्मनिर्भता को सीधे असर करता है। कहना कतई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि महिलाओं का जमीन पर अधिकार न होना, उनकी मेहनत, क्षमता, और सर्वांगीण विकास में अवरोध है। परिवार में केवल पुरुष के नाम पर जमीन होने से महिलाओं का निर्णय अक्सर द्वितीय श्रेणी का ही माना जाता है।
85 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ दिन के 4-5 घंटे खेती के काम में मेहनत करती हैं, मगर फिर भी वे किसान नहीं हैं, वास्तविक मालकिन नहीं हैं क्योंकि उनके पास खतौनी (कृषि के मालिकाना हक का दस्तावेज) नहीं हैं। यदि एक परिवार जहाँ पुरुष पलायन कर चुके हैं, वहाँ महिला किसान खेती से जुड़े अहम निर्णय तो लेती हैं, फिर भी यह उन्हें किसान के दर्जे से कोसों दूर रखता है। जिस देश में रोपनी से लेकर कटनी तक एक तिहाई काम महिला किसान करती हो, वहीं उस तक समावेशी कृषि क्यों नहीं पहुँचती? वर्तमान में जहाँ विश्व स्तर पर देश की महिलाएँ सशक्तिकरण के उदाहरण को प्रस्तुत कर रही हैं, चाहे वह विश्व की बड़ी जनसंख्या वाले देश की रक्षा मंत्री हों या फिर देश के सबसे कम लिंगानुपात से कुश्ती में विश्व में देश को ख्याति प्रदान करने वाली खिलाड़ी। आज उस अंतिम हाशिये पर बैठी लाखों महिला किसानों के समावेशी विकास के लिये भी देश को महत्त्वपूर्ण नीतिगत फैसले लेने की आवश्यकता है।
महिला किसान दिवस सकारात्मक पहल
देश में 15 अक्टूबर को ‘महिला किसान दिवस’ मनाया जाना एक सकारात्मक पहल है। महिला किसानों को सामाजिक स्तर पर एक पहचान तो मिलेगी परंतु ऐसे नीतिगत फैसलों की भी आवश्यकता है, जहाँ संवैधानिक रूप से भी महिलाओं को पहचान और महिला किसान को अस्तित्व दिया जाए। कानून में ऐसे प्रावधान को जोड़ने की आवश्यकता है, जहाँ पैतृक जोत जमीन में पत्नी का नाम भी पति के साथ सह-खातेदार के रूप में दर्ज हो।
कृषि से जुड़ी नीति को लैंगिक समानता की सोच के साथ लिखा जाए एवं धरातल पर उसके क्रियान्वयन के दौरान महिला किसानों की जरूरतों को तवज्जो दी जाए। खेती में आज के समय में महिलाओं के पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण तकनीकी ज्ञान की कमी है। आवश्यक है कि किस प्रकार नई तकनीकी के प्रारूप की तैयारी से लेकर जमीन पर क्रियान्वयन जैसे प्रशिक्षण, कृषि ऋण, समर्थन मूल्य, सब्सिडी, फसल बीमा और आपदा क्षति पूर्ति तक महिला किसानों के लिये समान अवसर तथा समानता प्रदर्शित की जाए। किसान समुदाय का आधा तबका इस इंतजार में है कि उसे भी यथार्थ में किसान समझ कर नीतियों का क्रियान्वयन हो।
लेखिका महिला किसानों से संबद्ध मामलों की जानकार हैं।
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